श्रीआचार्यजी महाप्रभु का स्वरूप, धर्म और उनके सेवक, यद्यपि अलौकिक हैं, फिर भी उनका जन्म लोक में हुआ है। इससे यह संदेह उत्पन्न होता है कि लौकिक जन्म आदि तो कर्म के अधीन होते हैं। ऐसे में, सामान्य लोकजन की भांति श्रीआचार्यजी और उनके सेवकों के जन्मादि क्यों प्रतीत होते हैं? इस संदेह को दूर करने के लिए श्रीगुसाईंजी, श्रीआचार्यजी महाप्रभु के स्वरूप को ठीक वैसे ही प्रस्तुत करते हैं जैसा उनका है। साथ ही जिस प्रकार उनका प्राकट्य हुआ, वह भी स्पष्ट करते हैं। इसके अतिरिक्त, श्रीआचार्यजी महाप्रभु प्रकट होकर जो-जो कार्य किए, वह सब अपने सेवकों को बताते हैं।
श्रीमद-वृंदावनचंद्र श्रीकृष्ण ने भक्ति-रसिकों के लिए, आनंद के समूह जैसे रास आदि लीलाओं के अमृत-सागर को प्रकट किया। जिससे सर्वदा उनके अंग-प्रत्यंग इस आनंद में आप्लावित होते हैं। ऐसी ही अनुभूतियों के लिए, उन्होंने जिन लीलाओं का अनुभव करवाने का उद्देश्य रखा, उनके अनुसार ही रूप धारण किया। श्रीकृष्ण की इसी आज्ञा और अति करुणा से, वे भूमिपर मनुष्य-रूप में अवतरित हुए। मैं उसी अग्नि की शरण में जाता हूं।
हे देव, हे अग्निस्वरूप! यदि आप या भूतल पर प्रकट न हुए होते तो वेदों में वर्णित मार्ग की सरणी दैवी सृष्टि में ही प्रकट होती। किंतु श्रीमहादेव द्वारा बताए गए असत् मार्ग के अंधकार के कारण, ये जीव अंधे के समान हो जाते। श्रीनंदनंदन श्रीकृष्ण को किसी भी प्रकार से प्राप्त नहीं कर पाते, और अपने श्रीहरि रूप फल से रहित हो जाती यह दैवी सृष्टि, जो तब व्यर्थ ही हो जाती।
न हि-अन्य:-वाक्-अधीशात् श्रुति-गण-वचसाम् भावम्-आज्ञातुम्-ईष्टे यस्मात् साध्वी-स्वभावम् प्रकटयति वधू:-अग्रत: पत्यु:-एव ॥ तस्मात् श्रीवल्लभ-आख्य त्वत्-उदित-वचनात् अन्यथा रूपयन्ति भ्रान्ता ये ते निसर्ग-त्रिदश-रिपु-तया केवल-अन्ध-तमो-गा: ॥ ३ ॥
न ह्यन्यो वागधीशाच् छ्रुतिगणवचसां भावम् आज्ञातुम् ईष्टे यस्मात् साध्वी स्वभावं प्रकटयति वधूर् अग्रत: पत्युरेव ॥ तस्माच् छ्रीवल्लभाख्य त्वदुदितवचनाद् अन्यथा रूपयन्ति भ्रान्ता ये ते निसर्गत्रिदशरिपुतया केवलान्धन्तमोगा: ॥ ३ ॥
वाणी के स्वामी के अतिरिक्त, अन्य कोई भी श्रुति-वचनों के भाव को जानने में सक्षम नहीं है। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पति के सम्मुख ही अपने आशय को प्रकट करती है। अतः हे श्रीवल्लभाचार्य! जो लोग आपके वचनों को छोड़कर वेदों के अर्थ को अन्यथा व्याख्या करते हैं, वे अपने स्वभाव से ही असुरप्रकृति के कारण भ्रमित होकर केवल अंधकार को प्राप्त होते हैं।
हे अग्निस्वरूप! भूतल पर प्रकट होकर आपने श्रीहरि के चरणकमल की सेवा के लिए जो मार्ग प्रकट किया है, वह निश्चित रूप से अपने और भक्तों के लिए ही प्रकट किया गया है। मैं इसे स्वीकार करता हूं। क्योंकि इस मार्ग में स्थित भक्त यदि किसी वस्तु को, किसी भी प्रकार से, कहीं भी अर्पण करना चाहे, तो उस वस्तु को श्रीगोपीजनवल्लभ अपने सुंदर हास्ययुक्त मुखकमल में अंगीकार करते हैं।
उष्णत्व-एक-स्वभाव:-अपि अति-शिशिर-वच:-पुञ्ज-पीयूष-वृष्टीर् आर्तेष्वत्युग्र-मोह-असुर-नृषु युगपत् तापम्-अपि अत्र कुर्वन् ॥ स्वस्मिन् कृष्ण-अस्यताम् त्वम् प्रकटयसि च नो भूत-देवत्वम्-एतद् यस्मात् आनन्ददं श्रीव्रजजन-निचये नाशकम् च असुर-आग्ने: ॥ ५ ॥
उष्णता का यह स्वभाव है कि वह दीनों पर शीतल वचनरूप अमृतवर्षा करता है, और साथ ही साथ बड़े मोहवाले असुरों पर ताप उत्पन्न करता है। आप अपने भीतर श्रीकृष्ण के मुखकमल का प्राकट्य करते हैं; किन्तु अग्नि-स्वरूप को प्रकट नहीं करते। इसका कारण यह है कि आपका स्वरूप व्रजजनसमूह में आनंद का संचार करता है और असुर-अग्नि का नाश करता है।
आम्नाय-उक्तम् यत्-अम्भ: भवनम्-अनलत:-तत् च सत्यं विभो! यत् सर्ग-आदौ भूत-रूपात् अभवत् अनलत: पुष्करम् भूत-रूपम् ॥ आनन्द-एक-स्वरूपात् त्वत्-अधिभु यत् अभूत् कृष्ण-सेवा-रस-अब्धि: च आनन्द-एक-स्वरूपस् तद्-अखिलम् उचितम् हेतुसाम्यं हि कार्ये ॥ ६ ॥
वेदों में अग्नि से जल के उत्पन्न होने की बात कही गई है, जो सत्य है। हे प्रभो! सृष्टि के आरंभ में जैसे भूतस्वरूप अग्नि से भूतस्वरूप जल की उत्पत्ति हुई, उसी प्रकार इस भूतल पर, आनंदस्वरूप आपसे, यह श्रीकृष्ण-सेवा स्वरूप रससागर आनंदस्वरूप ही प्रकट हुआ। यह उपयुक्त है क्योंकि कार्य में कारण की समानता होना स्वाभाविक है।
स्वामिन्! अग्निस्वरूप आचार्यवर्य! आपके क्षणभर के सन्निधान से, कृपा करके भक्तों के प्राणों में प्रिय श्रीहरि के मुखकमल को देखने की इच्छा से जो ताप उत्पन्न होता है, वह तो उचित ही है। परंतु, श्रीहरि के मुखकमल को देखकर भी जो विशेष रूप से अधिक ताप उत्पन्न होता है, यह वास्तव में आश्चर्यजनक है!
अज्ञान-आदि-अन्धकार-प्रशमन-पटुता-ख्यापनाय त्रिलोक्याम् अग्नित्वं वर्णितं ते कविभि:-अपि सदा वस्तुत: कृष्ण:-एव ॥ प्रादुर्भूत: भवान् इति अनुभव-निगम-आदि-युक्त-मानै:-अवेत्य त्वाम् श्रीश्रीवल्लभ-इमे निखिल-बुध-जना: गोकुलेशं भजन्ते ॥ ८ ॥
अज्ञानाद्यन्धकार-प्रशमनपटुता-ख्यापनाय त्रिलोक्याम् अग्नित्वं वर्णितं ते कविभिरपि सदा वस्तुत: कष्णएव ॥ प्रादुर्भूतो भवान् इत्यनुभव-निगमाद्युक्त-मानैर् अवेत्य त्वां श्रीश्रीवल्लभेमे निखिलबुधजना: गोकुलेशं भजन्ते॥८॥
इस भूतल पर पंडितों ने आपको अग्नि-स्वरूप केवल अज्ञानरूप अंधकार को दूर करने का चातुर्य प्रकट करने के लिए ही माना है। वास्तव में, आप श्रीकृष्ण ही प्रकट हुए हैं। ऐसा अनुभव और शास्त्रादि के प्रमाणों के आधार पर जानकर, हे श्रीवल्लभाचार्य! सभी विद्वान आपको गोकुलेश के रूप में ही पहचानते हैं और भजते हैं।