श्रीवल्लभाष्टकम् - श्रीगोकुलनाथजी कृत टीका
श्रीवल्लभाष्टक की टीका, जिसे श्रीगोकुलनाथजी महाराज द्वारा लिखा गया है। इसमें श्रीवल्लभाचार्यजी महाप्रभु के आध्यात्मिक स्वरूप, धर्म और प्राकट्य की विस्तृत व्याख्या की गई है।
मङ्गलाचरण
भावार्थ
श्रीगोकुलनाथजी कहते हैं कि श्रीगुसांईजी के चरणारविंद की रज ने मेरे मन को चंचल कर दिया। इसी प्रेरणा से, श्रीगुसांईजी द्वारा वर्णित श्रीआचार्यजी महाप्रभु के आठ श्लोकों की टीका करने के लिए मैं प्रवृत्त हुआ। वे कहते हैं कि जब यह टीका पूरी हो जाएगी, तब हम श्रीगुसांईजी के चरणकमलों को विनम्रता पूर्वक नमन करेंगे। इसी विश्वास के साथ मैंने टीका का आरंभ किया है।
अब चर्चा करते हैं कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु का स्वरूप, धर्म और उनके सेवक, यद्यपि अलौकिक हैं, फिर भी उनका जन्म इस संसार में हुआ है। इससे यह प्रश्न उठता है कि लौकिक जन्म आदि तो कर्म के अधीन होते हैं। ऐसे में, क्या कारण है कि श्रीआचार्यजी और उनके सेवकों का जन्म सामान्य लोगों की तरह प्रतीत होता है? इस सन्देह को दूर करने के लिए श्रीगुसांईजी, श्रीआचार्यजी महाप्रभु के स्वरूप को यथावत प्रस्तुत करते हैं और उनके प्राकट्य की विधि को भी स्पष्ट करते हैं। साथ ही, श्रीआचार्यजी महाप्रभु के प्रकट होने के पश्चात किए गए कार्यों का विवरण भी अपने सेवकों को प्रदान करते हैं।
श्लोक १
शश्वत् – निरंतर; श्रीमद्-वृन्दावनेन्दु-प्रकटित-रसिकानन्द-सन्दोहरूप-स्फूर्जद्-रासादि-लीलामृत-जलधि-भराक्रान्त-सर्व: – श्रीवृन्दावन के चन्द्र के द्वारा प्रकटित रसिक भक्तों के आनंद के सन्दोहरूप से विस्तरित होती रास आदि लीला के अमृतसमुद्र से आप्लावित सब; अपि – हां; सन् – हो जाने पर; आत्मानुभाव-प्रकटनहृदयस्य: – अपने अनुभव को प्रकट करने वाले मन वाले; तस्य – उसके; एव – ही; आज्ञया – आज्ञा से; भूमौ – भूतल पर; य: – जो; अतिकरुण: – अति दयावान; मनुष्याकृति: – मनुष्य की आकृति वाले; तं – उसे; हुताशं – अग्नि को; प्रपद्ये – शरणागत होता हूं
भावार्थ
श्रीमद-वृंदावनचंद्र श्रीकृष्ण ने भक्ति-रसिकों के लिए, आनंद के समूह जैसे रास आदि लीलाओं के अमृत-सागर को प्रकट किया। जिससे सर्वदा उनके अंग-प्रत्यंग इस आनंद में आप्लावित होते हैं। ऐसी ही अनुभूतियों के लिए, उन्होंने जिन लीलाओं का अनुभव करवाने का उद्देश्य रखा, उनके अनुसार ही रूप धारण किया। श्रीकृष्ण की इसी आज्ञा और अति करुणा से, वे भूमिपर मनुष्य-रूप में अवतरित हुए। मैं उसी अग्नि की शरण में जाता हूं।
टीका
श्रीआचार्यजी महाप्रभु के स्वरूप के विषय में कहा गया है कि श्रीवृन्दावन, जो अखिल शोभा से युक्त है और जहां लक्ष्मीजी सदा वास करती हैं, अथवा जो व्रजभक्तों से युक्त है, उसके चन्द्रमा स्वरूप पूर्णपुरुषोत्तम हैं। इसी कारण वृन्दावन अलौकिक है। क्यों? लौकिक वन के अधिपति लौकिक चन्द्रमा जैसे उस वन को आनंद प्रदान करते हैं, उसी प्रकार इस अलौकिक वृन्दावन के चन्द्रमा स्वरूप, रसपूर्ण पूर्णपुरुषोत्तम, इस वन को आनंद से भर देते हैं। वे वेणुनाद के द्वारा हर स्थान पर स्वरूपामृत का संचार कर सदा रस प्रकट करने वाले, चन्द्रमा स्वरूप पूर्णपुरुषोत्तम ही हैं। इसी आनंद के कारण श्रीआचार्यजी महाप्रभु का सम्पूर्ण अस्तित्व, भीतर और बाहर, आनंद में डूबा हुआ है।
“रासादिक लीला” को “अमृतसमुद्र” कहा गया है क्योंकि यह अमृतरस अत्यंत मधुर है, मृत्यु और अन्य दोषों को दूर करता है और स्वर्ग को भी पवित्र बनाता है। यह लीला न केवल अत्यंत मीठी है, बल्कि लौकिक शरीर से मुक्ति देकर अलौकिक अमर देह की प्राप्ति कराती है। समुद्र की तरह यह अथाह और उछलती तरंगों से युक्त है। इसी प्रकार, रासादिक लीला में भावनाओं की तरंगें उठती हैं, जिससे इसे अमृतसमुद्र कहा गया है। इस अमृत के समुद्र की ज्वार से युक्त हर अंग, श्रीआचार्यजी महाप्रभु के स्वरूप को प्रकट करते हैं। उन्होंने सदैव इस रस स्वरूप का निरूपण किया है।
यह प्रश्न उठता है कि रसरूप श्रीआचार्यजी महाप्रभु का लोक में प्राकट्य कैसे संभव है। यह कहा गया है कि श्रीआचार्यजी कर्म के अधीन नहीं हैं, बल्कि श्रीठाकुरजी की इच्छा के अधीन हैं। उनकी आज्ञा से ही श्रीआचार्यजी का प्राकट्य हुआ। श्रीठाकुरजी ने इच्छा की कि उनकी लीलाओं को जानकर सभी जीव लीलासृष्टि में आएं। केवल वही इस लीला को प्रकट कर सकता है, जो उसकी अनुभूति कर चुका हो। इसलिए श्रीठाकुरजी ने श्रीआचार्यजी को आज्ञा दी और उनका प्राकट्य हुआ। जैसे पूर्णपुरुषोत्तम प्रकट हुए, वैसे ही श्रीआचार्यजी महाप्रभु का प्राकट्य हुआ। इसलिए उन्हें लौकिक पुरुषों की भांति प्रकट न मानें। ब्राह्मण वेष में उनका प्राकट्य हुआ, क्योंकि ब्राह्मण वर्ण में उत्तम होते हैं और भक्तिमार्ग में प्रशंसनीय माने जाते हैं।
यह भी कहा गया है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु ने रसरूप छोड़कर भूतल पर प्राकट्य क्यों किया। इसका उत्तर यह है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु अत्यंत करुणामय हैं। ठाकुरजी को जीवों के उद्धार की इतनी तीव्र इच्छा थी कि सभी जीव उनकी लीला को जानकर लीलासृष्टि में प्रवेश करें। इसीलिए श्रीआचार्यजी ने अपना रस स्वरूप छोड़कर जीवों के उद्धार के लिए प्राकट्य किया। श्रीठाकुरजी की असीम करुणा से ही श्रीआचार्यजी का प्राकट्य हुआ।
स्वरूप को जाने बिना शरण में क्यों जाएं? यह जानने के लिए, श्रीआचार्यजी महाप्रभु के स्वरूप का वर्णन किया गया है। वे आनंदमय अग्नि स्वरूप और अलौकिक ठाकुर के अधिष्ठाता हैं। श्रीगुसांईजी कहते हैं कि ऐसे श्रीआचार्यजी की शरण में जाने से सभी सिद्धियां प्राप्त होती हैं। यह सब सेवकों को नित्य शरण में जाने का उपदेश है।
इस प्रकार, श्रीआचार्यजी महाप्रभु के स्वरूप और प्राकट्य का कारण, श्रीठाकुरजी की आज्ञा और उनका असाधारण कार्य, जो किसी अन्य से सिद्ध नहीं हो सकता, इन सभी का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है।
श्लोक २
देव! – हे देव; वैश्वानर! – हे वैश्वानर; चेद् – यदि; भवान् – आप; अधिधरणितलं – भूतल पर; न – नहीं; आविर्भूयाद् – प्रकट होते; निगमपथगतौ – वेद के मार्ग पर चलने में; दैवसर्गे – देव सर्ग में; अपि – हां; जाता: – जन्मे हुए; इमे – ये; मनुजा: – मनुष्य; भूतनाथोदिताऽसन्मार्गध्वान्तान्धतुल्या: – असत मार्ग रूप अंधकार से अंधे समान हो जाते हैं; कथमपि – किसी प्रकार से; घोषाधीशं – व्रज के अधिपति को; नैव – नहीं ही; प्राप्नुयु: – प्राप्त कर सकते; निजफलरहिता – अपने फल से रहित; एषा – यह; सृष्टि: – सृष्टि; व्यर्था – अर्थ विहीन; च – ही; भूयात् – हो जाती
भावार्थ
हे देव, हे अग्निस्वरूप! यदि आप या भूतल पर प्रकट न हुए होते तो वेदों में वर्णित मार्ग की सरणी दैवी सृष्टि में ही प्रकट होती। किंतु श्रीमहादेव द्वारा बताए गए असत् मार्ग के अंधकार के कारण, ये जीव अंधे के समान हो जाते। श्रीनंदनंदन श्रीकृष्ण को किसी भी प्रकार से प्राप्त नहीं कर पाते, और अपने श्रीहरि रूप फल से रहित हो जाती यह दैवी सृष्टि, जो तब व्यर्थ ही हो जाती।
टीका
श्रीगुसांईजी कहते हैं, यदि श्रीआचार्यजी भूमिपर प्रकट न हुए होते तो ये दो प्रकार की दैवी सृष्टि—मर्यादामार्ग और पुष्टिमार्ग—व्यर्थ हो जाती। क्यों? क्योंकि यदि वे प्रकट न होते तो इन दोनों के कार्य सिद्ध न होते: पुष्टिमार्ग के साधन और फल का ज्ञान किसी को न होता। यह विचार उठता है कि मर्यादामार्ग तो वेदों में कहा गया है, उसके साधन भी वेदों में बताए गए हैं, तो लोग वेदों के अनुसार साधन करेंगे और इससे मुक्ति प्राप्त होगी। लेकिन श्रीठाकुरजी ने मर्यादामार्ग के साधन और फल का वर्णन किया है, और यदि इनके बारे में सही ज्ञान न हो तो फल की सिद्धि भी न होगी। यह संदेह उठता है कि अन्य लोगों को सही ज्ञान क्यों नहीं होता? इसका कारण यह है कि वेदवाक्यों को लोग अपने मन के अनुसार अर्थ करके व्याख्या करने लगते हैं, जिससे साधन भी अनेक प्रकार के कहे जाने लगते हैं।
इससे अनेक मतों की उत्पत्ति होती है। श्रीमहादेव द्वारा मोहशास्त्र प्रकट किए गए, जिसमें लोगों ने अपने मन के अनुसार अर्थ करके मर्यादामार्ग के साधन और फल की व्याख्या की। इससे एक प्रकार के साधन और फल को नहीं कहा गया, और यह साधन-फल वेदमार्ग के विपरीत हो गए। उदाहरण के लिए, गीता में कहा गया है: “भक्त्या माम् अभिजानाति” (भगवद्गीता १८.५५)। इसका अर्थ है कि भक्तिपूर्वक ठाकुर के स्वरूप का जब ज्ञान होता है, तब ठाकुर में प्रवेश कर आनंद का अनुभव होता है। यह फल वेदों में कहा गया है।
लेकिन मायावादी शास्त्रों में विपरीत कहा गया है कि केवल निराकार ब्रह्म सत्य है और सब कुछ मिथ्या है। कल्पित गुरु जब उपदेश देते हैं कि “तू तो निराकार ब्रह्म है। जीव तो कल्पित है” तो उपदेश लेने वाला व्यक्ति कहता है: “मैं ब्रह्म हूं——मैं ब्रह्म हूं।” इस प्रकार जीव का नाश हो जाता है। इसे मुक्तिवाद कहा जाता है, लेकिन यह मुक्ति नहीं है। क्योंकि मुक्ति तो पुरुषार्थ है। जब जीव का नाश हो जाए, तो फल का अनुभव कौन करेगा? इसलिए यह मत वेदों के विपरीत है।
न्यायशास्त्र का मत भी विपरीत है। वे सोलह पदार्थों को मुक्ति का साधन मानते हैं, लेकिन वे मुक्ति को सुख और दुःख के अत्यन्त अभाव में मानते हैं। जबकि वेदों में मुक्ति का स्वरूप आनंदमय बताया गया है। कर्मवादियों का मत भी विपरीत है। वे स्वर्ग के आनंद को मुक्ति मानते हैं, लेकिन वेदों में ब्रह्मानंद के अनुभव को ही मुक्ति माना गया है। स्वर्गलोक में ब्रह्मानंद का अनुभव नहीं होता। इसलिए इन मार्गों का अनुसरण करने पर वेदों में कहे गए मुक्तिमार्ग में बाधा आती है।
इन मार्गों को अंधकाररूप माना गया है। जैसे अंधकार में व्यक्ति को मार्ग दिखाई नहीं देता, वैसे ही असत् शास्त्रों के कारण सच्चा मुक्तिमार्ग भी दिखाई नहीं देता। इसलिए असत् शास्त्रों का अनुसरण करने वालों को अंधकार के समान समझना चाहिए। असुर जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति का ज्ञान नहीं होता, इसलिए यह स्वाभाविक अंधत्व है। जबकि दैवी जीवन को मुक्तियोग्य माना गया है। फिर भी, असत् शास्त्रों का अनुसरण करने पर दैवी जीवन भी अंधकारमय बन जाता है। लेकिन सत्संग से अज्ञान का अंधकार दूर होता है और मुक्तिमार्ग पुनः स्पष्ट होता है।
श्रीगुसांईजी श्रीआचार्यजी महाप्रभु से कहते हैं कि आप प्रकट होकर मर्यादामार्ग के साधन और फल का निरूपण करते हैं। यदि आप प्रकट न हुए होते तो मर्यादामार्ग का फल भी न होता। जैसे पुष्टिमार्गीय जीव हैं, उन्हें भी पुष्टिमार्ग के साधन का ज्ञान न होता, और वे साक्षात ठाकुर के संबंधरूप फल की प्राप्ति से वंचित रहते।
हे देव! आप क्रीड़ा करने के लिए प्रकट हुए हैं। और हे वैश्वानर! अलौकिक अग्निरूप, आप में मार्गों के फल देने की सामर्थ्य है। आपके प्रकट होने से पहले कोई साधन नहीं जानता था। आपने प्रकट होकर सबके सामने साधनों को प्रकट किया और फल भी प्रदान किया। यदि आप प्रकट न होते तो मर्यादारूप और पुष्टिरूप दोनों प्रकार की दैवी सृष्टि व्यर्थ हो जाती।
यह विचार उठता है कि उत्तम मार्ग जितने हैं वे तो वेदों में बताए गए हैं। वेदमार्ग को जानने वाले वेद के अर्थ को समझते हैं। यदि वेदों में मर्यादामार्ग और पुष्टिमार्ग का उल्लेख है तो उनका भी ज्ञान होगा। फिर श्रीआचार्यजी महाप्रभु प्रकट होकर क्या करते हैं? वे कहते हैं कि वेदों की व्याख्या करने वाले वेद का तात्पर्य नहीं जानते। क्योंकि वेद श्रीआचार्यजी महाप्रभु के समक्ष ही अपना अभिप्राय प्रकट करते हैं। इस प्रकार, केवल श्रीआचार्यजी महाप्रभु ही वेदों के तात्पर्य को जानते हैं, और कोई नहीं। इसीलिए कहा गया है:
श्लोक ३
वागधीशाद् – वाणी के अधीश से; अन्य: – दूसरे; श्रुतिगणवचसां – श्रुतिगण की वाणी के; भावं – भाव को; आज्ञातुं – अच्छी प्रकार से जानने में; नहि – नहीं; ईष्टे – समर्थ हैं; यस्मात् – क्योंकि; पत्युरेव – पति के ही; अग्रत: – अगाड़ी में; साध्वी – सत; वधू: – पत्नी; स्वभावं – अपने भाव को; प्रकटयति – प्रकट करती है; तस्मात् – इसलिए; श्रीवल्लभाख्य! – हे श्रीमहाप्रभु!; ये – जो; त्वदुदितवचनाद् – तुम्हारे कहे वचनों से; अन्यथा – और तरह से; रूपयन्ति – निरूपण करते हैं; ते – वे; निसर्गत्रिदशरिपुतया – स्वभाव से ही; **दैव के प्रति दुष्मति के कारण; भ्रान्ता – भ्रमित; केवलान्धतमोगा: – केवल अंधतम नरक को प्राप्त होते हैं
भावार्थ
वाणी के स्वामी के अतिरिक्त, अन्य कोई भी श्रुति-वचनों के भाव को जानने में सक्षम नहीं है। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पति के सम्मुख ही अपने आशय को प्रकट करती है। अतः हे श्रीवल्लभाचार्य! जो लोग आपके वचनों को छोड़कर वेदों के अर्थ को अन्यथा व्याख्या करते हैं, वे अपने स्वभाव से ही असुरप्रकृति के कारण भ्रमित होकर केवल अंधकार को प्राप्त होते हैं।
टीका
श्रीगुसांईजी कहते हैं, श्रीआचार्यजी महाप्रभु से भिन्न अन्य कोई वेद का अभिप्राय जानने में समर्थ नहीं है। ऐसा क्यों? जैसे पतिव्रता स्त्री अपना अभिप्राय केवल अपने पति के समक्ष प्रकट करती है, उसी प्रकार वेद भी वाक्पति श्रीआचार्यजी के समक्ष ही अपना अभिप्राय प्रकट करते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि वेदवचन ठाकुर के हैं और श्रीआचार्यजी महाप्रभु ठाकुर के मुखारविंद स्वरूप हैं। इस प्रकार, वचन का स्वामी तो मुख ही होता है। अतः श्रीआचार्यजी महाप्रभु वेद के स्वामी हैं।
श्रीआचार्यजी महाप्रभु पुरुषोत्तम को ही मुख्य मानकर उनका निरूपण करते हैं, जबकि अन्य देवताओं को ठाकुर के अंश, विभूतियां और सेवक के रूप में वर्णित करते हैं। जैसे पति ही पतिव्रता स्त्री के अभिप्राय को जानता है, वैसे ही श्रीआचार्यजी महाप्रभु ही वेद का अभिप्राय जानते हैं, और कोई नहीं। जो लोग श्रीआचार्यजी महाप्रभु द्वारा वेद का किया गया अर्थ स्वीकार नहीं करते और इसके विपरीत कहते हैं, वे भ्रमित हैं। उन्हें आसुरी जीव माना जाता है। और जो ऐसे आसुरी जीवों का समर्थन करते हैं, उन्हें भी आसुरी माना जाता है।
आसुरी जीवन में माया की उपासना की जाती है, जिसका फल केवल अंधतम (घोर अज्ञान) है। स्वर्गादि लोकों की प्राप्ति में यद्यपि दुःख नहीं होता, परन्तु आनंद भी नहीं मिलता। श्रीआचार्यजी महाप्रभु के प्रकट होने का एक कारण दैवी सृष्टि को सार्थक करना है, ऐसा कहा गया है॥३॥
अब कहा गया है कि श्रीआचार्यजी द्वारा मार्ग के प्राकट्य के कार्य से श्रीठाकुरजी भी प्रसन्न हुए।
श्लोक ४
श्रीहुताश! – हे अग्नि!; भूमौ – भूमि पर; प्रादुर्भूतेन – प्रकट हुए; ते – वह; यत् – जो; व्रजपतिचरणाम्भोजसेवाख्यवर्त्मप्राकट्यं – व्रजपति के चरणकमल की सेवा के नाम वाले मार्ग का जो प्राकट्य; कृतं – किया है; तद् – वह; उत – निश्चित रूप से; निजकृते – निज भक्तों के लिए किया है; इति – ऐसा; मन्ये – मानता हूं; यस्माद् – क्योंकि; अस्मिन् – इसमें; स्थितो – स्थित; यत्किमपि – जो कुछ भी; कथमपि – किसी भी प्रकार से; क्वापि – कहीं भी; उपाहर्तुम् – देने को; इच्छति – इच्छा करता है; अद्धा – निश्चित रूप से; तद् – वह; गोपिकेश: – गोपियों के ईश; चारुहासे – मुस्कुराते हुए; स्ववदनकमले – अपने मुख कमल में; करोति – करते हैं
भावार्थ
हे अग्निस्वरूप! भूतल पर प्रकट होकर आपने श्रीहरि के चरणकमल की सेवा के लिए जो मार्ग प्रकट किया है, वह निश्चित रूप से अपने और भक्तों के लिए ही प्रकट किया गया है। मैं इसे स्वीकार करता हूं। क्योंकि इस मार्ग में स्थित भक्त यदि किसी वस्तु को, किसी भी प्रकार से, कहीं भी अर्पण करना चाहे, तो उस वस्तु को श्रीगोपीजनवल्लभ अपने सुंदर हास्ययुक्त मुखकमल में अंगीकार करते हैं।
टीका
श्रीगुसांईजी श्रीआचार्यजी महाप्रभु से कहते हैं कि:
आप प्रकट होकर व्रजपति श्रीपूर्णपुरुषोत्तम के चरणकमल की सेवा के लिए जो सेवामार्ग भूतल पर प्रकट किया, वह आपके संतोष के लिए है।
क्यों?
क्योंकि पहले यद्यपि पूजामार्ग था, लेकिन उसमें श्रीआचार्यजी महाप्रभु को संतोष नहीं हुआ।
ऐसा क्यों?
क्योंकि सेवामार्ग में पूर्णपुरुषोत्तम स्वयं सेव्य हैं, जबकि पूजामार्ग में विभूतिरूप सेव्य होते हैं। सेवामार्ग में भावपूर्वक सेवा की जाती है, जबकि पूजामार्ग में समय का निर्धारण किया गया है, जैसे सभी कर्म करके मध्याह्न में पूजा करनी।
सेवा में समय का कोई नियम नहीं है; जब मन हो तब सेवा की जा सकती है। पूजामार्ग में नैवेद्य ठाकुरजी की विभूति के समक्ष रखा जाता है, जिससे विभूति प्रसन्न होती है और अदृष्ट के फल स्वरूप मुक्ति मिलती है। वहीं, सेवामार्ग में समर्पित वस्तुओं को पूर्णपुरुषोत्तम स्वयं साक्षात रूप से आरोग्य फल देते हैं, जैसा व्रजभक्तों को प्राप्त हुआ। इस प्रकार, सेवामार्ग में पूजामार्ग से बड़ी विशिष्टता है। इसलिए श्रीआचार्यजी महाप्रभु को पूजामार्ग में संतोष नहीं हुआ, और उन्होंने भक्तिमार्ग को प्रकट किया।
तब श्रीगुसांईजी कहते हैं, “अहो हुताश!” अग्निरूप कहकर आपका वर्णन करते हैं। आप वह हैं, जिनमें भक्तिमार्ग को प्रकट करने की सामर्थ्य है, और हमें आप पर अपार विश्वास है। ऐसा क्यों? क्योंकि आपने जो मार्ग प्रकट किया है, उसमें जो कोई अपने कार्य, शरीर, वचन और मन से स्थिति करता है, वह ठाकुर की सेवा में लग जाता है।
किस प्रकार? शरीर को ठाकुर की सेवा में लगाना, वचन से ठाकुर के गुण गाना और मन को ठाकुर में स्थिर करना। इस प्रकार, इस मार्ग में चलने वाला कोई भी व्यक्ति, यदि शास्त्रविधि के बिना भी ठाकुर को कुछ समर्पित करने की इच्छा करे, तो साक्षात पूर्णपुरुषोत्तम व्रजभक्तों के साथ अपने मुखारविंद से प्रसन्न होकर पुष्टिमार्ग का फल देते हैं। इसलिए, श्रीगुसांईजी श्रीआचार्यजी महाप्रभु से कहते हैं कि यदि आपने यह मार्ग प्रकट नहीं किया होता, तो जीव कृतार्थ कैसे होते!
अब कहा गया है कि यदि कोई यह कहे कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु रुद्ररूप अग्नि के समान होंगे, तो इस संदेह को दूर करने के लिए कहा गया है कि लौकिक अग्नि के धर्म और श्रीआचार्यजी महाप्रभु के धर्म एक-दूसरे से भिन्न हैं:
श्लोक ५
भावार्थ
उष्णता का यह स्वभाव है कि वह दीनों पर शीतल वचनरूप अमृतवर्षा करता है, और साथ ही साथ बड़े मोहवाले असुरों पर ताप उत्पन्न करता है। आप अपने भीतर श्रीकृष्ण के मुखकमल का प्राकट्य करते हैं; किन्तु अग्नि-स्वरूप को प्रकट नहीं करते। इसका कारण यह है कि आपका स्वरूप व्रजजनसमूह में आनंद का संचार करता है और असुर-अग्नि का नाश करता है।
टीका
श्रीगुसांईजी कहते हैं कि आप ऊग्र प्रताप वाले हैं, फिर भी आप उष्णता से युक्त नहीं हैं। जबकि लौकिक अग्नि, जो उष्णता से युक्त होती है, वह घातक हो सकती है। इसलिए आपको लौकिक अग्नि रूप कहना उपयुक्त नहीं है। ऐसा क्यों? लौकिक अग्नि की उष्णता कभी अधिक होती है, तो कभी कम। लेकिन श्रीआचार्यजी महाप्रभु अलौकिक आनंदस्वरूप अग्नि हैं। अतः आपकी उष्णता विशिष्ट है, यह समझना चाहिए।
श्रीआचार्यजी महाप्रभु में इस विशिष्टता के कारण ही यह कहा गया है कि आप अपने सेवकों की पीड़ा देखकर जो वचन कहते हैं, वे वचन सेवकों के लिए शीतल और ताप को दूर करने वाले अमृत स्वरूप होते हैं। लेकिन वही वचन जब असुर सुनते हैं, तो उन्हें अप्रिय लगते हैं। यदि श्रीआचार्यजी महाप्रभु रुद्र अग्नि होते, तो रुद्र असुरों के पक्षपाती, असुरों के सेव्य और असुरों के नाशक नहीं होते। लेकिन श्रीआचार्यजी महाप्रभु अपने वचनों के द्वारा सेवकों को आनंदित करते हैं और असुरों का नाश भी करते हैं।
जैसे पूर्णपुरुषोत्तम का मुखारविंद व्रजभक्तों की पीड़ा को दूर करने वाला है और असुरों की दावाग्नि को समाप्त करने वाला है, उसी प्रकार श्रीआचार्यजी महाप्रभु और लौकिक अग्नि में बड़ी भिन्नता है। यही उनकी अद्वितीयता है॥५॥
अब कहा गया है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु अलौकिक कार्य करने वाले हैं, इसलिए वे अलौकिक आनंदमय हैं। ऐसा कहा गया है:
श्लोक ६
विभो – हे विभु!; आम्नायोक्तं – वेद को कहे हुए; यद् – जो; अनलत: – अग्नि से; अम्भ: – जल को; भवनं – होना; तत् – वह; सत्यं – सत्य; च – और; यत् – जो; सर्गादौ – सृष्टि के आरंभ में; भूतरूपाद् – भूतरूप से; अनलत: – अग्नि से; भूतरूपं – भूतरूप; पुष्करम् – जल; अभवद् – हुआ; यद् – जो; आनन्दैकस्वरूपात् – आनंदमात्र स्वरूप; त्वद् – आप से; अधिभु – पृथ्वी पर; कृष्णसेवारसाब्धि: – श्रीकृष्णसेवा रूपी रस के सागर; आनन्दैकस्वरूप: – आनंदमात्र स्वरूप; अभूत् – हुए; तत् – वह; कार्ये – कार्य में; हेतुसाम्यं – हेतु का समानपन; हि – ही; अखिलम् – सब; उचितम् – योग्य है
भावार्थ
वेदों में अग्नि से जल के उत्पन्न होने की बात कही गई है, जो सत्य है। हे प्रभो! सृष्टि के आरंभ में जैसे भूतस्वरूप अग्नि से भूतस्वरूप जल की उत्पत्ति हुई, उसी प्रकार इस भूतल पर, आनंदस्वरूप आपसे, यह श्रीकृष्ण-सेवा स्वरूप रससागर आनंदस्वरूप ही प्रकट हुआ। यह उपयुक्त है क्योंकि कार्य में कारण की समानता होना स्वाभाविक है।
टीका
वेदों में सृष्टि की उत्पत्ति के संदर्भ में कहा गया है कि पहले आकाश उत्पन्न हुआ, फिर आकाश से वायु, वायु से अग्नि और अग्नि से जल की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार सृष्टि की यह उत्पत्ति आधिभौतिक पदार्थों की उत्पत्ति मानी गई है। श्रीगुसांईजी कहते हैं कि यहाँ जिस अग्नि का उल्लेख किया गया है, उससे जल की उत्पत्ति हुई। यह लौकिक जल की उत्पत्ति है। ऐसा क्यों? क्योंकि जैसा कारण होता है, वैसा ही कार्य होता है। इस प्रकार कारण लौकिक रूप में प्रकट हुआ।
किन्तु श्रीआचार्यजी महाप्रभु तो आनंद-अग्नि स्वरूप हैं। अतः उनसे जो प्रकट हुआ, वह लौकिक नहीं, बल्कि अलौकिक है। वे भूमिपर श्रीठाकुरजी की सेवारूपी परमानंद के समुद्र स्वरूप हैं, जो पूर्णत: अलौकिक हैं॥६॥
अब और भी धर्मों के आधार पर श्रीआचार्यजी महाप्रभु के अलौकिक अग्नि स्वरूप का निरूपण किया गया है:
श्लोक ७
स्वामिन् श्रीवल्लभाग्ने! – हे स्वामि अग्निस्वरूप श्रीवल्लभ!; भवत: – आपके; क्षणमपि – क्षण भर भी; सन्निधाने – सन्निधान होने पर; कृपात: – कृपा से; जनेषु – लोगों में; प्राणप्रेष्ठव्रजाधीश्वरवदनदिदृक्षार्ति-तापो – प्राणप्रिय व्रज के अधिपति के वदन को देखने की आर्ति का ताप; यत् – जो; प्रादुर्भावम् – प्रकट; आप्नोति – होता है; इदम् – यह; उचिततरं – उचिततर; यत्तु – जो तो; अस्मिन् – यह; मुखेन्दौ – मुख रूप चन्द्र को; दृष्टेऽपि – देखने पर भी; पश्चाद् – पीछे; अपि – भी; इत्थं – इस प्रकार; प्रचुरतरम् – अत्यधिक तीव्रता से; एव – ही; उदेति – प्रकट होता है; तद् – वह; एतत् – यह; चित्रम् – आश्चर्यजनक है
भावार्थ
स्वामिन्! अग्निस्वरूप आचार्यवर्य! आपके क्षणभर के सन्निधान से, कृपा करके भक्तों के प्राणों में प्रिय श्रीहरि के मुखकमल को देखने की इच्छा से जो ताप उत्पन्न होता है, वह तो उचित ही है। परंतु, श्रीहरि के मुखकमल को देखकर भी जो विशेष रूप से अधिक ताप उत्पन्न होता है, यह वास्तव में आश्चर्यजनक है!
टीका
श्रीगुसांईजी कहते हैं, अहो श्रीवल्लभ! अहो अग्निरूप! हमारे स्वामी! आपके पास एक क्षण भी बैठने से, आपकी कृपा से, सेवकों के लिए जो प्राणप्रिय श्रीपूर्णपुरुषोत्तम हैं, उनके मुखारविंद का साक्षात दर्शन न होने के कारण ताप उत्पन्न होता है। यह बात तो उचित है। क्यों? जैसे लौकिक अग्नि के पास रहने से ताप महसूस होता है और अग्नि में जैसे-जैसे अधिक इंधन डाला जाता है, ताप भी अधिक होता है, उसी प्रकार श्रीठाकुरजी की कृपा जैसे-जैसे अधिक होती है, ताप भी अधिक होता है। यह तो स्वाभाविक है।
परंतु यह बड़ा आश्चर्य है कि पहले एक बार निकटता होने के बाद, जब निकटता नहीं होती, तब भी सेवकों में ताप उत्पन्न होता है। क्यों? लौकिक अग्नि में निकटता के बिना ताप नहीं होता, लेकिन यहां तो अलौकिक ठाकुर के मिलने के बिना भी ताप उत्पन्न होता है। यह वास्तव में आश्चर्यजनक है। और यह भी कहा गया है कि चंद्रमा के दर्शन से ताप का निवारण होता है, लेकिन श्रीआचार्यजी महाप्रभु के मुखचंद्र के दर्शन से अलौकिक ताप प्रकट होता है। इसी कारण आप अलौकिक अग्निरूप हैं॥७॥
अब आगे और भी धर्मों के निरूपण द्वारा श्रीआचार्यजी महाप्रभु के अलौकिक स्वरूप और पूर्णपुरुषोत्तम स्वरूप को प्रमाणित कर निरूपण किया गया है।
श्लोक ८
त्रिलोक्यां – तीन लोकों में; कविभि: – विद्वानों ने; अपि – भी; ते – वे; अग्नित्वम् – अग्नि पन; अज्ञानाद्यन्धकार-प्रशमन-पटुता-ख्यापनाय – अज्ञान आदि अंधकार को अच्छी भांति शमन करने की चतुराई को प्रकट करने के लिए; सदा – सदा; वर्णितं – वर्णन किया है; वस्तुत: – सत्य में तो; भवान् – आप; कृष्ण – श्रीकृष्ण; एव – ही; प्रादुर्भूत: – प्रकट हुए हैं; इति – यह; अनुभवनिगमाद्युक्तमानै: – अनुभव वेद आदि में कहे प्रमाण से; अवेत्य – जानकर; श्रीश्रीवल्लभ – हे श्रीवल्लभ!; त्वां – आपको; इमे – ये; निखिलबुधजना – सभी ज्ञानी लोग; गोकुलेशं – गोकुल के ईश को; भजन्ते – भजते हैं
भावार्थ
इस भूतल पर पंडितों ने आपको अग्नि-स्वरूप केवल अज्ञानरूप अंधकार को दूर करने का चातुर्य प्रकट करने के लिए ही माना है। वास्तव में, आप श्रीकृष्ण ही प्रकट हुए हैं। ऐसा अनुभव और शास्त्रादि के प्रमाणों के आधार पर जानकर, हे श्रीवल्लभाचार्य! सभी विद्वान आपको गोकुलेश के रूप में ही पहचानते हैं और भजते हैं।
टीका
अब श्रीगुसांईजी कहते हैं, “आप कैसे हैं?” आप काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर आदि, जो भगवन्मार्ग को जानने में बाधा रूपी दुर्गुण हैं, उन्हें दूर करने वाले हैं। जैसे लौकिक अंधकार मार्ग में चलने में बाधा उत्पन्न करता है, जिसे लौकिक अग्नि दूर करती है, उसी प्रकार काम-क्रोधादि रूपी अंधकार को दूर करने की सामर्थ्य केवल आप में है। इसलिए आप अलौकिक अग्नि स्वरूप हैं। इसीलिए महान ज्ञानी आपको ‘अग्नि’ कहते हैं। परंतु यदि आपके स्वरूप का विचार करके देखा जाए, तो आप आनंदमय अलौकिक अग्नि हैं। इस प्रकार, श्रीकृष्ण, जो पूर्णपुरुषोत्तम हैं, वही प्रकट हुए हैं।
प्रमाण क्या है? श्रीगुसांईजी स्वयं कहते हैं कि एक प्रमाण तो अनुभव है। हम आपको पूर्णपुरुषोत्तम ही देखते हैं।
इसके अतिरिक्त, श्रीआचार्यजी महाप्रभु पूर्णपुरुषोत्तम हैं, इसका प्रमाण कृष्णदास के अनुभव से मिलता है। पहली पृथ्वी परिक्रमा के समय, कृष्णदास ने श्रीआचार्यजी महाप्रभु की सेवा बहुत की। तब आप प्रसन्न होकर बोले, “तुम कुछ मांगो, मैं दूँगा।” तब कृष्णदास ने तीन वस्तुएँ मांगीं:
- अपने मार्ग के सिद्धांत का पूर्ण ज्ञान।
- मुखरता दोष से निवृत्ति।
- मेरे गुरु के घर पधारने की कृपा।
इनमें से दो वस्तुएँ श्रीआचार्यजी ने प्रदान कीं, लेकिन गुरु के घर पधारने की इच्छा पूरी नहीं की। बाद में, जब कृष्णदास अपने गुरु के घर गए, तो गुरु ने पूछा, “क्या तुमने मुझे छोड़कर कोई अन्य गुरु बना लिया है?” तब कृष्णदास ने उत्तर दिया, “गुरु तो आप ही हैं, परंतु आपकी कृपा से मैंने पूर्णपुरुषोत्तम को पाया है।” गुरु ने पूछा, “पूर्णपुरुषोत्तम को कैसे जाना जाए?”
कृष्णदास ने जलती हुई अग्नि हाथ में लेकर कहा, “यदि श्रीआचार्यजी महाप्रभु साक्षात् पूर्णपुरुषोत्तम हों, तो यह अग्नि मुझे भस्म न करे। अन्यथा मेरे हाथ जल जाएं।” ऐसा कहकर, वह अग्नि दो घड़ी तक हाथ में लिए रहे। तब गुरु भयभीत होकर वह अग्नि कृष्णदास के हाथ से हटा दी और सत्य स्वीकार किया कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु साक्षात् पूर्णपुरुषोत्तम हैं। यह कृष्णदास का अनुभव प्रमाण है।
जो सेवक श्रीआचार्यजी महाप्रभु के स्वरूप का अनुभव करते हैं, उनके अंतःकरण से भी प्रमाण प्राप्त होता है। वे जानते हैं कि आप पूर्णपुरुषोत्तम हैं। वेद भी प्रमाण है। क्यों? वेदों में साकार स्वरूप का निरूपण किया गया है, जो मुखारविंद स्वरूप श्रीआचार्यजी महाप्रभु हैं। इसलिए वेद भी आपके स्वरूप को पूर्णपुरुषोत्तम कहते हैं।
श्रीगुसांईजी इन प्रमाणों के आधार पर कहते हैं कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु को पूर्णपुरुषोत्तम जानकर सेवक भजन करें।
आचार्य-पितृ-कृपा एवं बुद्धि-दोष क्षमा
भावार्थ
श्रीगुसांइजी के चरणकमलों की कृपा से हमने श्रीवल्लभाष्टक की टीका पूरी की। अतः, श्रीआचार्यजी महाप्रभु मुझे अपना सेवक मानकर मुझ पर कृपा करें। और जो मैंने यह टीका की है, वह श्रीगुसांइजी के चरणकमलों की पराग से प्रेरित होकर, उसी रंग से रँगा हुआ चित्त लेकर की है। इस प्रकार, यह टीका भलीभांति पूर्ण हुई।
अस्वीकरण और श्रेय
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