पुष्टिसम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरुरूप श्रीवल्लभ का सप्तधा वर्णन—धर्मिस्वरूप (श्लोक १) और ऐश्वर्य के छह गुणधर्म (श्लोक २-७) के रूप में किया गया है।


स्फुरित होते हुए श्रीकृष्ण प्रेमरूप अमृतरस से परिपूर्ण, व्रजपति श्रीकृष्ण के विहाररूप सागर में सदा विहार करने वाली, गोपीपतिकों प्रिय ‘वल्लभ’ नाम से विख्यात, करुणामय और सुंदर मूर्ति हमारे हृदय में सदा स्फुरित होती रहे।


श्रीभागवत के प्रत्येक पदरूप उत्तम रत्नों के भावरूप किरणों से विभूषित ‘श्रीवल्लभ’ नाम की दिव्य मूर्ति हमारे लिए अपने दास्य-सौभाग्य को बढ़ाए और हमारे हृदय को प्रेम और समर्पण से आलोकित करे।


पुष्टिजीवन पर दया के भाव और पुष्टिप्रभु में अनुराग के भाव से मुग्ध होकर, आपने मायावाद रूपी अंधकार का निवारण कर, सहजता से किसी को भी प्राप्त न हो सकने वाली, श्रीगोकुलनाथ के संगम की सुधा को तत्क्षण प्राप्त कराने वाला अद्भुत श्रीकृष्ण सेवा का मार्ग प्रकट किया। ऐसे आप श्रीकृष्णरूप और श्रीवल्लभरूप सूर्य के समान आलोकित और उल्लसित प्रतीत होते हैं।


कुछ विद्वान ऐसे होते हैं जिनमें पाण्डित्य तो होता है, परंतु वे वेदादि शास्त्रों की गहराई और गति को नहीं समझ पाते। इसके अतिरिक्त, कुछ विद्वान वेदादि शास्त्रों की समझ तो रखते हैं, परंतु उनका आचरण शास्त्रों के अनुसार नहीं होता। जो लोग वेदादि शास्त्रों के अनुसार आचरण करते हैं, वे वैष्णव मार्ग से परिचित नहीं होते। और जो लोग वैष्णव मार्ग से परिचित होते हैं, उनमें व्रजपति श्रीकृष्ण में आसक्ति नहीं होती।

इस प्रकार, इन सभी गुणों के साथ श्रीवल्लभाचार्य जैसा और कौन विलसित हो सकता है!


मायावादियों के अहंकार को गजेन्द्र रूप में दलित करने के कारण, वेद की श्रुति के अनुसार श्रीकृष्णमुखेन्दु से प्रकट हुई श्रीमद्भावतरूपी दुर्लभ सुधा को बरसाने के कारण, राधावल्लभ श्रीकृष्ण की सेवा के कारण, उपदेश और सेवोचित प्रेम के कारण भी, ‘श्रीवल्लभ’ नामधारी व्यक्तित्व जैसा न कोई हुआ, न कोई है, और न ही भविष्य में कोई होगा।


जिनके चरणों के नखमण्डल से निकलने वाले चरणामृत से जिनके मस्तक और हृदय अभिषिक्त हो चुके हैं, वे तो इस कलियुग को तृण के समान तुच्छ मानते हैं। लक्ष्मी आदि भी जिनके चरणकमलों को खोजती रहती हैं, ऐसे व्रजाधिपति, जिन्हें क्षणभर में प्रसन्न कर लिया गया है, उन आचार्यचरणों का मैं सदा अनुगामी बना रहूं।


पापों के समूहरूप अंधकार से आवृत्त, कलियुग रूपी काले नाग से ग्रस्त, सांसारिक विषयों के सागर में पड़ा हुआ, और जो अपने धर्म से विमुख होकर अनुचित कर्मों में लिप्त है, ऐसे जीव को, जिनकी अनुकंपा के अमृत से प्रकट हुआ ईक्षणरूप चंद्रमा, क्षणमात्र में मृत्युरहित बना देता है, उन महानुभावों के चरण मेरे लिए सदा ही आश्रय स्वरूप हैं!



॥इति श्रीविट्ठलेश्‍वरविरचितं श्रीस्फुरत्कृष्णप्रेमामृतस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥