श्रीगुसांईजी, श्रीमहाप्रभुजी के अष्टोत्तरशत नामों के अंतर्गत, इस श्रेष्ठ स्तोत्र की व्याख्या करते हैं। इस स्तोत्र की टीका श्रीगुसांईजी के पुत्र श्रीगोकुलनाथजी द्वारा की जाती है।

मङ्गलाचरण

भावार्थ

श्रीगोकुलनाथजी कहते हैं: हम श्रीगुसांईजी के चरणारविंदों को नमस्कार करते हैं। आपके चरणारविंद कैसे हैं? भक्तों को भगवद्भक्ति में सहायक, या लौकिक वस्तुएं, जैसे देह संबंधी वस्तुएं जो स्त्री, पुत्र, धन आदि; तथा परलोक संबंधी वस्तुएं, जिनसे परलोक सिद्धि होती है, इन सभी के दाता चरणारविंदों को हम नमस्कार करते हैं। जैसे श्रीमहाप्रभुजी के नामों की टीका में बुद्धि है, उसी प्रकार से हम यह कार्य करते हैं।

यद्यपि मेरे पास श्रीमहाप्रभुजी के नामों की टीका लिखने की योग्यता नहीं है, परंतु श्रीमहाप्रभु मुझे अपना मानकर कृपा करके उनके नामों की टीका करने की योग्यता प्रदान करेंगे, इस विश्वास के साथ मैं इस कार्य में प्रवृत्त हुआ हूं, अन्यथा नहीं। अतः श्रीमहाप्रभुजी के चरणारविंद ही मेरी शरण और गति हैं। अब वे वस्तु की सिद्धि के विषय में कहते हैं।

श्रीगुसांईजी, श्रीमहाप्रभुजी के स्वरूप और उनके स्वरूप के प्राकट्य के कारणों को व्यक्त करने के लिए, सर्वप्रथम श्रीपूर्णपुरुषोत्तम स्वरूप की स्तुति तीन श्लोकों में करके मंगल कार्य का आरंभ करते हैं।

श्लोक १

भावार्थ

जिनमें प्राकृत धर्म का कोई अस्तित्व नहीं है बल्कि केवल अप्राकृत धर्म है, ऐसा वेद और अन्य शास्त्र प्रतिपादित करते हैं। ऐसे मायादि दोष रहित, शुद्ध आकृतिवाले श्रीकृष्ण की स्तुति मैं करता हूं।

टीका

श्रीठाकुरजी कैसे हैं? वे प्राकृत धर्म जैसे सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से मुक्त हैं। यदि कोई कहे कि इससे तो श्रीठाकुरजी निराकार हो जाते हैं, तो इसका उत्तर है कि नहीं! श्रीठाकुरजी अप्राकृत हैं, अलौकिक आनंदमय देह और इंद्रियों के साथ हैं। इसी प्रकार वेद भी इस रूप का निरूपण करते हैं। इस प्रकार, आनंदमात्र से युक्त कर, पाद, मुख, उदर आदि वाले साकार श्रीपूर्णपुरुषोत्तम की मैं स्तुति करता हूं।

पूर्वपक्ष में यदि कोई यह प्रश्न करे कि ऐसा स्वरूप जो आप कहते हैं वह सत्य है, तो शास्त्रों को जाननेवाले विद्वान इसे क्यों नहीं स्वीकारते? तब पंडितों के अज्ञान का कारण बतलाते हैं।

श्लोक २

भावार्थ

ऐसे शुद्ध साकार परब्रह्म का माहात्म्य, कलिकाल के अज्ञानरूपी अंधकार के कारण, इस पृथ्वी पर वर्तमान समय में विद्वान भी समझ नहीं पाते।

टीका

कलिकाल के प्रभाव से अज्ञानरूपी अंधकार विद्वानों की बुद्धि को ढक देता है। इसी कारण, विद्वानों को श्रीभागवत एवं वेद आदि जिनके स्वरूप का निरूपण करते हैं, उन श्रीपूर्णपुरुषोत्तम के माहात्म्य का ज्ञान नहीं हो पाता। यह स्थिति किस प्रकार है? जैसे अंधकार के कारण दृष्टि में वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि विद्वानों को जिस स्वरूप का ज्ञान नहीं है, वह भूलोक में स्थित है जबकि श्रीपुरुषोत्तम का स्वरूप वैकुण्ठ में स्थित है। अतः विद्वानों को श्रीपुरुषोत्तम के स्वरूप का उतना ज्ञान नहीं होता जितना वैकुण्ठवासियों को होता है॥2॥

अब यह प्रश्न हो सकता है कि जब श्रीपुरुषोत्तम का प्राकट्य भूलोक में ही हुआ, तब आपको उनके माहात्म्य का ज्ञान कैसे हुआ? इसके उत्तर में आगे प्रकार बताया गया है।

श्लोक ३

भावार्थ

जब भगवान हरि ने अपने माहात्म्य को वाणी से प्रकट करना चाहा, तब उन्होंने अपने मुखारविंद को ही प्रकट किया।

टीका

ठाकुर जी ने कभी अपनी दया से अपने माहात्म्य को कहा है। ऐसा माहात्म्य अपने वचनों के द्वारा सेवकों के लिए प्रकट करने की इच्छा होने पर, उन्होंने अपने मुखारविंद रूप श्रीमहाप्रभु में अपने सभी धर्मों को समाहित कर प्रकट किया। यदि श्रीमहाप्रभु ने अपना प्राकट्य न किया होता, तो किसी को उनके स्वरूप का ज्ञान नहीं हो पाता। तब सभी सेवक दुखी होते क्योंकि उन्हें पुष्टिमार्गीय भगवत्स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। तब ठाकुर ‘हरि’ के रूप में जाने नहीं जाते। इसलिए, भगवान हरि ने अपने स्वरूप को ‘हरि’ के रूप में प्रकट करवाने के लिए श्रीमहाप्रभु जी का प्राकट्य किया। श्रीमहाप्रभु ने जो जताया, उससे हमें श्रीठाकुर जी के स्वरूप का ज्ञान हुआ। इसी प्रकार, अपने ज्ञान के कारण उन्होंने इसे बताया।

अब अन्य अर्थ बताते हैं। श्रीआचार्य जी सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण से मुक्त हैं। वेद भी इसी प्रकार उनका वर्णन करते हैं। सभी वेद श्रीपुरुषोत्तम स्वरूप का वर्णन करते हैं और उनके मुखारविंद स्वरूप श्रीआचार्य जी का भी वर्णन करते हैं। ऐसे साकार, आनंदमय कर, पाद, मुख, उदर आदि रूप श्रीमहाप्रभु की हम स्तुति करते हैं।

यह पूर्वपक्ष हो सकता है कि श्रीमहाप्रभु जी को आप जिस प्रकार कहते हैं, उसी प्रकार कोई अन्य क्यों नहीं जानता? इसका उत्तर है कि कलिकाल के प्रभाव से अज्ञानरूपी अंधकार सबकी बुद्धि और दृष्टि को आच्छादित कर देता है। इसलिए, अन्य लोगों को श्रीमहाप्रभु जी के स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। इसका कारण यह है कि श्रीमहाप्रभु लोक में स्थित हैं, जबकि उनके पूर्णपुरुषोत्तम स्वरूप मुखारविंद रूप में वैकुण्ठ लोक में स्थित हैं। इसलिए, अन्य विद्वानों को उनके स्वरूप का पूर्ण ज्ञान नहीं होता।

पूर्वपक्ष हो सकता है कि आपको श्रीमहाप्रभु जी के स्वरूप का ज्ञान क्यों है? इसका उत्तर यह है कि हमें पूर्णपुरुषोत्तम ने कृपा करके अपने वचनों द्वारा अपने माहात्म्य को बताने के लिए श्रीमहाप्रभु जी को प्रकट किया। तब श्रीआचार्य जी ने अपना स्वरूप जताया, और हमें उनका ज्ञान हुआ।

श्लोक ४

भावार्थ

श्रीमहाप्रभुजी के वचनों के गूढ़ अर्थ को समझना सरल नहीं है, परंतु इन अष्टोत्तरशत नामों का पाठ करने से दुर्बोध वचन भी सुगम हो जाते हैं।

टीका

यहां कहा गया है कि श्रीमहाप्रभुजी की बातों को अन्य लोग क्यों मानें। इसका उत्तर यह है कि श्रीभागवत नामात्मक भगवत्स्वरूप हैं, और भगवत्स्वरूप का ज्ञान तो केवल श्रीठाकुरजी को ही हो सकता है। श्रीमहाप्रभुजी, जो पुरुषोत्तम हैं, श्रीभागवत का निरूपण करते हैं। यह निरूपण वचनों के माध्यम से ही संभव है। इसी कारण श्रीमहाप्रभुजी ने प्रकट होकर श्रीसुबोधिनीजी आदि ग्रंथों को प्रस्तुत किया। वे ग्रंथ अत्यंत गूढ़ अर्थ वाले हैं, और उनका ज्ञान अन्य किसी को नहीं हो सकता। ये ग्रंथ सेवकों के लिए भी दुर्बोध हैं। जब सेवकों को ज्ञान नहीं होता, तब तक उनकी कृतार्थता नहीं होती। इसीलिए, सबके ज्ञान-सिद्धि के लिए श्रीमहाप्रभुजी अपने एक सौ आठ नामों का निरूपण करते हैं।

श्रीमहाप्रभुजी के नाम नित्य हैं। वे प्राकट्य से पहले भी अस्तित्व में थे, जैसे श्रीपूर्णपुरुषोत्तम के नाम पहले से ही थे। श्रीमहाप्रभुजी केवल इन नामों को प्रकट करते हैं। ये नाम सुबोधिनी आदि ग्रंथों को समझने में बाधक पापों को दूर करने वाले हैं। इसीलिए, इन अष्टोत्तरशत नामों को प्रकट किया गया है।

अब श्रीमहाप्रभुजी के एक सौ आठ नामों के अलौकिक आनन्दमय स्वरूप के बारे में बताते हैं। जिन स्थलों पर नाम प्रकट हुए हैं, वहां मंत्र, ऋषि, छंद और देवता आदि होते हैं। श्रीमहाप्रभुजी के नाम अलौकिक और आनन्दमय हैं, और इन्हें प्रकट करने वाले ऋषि के स्वरूप को बताया गया है।

श्लोक ५

भावार्थ

मन्त्ररूप इन अष्टोत्तरशत नामों के भूतल पर मंत्रद्रष्टा ऋषि अग्निकुमार श्रीप्रभुचरण हैं, छंद पद्य में प्रयुक्त (अनुष्टुप्) छंद है, देवता श्रीकृष्ण के मुखारविंद और बीज महाकारुणिक प्रभु हैं।

टीका

इस सर्वोत्तम स्तोत्र के ऋषि अग्निकुमार हैं। यहां पूर्वपक्ष उत्पन्न होता है कि सहस्रनामादि आदि को प्रकट करने वाले वैषम्पायनादि ऋषि इनके समान क्यों नहीं हैं। यह आशंका ‘तु’ शब्द द्वारा दूर की जाती है। इससे यह ज्ञात होता है कि एक सौ आठ नामों को प्रकट करने वाले अन्य ऋषियों से यह अलौकिक हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि श्रीमहाप्रभुजी के एक सौ आठ नाम वेद-पुराण में प्रसिद्ध नहीं हैं और अब तक किसी ने उन्हें जाना नहीं। इसीलिए, इन्हें जानने वाले ऋषि श्रीगुसांईजी अन्य ऋषियों से अधिक अलौकिक हैं। इस कारण इन्हें ‘अग्निकुमार’ कहा गया है।

श्रीगुसांईजी द्वारा प्रकट किए गए नामों का पाठ करने वाले सेवकों को पहले तो सेवा की सिद्धि होती है और आगे चलकर श्रीठाकुरजी के अधरामृत का आस्वादन प्राप्त होता है। रासक्रीड़ा के समय अग्निकुमार ने गुणातीत होकर श्रीस्वामिनीजी को अपने भीतर धारण किया और उन्हें श्रीपूर्णपुरुषोत्तम के पास ले गए। उस समय अग्निकुमार स्वामिनीजी रूप हो गए। बाह्यतः अग्निकुमार स्वरूप और भीतरी रूप में श्रीस्वामिनीजी हैं। यह भक्तिमार्ग के विस्तार के लिए ब्राह्मण रूप अग्निरूप श्रीआचार्य जी और उनके पुत्र गोस्वामी श्रीविट्ठलनाथजी का साकार स्वरूप है। इसी कारण इन्हें ‘अग्निकुमार’ कहा गया है।

छंद की बात करें तो सहस्रनाम और अष्टोत्तरशत नाम, जो जगत में प्रसिद्ध हैं, उनका भी सर्वोत्तम स्तोत्र के रूप में छंद है। यह निरूपण कर अब देवता का उल्लेख किया गया है।

सर्वोत्तम स्तोत्र के देवता-फलदाता प्रत्यक्ष दर्शन प्रदान करने वाले श्रीकृष्ण स्वरूप श्रीमहाप्रभुजी हैं। वे फलदाता और पुष्टिमार्गीय फल का आनंद लेने वाले भी हैं।

अब यह प्रश्न उठ सकता है कि पुष्टिमार्गीय फल, जो श्रीठाकुरजी के अधरामृत का आस्वादन है, ब्रह्मादि के लिए दुर्लभ है, वह अपने सेवकों को क्यों प्रदान करते हैं। इसका उत्तर बीजस्वरूप श्रीमहाप्रभुजी के महाकारुणिक होने में मिलता है। वे अपने सेवकों के प्रति अति दयालु हैं। अन्य आचार्यों की तरह अगर वे केवल मुक्ति प्रदान करते, तो पुष्टिमार्ग का फल किसी को प्राप्त नहीं होता। इसलिए, श्रीमहाप्रभुजी ने स्वयं प्रकट होकर पुष्टिमार्ग के फल को प्रदान किया और इसे सर्वोत्तम रूप दिया।

इस पूर्वपक्ष पर यह भी पूछा जा सकता है कि पुष्टिमार्ग के फल को जानने की सामर्थ्य श्रीमहाप्रभुजी में कैसे संभव है। इसका उत्तर है कि वे ‘प्रभु’ हैं, अत्यंत असाधारण सामर्थ्यवाले। जो फल श्रीठाकुरजी प्रदान करते हैं, वही फल आचार्य भी प्रदान करते हैं।

इस प्रकार, श्रीसर्वोत्तमस्तोत्र के बीज आदि का निरूपण कर अब उसके विनियोग का वर्णन किया जाता है।

श्लोक ६

भावार्थ

इन अष्टोत्तरशत नामों के पाठ का विनियोग भक्तियोग में आने वाली बाधाओं को नष्ट करने में है। इस प्रक्रिया में श्रीकृष्ण के अधरामृतास्वादन (स्वरूपानंद के भोग का भाव) की सिद्धि होती है, इसमें कोई संदेह नहीं।

टीका

श्रीठाकुरजी की सेवा में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करने में सर्वोत्तम स्तोत्र का उद्देश्य निहित है। और इसका परम फल श्रीठाकुरजी के अधरामृत का आस्वादन है। यह किस प्रकार होता है? यह प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार के अनुसार फल का अनुभव कराता है। जैसे जब श्रीठाकुरजी ने वेणुनाद किया, तब वेणुनाद के द्वारा सभी वृक्ष, लताओं आदि को उनके अधिकार के अनुसार अनुभव प्राप्त हुआ। उसी प्रकार, सर्वोत्तम स्तोत्र का पाठ करने से फल व्यक्ति के अधिकार के अनुसार होता है।

श्लोक ७

आनन्दः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी आनंद स्वरूप हैं।
टीका : इस प्रकार फलपर्यन्त निरूपण करते समय जब श्रीगुसांईजी ने श्रीमहाप्रभुजी के नामों का निरूपण करना आरंभ किया, तब उनके स्वरूप का स्मरण हुआ। सबसे पहले यह समझ में आया कि श्रीमहाप्रभुजी आनंद स्वरूप हैं, इसलिए उन्हें ‘आनंद’ कहा गया।

परमानन्दः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी परमानन्द स्वरूप हैं।
टीका : इसके बाद अगला नाम विचार करते हुए मन में चिंतन हुआ कि “आनन्द” शब्द तो अक्षर में है और पूर्णपुरुषोत्तम में भी। इस कारण संदेह उत्पन्न हुआ कि कहीं श्रीमहाप्रभुजी अक्षर के आनंद स्वरूप तो नहीं हैं। इस संदेह को समाप्त करने के लिए “परमानन्दः” नाम का उल्लेख किया गया। यद्यपि श्रीआचार्यजी श्रीपूर्णपुरुषोत्तम के आनंद स्वरूप हैं, किंतु भूलोक में प्रकट होने के कारण उन्हें उस स्वरूप में कैसे कहा जाए? इस समस्या को सुलझाने हेतु “परमानन्दः” नाम को स्थापित किया गया।

श्रीकृष्णास्यम्

भावार्थ : श्रीआचार्यजी श्रीकृष्ण के श्रीमुख स्वरूप हैं।
टीका : श्रीस्वामिनीजी तथा व्रजभक्तों सहित कृष्ण सच्चिदानन्द फलरूप शुद्ध पुष्टिमार्गीय परमात्मा, श्रीपूर्ण पुरुषोत्तम के श्रीमुख स्वरूप आप हैं। यहां यह संदेह उत्पन्न होता है कि श्रीमहाप्रभुजी, जो श्रीठाकुरजी के मुखारविंद स्वरूप हैं, वे श्रीपूर्ण पुरुषोत्तम के समान हैं। ऐसे में, श्रीमहाप्रभुजी का प्राकट्य उसी प्रकार होना चाहिए था जैसे श्रीकृष्ण का अलौकिक प्राकट्य व्रज में हुआ था। परंतु उनका प्राकट्य अन्यत्र हुआ। इस कारण की व्याख्या हेतु यह नाम बताया गया।

कृपा-निधि:

भावार्थ : श्रीआचार्यजी कृपा के निधि हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी अलौकिक कृपा से युक्त हैं। जिन जीवनों पर कृपा करनी थी, वे इस लोक में प्रकट हुए। अतः श्रीमहाप्रभुजी स्वयं भी यहां प्रकट हुए। यदि वे ऐसा न करते तो उन जीवों का उद्धार संभव नहीं होता। इसीलिए, उन्हें ‘कृपा-निधि’ कहा गया। कृपा की निधि असीमित होती है और वह सभी को पूर्णता प्रदान करती है। श्रीमहाप्रभुजी द्वारा प्रकटित भक्ति मार्ग में अंगीकृत हर व्यक्ति को उनके अधिकार के अनुसार भजन आनंद रूप फल प्राप्त होता है।

यहां शंका हो सकती है कि वे कौन से जीव थे जिनके उद्धार के लिए श्रीमहाप्रभुजी को भूतल पर प्रकट होना पड़ा। इसका उत्तर अगले नाम में दिया गया है।

दैवोद्धार-प्रयत्नात्मा

भावार्थ : दैवी जीवन के उद्धार के लिए प्रयत्नशील हैं।
टीका : दैवी सृष्टि के जीव दो प्रकार के हैं। कुछ ऐसे हैं जिनका साधन से उद्धार संभव है। वेद-पुराण में बताए गए साधन को अपनाकर वे कृतार्थ हो सकते हैं, अतः इनके लिए श्रीमहाप्रभुजी का प्राकट्य आवश्यक नहीं। लेकिन दैवी जीवन में दूसरे प्रकार के पुष्टिमार्गीय जीव हैं, जिनका उद्धार श्रीठाकुरजी साधन रहित ही करते हैं। इन जीवनों का फल साक्षात् श्रीठाकुरजी के स्वरूप-संबंध से होता है। ऐसा फल प्राप्त करने का साधन वेद-पुराण में प्रसिद्ध नहीं है। यह शुद्ध पुष्टिमार्गीय साधन के माध्यम से ही संभव है, जिसका ज्ञान केवल पुष्टिमार्गीय भक्तों को होता है।

यदि श्रीमहाप्रभुजी प्रकट न होते, तो पुष्टिमार्ग निष्फल हो जाता। अतः श्रीमहाप्रभुजी का प्राकट्य हुआ। यह नाम “दैवोद्धारप्रयत्नात्मा” इस तथ्य को व्यक्त करने के लिए रखा गया।

अब यह कहते हैं कि पुष्टिमार्गीय जीवन के मन में अन्य मार्ग का फल नहीं आता और अपने पुष्टिमार्गीय साधन-फल का उन्हें ज्ञान नहीं होता। श्रीमहाप्रभुजी के प्राकट्य से पहले सेवकों का उद्धार कैसे हुआ होगा? इसका उत्तर है कि जब श्रीमहाप्रभुजी प्रकट हुए, तब उनके चरणारविंद के स्मरण मात्र से सेवकों को साधन-फल का ज्ञान हुआ। इस प्रकार उद्धार हुआ और आरती-क्लेश दूर हुए। यह दर्शाने के लिए श्रीमहाप्रभुजी का यह नाम रखा गया।

स्मृति-मात्रार्ति-नाशन:

भावार्थ : आपको स्मरण मात्र करने से सेवकों की आरति दूर होती है।
टीका : जो कोई अन्य मार्ग का अनुसरण करने वाला भी यदि श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी के महात्म्य को जानकर उनका स्मरण करता है, तो उसकी आरति दूर हो जाती है। यह श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी का अद्वितीय स्वरूप है।

अब कहते हैं कि जो श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी के स्वरूप को जानते हैं, वे पुष्टिभक्ति मार्ग का प्रमाण मानते हैं। परंतु जो पंडितजन उनके स्वरूप को नहीं जानते, उनके मन में यह संदेह उत्पन्न होता है कि पुष्टिमार्ग का मूल क्या है। इस संदेह को दूर करने के लिए श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी का अगला नाम बताया गया है।

श्लोक ८

श्रीभागवत-गूढार्थ-प्रकाशन-परायण:

भावार्थ : श्रीभागवत के गूढ़ और गुप्त, अन्य किसी के द्वारा अज्ञात अर्थ को प्रकट करने में आप परायण (तत्पर) हैं।
टीका : इस नाम में अन्य शास्त्रों का उल्लेख नहीं किया गया है, केवल श्रीभागवत का नाम लिया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि पुष्टिमार्ग का मूल श्रीभागवत ही है। क्यों? क्योंकि उसमें ही पुष्टिमार्ग का वर्णन है। यह पूर्वपक्ष उत्पन्न हो सकता है कि श्रीभागवत का तो सभी व्याख्यान करते हैं। यदि उसमें पुष्टिमार्ग है तो अन्य लोग भी उसे जान सकते हैं! इस पर आगे कहते हैं कि यद्यपि सभी श्रीभागवत का व्याख्यान करते हैं, परन्तु उसमें गुप्त फलरूप जो पुष्टिमार्ग है, उसका ज्ञान किसी अन्य को नहीं है। यह ज्ञान केवल श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी को है, इसलिए उन्होंने इसे प्रकट किया।

एक और पूर्वपक्ष हो सकता है कि श्रीभागवत में तो मुक्ति को फलरूप बताया गया है, पुष्टिमार्ग के फल का वर्णन कहां किया गया है? इसका उत्तर यह है कि श्रीभागवत में मुक्ति का फल भक्तिरस ही कहा गया है और यह भी कहा गया है कि भक्तिरस के आगे मुक्ति आदि सब तुच्छ हैं। यह सब निरूपण श्रीमहाप्रभुजी द्वारा किया गया है। इसी कारण इस नाम को प्रस्तुत किया गया है। श्रीभागवत के गूढ़ार्थ का प्रकाशन करने में विचारशील श्रीमहाप्रभुजी स्वयं तत्पर हैं।

अब यह पूर्वपक्ष हो सकता है कि पुष्टिमार्ग का फल तो श्रीठाकुरजी के स्वरूप का अनुभव है। श्रीठाकुरजी के स्वरूप को ‘निराकार’ कहा गया है, तो उसका अनुभव कैसे होगा? इस संदेह को दूर करने के लिए श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी का यह नाम बताया गया है।

साकार-ब्रह्म-वादैक-स्थापक:

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी साकार ब्रह्मवाद की स्थापना करने वाले हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी का स्वरूप ऐसा है कि वे साकार—सभी इन्द्रियों द्वारा अनुभव करने योग्य—आनंदमय रूप, जैसे कर, पाद, मुख, उदर आदि सहित श्रीपूर्ण पुरुषोत्तम को युक्तिसहित स्थापित करते हैं। इस कारण पुष्टिमार्गीय फल का अनुभव भलीभांति होता है।

अब यह पूर्वपक्ष हो सकता है कि अन्य आचार्यों ने भी ब्रह्म को साकार कहा है, तो इसमें श्रीमहाप्रभुजी का विशेषत्व क्या है? इस शंका का समाधान करने के लिए श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी का अगला नाम प्रस्तुत किया गया है।

वेद-पारग:

भावार्थ : आचार्यजी सम्पूर्ण वेदों के ज्ञाता हैं।
टीका : श्रीठाकुरजी का स्वरूप लौकिक नेत्रों से देखा नहीं जा सकता। अतः जिस प्रकार वेदों में वर्णित है, उसी प्रकार उसे जानना चाहिए। निराकार स्वरूप का उल्लेख भी वेदों में ही किया गया है। लेकिन सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान अन्य किसी के पास नहीं है। इस कारण, कुछ लोग थोड़ी सी श्रुति का ज्ञान लेकर अपने मन के आग्रह से निराकार स्वरूप का निरूपण करते हैं। इसलिए ऐसे ज्ञान को प्रमाण नहीं मानना चाहिए।

श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी को वेदों की सभी शाखाओं और उपनिषदों का पूरा ज्ञान है। उन्होंने साकार और निराकार दोनों स्वरूपों का निश्चितता के साथ निरूपण किया। अतः उनके द्वारा निरूपित ज्ञान को ही प्रमाण मानना चाहिए। इसीलिए उन्हें ‘वेद-पारग’ कहा गया।

श्लोक ९

माया-वाद-निराकर्ता

भावार्थ : सब कुछ मिथ्या और मायिक है, ऐसा निरूपण करने वाले मायावाद का निवारण करने वाले आप हैं।
टीका : यद्यपि पहले कहे गए दो नाम—साकार ब्रह्मवाद के स्थापक और वेद-पारग होने के कारण—मायावाद का निराकरण किया जा चुका है, फिर भी इस नाम को कहने का उद्देश्य यह है कि मायावाद पूर्णतः वेदविरुद्ध है। अतः इसका निवारण अत्यावश्यक है। इसीलिए इसे अलग नाम से प्रस्तुत किया गया।

मायावादी कहते हैं कि माया से प्रकट होने वाली सभी चीजें मिथ्या हैं। यह वाद वेदविरुद्ध है। क्यों? क्योंकि वेदों में सभी वस्तुओं को सत्य बताया गया है। अतः यह वेद-विरोधी वाद है और इसका निराकरण करना आवश्यक है। श्रीमहाप्रभुजी की इस विशेषता को प्रकट करने हेतु उन्हें “माया-वाद-निराकर्ता” नाम दिया गया है।

सर्व-वादि-निरास-कृत्

भावार्थ : वेदविरुद्ध अर्थ करने वाले सभी वादों का खण्डन करने वाले श्रीआचार्यजी हैं।
टीका : यहां यह कहा गया है कि मायावाद के समान ही अन्य वेदविरुद्ध वाद भी हैं। वे कौन से वाद हैं? जो शास्त्र (वाद) कहते हैं कि ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न ये ईश्वर के धर्म हैं, परंतु उन्हें आनंदस्वरूप नहीं मानते। इस प्रकार, न्यायशास्त्र का मत वेदविरुद्ध है। कर्ममार्गी केवल कर्म को मुख्य मानते हैं और ईश्वर को नहीं मानते। सांख्यवादी प्रकृति-पुरुष को ही मुख्य मानते हैं। इस प्रकार अन्य कई मत वेदों के विरुद्ध हैं।

इन सभी मतों को श्रीमहाप्रभुजी ने खण्डित किया है। अब यह कहा जाता है कि जब आप सभी वादों का निरास (खण्डन) कर चुके हैं, तो कौन सा धर्म आचरण में लाते हैं? इस संदेह को दूर करने के लिए इस नाम का उल्लेख किया गया है।

भक्‍ति-मार्गाब्ज-मार्तण्डः

भावार्थ : भक्‍तिमारगरूप जो कमल है, उसके ‘मार्तण्ड’ अर्थात् सूर्यरूप से प्रकाश करने वाले आप हैं।
टीका : यह नाम यह दर्शाता है कि भक्‍तिशास्त्र, जैसे श्रीभागवत-गीता, में जो धर्म बताए गए हैं, उन्हें आचरण में लाने वाले श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी हैं। भक्‍तिमार्ग को ‘कमल’ कहा गया है, क्योंकि यह कमल की तरह महासुख को प्रदान करने वाला है और अन्य मार्गों की अपेक्षा अधिक आनंदरूप है। श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी को ‘सूर्य’ कहा गया है क्योंकि सूर्य के प्रकाश से जिस प्रकार कमल खिलता है, उसी प्रकार भक्‍तिमार्ग का प्रकाशन श्रीमहाप्रभुजी करते हैं। यह कार्य केवल उनके द्वारा ही संभव है।

सूर्य के प्रकाश से खिलने वाले कमल में जो रस का भोग करने वाला भ्रमर होता है, उसी प्रकार श्रीमहाप्रभुजी द्वारा प्रकट किया गया भक्‍तिमार्ग में रस का भोग करने वाले जीव वही हैं जिन्हें श्रीमहाप्रभुजी ने अंगीकार किया है। सूर्य, दूसरों के लिए ताप का कारण हो सकता है, परंतु कमल के अंदर के भ्रमर के लिए वह आनंद उत्पन्न करता है। इसी प्रकार, श्रीमहाप्रभुजी अन्य मार्गीयों के लिए ताप का कारण हो सकते हैं, परंतु अपने अंगीकृत जीवों के लिए वह आनंद प्रदाता हैं।

इस नाम का उपयोग यह जताने के लिए किया गया है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्रियों आदि सभी के लिए पुष्टिमार्ग का प्राकट्य किया और उन्हें अंगीकार कर सबका उद्धार किया। उन्होंने मुक्ति से भी अधिक फल प्रदान किए। अतः श्रीमहाप्रभुजी को ‘भक्‍ति-मार्गाब्ज-मार्तण्ड’ कहा गया।

स्त्री-शूद्राद्युद्धृति-क्षम:

भावार्थ : श्रीआचार्यजी स्त्री, शूद्र और अन्य सभी जीवनों का उद्धार करने वाले हैं।
टीका : अपनी सामर्थ्य के बल पर सभी जीवनों का उद्धार करने में श्रीमहाप्रभुजी ही पूर्ण समर्थ हैं। उन्होंने स्त्री, शूद्र और समस्त जीवों का उद्धार किया है। इसी गुण के कारण उन्हें ‘स्त्री-शूद्राद्युद्धृति-क्षम’ कहा गया है।

श्लोक १०

अङ्गीकृत्यैव गोपीश-वल्लभीकृत-मानव:

भावार्थ : अङ्गीकारमात्र से जीवों को साक्षात् श्रीठाकुरजी के प्रिय बनाने वाले श्रीआचार्यजी हैं।
टीका : व्रजभक्तों ने सर्वात्मभाव आदि साधन के द्वारा श्रीठाकुरजी से जो-जो फल प्राप्त किए हैं, वह श्रीठाकुरजी की कृपा से ही संभव हुआ। यहां श्रीमहाप्रभुजी द्वारा अङ्गीकार मात्र से ही श्रीठाकुरजी प्रसन्न होकर जीवों को फल प्रदान करते हैं। ऐसे में अन्य साधनों की आवश्यकता क्यों हो?

यह पूर्वपक्ष हो सकता है कि श्रीमहाप्रभुजी के अङ्गीकार मात्र से ही श्रीठाकुरजी क्यों प्रसन्न होते हैं? इसका उत्तर यह है कि जैसे श्रीठाकुरजी व्रजभक्तों के साथ लीला करते हुए परवश हो जाते हैं, उसी प्रकार लीला के भीतर जिन जीवों को श्रीमहाप्रभुजी अङ्गीकार करते हैं, वे जीव भी श्रीठाकुरजी को अत्यंत प्रिय हो जाते हैं। अतः श्रीठाकुरजी उन्हें फल प्रदान करने में किसी साधन को नहीं देखते, वे साधन रहित ही फलदान करते हैं।

अब यह कहा जाता है कि जब श्रीमहाप्रभुजी अङ्गीकार करते हैं, तभी श्रीठाकुरजी फल प्रदान करते हैं। श्रीमहाप्रभुजी किस प्रकार अङ्गीकार करते हैं, यह अगले नाम में कहा गया है।

अङ्गीकृतौ समर्यादो

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी भक्‍तिमार्ग की मर्यादा सहित जीवों को अङ्गीकार करने वाले हैं।
टीका : भक्‍तिमार्ग में अङ्गीकार की मर्यादा कैसी है? इसके अनुसार, श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी के अङ्गीकार करने से पहले जीव यह समझता है कि वह मुक्ति से भी अधिक श्रीमहाप्रभुजी का साक्षात् संबंध पाकर कृतार्थ होगा। वह यह जानकर प्रार्थना करता है, “तुम मुझको अपना करो।” इस प्रकार प्रार्थना कर जब वह आपकी शरण में आता है, तो आप कृपा कर उसे निकट बुलाकर श्रीठाकुरजी के सन्मुख बैठाते हैं। फिर मार्ग की विधि अनुसार उपदेश देकर, उसे श्रीठाकुरजी को सौंप देते हैं। इसके बाद, उसे अपना जानकर स्वीकार करते हैं और कहते हैं, “यह मेरा है।” तब श्रीठाकुरजी फल प्रदान करते हैं। यह प्रक्रिया अङ्गीकार करने की रीति है।

अब यह कहा जाता है कि जीव अपने उद्धार के लिए अनेक प्रयास करता है और करता रहेगा। लेकिन आप, श्रीमहाप्रभुजी, उसे मुक्ति से भी अधिक फल का दान क्यों करते हैं? इस शंका का समाधान अगले नाम में दिया गया है।

महाकारुणिक:

भावार्थ : जितने वैष्णवाचार्य हैं, उन्होंने अपने सेवकों को मर्यादा भक्ति का उपदेश देकर उन्हें मुक्ति प्रदान की। वे सब ‘कारुणिक’ अर्थात् दयाशील कहे गए।

टीका : यदि श्रीमहाप्रभुजी भी ऐसा ही करते तो उन्हें भी ‘कारुणिक’ कहा जाता। परंतु श्रीमहाप्रभुजी तो मुक्ति से अधिक, साक्षात् पुष्टिमार्ग का संबंध सिद्ध करते हैं। इसलिए उन्हें ‘महाकारुणिक’ कहा गया।

अब यह शंका हो सकती है कि पुष्टिमार्ग के फल को सिद्ध करने वाला ऐसा कोई अभी तक देखा या सुना नहीं गया है। तो ऐसा फलदान श्रीमहाप्रभुजी कैसे कर सकते हैं? इस शंका को दूर करने हेतु उनका अगला नाम प्रस्तुत किया गया है।

विभु:

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी सर्वसमर्थ हैं।
टीका : यह कहा गया है कि पुष्टिमार्ग का फल और कोई प्रदान नहीं कर सकता। इसे प्रदान करने में केवल श्रीमहाप्रभुजी ही समर्थ हैं। अन्य आचार्य केवल मर्यादा भक्ति मार्ग के साधन और फल का ही विचार करते हैं, अतः वे केवल उसी फल का दान करते हैं। उन्होंने अन्य किसी प्रकार का विचार नहीं किया, तो ऐसे फल को देने की सामर्थ्य उनके पास कहां से हो सकती है?

श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी के पास सबसे अधिक सामर्थ्य है। इसे प्रकट करने के लिए उन्हें ‘विभु:’ यह नाम दिया गया है।

श्लोक ११

अदेयदानदक्षः

भावार्थ : श्रीठाकुरजी के अतिरिक्त और कोई दान करने योग्य न हो, ऐसा दान देने वाले श्रीआचार्यजी हैं।
टीका : मर्यादामार्ग में श्रवण-मनन आदि साधन का फल केवल मुक्ति होता है। अन्य आचार्यों ने इसी फल को ही दान किया है। यदि श्रीमहाप्रभुजी भी मुक्ति का दान करते, तो वे अन्य आचार्यों के समान हो जाते और उनका प्राकट्य व्यर्थ सिद्ध होता।

इसलिए, श्रीमहाप्रभुजी का यह स्वरूप ऐसा है कि वे केवल श्रीठाकुरजी को छोड़कर अन्य किसी भी फल का दान नहीं करते। वे ऐसे असाधारण फल को देने में सक्षम हैं जो श्रीठाकुरजी से ही प्राप्त हो सकता है। इसे प्रकट करने के लिए यह नाम दिया गया है।

अब यह कहा जाता है कि दाता हमेशा पात्र को देखकर दान करता है। यदि श्रीआचार्यजी जीवन की योग्यताओं पर विचार करें, तो जीवन को कोई ठिकाना नहीं मिलेगा। इस शंका को दूर करने के लिए उनका अगला नाम प्रस्तुत किया गया है।

महोदारचरित्रवान्

भावार्थ : श्रीआचार्यजी महान् उदार चरित्र वाले हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी केवल दाता हों, तो वे पात्र को देखकर ही दान करें। परंतु आप तो उदारता सहित दाता हैं। केवल दाता और उदार-दाता में यह अंतर होता है कि केवल दाता दान में तीर्थ का विचार करता है, फल का विचार करता है, पात्र और अपात्र का विचार करके ही दान करता है। लेकिन उदारदाता अपनी सहज उदारता के धर्म के कारण पात्र का विचार किए बिना ही दान करता है।

आप इतने सामर्थ्यवान हैं कि जिन्हें दान करते हैं, वे स्वयं पात्र बन जाते हैं। इसे प्रकट करने के लिए यह नाम दिया गया।

अब यह कहा जाता है कि आपकी उदारता के विषय में यह कहा गया कि आप पात्र-अपात्र का विचार किए बिना दान करते हैं। ऐसा सामर्थ्य तो केवल श्रीपूर्णपुरुषोत्तम में ही हो सकता है। परंतु श्रीमहाप्रभुजी का प्राकट्य लौकिक प्रपंच में हुआ है, और लौकिक सभी धर्म दृष्टिगोचर होते हैं। अतः यह कहा गया कि आप श्रीपूर्णपुरुषोत्तम हैं। इसे प्रकट करने के लिए यह नाम दिया गया।

प्राकृतानुकृति-व्याज-मोहितासुर-मानुष:

भावार्थ : श्रीआचार्यजी लौकिक मनुष्य की भांति आचरण कर आसुरी जीवन को मोह (भ्रम) में डालने वाले हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी साधारण लौकिक जीवन की भांति आचरण करते हैं। इस प्रकार, वे आसुरी जीवन को मोह में डालते हैं, जिससे वे उन्हें साधारण मनुष्य मानने लगते हैं।

यह पूर्वपक्ष हो सकता है कि श्रीमहाप्रभुजी के लौकिक आचरण को देखकर दैवी जीवन क्यों मोहित नहीं होता? इसका उत्तर यह है कि केवल आसुरी अथवा आसुरावेशी जीवन ही मोह का अनुभव करता है। उदाहरण के लिए, जब श्रीठाकुरजी श्रीदेवकीजी के गर्भ में पधारे, तो कंस ने यह समझा कि श्रीपूर्णपुरुषोत्तम मेरे वध के लिए गर्भ में आए हैं। इसी भ्रम से उसने पूतना को भेजा। पूतना ने उन्हें साधारण बालक मानकर स्तनपान कराया। यह सारा मोह केवल आसुरी जीवन का था।

वहीं दैवी जीव ने श्रीठाकुरजी को गर्भ में देखकर यह समझा कि यह तो श्रीपूर्णपुरुषोत्तम हैं। गर्भ में आना उनकी लीला मात्र है, और वे हमारे रक्षक हैं। इस ज्ञान से उन्होंने स्तुति की। इसी प्रकार, दैवी जीव समझता है कि श्रीमहाप्रभुजी श्रीपूर्णपुरुषोत्तम रूप हैं और हमारे उद्धार करने वाले हैं।

वहीं असुरगण आपके लौकिक आचरण से मोहित होकर आपको साधारण मानव मान लेते हैं। यह नाम श्रीमहाप्रभुजी के इस अद्वितीय स्वरूप को प्रकट करता है।

श्लोक १२

वैश्‍वानरः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी अलौकिक अग्निरूप हैं।
टीका : श्रीठाकुरजी का मुख अग्निरूप है, और श्रीमहाप्रभुजी उसी अलौकिक मुखारविंदरूप अग्नि के अवतार हैं। अतः वे अलौकिक अग्निरूप हैं। इस अग्नि के तेज से वे दोषयुक्त जीवनों के सभी दोषों को भस्म कर देते हैं। यही उनके ‘वैश्‍वानरः’ नाम का भावार्थ है।

अब यह शंका हो सकती है कि श्रीमहाप्रभुजी का अलौकिक अग्निरूप होने का तेज भक्तों को कैसे सहन होता होगा? तब भक्त भलीभांति सेवा कैसे कर पाते होंगे? इस संदेह को दूर करने हेतु उनका अगला नाम प्रस्तुत किया गया है।

वल्लभाख्य:

भावार्थ : श्रीआचार्यजी भक्तों को प्रिय हैं।
टीका : लौकिक अग्नि का तेज घटता-बढ़ता रहता है। शीतकाल में यह सुखद प्रतीत होता है, लेकिन उष्णकाल में इसे सहन करना कठिन होता है। परंतु श्रीमहाप्रभुजी अलौकिक अग्निरूप, श्रीपूर्णपुरुषोत्तम के मुखारविंदरूप, और आनंदरूप हैं। इसलिए वे सदा प्रिय हैं और कभी अप्रिय नहीं होते।

आप अलौकिक अग्निरूप होते हुए भी हमेशा प्रिय रहते हैं। इसे प्रकट करने हेतु यह नाम दिया गया।

अब यह शंका हो सकती है कि संसार में प्रिय पदार्थ किसी विशेष कारण से कभी अप्रिय भी हो सकता है। इस संदेह को दूर करने के लिए उनका अगला नाम प्रस्तुत किया गया है।

सद्रूप:

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी सच्चिदानंद सुखरूप हैं, जिससे वे सदा प्रिय हैं।
टीका : लोक में प्रियता का आधार सुख है। स्त्री-पुत्रादि प्रिय होते हैं क्योंकि वे कभी-कभी सुख प्रदान करते हैं, परंतु वे स्वयं सुखरूप नहीं हैं। अतः वे कभी अप्रिय भी हो जाते हैं। लेकिन श्रीमहाप्रभुजी श्रीठाकुरजी के मुखारविंद रूप सच्चिदानंद सुखरूप हैं। इसीलिए वे हमेशा प्रिय रहते हैं और कभी अप्रिय नहीं होते।

अब यह कहा गया है कि यदि सेवकों के विविध भाव और मनोरथ उत्पन्न होते हैं, तो जब उनके मनोरथ पूर्ण नहीं होते, क्या तब उनकी श्रीमहाप्रभुजी में प्रीति कम हो जाएगी? इस सन्देह को दूर करने के लिए उनका अगला नाम बताया गया है।

सतां हितकृत्

भावार्थ : श्रीआचार्यजी सभी भक्तों का हित करने वाले हैं।
टीका : आपके जितने भी सेवक हैं, वे जो-जो भाव लेकर और जो-जो मनोरथ के साथ सेवा करते हैं, श्रीआचार्यजी उन सबके मनोरथ सिद्ध करके उनकी सेवा को अंगीकार करते हैं। परंतु उनके मनोरथ पूर्ण करने में कभी विलंब सहन नहीं करते, इसलिए सभी सेवकों की प्रीति बनी रहती है। इसे प्रकट करने के लिए यह नाम दिया गया।

अब यह कहा गया है कि श्रीमहाप्रभुजी ने अपना स्वरूप, पुष्टिमार्ग का फल आदि सब स्पष्ट किया, परंतु श्रीठाकुरजी की सेवा का स्वरूप नहीं बताया। ऐसा क्यों? इसका कारण यह है कि श्रीठाकुरजी की सेवा का स्वरूप शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता। इसलिए श्रीमहाप्रभुजी स्वयं श्रीठाकुरजी की सेवा करके सेवकों को इसे सिखाते हैं। इसे दर्शाने के लिए उनका अगला नाम बताया गया है।

जन-शिक्षा-कृते कृष्ण-भक्‍ति-कृत्

भावार्थ : श्रीआचार्यजी ने जन-शिक्षा के लिए श्रीकृष्ण भक्ति का आचरण कर उसे प्रकट किया।
टीका : यद्यपि पुराण और आगमों में सेवा के प्रकार बताए गए हैं, परंतु उनमें पूजामार्ग की रीतियों के अनुसार श्रीपूर्णपुरुषोत्तम के अंश-विभूतियों की सेवा का ही विवरण है। यह देवता मंत्रों के आधीन होते हैं, जबकि श्रीपूर्णपुरुषोत्तम केवल भक्ति के आधीन हैं। इसलिए इन शास्त्रों में श्रीपूर्णपुरुषोत्तम की सेवा का प्रकार स्पष्ट नहीं है।

यदि श्रीमहाप्रभुजी स्वयं सेवा करके पुष्टिमार्गीय सेवा का प्रकार नहीं सिखाते, तो सेवकों को इसका ज्ञान न हो पाता। तब सेवक पूजामार्ग की विधि से सेवा करते, जो कि ‘पुष्टिमार्गीय’ नहीं कहलाती, बल्कि ‘पूजामार्गीय’ हो जाती। अतः उन्होंने स्वयं सेवा कर दिखाई और इसे पूजामार्ग से भिन्न रीति के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने सेवकों को इसका स्वरूप बताया, जिससे यह पुष्टिमार्गीय बन गया। इसे प्रकट करने के लिए यह नाम दिया गया।

आपने सेवा कर सिखाया, तो इसका इतना प्रयोजन क्या था? इस संदेह को दूर करने हेतु उनका अगला नाम बताया गया है।

निखिलेष्टदः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी सभी प्रकार के इष्ट और वांछित फल प्रदान करने वाले हैं।
टीका : यदि श्रीआचार्यजी ने इतना श्रम करके सेवा का प्रकार नहीं सिखाया होता, तो कोई इसे जान ही नहीं सकता था। पुष्टिमार्ग में श्रीठाकुरजी का संबंध ही फलस्वरूप है, और यदि यह सिद्ध न होता, तो उन्हें ‘निखिलेष्टदः’ नहीं कहा जा सकता था।

अतः इसी कारण से उन्होंने इतना श्रम किया। इसे प्रकट करने के लिए उन्हें ‘निखिलेष्टदः’ यह नाम दिया गया।

श्लोक १३

सर्वलक्षणसम्पन्‍नः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी सभी दान करने की सामर्थ्य से पूर्ण हैं।
टीका : किसी भी भावन का दान तभी संभव हो सकता है जब श्रीठाकुरजी के जितने लक्षण हैं, वे सभी हों। श्रीमहाप्रभुजी में श्रीठाकुरजी के समस्त लक्षण विद्यमान हैं। इसे प्रकट करने के लिए उन्हें ‘सर्वलक्षणसम्पन्‍नः’ यह नाम दिया गया।

अब यह कहा गया है कि श्रीमहाप्रभुजी जो दान करते हैं, वह किस प्रकार का है। इसे विस्तार से बताने के लिए उनका अगला नाम प्रस्तुत किया गया है।

श्रीकृष्ण-ज्ञानदः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी व्रजभक्तों सहित पुष्टिमार्ग के फलरूप श्रीपूर्णपुरुषोत्तम के रसरूप स्वरूप का ज्ञान देने वाले हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी जिस ज्ञान को प्रदान करते हैं, वह गीता और भागवत में बताए गए ज्ञान से भिन्न है। गीता-भागवत में कहा गया है कि श्रीठाकुरजी जगत में व्यापी और ज्ञानरूप हैं, लेकिन ‘रसरूप’ का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इसलिए श्रीमहाप्रभुजी अपने सेवकों को रसरूप का ज्ञान प्रदान करते हैं।

यह पूर्वपक्ष हो सकता है कि श्रीशुकदेवजी, श्रीकपिलदेवजी, और श्रीनारदजी भी ज्ञान देते हैं, तो श्रीमहाप्रभुजी में क्या विशेषता है? उत्तर यह है कि ये सभी मर्यादामार्गीय हैं, जबकि श्रीमहाप्रभुजी पुष्टिमार्गीय हैं। अतः श्रीमहाप्रभुजी का ज्ञान पुष्टिमार्गीय है। इसे प्रकट करने हेतु उनका यह नाम रखा गया।

यह शंका हो सकती है कि श्रीमहाप्रभुजी ज्ञान क्यों प्रदान करते हैं। इसका उत्तर उनके अगले नाम में बताया गया है।

गुरुः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी पुष्टिभक्ति मार्ग के गुरु हैं।
टीका : मार्ग का उपदेश करने वाला और मार्ग के फल को प्रदान करने वाला ‘गुरु’ कहलाता है। जैसे श्रीकपिलदेवजी सांख्य मार्ग के गुरु हैं, उसी प्रकार श्रीमहाप्रभुजी पुष्टिभक्ति मार्ग का उपदेश करने वाले और फल प्रदान करने वाले हैं। अतः श्रीमहाप्रभुजी इस पुष्टिमार्ग के गुरु हैं। इसे प्रकट करने के लिए यह नाम दिया गया।

अब यह कहा गया कि श्रीकपिलदेवजी ने अपने माता जी को योग मार्ग का उपदेश देते समय मर्यादा भक्ति मार्ग का भी उपदेश किया। परंतु श्रीआचार्यजी ने केवल पुष्टिमार्ग को ही निरूपित किया और अन्य किसी भक्ति मार्ग को नहीं। इसे स्पष्ट करने हेतु उनका अगला नाम बताया गया है।

स्वानन्दतुन्दिलः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी अगणित आनंद से पुष्ट हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी श्रीपूर्णपुरुषोत्तम के अगणित आनंद से पुष्ट हैं। इसीलिए, अन्य मार्गों का फल और अन्य विषय उनके लिए तुच्छ प्रतीत होते हैं। उनके भीतर का आनंद इतना प्रबल है कि वह सब वस्तुओं को भुला देता है, जिसके कारण उन्हें अन्य किसी वस्तु का स्मरण नहीं होता।

इसी कारण, श्रीमहाप्रभुजी ने पुष्टिमार्ग को छोड़कर अन्य भक्तिमार्गों का निरूपण नहीं किया। इस अद्वितीय स्वरूप को प्रकट करने के लिए उन्हें ‘स्वानन्दतुन्दिलः’ यह नाम दिया गया।

अब यह जानने का प्रश्न उठता है कि श्रीमहाप्रभुजी अगणित आनंद से पुष्ट हैं, यह कैसे समझा जाए। इसे स्पष्ट करने के लिए उनका अगला नाम बताया गया है।

पद्म-दलायत-विलोचनः

भावार्थ : कमल की पंखुड़ी के समान बड़े नेत्र वाले श्रीमहाप्रभुजी हैं।
टीका : उनके नेत्रों को कमल की उपमा दी गई है, जिससे यह समझा जाए कि जैसे कमल सुखरूप, शीतल, लाल रेखांकित और सुगंधयुक्त होता है, उसी प्रकार श्रीमहाप्रभुजी के नेत्र भक्तों को परम सुख देने वाले, शीतल और लाल रेखाओं से युक्त हैं।

श्रीमहाप्रभुजी के हृदय में जो आनंद है, वह उनके नेत्र कमल में प्रकट होता है। इसे व्यक्त करने के लिए उन्हें ‘पद्म-दलायत-विलोचनः’ यह नाम दिया गया है।

श्लोक १४

कृपा-दृग्-वृष्टि-संहृष्ट-दास-दासी-प्रियः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी अपने सेवकों पर कृपा-कटाक्ष की वर्षा करने वाले हैं, जिससे अति आनंदित दास-दासियों के प्रिय हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी अपने कृपामय कटाक्ष से अपने सेवकों के हृदय को प्रसन्न करते हैं। उनकी कृपा दृष्टि से सेवकों के भीतर परम आनंद उत्पन्न होता है। इस आनंद के कारण दास-दासियां उन्हें अत्यंत प्रिय मानते हैं।

इस स्वरूप को प्रकट करने के लिए उन्हें ‘कृपा-दृग्-वृष्टि-संहृष्ट-दास-दासी-प्रियः’ यह नाम दिया गया है।

पतिः

भावार्थ : पति वह कहलाते हैं, जो स्वयं निर्भय हों और अपने शरणागत को भी निर्भय कर सकें। ऐसे ही पति श्रीआचार्यजी हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी स्वयं काल, कर्म, स्वभाव आदि के भय से रहित हैं। साथ ही, वे अपने शरणागत शिष्यों को भी काल आदि के भय से मुक्त करने वाले हैं। इसलिए उन्हें ‘पतिः’ यह नाम दिया गया है।

अब यह कहा गया है कि लोक में आसुरी जीव, दैवी जीवन के शत्रु होते हैं। वे श्रीमहाप्रभुजी के सेवकों से द्वेष करते हैं। इस कारण सेवकों को इन असुरों से भय हो सकता है। श्रीमहाप्रभुजी इस भय को दूर करने वाले हैं। इसे प्रकट करने के लिए उनका अगला नाम बताया गया है।

रोष-दृक्पात-सम्प्लुष्ट-भक्‍त-द्विट्

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी अपने भक्तों के द्वेषियों पर क्रोधयुक्त दृष्टि डालकर उन्हें भस्म करने वाले हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी अपने भक्तों के प्रति विशेष स्नेह रखते हैं। जो कोई भी उनके भक्तों से द्वेष करता है, उन पर वे क्रोधपूर्ण कटाक्ष करते हैं। उनके इस कटाक्ष से द्वेषी का नाश हो जाता है।

यह नाम श्रीमहाप्रभुजी की इस अद्भुत कृपा और शक्ति को प्रकट करता है कि वे अपने भक्तों की रक्षा के लिए उनके शत्रुओं को भस्म करने में समर्थ हैं।

भक्‍त-सेवितः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी भक्तों द्वारा निरंतर सेवा किए जाने वाले हैं।
टीका : जब श्रीमहाप्रभुजी भक्तों के अलौकिक कार्य सिद्ध करते हैं, तो उनके भक्तों को इतना आनंद प्राप्त होता है कि वे श्रीआचार्यजी की सेवा में एक क्षण का विलंब भी सहन नहीं कर सकते। वे निरंतर सेवा करते हैं।

इस भाव को प्रकट करने के लिए उन्हें ‘भक्‍त-सेवितः’ यह नाम दिया गया।

श्लोक १५

सुखसेव्यः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी सुखपूर्वक सेवा के योग्य हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी के सेवक अनेक हैं, लेकिन जो भक्त जिस भाव और जिस रीति से सेवा करने की इच्छा रखते हैं, श्रीमहाप्रभुजी उनके सभी मनोरथ पूर्ण करते हैं और उनकी सेवा को स्वीकारते हैं। इस प्रकार, वे परम दयालु हैं। इसी कारण वे सभी भक्तों द्वारा सुखपूर्वक सेवा के योग्य हैं। इसे प्रकट करने के लिए उन्हें ‘सुखसेव्यः’ यह नाम दिया गया।

अब यह विचार किया जाता है कि जैसे श्रीमहाप्रभुजी भक्तों के लिए सुखकर सेवा योग्य हैं, क्या उसी प्रकार वे दूसरों के लिए भी सेवा योग्य हो सकते हैं? इस शंका का समाधान उनके अगले नाम में दिया गया है।

दुराराध्यः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी उन लोगों के लिए आराधना करने में कठिन हैं, जो केवल दूसरों की देखादेखी या उनकी बड़ाई सुनकर सेवा करते हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी की सेवा में जो भक्त सच्चे मन और भाव से समर्पित हैं, उन्हें वे सहज सुखपूर्वक सेवा का अनुभव कराते हैं। लेकिन जो लोग केवल दिखावे या बाहरी प्रभाव में आकर सेवा करते हैं, उनके लिए सच्ची सेवा करना संभव नहीं होता। वे केवल संतोष की अनुभूति तक सीमित रहते हैं, परंतु पूर्ण सेवा का निर्वाह नहीं कर पाते।

यह नाम यह जताने के लिए दिया गया कि श्रीमहाप्रभुजी उन भक्तों के लिए सुलभ हैं, जो सच्चे प्रेम और भक्ति से सेवा करते हैं, न कि केवल दिखावे के लिए।

अब यह विचार उठता है कि आप भक्तों के लिए ‘सुखसेव्य’ और दूसरों के लिए ‘दुराराध्यः’ क्यों हैं। इसे समझाने के लिए उनका अगला नाम प्रस्तुत किया गया है।

दुर्लभांघ्रि-सरोरुहः

भावार्थ : अभक्तों के लिए अत्यंत दुर्लभ चरणकमल वाले श्रीमहाप्रभुजी।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी के चरणारविंद की प्राप्ति भक्तों के लिए आर्तिरूप दुःख सहकर होती है। जो अभक्त हैं, उनके लिए आपके चरणारविंद की प्राप्ति असंभव है। यह दिखाने के लिए उन्हें ‘दुर्लभांघ्रि-सरोरुहः’ यह नाम दिया गया है।

यह नाम यह प्रकट करता है कि श्रीमहाप्रभुजी के चरणकमल की प्राप्ति केवल उन्हीं को होती है जो सच्चे भाव से समर्पित होकर दुःख सहन करते हैं। अभक्तों के लिए यह प्राप्ति कठिन ही नहीं, बल्कि असंभव है। यही उनकी महिमा को दर्शाता है।

उग्र-प्र-तापः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी अभक्तों के लिए असह्य तेज वाले हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी का तेज अभक्तों के लिए इतना प्रचंड है कि उनके निकट रहना भी संभव नहीं होता। इससे यह स्पष्ट होता है कि उनके साथ कोई संबंध बनाना अभक्तों के लिए असंभव है। इस स्वरूप को प्रकट करने के लिए उन्हें ‘उग्र-प्र-तापः’ यह नाम दिया गया।

अब यह शंका हो सकती है कि यदि श्रीमहाप्रभुजी का तेज इतना असह्य है, तो क्या यह भक्तों के लिए भी असह्य होगा? इस संदेह को दूर करने के लिए उनका अगला नाम प्रस्तुत किया गया है।

वाक्सीधु-पूरिताशेष-सेवकः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी अपने वचनामृत से अपने सभी सेवकों को पूर्ण करने वाले परम दयालु हैं।
टीका : जैसे अमृत सभी इंद्रियों को सुख प्रदान करता है और सब प्रकार के ताप को दूर करता है, उसी प्रकार श्रीमहाप्रभुजी के वचन सभी को सुख और शांति देने वाले हैं। उनके वचनामृत से सेवकों के भीतर और बाहर सभी प्रकार के ताप और दुःख समाप्त हो जाते हैं।

इसी कारण, सेवक उनके तेज को सहन कर पाते हैं, क्योंकि वे वचनामृत से पूर्ण और संतुष्ट होते हैं। यह नाम श्रीमहाप्रभुजी की इस विशेष कृपा और दयालुता को प्रकट करता है।

श्लोक १६

श्रीभागवत-पीयूष-समुद्र-मथन-क्षमः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी श्रीभागवतरूपी अमृतसमुद्र के भीतर के सार को मथने में समर्थ हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी के सेवकों को जो ताप इस मार्ग में था—जो वे श्रीभागवत का अर्थ नहीं समझ सके—उसको दूर करने के लिए उन्होंने श्रीसुबोधिनीजी जैसे वचनामृत प्रदान किए।

इस प्रकार, उन्होंने श्रीभागवत के अर्थ को प्रकट किया और सेवकों के ताप को समाप्त किया। यह नाम उनकी विशेष सामर्थ्य और दयालुता को प्रकट करता है। उनका यह रूप श्रीभागवत के गूढ़ ज्ञान और आनंद को उपलब्ध कराने वाला है।

तत्सारभूत-रास-स्त्री-भाव-पूरित-विग्रहः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी वह हैं, जिनके स्वरूप में व्रजभक्तों के सारभूत भाव पूर्णतः पूरित हैं।
टीका : जैसे दूध के समुद्र का मंथन करके अमृत का निष्कर्ष निकाला गया, वैसे ही श्रीभागवत रूपी अमृतसमुद्र का सार व्रजभक्तों के भाव में प्रकट होता है।

जैसे क्षीरसमुद्र से प्रकट अमृत का भोग देवताओं ने किया, वैसे ही श्रीभागवत के अमृतसमुद्र से प्रकट व्रजभक्तों के भाव का अनुभव करने वाले स्वयं श्रीमहाप्रभुजी हैं। उनके अलावा कोई और ऐसा नहीं है। देवताओं का अमृत उनके भीतर ही सीमित रहता है, जबकि श्रीमहाप्रभुजी के अमृत का स्वरूप भीतर और बाहर दोनों में सम्पूर्ण है।

इस विशेषता को प्रकट करने के लिए उन्हें ‘तत्सारभूत-रास-स्त्री-भाव-पूरित-विग्रहः’ यह नाम दिया गया।

श्लोक १७

सान्निध्य-मात्र-दत्त-श्रीकृष्ण-प्रेमा

भावार्थ : श्रीआचार्यजी अपने सान्निध्य मात्र से श्रीकृष्ण प्रेम का दान करने वाले हैं।
टीका : जो वस्तु स्वयं पूर्ण हो, वही दूसरों को प्रदान की जा सकती है। श्रीमहाप्रभुजी भावरस से पूर्ण हैं और इसीलिए वे अपने सान्निध्य मात्र से ही श्रीठाकुरजी के प्रेम का दान करते हैं। यदि ऐसा न हो, तो यह संभव नहीं होता।

यह नाम यह जताने के लिए दिया गया है कि श्रीमहाप्रभुजी व्रजभक्तों सहित फलरूप श्रीपूर्णपुरुषोत्तम हैं और वे प्रेमरस का दान करते हैं।

अब यह विचार किया जाता है कि श्रीकृष्ण प्रेमरस का दान करने का कारण क्या है। इस शंका का समाधान उनके अगले नाम में प्रकट किया गया है।

विमुक्तिदः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी साक्षात् श्रीठाकुरजी के संबंध को प्रदान करने वाले, जो पुष्टिमार्ग की मुक्ति है।
टीका : मर्यादामार्ग में सायुज्य (ईश्वर में लय) मुख्य फल है, जबकि पुष्टिमार्ग में श्रीठाकुरजी का साक्षात् संबंध ही मुख्य फल है। यह साक्षात् संबंध प्राप्त करने वाले को संसार में पुनः जन्म नहीं होता।

यह नाम यह दर्शाता है कि श्रीमहाप्रभुजी ने साक्षात् संबंध के इस विशेष स्वरूप को प्रकट किया और इसे पुष्टिमार्ग का परम फल बताया।

श्रीआचार्यजी ने पुष्टिमार्गीय फल को अन्य सभी मार्गों के फलों की तुलना में अधिक प्रमाणित और श्रेष्ठ निरूपित किया। इसे और स्पष्ट करने के लिए उनका अगला नाम प्रकट किया गया है।

रास-लीलैक-तात्पर्यः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी का रासलीला में मुख्य अभिप्राय है।
टीका : यदि मुक्ति पुष्टिमार्ग के फल से अधिक होती, तो श्रीठाकुरजी पहले रासक्रीड़ा करते और फिर ब्रह्मानंद का अनुभव करवाते। श्रीभागवत में भी इसी प्रकार वर्णन होता। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इसलिए यह स्पष्ट है कि स्वरूपानंद का अनुभव ब्रह्मानंद और मुक्ति से भी अधिक है। यही पुष्टिमार्ग का मुख्य और श्रेष्ठ फल है।

रासलीला में श्रीमहाप्रभुजी का मुख्य अभिप्राय स्वरूपानंद के अनुभव को दर्शाना है। इसे प्रकट करने के लिए उन्हें ‘रास-लीलैक-तात्पर्यः’ यह नाम दिया गया।

अब श्रीआचार्यजी ने अन्य प्रकार से भी पुष्टिमार्गीय फल को अधिक प्रमाणित किया है। इसे समझाने के लिए उनका अगला नाम प्रस्तुत किया गया है।

कृपया एतत्-कथा-प्रदः

भावार्थ : कृपा कर श्रीमहाप्रभुजी रासलीला की कथा का अनुभव कराने वाले हैं।
टीका : जिन सेवकों पर श्रीमहाप्रभुजी अपनी कृपा करते हैं, उन्हें रासलीला की वार्ता का सच्चा अनुभव होता है। बिना कृपा के इसका अर्थ और आनंद समझना संभव नहीं है।

जब सेवकों को रासलीला का अनुभव होता है, तो वे पुष्टिमार्ग के फल की महानता को समझते हैं। इस अनुभव में सेवक संयोग और वियोग, दोनों रसों का आस्वाद कर पाते हैं। यह नाम श्रीमहाप्रभुजी की इस अनोखी कृपा और आध्यात्मिक क्षमता को प्रकट करता है।

श्लोक १८

विरहानुभवैकार्थ-सर्वत्यागोपदेशकः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी उन वस्तुओं को त्यागने का उपदेश देते हैं, जो भगवत् सेवा में बाधा बनती हैं और वियोग के अनुभव में भी रुकावट डालती हैं।
टीका : पुष्टिमार्ग में यदि किसी गृहस्थ जीवन के कारण भगवत्सेवा संभव न हो, तो उसे त्यागने का उपदेश दिया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसे जीवन में रहते हुए वियोग भाव को प्राप्त करना संभव नहीं हो सकता। श्रीमहाप्रभुजी ने यह मर्यादा स्थापित की है कि जो भी भक्ति मार्ग में स्थिर रहना चाहते हैं, उन्हें इस त्याग का पालन करना चाहिए।

भक्तिमार्ग में सेवकों की स्थिरता सुनिश्चित करने और उनके आध्यात्मिक विकास के लिए यह उपदेश अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसे प्रकट करने के लिए श्रीमहाप्रभुजी का यह नाम दिया गया है। अब उनके अगले नाम में भक्तिमार्ग के फल और उसकी उच्चता को और अधिक स्पष्ट किया गया है।

भक्त्याचारोपदेष्टा

भावार्थ : श्रीआचार्यजी भक्ति मार्ग के आचार का उपदेश करने वाले हैं।
टीका : भक्ति मार्ग के आचार क्या हैं? ये वे सिद्धांत और व्यवहार हैं, जिनमें श्रीठाकुरजी से किसी भी प्रकार की फलवांछना नहीं करनी होती और श्रीठाकुरजी को ही फलरूप मानकर उनकी सेवा की जाती है।

श्रीआचार्यजी न केवल उपदेश देते हैं बल्कि स्वयं आचरण करके इन आचारों को प्रदर्शित करते हैं। उनकी यह शिक्षा भक्तों को भक्ति मार्ग में स्थिरता प्रदान करती है और श्रीठाकुरजी के साथ एक गहरा और निस्वार्थ संबंध स्थापित करने में मदद करती है। इसी को प्रकट करने के लिए उन्हें ‘भक्त्याचारोपदेष्टा’ यह नाम दिया गया है।

क्या आप इन आचारों को और विस्तार से समझना चाहेंगे? आपकी विचारधारा पर चर्चा करके इसे और गहराई से समझ सकते हैं!

कर्म-मार्ग-प्रवर्तकः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी कर्म मार्ग के भी प्रवर्तक हैं।
टीका : यदि श्रीआचार्यजी अपने सेवकों को केवल भक्ति मार्ग का ही उपदेश देते और वर्णाश्रमधर्म का परित्याग करवाते, तो सेवकों को तो फल प्राप्त हो जाता, लेकिन बहिर्मुख लोगों के मन में भक्ति मार्ग के प्रति दोषबुद्धि उत्पन्न होती। जैसे यह धारणा कि “ब्राह्मण इस मार्ग में आकर अपना धर्म छोड़कर शूद्र हो जाते हैं।”

भक्ति मार्ग तो निर्दोष है, लेकिन ऐसी दोषबुद्धि न उत्पन्न हो, इसलिए श्रीआचार्यजी ने कर्म मार्ग का भी उपदेश दिया। उन्होंने सिखाया कि सभी को अपने कर्म करते रहना चाहिए और उसमें मति त्याग नहीं करनी चाहिए।

यह नाम इस बात को प्रकट करता है कि श्रीआचार्यजी ने भक्ति और कर्म दोनों मार्गों में संतुलन बनाए रखने की शिक्षा दी, ताकि समाज में किसी प्रकार की भ्रांति उत्पन्न न हो। उनके इस समन्वय को दर्शाने के लिए यह नाम दिया गया।

श्लोक १९

यागादौ भक्‍तिमार्गैक-साधनत्वोपदेशकः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी यज्ञ और याग आदि कर्मों को भक्ति मार्ग में आने वाले प्रतिबंधों को दूर करने वाला साधन मानने का उपदेश देने वाले हैं।
टीका : भक्ति मार्ग में दो बड़े अपराध हैं:

  1. श्रीठाकुरजी को छोड़कर अन्य देवताओं से संबंध जोड़ना।
  2. पुष्टिमार्ग के फल प्राप्त करने में आने वाले प्रतिबंध।

श्रीमहाप्रभुजी ने यज्ञ का जो स्वरूप प्रस्तुत किया, उसमें उन्होंने सभी देवताओं को श्रीठाकुरजी की विभूति और अंश-सेवक मानकर यज्ञभाग दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि यज्ञ-दान आदि करते समय देवताओं का आदर और सम्मान करना चाहिए, लेकिन उन्हें स्वतंत्र रूप से पूजा करने की भूल नहीं करनी चाहिए।

इससे पुष्टिमार्ग के फल प्राप्त करने में आने वाले प्रतिबंध दूर होते हैं। श्रीआचार्यजी ने अपने शिष्यों को सिखाया कि यज्ञ और दान आदि कर्म करते हुए फल के बारे में मति त्याग दें। यह विचार करना चाहिए कि भक्ति मार्ग के फल को पाने में ये सभी बाधाएं दूर हो जाएंगी।

यह नाम श्रीमहाप्रभुजी की इस विशेष शिक्षा को प्रकट करता है। साथ ही, यह नाम शंका को भी दूर करता है कि यज्ञ का उद्देश्य स्वर्गलोक की प्राप्ति है। श्रीमहाप्रभुजी ने यह दिखाया कि यज्ञ का फल भक्ति मार्ग में बाधाओं को हटाने और श्रीठाकुरजी के सच्चे संबंध को स्थापित करना है।

पूर्णानन्दः

भावार्थ : आप पूर्ण और अगणित आनंद से युक्त हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी श्रीपूर्णपुरुषोत्तम के आनंद से पूर्ण हैं। स्वर्गादि में जो आनंद होता है, वह श्रीपूर्णपुरुषोत्तम के आनंद का केवल अंश मात्र है। इस कारण, उनके भीतर उसकी कोई वांछना नहीं है। यही कारण है कि उन्होंने यज्ञ आदि स्वर्गलोक की प्राप्ति के लिए नहीं किए।

यदि यह शंका हो कि यज्ञादि कार्य उन्होंने स्त्री-पुत्र आदि की प्राप्ति के लिए किए हों, तो उसे दूर करने के लिए यह नाम प्रकट किया गया, जो यह स्पष्ट करता है कि श्रीमहाप्रभुजी समस्त इच्छाओं से परे हैं और साक्षात् पूर्ण आनंद स्वरूप हैं।

पूर्णकामः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी सभी इच्छाओं से परिपूर्ण और संतुष्ट हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी को लोक में वांछित पुत्रादि सुख सब से अधिक प्राप्त है। उनकी पत्नी श्रीअक्का जी और पुत्र श्रीगोपीनाथजी तथा श्रीगुसांईजी जैसे श्रेष्ठ संताने हैं। इस प्रकार, लौकिक सुख के लिए उन्होंने यज्ञ-यागादि नहीं किए।

उन्होंने यज्ञ और यागादि केवल अपने भक्तों को शिक्षा देने के लिए किए। वह शिक्षा यह है कि यज्ञादि अवश्य करें, लेकिन भक्ति मार्ग के फल में आने वाले प्रतिबंधों को दूर करने के लिए करें।

श्रीआचार्यजी जब दूसरों की सभी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं, तो वे स्वयं भी पूर्णकाम हैं। इसे प्रकट करने के लिए उन्हें ‘पूर्णकामः’ यह नाम दिया गया।

वाक्पतिः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी अपने वचन और कर्म के द्वारा सभी सेवकों के मनोरथ को पूर्ण करने वाले हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी के सेवक मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं—कुछ सेवा-कथा के साथ कर्म में मन लगाने वाले और कुछ केवल सेवा-कथा में ही रत रहने वाले। श्रीमहाप्रभुजी इन दोनों प्रकार के सेवकों के मनोरथ पूर्ण करते हैं।

जो सेवक यज्ञ आदि करते हैं, उनके द्वारा अर्पित समस्त होमद्रव्य को श्रीमहाप्रभुजी स्वीकार कर उनके मनोरथ सिद्ध करते हैं। इसका कारण यह है कि श्रीमहाप्रभुजी अपने मुखारविंद में स्थित अग्निस्वरूप हैं।

यही कारण है कि जब वह अपने सेवकों की इच्छाएँ पूरी करते हैं, तो स्वयं भी पूर्णकाम हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त, जिन सेवकों का मन ज्ञान में होता है, उन्हें भी फल प्रदान करने की सामर्थ्य रखते हैं। इसे प्रकट करने के लिए उन्हें ‘वाक्पतिः’ यह नाम दिया गया।

विबुधेश्वरः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी भक्ति मार्ग के ज्ञानी भक्तों को श्रीठाकुरजी के स्वरूप का ज्ञान प्रदान करने वाले हैं।
टीका : जो भक्त भक्ति मार्ग पर चलते हुए ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं, श्रीमहाप्रभुजी उन्हें श्रीठाकुरजी के दिव्य स्वरूप का ज्ञान प्रदान करते हैं। यह ज्ञान भक्तों को श्रीठाकुरजी के प्रति और भी अधिक अनुरक्त और समर्पित बनाता है।

यह नाम श्रीमहाप्रभुजी की इस अद्भुत क्षमता और कृपा को प्रकट करता है, जिससे वे अपने भक्तों को गहन आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं और उन्हें भक्ति मार्ग में स्थिरता प्रदान करते हैं।

श्लोक २०

कृष्ण-नाम-सहस्रस्य वक्‍ता

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी श्रीकृष्ण, जो मूलरूप पूर्णपुरुषोत्तम हैं, के सहस्र नामों को प्रकट करने वाले हैं।
टीका : यद्यपि श्रीठाकुरजी के हजार नाम वैशम्पायन आदि द्वारा कहे गए हैं, वे वेद और पुराणों में प्रसिद्ध नाम हैं। लेकिन श्रीमहाप्रभुजी ने फलरूप, श्रीभागवत में निरूपित, पूर्णपुरुषोत्तम के लीला सहित नामों को प्रकट किया है, जो किसी अन्य ने नहीं किए।

श्रीकृष्ण के दशविध लीला के साथ सहस्र नामों का उल्लेख इसलिए आवश्यक हुआ, क्योंकि ये नाम लीला और स्वरूपानंद को प्रकट करते हैं। यह नाम श्रीमहाप्रभुजी की अद्वितीय कृति को दर्शाता है।

भक्‍त-परायणः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी अपने भक्तों के कल्याण के लिए निरंतर समर्पित हैं।
टीका : यदि श्रीमहाप्रभुजी ने श्रीकृष्ण के सहस्र नाम प्रकट न किए होते, तो उनके सेवक श्रीभागवत के अर्थ को समझ न पाते। ऐसे में सेवकों का जीवन सफल और पूर्ण न हो पाता। लेकिन जब उन्होंने ये नाम प्रकट किए, तब सभी सेवकों ने श्रीभागवत का अर्थ जाना। इससे उनके ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे अपने लक्ष्य में सिद्ध हुए।

यह नाम इस तथ्य को प्रकट करता है कि श्रीमहाप्रभुजी अपने भक्तों के हित में संलग्न रहते हैं और उनके लिए मार्गदर्शन और कल्याणकारी उपदेश प्रदान करते हैं।

अब आगे, श्रीमहाप्रभुजी के स्व-प्रकटित भक्ति मार्ग के आचरण को और अधिक स्पष्ट करने के लिए उनके अगले नाम की व्याख्या की गई है।

भक्त्याचारोपदेशार्थ-नाना-वाक्य-निरूपकः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी ने भक्ति मार्ग के आचरण, जैसे सेवा आदि के उपदेश के लिए नवरत्न, भक्‍तिवर्धिनी आदि ग्रंथ प्रकट किए हैं।
टीका : यद्यपि पहले ‘भक्त्याचारोपदेष्टा’ नाम में आचार के उपदेशक के रूप में श्रीमहाप्रभुजी की महिमा वर्णित है, इस नाम में उनकी महिमा का और अधिक विस्तार से उल्लेख किया गया है।

यह नाम श्रीमहाप्रभुजी को उन ग्रंथों के माध्यम से भक्ति आचार के विस्तृत निरूपण और शिक्षण का प्रदर्शन करने वाला बताता है। इस प्रकार, पुनरुक्ति का दोष नहीं है, क्योंकि यह उनके कार्य की गहनता और व्यापकता को उजागर करता है।

श्लोक २१

स्वार्थोज्झिताखिल-प्राण-प्रियः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी अपने सेवकों के लिए स्वार्थ त्याग कर समर्पित होकर प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं।
टीका : जो सेवक श्रीमहाप्रभुजी की सेवा के लिए अपने स्वार्थ त्यागकर भक्ति मार्ग के विरोधी सभी पदार्थों को छोड़ देते हैं और अपने उद्धार के लिए समर्पित रहते हैं, उनके प्रति श्रीमहाप्रभुजी अत्यंत प्रिय हैं।

यह नाम इस तथ्य को उजागर करता है कि श्रीमहाप्रभुजी अपने सेवकों के प्राणप्रिय हैं। यह प्रेम और समर्पण उनके सेवकों के त्याग और निष्ठा का प्रतिफल है। इसी को प्रकट करने के लिए उन्हें ‘स्वार्थोज्झिताखिल-प्राण-प्रियः’ यह नाम दिया गया।

तादृश-वेष्टितः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी सदैव उन सेवकों से घिरे रहते हैं, जो उनके सेवाकार्य हेतु सब वस्तुओं का त्याग करते हैं।
टीका : जो सेवक श्रीमहाप्रभुजी की सेवा के लिए सभी भौतिक आसक्तियों का त्याग करते हैं, वे उनके चारों ओर रहते हैं। यह उनका भक्ति मार्ग में समर्पण और निष्ठा का प्रतीक है।

जब ब्राह्मणादि सेवक आसक्ति के साथ प्रभु की सेवा करते हैं, तो उनके कर्म करने का समय व्यवस्थित नहीं हो पाता। ऐसे में श्रीमहाप्रभुजी स्वयं उनके दोषों को दूर कर देते हैं।

यह नाम इस तथ्य को प्रकट करता है कि श्रीमहाप्रभुजी अपने त्यागी और निष्ठावान सेवकों के साथ हमेशा घिरे रहते हैं और उनकी भक्ति में सभी प्रकार की बाधाओं को दूर करते हैं। उनके अगले नाम में उनके सेवकों के प्रति इस कृपा और समर्थन को और गहराई से समझाया गया है।

स्व-दासार्थ-कृताऽशेष-साधनः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी अपने सेवकों के दोष दूर करने के लिए उनके कर्मों का समय और साधन अपने आप व्यवस्थित करते हैं।
टीका : जो सेवक प्रभु सेवा में आसक्त होकर सेवा करते हैं, उन्हें अपने कर्मों का समय व्यवस्थित करने में कठिनाई होती है, जिससे उनके कर्म दोष लगते हैं। ऐसे में श्रीमहाप्रभुजी उनके कर्मों का समय और साधन स्वयं साधकर उनके दोषों को दूर करते हैं।

उन्होंने यह भी उपदेश दिया कि भगवद्भक्तों को कर्म करना चाहिए और उसे त्यागना नहीं चाहिए। उन्होंने दिखाया कि स्वयं भी कर्म करते हैं, जिससे यह शिक्षा दी कि सेवा के बाद जब समय मिले, तो कर्म करो। इससे यह स्पष्ट होता है कि श्रीमहाप्रभुजी ने अपने सेवकों को कर्म के महत्व और उसकी विधि का उपदेश दिया।

यह नाम इस तथ्य को प्रकट करता है कि श्रीमहाप्रभुजी जीवन के दोष दूर करने और भक्ति मार्ग में स्थिरता स्थापित करने के लिए अपने सेवकों के लिए सब साधन और समय का प्रबंधन करते हैं। उनकी अगली महिमा को समझने के लिए उनके अगले नाम को प्रस्तुत किया गया है।

सर्व-शक्‍ति-धृक्

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी सर्वशक्तिमान हैं और समस्त शक्तियों का निग्रह करने में समर्थ हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी की शक्ति असीम और सर्वव्यापी है। जो शंका हो सकती है कि वह अपने साधन द्वारा सेवकों के दोष कैसे दूर करते हैं, उसका उत्तर उनके सर्वशक्तिमान स्वरूप में निहित है।

उनकी सर्वशक्ति उन्हें समस्त बाधाओं का निवारण करने और सेवकों के दोषों को समाप्त करने में सक्षम बनाती है। यह नाम श्रीमहाप्रभुजी की इस अद्वितीय क्षमता और सामर्थ्य को प्रकट करता है। उनकी कृपा और शक्ति उनके सेवकों की भक्ति में स्थिरता और सफलता सुनिश्चित करती है।

श्लोक २२

भुवि भक्‍ति-प्रचारैक-कृते स्वान्वय-कृत्

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी ने भक्ति मार्ग के प्रचार के लिए अपने पुत्र श्रीगोपीनाथजी और श्रीगुसांईजी को प्रकट किया।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी ने अपने पुत्रों के माध्यम से भक्ति मार्ग के प्रचार और प्रसार का कार्य किया। वे अपने भक्तों को विद्या देने वाले, आश्रय प्रदान करने वाले, और भयमुक्त करने वाले पितातुल्य माने जाते हैं।

इस नाम से उनकी दया और कृपा को प्रकट किया गया है। यह उनकी भक्ति मार्ग के प्रति असीम निष्ठा और सेवकों के कल्याण के लिए उनके समर्पण को दर्शाता है। आगे उनके इस स्वरूप से जुड़े अन्य गुणों को प्रकट करने के लिए उनका नाम प्रस्तुत किया गया है।

पिता

भावार्थ : श्रीआचार्यजी श्रीगुसांईजी और श्रीगोपीनाथजी के जनक पिता हैं।
टीका : श्रीआचार्यजी को पिता के रूप में उनके पुत्रों के माध्यम से भक्ति मार्ग का प्रचार करने का कार्य सम्पन्न हुआ। यदि पितातुल्य पुत्र न हो, तो पिता अपने उद्देश्य को कैसे पूरा करेगा?

श्रीगुसांईजी ने श्रीआचार्यजी के पिता स्वरूप की गरिमा को आगे बढ़ाते हुए भक्ति मार्ग का प्रचार किया। इसी कारण श्रीआचार्यजी का यह नाम ‘पिता’ उनकी भूमिका और योगदान को प्रकट करता है।

स्व-वंशे स्थापिताऽशेष-स्व-माहात्म्यः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी ने अपने समस्त माहात्म्य—अपने सभी गुण और धर्म—अपने पुत्रों में स्थापित कर दिए हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी के पुत्र, जैसे श्रीगुसांईजी और श्रीगोपीनाथजी, उनके समान ही धर्म और माहात्म्य से परिपूर्ण हैं। श्रीआचार्यजी और उनके पुत्रों में कोई भेद नहीं जानना चाहिए।

यदि यह आश्चर्य उत्पन्न हो कि श्रीआचार्यजी ने अपने समस्त धर्म और गुण अपने पुत्रों में कैसे स्थापित किए, तो यह उनके अद्वितीय सामर्थ्य और कृपा का प्रमाण है। यह नाम इसी तथ्य को प्रकट करता है और उनके वंशजों में उनके निरंतर प्रभाव और मार्गदर्शन को दर्शाता है।

स्मयापहः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी सभी प्रकार के आश्चर्य को दूर करने वाले हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी की महिमा और कार्यों को देखकर यदि आश्चर्य उत्पन्न हो, तो यह नाम यह स्पष्ट करता है कि श्रीमहाप्रभुजी के लिए ऐसा कोई कार्य असंभव नहीं है। उनके स्वरूप में ऐसी अद्वितीय शक्ति और कृपा है कि कोई भी अचरज उनके द्वारा सहज ही समाप्त हो जाता है।

यह नाम सेवकों को यह संदेश देता है कि श्रीमहाप्रभुजी की सामर्थ्य और दिव्यता के समक्ष आश्चर्य करना आवश्यक नहीं है, क्योंकि वे सर्वशक्तिमान और सबकी रक्षा में सक्षम हैं। इसी को प्रकट करने के लिए उन्हें ‘स्मयापहः’ यह नाम दिया गया।

श्लोक २३

पतिव्रतापतिः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी भक्ति मार्ग का आचरण करने वाले पतिव्रता सेवकों के पति स्वरूप हैं और उनके प्रति अनुराग रखते हैं।
टीका : लोक में अक्सर पिता-माता के दोषों के कारण पुत्रों में कमी दिखाई देती है। किंतु यहाँ, श्रीआचार्यजी श्रीठाकुरजी के मुखारविंद स्वरूप और आनंद स्वरूप हैं, और श्रीअक्का जी भी आनंद स्वरूप हैं। इसलिए उनके पुत्र श्रीगोपीनाथजी और श्रीगुसांईजी भी उनके समान ही दिव्य और दोषरहित हैं।

श्रीगोपीनाथजी और श्रीगुसांईजी ईश्वर स्वरूप होने के कारण, उनके अंदर अदृष्ट दोष का कोई प्रभाव संभव नहीं है। वे अपने पिता के समान ही हैं, जिनमें कोई भेद नहीं है।

जैसे लोक में पतिव्रता पत्नी के प्रति पति अनुराग रखता है, वैसे ही श्रीमहाप्रभुजी भक्ति मार्ग का आचरण करने वाले सेवकों के प्रति अनुराग रखते हैं। यह नाम इस अनुराग और समर्पण को प्रकट करता है और यह दर्शाता है कि श्रीआचार्यजी अपने वंश की श्रेष्ठता और भक्तों को ऐहिक-पारलौकिक सभी फल देने वाले हैं।

पार-लौकिकैहिक-दान-कृत्

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी ऐहिक (इस लोक) और पारलौकिक (परलोक) दोनों प्रकार के फलों का दान देने वाले हैं, जो केवल भगवत्सम्बन्ध से सिद्ध होते हैं।
टीका : लौकिक दृष्टि से धर्म आदि पुरुषार्थों के माध्यम से जो स्त्री, पुत्र, धन आदि की प्राप्ति होती है, वह श्रीठाकुरजी के संबंध में नहीं आती। लेकिन श्रीमहाप्रभुजी ने भक्ति मार्गीय पुरुषार्थ, जैसे चतु:श्लोकी, भक्तिवर्धिनी, निरोधलक्षण और निबंध आदि ग्रंथों के माध्यम से अलौकिक, भगवत्सम्बन्धी धर्म का ज्ञान कराया है। इसका फल भगवदीय होता है और उसका विनियोग श्रीठाकुरजी में होता है।

जो यह सोचते हैं कि तीर्थवास या तीर्थ में मरण के पुण्य से उत्तम पारलौकिक फल मिलता है, या अदृष्ट से प्राप्त ऐहिक फल श्रेष्ठ है, उनके लिए समाधान यह है कि केवल भगवत्सम्बन्ध से सिद्ध ऐहिक और पारलौकिक फल श्रीआचार्यजी ही प्रदान कर सकते हैं।

श्रीमहाप्रभुजी यह फल कब और कैसे देंगे, इस शंका को दूर करने के लिए उनके कार्य और उपदेशों का ध्यान करना चाहिए। यह नाम इस अद्वितीय सामर्थ्य को प्रकट करता है।

निगूढ-हृदयः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी का हृदय अत्यंत गूढ़ है।
टीका : श्रीआचार्यजी ईश्वर स्वरूप हैं, और इसलिए उनके हृदय की गहराई को समझ पाना असंभव है। हालांकि, उनकी कृपा और दया से फलों के दान में कोई सन्देह नहीं करना चाहिए। लेकिन वह फल कब देंगे, यह जान पाना कठिन है।

यदि यह शंका हो कि श्रीआचार्यजी अपनी इच्छाओं को सेवकों से प्रकट नहीं करते, तो यह समझना चाहिए कि उनकी गुप्त इच्छा और समय निर्धारण उनके दिव्य स्वरूप का हिस्सा है। यह नाम उनकी गूढ़ता और अद्वितीयता को प्रकट करता है।

अनन्य-भक्‍तेषु ज्ञापिताशयः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी ने अनन्य और अन्तरंग भक्तों, जैसे पद्मनाभदास प्रभृति, में अपने अंतःकरण को प्रकट किया है।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी केवल उन्हीं भक्तों के प्रति अपनी गुप्त इच्छाओं और अंतःकरण को प्रकट करते हैं, जो पूर्णतः अनन्य और उनके प्रति समर्पित हैं। ऐसे भक्तों के प्रति उनकी कृपा विशेष होती है, और वे उनके हृदय की गहराई को समझ पाने में समर्थ होते हैं।

यह नाम इस तथ्य को प्रकट करता है कि श्रीमहाप्रभुजी की दिव्यता और उनकी इच्छाओं का ज्ञान अनन्य भक्ति द्वारा ही संभव है। यह उनके और उनके अन्तरंग भक्तों के बीच गहरे और विशेष संबंध को दर्शाता है।

श्लोक २४

उपासनादि-मार्गाति-मुग्ध-मोह-निवारकः

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी पूजामार्ग आदि से मोहग्रस्त हो चुके स्वमार्गीय शिष्यों को भक्ति मार्ग में पुनः स्थापित करने वाले हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी उन शिष्यों को, जो विनमार्ग के लोगों की संगति के कारण भक्ति मार्ग को छोड़कर अन्य मार्गों में प्रवृत्त हो जाते हैं, भक्ति मार्ग का निरूपण करके वापस अपने मार्ग में लाते हैं।

यह उनके अज्ञान को दूर करने और उन्हें मोहमुक्त करने की प्रक्रिया है। जो शंका उत्पन्न हो सकती है कि केवल भक्ति मार्ग का निरूपण करके सेवकों का अज्ञान कैसे दूर होता है, उसका समाधान उनके दिव्य ज्ञान और प्रभाव के माध्यम से होता है। यह नाम उनके इस कार्य की महिमा को प्रकट करता है।

भक्‍ति-मार्गे सर्व-मार्ग-वैलक्षण्यानुभूतिकृत्

भावार्थ : श्रीआचार्यजी अपने सेवकों को भक्ति मार्ग की विशिष्टता और अन्य मार्गों की तुलना में उसकी श्रेष्ठता का अनुभव कराते हैं।
टीका : जब श्रीमहाप्रभुजी अपने सेवकों को भक्ति मार्ग का निरूपण करते हैं, तो वह अन्य मार्गों, जैसे पूजामार्ग, की अपेक्षा भक्ति मार्ग की अनोखी विधि और उसकी उत्कृष्टता को समझने में मदद करते हैं।

पूजामार्ग में देवताओं की पूजा की जाती है, जो मंत्र के अधीन होते हैं और श्रीठाकुरजी की विभूति होते हैं, लेकिन पूर्णपुरुषोत्तम नहीं होते। इसके विपरीत, भक्ति मार्ग में सेव्य श्रीपूर्णपुरुषोत्तम हैं, जो मंत्र के अधीन नहीं हैं बल्कि केवल भक्ति के अधीन होते हैं।

श्रीमहाप्रभुजी सेवकों को प्रेरित करते हैं कि “तुम भक्ति मार्ग छोड़कर पूजामार्ग में क्यों गए? वापस भक्ति मार्ग में आओ।” इस प्रकार वे अपने सेवकों को अपने मार्ग में वापस लाने का कार्य करते हैं। यह नाम उनकी इस महान कृपा और शिक्षा को प्रकट करता है।

श्लोक २५

पृथक्-शरण-मार्गोपदेशष्टा

भावार्थ : श्रीआचार्यजी ने न्यासादेश और अन्य ग्रंथों के माध्यम से भक्ति मार्ग से पृथक् शरणमार्ग का उपदेश दिया है।
टीका : शरणमार्ग दो प्रकार का होता है—पुष्टिमार्गीय और मर्यादामार्गीय।

  • पुष्टिमार्गीय शरणमार्ग: जब इन्द्र ने व्रज में वर्षा की, तब व्रजवासी श्रीठाकुरजी की शरण में आए। इसे पुष्टिमार्गीय शरणमार्ग कहा जाता है, क्योंकि श्रीठाकुरजी ने उन्हें स्वीकार किया, श्रीगोवर्धन धारण किया और उनकी रक्षा की। साथ ही, उन्होंने सात दिनों तक स्वरूपानंद का अनुभव कराया।
  • मर्यादामार्गीय शरणमार्ग: इसका फल मुक्ति प्राप्ति है, जिसे मर्यादामार्गीय शरणमार्ग कहा जाता है।

श्रीआचार्यजी ने इन दोनों मार्गों का पृथक निरूपण किया, ताकि उनके अनुयायी भक्ति मार्ग और शरणमार्ग की गहनता और भिन्नता को समझ सकें। यह नाम उनके द्वारा की गई इस विशिष्ट शिक्षा और उपदेश को प्रकट करता है।

यद्यपि शरणमार्ग पुरुषोत्तम पर्यवसायी है, फिर भी उसे भक्ति मार्ग से भिन्न रूप में निरूपित करना उनके शिक्षण की गहराई और उद्देश्य को उजागर करता है। इसी को स्पष्ट करने के लिए यह नाम दिया गया।

श्रीकृष्ण-हार्द-वित्

भावार्थ : फलात्मक ऐसे श्रीकृष्ण के अभिप्राय को जानने वाले श्रीआचार्यजी हैं।
टीका : श्रीठाकुरजी जीव का अधिकार देखकर मार्ग का उपदेश करते हैं। अतएव अर्जुन का मर्यादापुष्टि में अधिकार था, इसलिए उपदेश भी वैसा ही दिया। यह किस प्रकार? जैसे अर्जुन से कहा, “तू मेरी शरण आ, मैं तेरे पापों को दूर करूंगा,” यह मर्यादामार्ग का अंश है। यह क्यों? क्योंकि शरण में आने का कोई (अधिक) फल नहीं है, केवल पाप दूर होंगे, अतएव यह मर्यादामार्ग का हिस्सा है।

और उन पापों के फल, जो शोक हैं, उनको दूर करने के लिए साधन स्वयं प्रभु बनते हैं। इस प्रकार, अपनी शरण बुलाने में उन्होंने कहा, यह पुष्टिमार्ग का अंश है। इसलिए अर्जुन का जैसा अधिकार देखा, वैसा उपदेश दिया। और व्रजवासियों का उत्तम अधिकार देखकर उन्हें अपनी शरण बुलाकर स्वरूपानंद का अनुभव कराया और अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा दी।

यह सब श्रीठाकुरजी के अभिप्राय को जानने वाले श्रीमहाप्रभुजी हैं। श्रीमहाप्रभुजी यह जानते हैं कि श्रीपूर्णपुरुषोत्तम का मन तो व्रजभक्तों के संग लीलारस में मग्न रहता है। इसलिए आप भी लीलारस में मग्न रहते हैं। यह जताने के लिए यह नाम कहा गया है।

प्रति-क्षण-निकुञ्ज-स्थ-लीला-रस-सुपूरित

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी प्रतिक्षण निकुञ्जस्थ श्रीपूरणपुरुषोत्तमकी व्रजभक्‍तनके साथ लीला ताके रससे बाहिर-भीतरसे पूर्ण हें।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी श्रीपूरणपुरुषोत्तमके व्रजभक्‍तनके संग लीला करिवेके रससे बाहिर ओर भीतरसों परिपूर्ण हें। ताही भांति यह रस अपुनको आत्मसात करिके श्रीमहाप्रभुजीका प्रत्येक क्षण आनंदमय होत हें। यह नाम श्रीमहाप्रभुजीकी दिव्य लीला-संलग्नता ओर तिनसे प्रतिक्षण भक्ति-रसमें मग्नता को प्रकट करत हें।

श्लोक २६

तत्-कथाक्षिप्‍त-चित्त

भावार्थ : रासलीला की रसवार्ता में भलीभांति पिरोया हुआ मन जिनका है, ऐसे श्रीआचार्यजी आप हैं।
टीका : ऐसी भगवत्कथा में चित्तवाले श्रीआचार्यजी निरंतर अपने निज सेवकों को रसवार्ता कहते हैं। तातें सेवक यह जानते हैं कि आप लीलारस से पूर्ण हैं। इसके अतिरिक्त, आप यह भी कहते हैं कि पूर्णपुरुषोत्तम की एक संयोगलीला है और एक वियोगलीला है।

जब आप संयोगरस से पूर्ण होते हैं, तब बाहिर-भीतर सम्पूर्ण होकर लीला का अनुभव करते हुए चेन से बैठे रहते हैं। और जब आप वियोगलीलारस से पूर्ण होते हैं, तब रुका नहीं जाता। तातें रसवार्ता सबके साथ कहकर समय का निर्वाह करते हैं। तब सेवक यह जान लेते हैं कि आप वियोगरस से पूर्ण, केवल आनन्दरूप हैं।

यह शंका उत्पन्न हो कि आप रस की कथा कहते हैं, तो क्या अन्य विषयों की वार्ता नहीं करते? इस सन्देह को दूर करने के लिए यह नाम कहा गया है॥

तद्विस्मृतान्य

भावार्थ : रासलीला की रसवार्ता कर भूले हैं, रसविरुद्ध समस्त पदार्थ जिनमें। ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : रासलीला की रसवार्ता करते हुए श्रीआचार्यजी ने उन समस्त पदार्थों को भुला दिया है, जो लीलारस के विरुद्ध हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि जिन वस्तुओं से लीला की सुधि नहीं आती, वे वस्तुएँ श्रीआचार्यजी को प्रिय नहीं हैं।

यह क्यों जाना जाए? इस संदर्भ को समझाने के लिए यह नाम कहा गया है॥

व्रज-प्रिय

भावार्थ : व्रज प्रिय हैं जिनको, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : श्रीआचार्यजी महाप्रभु को व्रज अत्यंत प्रिय है। इसका कारण यह है कि व्रज को देखकर लीलाओं की अत्यधिक सुधि आती है। इस कारण व्रज उनके लिए अत्यंत प्रिय लगता है।

यह क्यों जाना जाए कि व्रज प्रिय है? इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए यह नाम कहा गया है।

प्रिय-व्रज-स्थिति

भावार्थ : प्रिय है व्रज में स्थिति जिनको, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : यदि व्रज प्रिय न होता तो वहाँ स्थिति न करते। यह नाम इस तथ्य को प्रकट करता है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु को व्रज अत्यंत प्रिय है।

यह शंका हो सकती है कि व्रज प्रिय है, परंतु वहाँ स्थिति करने का प्रयोजन क्या है? इस सन्देह को दूर करने के लिए यह नाम कहा गया है।

पुष्टि-लीला-कर्ता

भावार्थ : श्रीठाकुरजी ने जो रासलीला की, वह व्रज में ही की। इसे जानकर श्रीआचार्यजी महाप्रभु व्रज में ही रहे।
टीका : श्रीआचार्यजी महाप्रभु स्वयं रासलीला का अनुभव करते हैं और अपने सेवकों को भी रासलीला के प्रकार बताते हैं। इस तथ्य को प्रकट करने के लिए यह नाम दिया गया है।

रह:-प्रिय

भावार्थ : एकांत प्रिय है जिनको, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : श्रीआचार्यजी महाप्रभु को एकांत अत्यंत प्रिय है। ऐसा इसलिए क्योंकि रासलीला का अनुभव एकांत में ही होता है। इसी कारण एकांत उन्हें बहुत भावता है। यह तथ्य प्रकट करने के लिए यह नाम कहा गया है।

श्लोक २७

भक्‍तेच्छा-पूरक

भावार्थ : भक्‍तों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाले श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : श्रीआचार्यजी महाप्रभु भक्‍तों की आरति को देखते हुए पुष्टिलीला का वर्णन करते हैं और उनकी आरति को दूर करते हैं। उसी प्रकार, जो रस आपको होता है, उसका अनुभव भी सेवकों से साझा करते हैं। इस तथ्य को व्यक्त करने के लिए यह नाम कहा गया है।

सर्वाऽज्ञात-लील

भावार्थ : सभी भक्तों के लिए न जानी जाने वाली लीला जिनकी है, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : श्रीआचार्यजी महाप्रभु जिस रस का अनुभव करते हैं, उसे अपने सेवकों को नहीं बताते, बल्कि एक विशेष प्रकार से उसका वर्णन करते हैं।

अब कहा जाता है कि यदि किसी सेवक के भाग्य से यह मनोरथ हो कि वह उस रस को जान सके, जिसका श्रीमहाप्रभु अनुभव करते हैं, तब श्रीमहाप्रभु उस सेवक का मनोरथ पूर्ण करते हैं। इसे प्रकट करने के लिए यह नाम कहा गया है।

अतिमोहन

भावार्थ : श्रीमहाप्रभुजी सेवकों को कहने योग्य जो श्रीठाकुरजी की लीला हो, उसी प्रकार कहते हैं, जिससे सुनते ही रस का आवेश होता है।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी की वाणी से सेवक ऐसे मोहयुक्त हो जाते हैं कि वे यह समझते हैं कि श्रीमहाप्रभुजी ने उनकी वार्ता द्वारा उनका मनोरथ पूर्ण कर दिया। इस प्रकार, श्रीमहाप्रभुजी सेवकों को इस अनुभव में स्थित कराते हैं।

अब यह शंका होती है कि श्रीमहाप्रभुजी पुष्टिभक्तों को ही रसानुभव कराते हैं और अन्य को नहीं कराते, इसमें क्या कारण है? इस शंका को दूर करने के लिए यह नाम कहा गया है।

सर्वासक्‍त

भावार्थ : अपने सेवकों में जो योग्य नहीं हैं, उन्हें रस का अनुभव न कराते हुए उनकी उपेक्षा करते हैं, ऐसे श्रीमहाप्रभुजी आप हैं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी अपने उन सेवकों को, जो रस का अनुभव कर पाने में अयोग्य हैं, वह रस नहीं कराते। यह उनकी उपेक्षा का प्रमाण है। इस तथ्य को व्यक्त करने के लिए यह नाम कहा गया है।

भक्‍त-मात्रासक्‍त

भावार्थ : केवल पुष्टिमार्गीय भक्तों में अतिकृपायुक्त हैं। अतः उन्हीं को रस का अनुभव करवाते हैं, अन्य को नहीं।
टीका : श्रीमहाप्रभुजी अपने पुष्टिमार्गीय भक्तों पर विशेष कृपा करते हैं और उन्हें ही रस का अनुभव कराते हैं। यही उनकी अतिकृपा का रूप है। अब अपने सेवकों पर अतिकृपा करने को एक अन्य प्रकार से प्रकट करते हैं। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए यह नाम कहा गया है।

पतित-पावन

भावार्थ : अपने पुष्टिमार्गीय जो पतित हैं, उन्हें पवित्र करने वाले श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : यह शंका हो सकती है कि पुष्टिमार्ग में पाप का क्या अर्थ है? जैसे मर्यादामार्ग में वर्णधर्म और आश्रमधर्म से विरुद्ध आचरण करने वाला ‘पतित’ कहलाता है, वैसे ही पुष्टिमार्ग में, जो निर्धारित आचरण से विपरीत आचरण करता है या अन्य मार्गों के आचरण को अपनाता है, वह ‘पातकी’ कहलाता है।

ऐसे पतित को श्रीमहाप्रभुजी यह कहते हैं, “अरे! भक्ति मार्ग के आचरण को छोड़कर तू अन्य आचरण क्यों कर रहा है?” इस प्रकार उपदेश देकर उन्हें फिर से भक्ति मार्ग का आचरण करवाकर पतितों का उद्धार करते हैं। इस तथ्य को प्रकट करने के लिए यह नाम कहा गया है।

श्लोक २८

स्व-यशोगान-संहृष्ट-हृदयाम्भोज-विष्टरः

भावार्थ : श्रीआचार्यजी महाप्रभु के यश का गान कर अति आनंदित जो भक्त हैं, उनके भक्ति मार्गीय हृदयकमल के आसन हैं, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : श्रीआचार्यजी महाप्रभु अपने भक्तों के पाप दूर करते हैं, जिससे भक्तों के मन में उनके यश की भावना उत्पन्न होती है। तब सभी सेवक आनंदयुक्त हो जाते हैं। ऐसे आनंदमय सेवकों के हृदय में श्रीआचार्यजी महाप्रभु सदा विराजमान रहते हैं। यह नाम इस तथ्य को प्रकट करता है।

यश:-पीयूष-लहरी-प्लावितान्य-रसः

भावार्थ : अपने यशरूपी अमृततरंग से प्लावित कर न्यून कर दिए हैं अन्य रस जिनमें, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : यदि सेवकों के हृदय में आपकी स्थिति न हो, तो आप अपने रसरूपी अमृत की तरंगों से सेवकों के हृदय में अन्य रस भुला देते हैं। इसे अमृत क्यों कहा गया है? जैसा कि स्वर्ग में देवताओं के जीवन का आधार अमृत है, वैसे ही पुष्टिमार्ग में आपका यश भक्तों के जीवन का कारण है।

अब यह शंका हो सकती है कि आप अपने यश से अन्य यश भुलाते हैं, तो ऐसा क्यों? इसका उत्तर यह है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु अक्षर से परे, पुरुषोत्तमरूप हैं। अतः अपने रस से अन्य रस भुलाते हैं। यही इस नाम के कहे जाने का कारण है।

पर

भावार्थ : श्रीआचार्यजी महाप्रभु अक्षर से परे, पुरुषोत्तमरूप हैं।
टीका : श्रीआचार्यजी महाप्रभु की स्थिति अक्षर से परे है, और वे पुरुषोत्तमरूप हैं। इसी कारण वे अपने रसरूपी अनुभव से अन्य रसों को भुलाते हैं। यह तथ्य उनकी दिव्यता और श्रेष्ठता को प्रकट करता है। यही इस नाम के कहे जाने का कारण है।

श्लोक २९

लीलामृत-रसार्द्राद्री-कृताखिल-शरीरभृत्

भावार्थ : श्रीठाकुरजी की लीलारूपी अमृतरस से भीजकर भक्तों को अति भीजकर परिपूर्ण करने वाले, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : यहाँ ‘दो बार भीजे’ कहे जाने का अभिप्राय यह है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु की कृपा से लीलारस में भीगे हुए जो सेवक हैं, वे अपने पास बैठने वाले अन्य सेवकों को भी भगवद्रस से आद्र कर देते हैं। जैसे भीगा हुआ वस्त्र सूखे वस्त्र को भी भिगो देता है, उसी प्रकार।

इस प्रकार श्रीआचार्यजी अपने सेवकों को बाहिर-भीतर से लीलारस से परिपूर्ण करते हैं। यह उनके दिव्य लीलारस और कृपा का द्योतक है। अब कहा जाता है कि श्रीआचार्यजी अपने सेवकों को अपना प्रिय स्थल बतलाते हैं। इसी से संबंधित अगला तथ्य प्रस्तुत किया गया है।

गोवर्धन-स्थित्युत्साह

भावार्थ : श्रीगोवर्धन पर्वत के समीप रहने का सदा उत्साह है जिनको, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : श्रीआचार्यजी महाप्रभु श्रीगोवर्धन पर्वत के समीप रहकर पर्वत के स्वरूप को प्रकट करते हैं। यह स्वरूप रत्नमय, गैरिकादिधातु (गेरु-सुवर्ण) मय, लीलासृष्टि का स्वरूप है।

पहले कोई भी इसका ज्ञान नहीं रखता था। श्रीमहाप्रभुजी ने इसे उजागर किया और इस तथ्य को व्यक्त करने के लिए यह नाम दिया गया है।

तल्‍लीला-प्रेम-पूरित

भावार्थ : गोवर्धनोद्धरणलीला के रस से पूर्ण हैं, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : जब श्रीठाकुरजी ने गोवर्धन धारण किया, तब इन्द्र के भय से व्रजवासी उनकी शरण में आए। उन्होंने इन व्रजवासियों को सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त कर, अपने कर लिया। सात दिनों तक उनकी भूख-प्यास सब दूर कर, स्वरूपानंद का दान कर, उनकी रक्षा की।

यह लीला प्रकट कर, श्रीठाकुरजी प्रेम से पूर्ण हो गए। इसी तथ्य को व्यक्त करने के लिए यह नाम दिया गया है।

श्लोक ३०

यज्ञ-भोक्‍ता

भावार्थ : श्रीआचार्यजी महाप्रभु स्वयं प्रभु के मुखारविंदावतार अग्निस्वरूप हैं, अतः यज्ञीय हवि को भोग करने वाले भी आप ही हैं। इसी कारण ‘यज्ञभोक्‍ता’ पहले कहा गया।
टीका : अब यह शंका हो सकती है कि यज्ञ किए बिना यज्ञ को भोग करना कैसे संभव है? इसका उत्तर यह है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु अपने दिव्य स्वरूप और शक्ति से यह करते हैं। यही इस नाम के कहे जाने का कारण है।

यज्ञ-कर्ता

भावार्थ : जो गोवर्धनयज्ञ कराए जाने की आज्ञा ठाकुरजी के श्रीमुख से प्रकट हुई और श्रीठाकुरजी के मुखारविंदस्वरूप श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं, इसलिए ‘यज्ञकर्ता’ यह नाम कहा गया।
टीका : श्रीगोवर्धनपूजा में श्रीआचार्यजी महाप्रभु ने सभी व्रजवासियों से यह पूजा करवाई, यह कहते हुए, “तुम सब इस गोवर्धन की पूजा करो।” इस प्रकार, उन्होंने सभी व्रजवासियों का सब पुरुषार्थ सिद्ध किया। इसे प्रकट करने के लिए यह नाम कहा गया है।

चतुर्वर्ग-विशारद

भावार्थ : श्रीआचार्यजी पुष्टिमार्गीय धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष के ज्ञाता हैं।
टीका : यद्यपि सामान्यतः चतुर्वर्ग का अभिप्राय ‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष’ से है, परंतु व्रजवासियों को यह पुरुषार्थ नहीं चाहिए। व्रजवासियों के लिए श्रीठाकुरजी के स्वरूप का आनंद ही पर्याप्त है। श्रीआचार्यजी महाप्रभु व्रजवासियों को स्वरूपानंद का अनुभव कराते हैं।

अपने सेवकों को पुष्टिमार्गीय धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष प्रदान करते हैं। इनका अर्थ पुष्टिमार्ग में इस प्रकार है:

  • धर्म: श्रीठाकुरजी की सेवा।
  • अर्थ: श्रीठाकुरजी का स्वरूप।
  • कामना: केवल श्रीठाकुरजी की।
  • मोक्ष: अलौकिक देह प्राप्त कर व्रजभक्तों के समान भजनानंद का अनुभव करना।

श्रीआचार्यजी अपने भक्तों को इन विशेष पुरुषार्थों का दान करते हैं। यही इस नाम का तात्पर्य है।

सत्य-प्रतिज्ञ

भावार्थ : यथार्थ प्रतिज्ञा जिनकी है, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : जब श्रीआचार्यजी महाप्रभु ने श्रीठाकुरजी की आज्ञा से पुष्टिमार्ग का प्राकट्य किया, तब श्रीठाकुरजी ने कहा कि “इस मार्ग में जो मेरी शरण आएगा, मैं उसे पुष्टिमार्गीय पुरुषार्थ प्रदान कर उसका उद्धार करूंगा।”

अब यह पूर्वपक्ष हो सकता है कि सत्यप्रतिज्ञा तो किसी की अब तक देखी नहीं गई, तो श्रीआचार्यजी महाप्रभु की प्रतिज्ञा क्यों सत्य होगी? इस शंका को दूर करने के लिए यह नाम कहा गया है, जो उनकी दिव्यता और वचन की सत्यता को प्रकट करता है।

त्रिगुणातीत

भावार्थ : श्रीआचार्यजी प्राकृत गुणों से रहित हैं।
टीका : इस नाम का अभिप्राय यह है कि जितने भी मनुष्य हैं, उनका माया से संबंध है और इसलिए वे दोषयुक्त हैं। इस कारण उनकी प्रतिज्ञाएँ पूर्ण रूप से सिद्ध नहीं हो पातीं। परंतु श्रीआचार्यजी महाप्रभु मायिक गुणों से रहित हैं और निर्दोष हैं। अतः उनकी प्रतिज्ञाएँ भी निर्दोष और सत्य होती हैं।

जो जीवन के उद्धार के लिए उन्होंने प्रतिज्ञा की है, उसे पूरा करने हेतु श्रीआचार्यजी महाप्रभु ने अपने मार्ग की रीति और मर्यादा को स्पष्ट करने के लिए, जिनमें उनके सिद्धांतों का निरूपण है, ऐसे ग्रंथ भी रचे। इस तथ्य को उजागर करने के लिए यह नाम कहा गया है।

नय-विशारद

भावार्थ : अपने सिद्धांतों को शास्त्र में स्थापित करने में महानिपुण, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : श्रीआचार्यजी महाप्रभु अपने सिद्धांतों को पुष्ट करते हुए उन्हें शास्त्रों के माध्यम से उजागर करने में निपुण हैं। उनके सिद्धांतों का निरूपण तर्क और प्रमाण के साथ होता है, जिससे वे अचूक और अपराजेय सिद्ध होते हैं।

इस नाम के माध्यम से यह व्यक्त किया गया है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु शास्त्र और सिद्धांतों के उत्कृष्ट ज्ञाता हैं, जो अपने मार्ग की महानता को स्थापित करते हैं।

श्लोक ३१

स्व-कीर्ति-वर्धन

भावार्थ : श्रीआचार्यजी अपने सेवकों में अपनी कीर्ति को बढ़ाने वाले हैं।
टीका : जब श्रीआचार्यजी महाप्रभु ने अपने मार्ग के ग्रंथों का निरूपण किया, तब उनके सेवकों ने उनकी इतनी बड़ाई की कि उनकी बराबरी कोई नहीं कर सका। इससे स्पष्ट होता है कि वे अपने सेवकों के माध्यम से अपनी कीर्ति को बढ़ाने वाले हैं।

अब यह कहा जाता है कि मायावादादि अन्य मतवादों को प्रकट करने वाले जो पंडित हैं, उनके मध्य भी उन्होंने अपनी कीर्ति को बढ़ाया। यह तथ्य इस नाम के अर्थ को व्यक्त करता है।

तत्त्व-सूत्र-भाष्य-प्रवर्तक

भावार्थ : व्यासजी के सूत्रों के अर्थ का निरूपण करने वाले, ‘अणुभाष्य’ जैसे ग्रंथ के रचयिता, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : यद्यपि व्याससूत्र के अर्थ शंकराचार्य आदि ने भी किए हैं, परंतु श्रीआचार्यजी महाप्रभु की विशेषता यह है कि वे वेदों में वर्णित श्रीठाकुरजी के रसात्मक साकार स्वरूप को प्रकट करते हैं। शंकराचार्य आदि ने व्याससूत्र के अर्थ अपने मार्ग की रीतियों से निराकार स्वरूप में किए, जो वेदविरुद्ध हैं। परंतु श्रीआचार्यजी महाप्रभु ने उत्तम रीति से वेद सम्मत व्याख्या करते हुए साकार स्वरूप को निरूपित किया।

यह नाम इस तथ्य को प्रकट करता है कि अणुभाष्य की रचना कर उन्होंने न केवल शास्त्रों में अपनी कीर्ति बढ़ाई, बल्कि यह भी सिद्ध किया कि कलियुग में मायावाद से दूषित अन्य शास्त्रों के विपरीत, अणुभाष्य वेदसम्मत और दिव्य है। इस प्रकार, यह नाम शंकाओं को दूर करने के लिए कहा गया है।

माया-वादाख्य-तूलाग्‍नि

भावार्थ : मायावादरूपी रूई की ढेरी को भस्म करने वाले अग्निरूप, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : यह नाम प्रकट करता है कि जैसे रूई की ऊंची ढेरी अग्नि के संपर्क में आने से तुरंत भस्म हो जाती है, वैसे ही श्रीआचार्यजी महाप्रभु अग्निरूप हैं। उनके आगे मायावाद रंचमात्र भी ठहर नहीं सकता।

अब यह शंका हो सकती है कि मायावाद किस वाद के माध्यम से दूर किया गया? इसका उत्तर श्रीआचार्यजी महाप्रभु के दिव्य सिद्धांतों और शास्त्रीय प्रमाणों के माध्यम से दिया गया है, जो सत्य और तर्क पर आधारित हैं। यही कारण है कि यह नाम उनके प्रभाव और दिव्यता को प्रकट करता है।

ब्रह्म-वाद-निरूपकः

भावार्थ : ब्रह्मवाद, जिसमें सभी वस्तुओं को सत्य (ब्रह्मात्मक) कहा गया है, उस वाद को लेकर मायावाद, जिसमें सभी वस्तुओं को मिथ्या कहा गया है, को दूर करने वाले आप हैं।
टीका : श्रीआचार्यजी महाप्रभु ने ब्रह्मवाद का निरूपण किया, जो सभी वस्तुओं को सत्य और ब्रह्म के रूप में स्वीकार करता है। इसके माध्यम से उन्होंने मायावाद का खंडन किया, जो सभी वस्तुओं को मिथ्या मानता है।

यह नाम इस तथ्य को प्रकट करता है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु ने अपने सिद्धांतों द्वारा सत्य का प्रकाशन करते हुए, मायावाद जैसे भ्रामक मतों का निराकरण किया। इस प्रकार, यह नाम उनके दिव्य ज्ञान और तर्कपूर्ण सिद्धांतों को दर्शाता है।

श्लोक ३२

अप्राकृताखिलाकल्प-भूषित

भावार्थ : श्रीआचार्यजी महाप्रभु अलौकिक आभूषणों से भूषित हैं।
टीका : यह नाम उनके दिव्य स्वरूप को व्यक्त करता है। अलौकिक आभूषण से अभिप्राय है व्याससूत्र के चार अध्याय—प्रमाण, प्रमेय, साधन और फल। इनमें से चौथे अध्याय, फल रूप में, भगवद्भावरूपी अलौकिक आभूषण से श्रीआचार्यजी महाप्रभु विभूषित हैं।

हालांकि शंकराचार्य आदि ने भी व्याससूत्र के चौथे अध्याय में अपने मार्ग के फल का निरूपण किया, परंतु श्रीआचार्यजी महाप्रभु ने जो उत्तम और वेदसम्मत निरूपण किया, वैसा अन्य किसी ने नहीं किया। यही कारण है कि उन्हें इस अलौकिक आभूषण से युक्त माना गया।

अब यह सन्देह हो सकता है कि भक्तों को यह कैसे ज्ञात होगा? इस प्रश्न का उत्तर उनके अगले नाम के माध्यम से प्रकट किया गया है।

सहज-स्मित

भावार्थ : भगवद्भावरूप अलौकिक आभूषण धारण करने के कारण, जब भाव का स्मरण होता है, तब सहज मन्दहास्ययुक्त होते हैं, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : श्रीआचार्यजी महाप्रभु ने भगवद्भावरूप अलौकिक आभूषण धारण किए हैं। जब इस भाव का स्मरण होता है, तो वे सहज रूप से मंदहास्ययुक्त हो जाते हैं। यह दिव्य रूप देखकर सेवकों को स्पष्ट ज्ञात होता है कि आप अलौकिक भावयुक्त हैं।

अब यह तथ्य प्रकट करते हुए कहा जाता है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु अपने सेवकों को शोभा प्रदान करने वाले हैं। इस दिव्यता को व्यक्त करने के लिए यह नाम कहा गया है।

त्रिलोकीभूषणम्

भावार्थ : त्रिगुण—सत्व, रजस, और तमस सहित—से युक्त जो सेवक हैं, उन त्रिलोकी के सेवकों की शोभा श्रीआचार्यजी महाप्रभु के संबंध से होती है, और किसी प्रकार से नहीं। ऐसे आप त्रिलोकी के भूषण हैं।
टीका : ‘त्रिलोकी’ का तात्पर्य है सत्व, रजस और तमस गुणों से युक्त सेवक। त्रिलोकी के इन सेवकों की वास्तविक शोभा श्रीआचार्यजी महाप्रभु के साथ संबंध से ही प्रकट होती है। उनके चरणारविंद के संबंध से भूमि का उत्कर्ष भी सिद्ध होता है।

यह नाम इस तथ्य को प्रकट करता है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु न केवल त्रिलोकी के सेवकों, बल्कि संपूर्ण जगत का भूषण हैं। उनका प्रभाव दिव्यता और महिमा का प्रतीक है। इसी को व्यक्त करने के लिए यह नाम कहा गया है।

भूमि-भाग्यम्

भावार्थ : भूमि के पूर्वपुण्य-फलरूप श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : यह नाम इस बात को प्रकट करता है कि जब श्रीआचार्यजी महाप्रभु ने भक्तिमार्ग को प्रकट किया, तो यह भूमि पर मौजूद भक्तों के लिए परम आनंद का कारण बना। भूमिको यह महान सौभाग्य प्राप्त हुआ कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु उनके ऊपर स्थित हुए।

अब कहा जाता है कि अपने दर्शन देकर श्रीआचार्यजी महाप्रभु अपने सेवकों के भाग्य को बढ़ाते हैं। इस दिव्यता और अनुग्रह को प्रकट करने के लिए यह नाम दिया गया है।

सहज-सुन्दर

भावार्थ : श्रीआचार्यजी महाप्रभु अपने सहज स्वरूप के दर्शन से सेवकों में आनंद उत्पन्न करने वाले हैं, यह स्वरूप कृत्रिम नहीं है। इस कारण, वे भक्तों के भाग्यस्वरूप माने जाते हैं।
टीका : श्रीआचार्यजी महाप्रभु का स्वरूप सहज और स्वाभाविक रूप से सुंदर है। उनके सहज स्वरूप के दर्शन से सेवकों के मन में अनुग्रह और प्रसन्नता उत्पन्न होती है। यह कोई कृत्रिम या बाहरी दिखावा नहीं है, बल्कि उनकी दिव्यता का स्वाभाविक परिणाम है।

यह नाम प्रकट करता है कि श्रीआचार्यजी महाप्रभु अपने सहज सौंदर्य और स्वाभाविक कृपा से भक्तों के भाग्य को परिभाषित करते हैं। उनकी सहजता और सुंदरता को व्यक्त करने के लिए यह नाम दिया गया है।

श्लोक ३३.१

अशेष-भक्‍त-सम्प्रार्थ्य-चरणाब्ज-रजोधन

भावार्थ : जिनकी चरणरेणु अशेष भक्तों के यह लोक और परलोक संबंधी पदार्थों की सिद्धि करने वाली है, ऐसे श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप हैं।
टीका : यह लोक से संबंधित पदार्थ हैं—सेवा के लिए स्त्री, पुत्र, धन आदि; और परलोक से संबंधित पदार्थ हैं—श्रीठाकुरजी का संबंध। इनकी सिद्धि के लिए यह समझाया गया कि सब वस्तुओं की सिद्धि के लिए जो चाहिए, वह केवल श्रीआचार्यजी महाप्रभु के चरणारविंद की रज है। उनके चरणों की रज मांगने के सिवा अन्य कुछ मांगने की आवश्यकता नहीं।

इसी प्रकार, श्रीआचार्यजी महाप्रभु के एक सौ आठ नामों को कहने के पश्चात अब उपसंहार किया जाता है, जो उनकी अनंत कृपा और महिमा का प्रतीक है। यह नाम उनकी दिव्यता और भक्तों के प्रति उनके अपार अनुग्रह को व्यक्त करता है।

श्लोक ३३.२

टीका

आनन्दसमुद्ररूप श्रीआचार्यजी महाप्रभु के एक सौ आठ नामों का निरूपण श्रीविट्ठलनाथजी ने अत्यंत गहनता से किया। श्रीआचार्यजी महाप्रभु की तुलना आनंद के असीम और अगाध समुद्र से की गई है। यह समुद्र सदा जलपूर्ण रहता है और उसकी तरंगें निरंतर उच्छलित होती हैं। उसी प्रकार, श्रीआचार्यजी महाप्रभु विविध प्रकार के रसों से परिपूर्ण हैं।

उनके भावन में निरंतर तरंगों के समान दिव्य भाव उठते रहते हैं। जैसे समुद्र में रत्नों का समूह होता है, वैसे ही उनके भावन में दिव्य रत्नों के समान भाव समाहित रहते हैं। यह उनके अनंत, रसात्मक और आनंदमय स्वरूप को दर्शाता है। उनके नामों की व्याख्या उनके दिव्य गुणों और अनंत महिमा का प्रतीक है।

अब श्रीसर्वोत्तमस्तोत्र के पाठ का फल बताया गया है।

श्लोक ३४

टीका

श्रीगुसांईजी यहां प्रतिज्ञा करते हैं कि जो भक्त श्रीआचार्यजी महाप्रभु में श्रद्धा और शुद्धता बनाए रखते हैं, वे दु:संग आदि से बचकर अपनी बुद्धि को भगवदीय बना सकते हैं। ऐसे भक्त यदि श्रीआचार्यजी के पाठ को निरंतर करते हैं, तो पहले वे एकाग्रता प्राप्त करते हैं और फिर श्रीठाकुरजी के अधरामृत के आनंदस्वादन को प्राप्त करते हैं। यह सर्वोत्तम पाठ के फल के रूप में प्रकट होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

अब यह स्पष्ट करते हुए कहा जाता है कि पुष्टिमार्ग का फल मोक्ष से भी अधिक है। श्रीआचार्यजी महाप्रभु की कृपा से भक्तों को जो दिव्य अनुभव प्राप्त होता है, वह उनकी आत्मा के उन्नयन और पूर्णता का प्रतीक है। यही तथ्य इस विवेचन में प्रकट किया गया है।

श्लोक ३५

टीका

श्रीआचार्यजी महाप्रभु के सेवकों को जब पुष्टिमार्ग के फल की प्राप्ति होती है, तो सायुज्यादि मुक्ति तुच्छ प्रतीत होती है क्योंकि पुष्टिमार्ग का फल सर्वश्रेष्ठ है। यह फल ‘सर्वोत्तम’ स्तोत्र के पाठ से सिद्ध होता है।

जो भक्त श्रीआचार्यजी महाप्रभु की कृपा से श्रीठाकुरजी के अधरामृत की इच्छा रखते हैं, उन्हें निरंतर ‘सर्वोत्तम’ स्तोत्र का जप करना चाहिए। इसका यह अर्थ है कि जब तक संदेह रहित पाठ स्मरण में न आ जाए, तब तक पुकारकर पाठ करें और जब अच्छे से स्मरण हो जाए, तब इसे गुप्त रूप से जप करें।

यह स्तोत्र पुष्टिमार्ग के फलों को सिद्ध करने वाला है, इसलिए इसे सर्वोत्तम कहा गया है। अग्निरूप श्रीआचार्यजी महाप्रभु के पुत्र श्रीगुसांईजी ने इस ग्रंथ को प्रकट किया, जो उनकी दिव्यता और कृपा का प्रतीक है। उनकी इस कृपा से भक्त अपने जीवन में अत्यंत उन्नति पाते हैं।

श्रीगुसांईजी के चरणकमल की कृपा

भावार्थ

अब श्रीगोकुलनाथजी कहते हैं कि जैसी उनकी बुद्धि थी, उसी के अनुसार उन्होंने श्रीगुसांईजी के चरणकमल की कृपा से श्रीआचार्यजी महाप्रभु के एक सौ आठ नामों की टीका की। वे विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हैं कि उनके पास कोई साधन या योग्यता नहीं थी, यह सब श्रीगुसांईजी की अनुकंपा से ही संभव हुआ।

आचार्य-कृपा एवं बुद्धि-दोष क्षमा

भावार्थ

श्रीगोकुलनाथजी की यह विनम्र प्रार्थना उनकी गहन भक्ति और श्रद्धा को दर्शाती है। वे स्वीकार करते हैं कि बुद्धि की सीमाओं और दोषों के कारण टीका में संभवतः कहीं कोई त्रुटि हो गई हो, तो भी वे श्रीआचार्यजी महाप्रभु के चरणारविंद से अपनी रक्षा का आशीर्वाद माँगते हैं।


॥श्रीगोकुलनाथजीकृत सर्वोत्तमस्तोत्र की टीका का हिंदी अनुवाद सम्पूर्ण॥