श्रीनामरत्नाख्यस्तोत्रम् - पाठ
यह स्तोत्र श्रीविट्ठलनाथ प्रभुचरणों के 108 नामों का निरूपण करता है। इन नामों का निरूपण करते हुए, और इन नामरत्नों को ही आधार बनाकर, श्रीरघुनाथचरण ने मङ्गलाचरण करते हुए दैवीजीवन को उद्धार के पथ पर अग्रसर करने की प्रेरणा दी है।
जिनके नाम सूर्य के समान उदय होकर अपने भक्तों के भक्ति मार्ग में आने वाले दोष, प्रतिबंध और अंधकार को पूर्ण रूप से नष्ट कर देते हैं। जैसे सूर्योदय के साथ कमल खिल उठते हैं, वैसे ही उनके नाम के कीर्तन, श्रवण आदि से अपने भक्तों के हृदय में भगवद्भक्ति का संचार होता है और उनका हृदयकमल प्रफुल्लित हो जाता है। ऐसे श्रीविट्ठलनाथ प्रभुचरणों के नामों का मैं पूर्ण श्रद्धा और भक्ति से आश्रय ग्रहण करता हूँ।
या नाममन्त्र-स्तोत्र का छंद अनुष्टुप है। अग्निकुमार श्रीविट्ठलनाथ प्रभुचरण के आत्मज श्रीरघुनाथजी इस नाममन्त्र के दृष्टा ऋषि हैं। श्रीगुसांईजी, जो सभी प्रकार की सामर्थ्य संपन्नता के स्वामी हैं, इस मन्त्र के अधिष्ठाता देव हैं।
यह नाममन्त्र सर्व पुष्टिमार्गीय भक्तों के समस्त प्रकार के मनोरथों की सिद्धि के लिए विनियोजित किया गया है।
१. श्रीविट्ठलः, २. कृपा-सिन्धु, ३. भक्त-वश्य, ४. अति-सुन्दरः, ५. कृष्ण-लीला-रसाविष्टः, ६. श्रीमान्, ७. वल्लभ-नन्दनः, ८. दुर्दृश्य, ९. भक्त-सन्दृश्य, १०. भक्ति-गम्य, ११. भयापहः, १२. अनन्य-भक्त-हृदय, १३. दीनानाथैक-संश्रयः, १४. राजीव-लोचन, १५. रास-लीला-रस-महोदधिः
१६. धर्म-सेतु, १७. भक्ति-सेतुः, १८. सुख-सेव्य, १९. व्रजेश्वरः, २०. भक्त-शोकापहः, २१. शान्तः, २२. सर्वज्ञः, २३. सर्व-काम-दः, २४. रुक्मिणी-रमणः, २५. श्रीशः, २६. भक्त-रत्न-परीक्षकः, २७. भक्त-रक्षैक-दक्षः, २८. श्रीकृष्ण-भक्ति-प्रवर्तकः, २९. महासुर-तिरस्कर्ता, ३०. सर्व-शास्त्र-विदग्रणीः, ३१. कर्म-जाड्यभिदुष्णांशुः, ३२. भक्त-नेत्र-सुधाकरः, ३३. महा-लक्ष्मी-गर्भ-रत्नम्, ३४. कृष्ण-वर्त्म-समुद्भवः, ३५. भक्त-चिन्तामणि, ३६. भक्ति-कल्पद्रुम-नवामुरः
३७. श्रीगोकुल-कृतावासः, ३८. कालिन्दी-पुलिन-प्रियः, ३९. गोवर्धनागम-रतः, ४०. प्रिय-वृन्दावनाचलः, ४१. गोवर्धनाद्रि-मख-कृन्, ४२. महेन्द्र-मद-भित्-प्रियः, ४३. कृष्ण-लीलैक-सर्वस्वः, ४४. श्रीभागवत-भाव-वित्, ४५. पितृ-प्रवर्तित-पथ-प्रचार-सु-विचारकः, ४६. व्रजेश्वर-प्रीति-कर्ता, ४७. तन्-निमन्त्रण-भोजकः, ४८. बाल-लीलादि-सु-प्रीतो, ४९. गोपी-सम्बन्धि-सत्कथः, ५०. अति-गम्भीर-तात्पर्यः, ५१. कथनीय-गुणाकरः
५२. पितृ-वंशोदधि-विधुः, ५३. स्वानुरूप-सुत-प्रसूः, ५४. दिक्चक्रवर्ति-सत्कीर्ति, ५५. महोज्ज्वल-चरित्रवान्, ५६. अनेक-क्षितिप-श्रेणी-मूर्धा-सक्त-पदाम्बुजः, ५७. विप्र-दारिद्र्य-दावाग्निः, ५८. भूदेवाग्नि-प्रपूजकः, ५९. गो-ब्राह्मण-प्राण-रक्षा-परः, ६०. सत्य-परायणः, ६१. प्रिय-श्रुति-पथः, ६२. शश्वन् महा-मख-करः, ६३. प्रभुः, ६४. कृष्णानुग्रह-संलभ्यो, ६५. महा-पतित-पावनः, ६६. अनेक-मार्ग-संक्लिष्ट-जीव-स्वास्थ्य-प्रदो महान्
६७. नाना-भ्रम-निराकर्ता, ६८. भक्ताज्ञानभिदुत्तमः, ६९. महा-पुरुष-सत्ख्यातिर्, ७०. महा-पुरुष-विग्रहः, ७१. दर्शनीय-तमो, ७२. वाग्मी, ७३. मायावाद-निरास-कृत्, ७४. सदा प्रसन्न-वदनो, ७५. मुग्ध-स्मित-मुखाम्बुजः, ७६. प्रेमार्द्र-दृग्-विशालाक्षः, ७७. क्षिति-मण्डल-मण्डनः, ७८. त्रिजगद्-व्यापि-सत्कीर्ति-धवलीकृत-मेचकः, ७९. वाक्सुधाकृष्ट-भक्तान्तः-करणः, ८०. शत्रु-तापनः, ८१. भक्त-सम्प्रार्थित-करो, ८२. दास-दासीप्सित-प्रदः
८३. अचिक्त्य-महिमा-ऽमेयो, ८४. विस्मयास्पद-विग्रहः, ८५. भक्त-क्लेशासहः, ८६. सर्व-सहो, ८७. भक्त-कृते वशः, ८८. आचार्य-रत्नं, ८९. सर्वानुग्रह-कृन्-मन्त्र-वित्तमः, ९०. सर्वस्व-दान-कुशलो, ९१. गीत-सङ्गीत-सागरः, ९२. गोवर्धनाचलसखो, ९३. गोप-गो-गोपिका-प्रियः, ९४. चिन्तितज्ञो, ९५. महा-बुद्धिः, ९६. जगद्-वन्द्य-पदाम्बुजः, ९७. जगदाश्चर्यरसकृत्, ९८. सदा कृष्ण-कथा-प्रियः, ९९. सुखोदर्ककृतिः, १००. सर्व-सन्देह-च्छेद-दक्षिणः
१०१. स्व-पक्ष-रक्षणे दक्षः, १०२. प्रति-पक्ष-क्षयमरः, १०३. गोपिकाविरहाविष्टः, १०४. कृष्णात्मा, १०५. स्वसमर्पकः, १०६. निवेदि-भक्त-सर्वस्वं, १०७. शरणाध्व-प्रदर्शकः, १०८. श्रीकृष्णानुगृहीतैक-प्रार्थनीय-पदाम्बुजः
आपने श्रीविट्ठलनाथ प्रभुचरण के नामरूपी रत्नों का महत्त्व और उनकी प्रभावशीलता इतनी भक्ति और सुंदरता से वर्णन किया है। वास्तव में, ये दिव्य नाम भक्तों को आध्यात्मिक मार्गदर्शन देते हैं और उनके हृदय को हरि से जोड़ते हैं। श्रीहरि की कृपा से, भक्ति और समर्पण के साथ इन नामों का स्मरण न केवल आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति करता है, बल्कि जीवन के सभी मनोरथ भी पूर्ण करता है।
हे समर्थ प्रभु! मेरी प्रार्थना है कि जो बुद्धिमान भक्त ‘नामरत्न’ नामक स्तोत्र का अर्थ और तात्पर्य का ज्ञान लेकर श्रद्धापूर्वक पाठ करें, आप उन्हें अपनी कृपा से स्वीकार करें।
श्रीविट्ठलनाथ प्रभुचरण के चरणकमल के पराग का सेवन करने वाले श्रीरघुनाथजी की यह कृति सदा विजय प्राप्त करती रहे।