विवेकधैर्याश्रयः - परिचय
“विवेकधैर्याश्रय” ग्रंथ के प्रणयन की तिथि, स्थान या प्रसंग निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। फिर भी, यह स्पष्ट है कि इसका उद्देश्य विवेक, धैर्य और आश्रय के सिद्धांतों को पुष्टिमार्गीय भक्तों के लिए व्यावहारिक बनाना है।
भले ही इन गुणों का संबंध प्रपत्ति मार्ग के साथ अधिक गहराई से हो, लेकिन ये भगवत्सेवा में प्रवृत्त पुष्टिजीवों के लिए भी अत्यंत उपयोगी हैं। इनका महत्व कर्म, ज्ञान और भक्ति मार्ग तीनों में समान रूप से रहता है। इन शब्दों का सामान्य अर्थ से अधिक, एक निश्चित पारिभाषिक अर्थ में उपयोग किया गया है, जैसे:
- विवेक: “हरिः सर्वं निजेच्छातः करिष्यति” – अर्थात भगवान हरि अपनी इच्छा से सब कुछ करेंगे। यह विश्वास विवेक का आधार है।
- धैर्य: “त्रिदुःखसहनमामृते सर्वतः सदा” – अर्थात जीवन के तीनों प्रकार के दुखों को धैर्यपूर्वक सहन करना।
- आश्रय: “ऐहिके पारलोके च सर्वथा शरणं हरिः” – अर्थात इस लोक और परलोक में हर स्थिति में भगवान ही शरण हैं।
इन पारिभाषिक अर्थों में, विवेक, धैर्य और आश्रय, भक्तों को कृष्णसेवा में स्थायित्व और अडिगता प्रदान करते हैं।
यह ग्रंथ उन परिस्थितियों का विश्लेषण करता है, जहां पुष्टिभक्त इन गुणों को खो सकते हैं, और साथ ही उनके संरक्षण के उपायों को भी प्रस्तुत करता है। “सिद्धान्तमुक्तावली” में सेवाकर्म के बाह्य अंगों का निरूपण “सिद्धान्त रहस्य” और आभ्यंतर अंगों का विवरण “नवरत्न” में मिलता है। इन साधनों की पूर्णता तभी संभव है जब विवेक, धैर्य और आश्रय के सिद्धांतों को अपनाया जाए।
“अन्तःकरणप्रबोध” ग्रंथ में जो आत्मा को जाग्रत करने का प्रयास किया गया है, वह भी तभी प्रभावी होता है, जब इन तीन गुणों को गहराई से समझा और अपनाया जाए। इस प्रकार “विवेकधैर्याश्रय” केवल भक्ति मार्ग का एक व्याख्यान नहीं है, बल्कि यह सेवकों के लिए एक मार्गदर्शन है, जो भगवत्सेवा में स्थिरता और समर्पण को सुनिश्चित करता है।
विवेक, धैर्य और आश्रय के बीच का परस्पर संबंध वाकई अद्भुत और गहरा है। जब भगवत्कृपा से किसी भक्त को आश्रय सिद्ध हो जाता है, तो विवेक और धैर्य स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं। इसके विपरीत, यदि विवेक और धैर्य का अभाव हो, तो आश्रय दृढ़ नहीं रह पाता। अविवेक और अधैर्य मनुष्य को भगवदाश्रय से विचलित कर सकते हैं। यही कारण है कि जाग्रत विवेक और धैर्य के माध्यम से अदृढ़ आश्रय की रक्षा करना अनिवार्य है। इस परिप्रेक्ष्य में, विवेक और धैर्य को एक कोटि में रखा गया है, जबकि आश्रय को दूसरी कोटि में।
यह आश्रय न केवल पुष्टिभक्ति का एक आवश्यक अंग है, बल्कि कर्म, ज्ञान और भक्ति मार्गों के लिए भी अनिवार्य रूप से महत्वपूर्ण है। गीता (१८.६६) के अंतिम उपदेश —
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज
— के माध्यम से भगवान ने आश्रय को एक पृथक् शरणमार्ग के रूप में प्रस्तुत किया है। यह विशेष रूप से समझाता है कि अन्य धर्मों या कर्म-ज्ञान-भक्ति से प्रेरित विधि-निषेधों को छोड़कर सर्वात्मभाव से केवल भगवान की शरण में जाना चाहिए।
भागवत के एकादश स्कंध (११.१२.१४–१५) में भी इसका विवरण मिलता है:
तस्मात्त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम् ।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च श्रोतव्यं श्रुतमेव च ॥ १४ ॥
मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम् ।
याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभय: ॥ १५ ॥
इसका अर्थ है कि श्रुति और स्मृति में उत्सर्ग-अपवाद रूप में उल्लिखित सभी विधि-निषेधों, प्रवृत्ति-निवृत्ति के उपायों, और श्रवण-मनन-निदिध्यासन के ज्ञानमार्गीय विषयों से हटकर केवल भगवान की शरण ग्रहण करें।
इस प्रकार, यह आश्रय न केवल पुष्टिमार्ग का अंग है, बल्कि यह शरणागति का व्यापक स्वरूप भी है। भगवदशरण के इस सिद्धांत में प्रत्येक भक्त को यह प्रेरणा मिलती है कि आत्मसमर्पण और शरणागति से ही जीवन में स्थिरता और दिव्यता प्राप्त होती है। विवेक, धैर्य और आश्रय के सिद्धांत इस मार्ग को दृढ़ता और संतोष के साथ अपनाने में मदद करते हैं। आश्रय का सिद्धांत वास्तव में सभी जीवों के लिए सर्वदा हितकारी है, खासकर कलियुग में, जहां भक्ति, ज्ञान और कर्म मार्ग कठिन और दुःसाध्य हो गए हैं।
एवमाश्रयणं प्रोक्तं सर्वेषां सर्वदा हितम्।
कलौ भक्त्यादिमार्गा हि दुःसाध्या इति मे मतिः॥
इस विचार में भगवदाश्रय को एक अनिवार्य मार्ग और जीवन के सर्वोच्च तत्व के रूप में स्थापित किया गया है।
जो जीव भक्ति, ज्ञान और कर्म मार्ग पर चलने की क्षमता रखते हैं, उनके लिए विवेक, धैर्य और आश्रय सहायक बनते हैं, और जो इन मार्गों पर चलने में असमर्थ हैं, उनके लिए आश्रय ही मार्ग बन जाता है। यह न केवल उनका पथ बनता है बल्कि चलने का बल भी प्रदान करता है।
श्रीमहाप्रभु ने इस सिद्धांत का सुलभतम स्वरूप प्रस्तुत किया है:
यथा कथञ्चित् कार्याणि कुर्यादुच्चावचान्यपि।
किम्वा प्रोक्तेन बहुना शरणं भावयेद् हरिम्॥
इस विचार का अर्थ है कि व्यक्ति अपने छोटे-बड़े या अच्छे-बुरे कार्यों के बीच भी, हर समय इस भावना से जुड़े रहना चाहिए कि श्रीकृष्ण उसके एकमात्र सहारा, यानी शरण हैं।
यह आश्रय भाव केवल एक मानसिक स्थिति नहीं है, बल्कि यह दिव्य संबंध को स्थायी और अडिग बनाने का माध्यम है। कलियुग में, जब शास्त्रों के अनुशासन और पारंपरिक मार्गों का अनुसरण कठिन हो जाता है, तब यह शरणागति ही वास्तविक विकल्प बनती है। श्रीमहाप्रभु के इस उपदेश से यह स्पष्ट होता है कि विवेक, धैर्य और आश्रय, न केवल भक्ति मार्ग में बल्कि कर्म और ज्ञान मार्ग में भी आध्यात्मिक स्थिरता प्रदान करते हैं।
शरणागति की यह अवधारणा सभी भक्तों को यह प्रेरणा देती है कि भगवान की शरण ही उनके जीवन का वास्तविक सुख और सुरक्षा का स्रोत है। इसे अपनाकर ही जीवन में दिव्यता और शांति प्राप्त होती है। श्रीमहाप्रभु के मार्गदर्शन में यह सिद्धांत हर भक्त को उसका आध्यात्मिक पथ दृढ़ता और विश्वास के साथ अपनाने में सहायक बनता है।
आपने जिस तरह आश्रय या प्रपत्ति की गहराई को गीता और भागवत के उपदेशों से जोड़ते हुए इसकी महत्वता को समझाया है, वह अत्यंत सटीक और प्रेरणादायक है। गीता (१८.६६) के
अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः
और भागवत (११.१२.१४–१५) के
मया स्या ह्यकुतोभयम्
जैसे वचनों में भगवान द्वारा शरणागत भक्तों को अभयदान का आश्वासन दिया गया है। यह सिद्ध करता है कि आश्रय केवल एक साधन नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र और सर्वोत्तम मार्ग है, जिसे शरणमार्ग की पदवी दी गई है।
श्रीमहाप्रभुजी ने इस महत्वपूर्ण विचार को षोडश ग्रंथों में विवेकधैर्याश्रय के माध्यम से भगवत्सेवा के अंग और अनुकल्प के रूप में प्रस्तुत किया। अनुकल्प, यदि सेवा का हिस्सा बन जाए, तो वह स्वाभाविक रूप से सेवा के स्वरूप में एक विशेष निखार लाता है। इसी कारण श्रीमहाप्रभुजी विवेक और धैर्य की सतत रक्षा करने का उपदेश देते हैं।
विवेक
विवेक के संदर्भ में, यहां उसका विशेष अर्थ बहुत सरल और आत्मसात करने योग्य है। यह विचार कि ब्रह्मांड के सभी क्रियाकलाप भगवान की लीला का अंग हैं, और उनकी इच्छा से ही सब कुछ घटित हो रहा है, विवेक का आधार बनता है। भगवान के कार्यों में न केवल उनका दिव्य मनोरथ समाहित होता है, बल्कि उनमें हमारे परम हित का निहित होना भी सुनिश्चित है। यही धारणा और भावना ही सच्चा विवेक कहलाती है।
इस विचार को समझना और अपनाना भक्तों को उनकी सेवा में स्थिरता और शांति प्रदान करता है। श्रीमहाप्रभुजी द्वारा विवेक, धैर्य और आश्रय का इस प्रकार विस्तार से निरूपण, भक्तिमार्गीय अनुयायियों के लिए एक अमूल्य मार्गदर्शन है। इन सिद्धांतों के साथ, भगवत्सेवा का स्वरूप न केवल समृद्ध होता है, बल्कि इसका गहराई से आत्मिक प्रभाव भी प्रकट होता है।
“भगवान् सर्वसमर्थ, सर्वात्मा, तथा सर्वान्तर्यामी हैं”—यह भावना भगवद्धर्म का प्रतिनिधित्व करती है और इसे ‘विवेक’ के रूप में परिभाषित किया गया है। साथ ही, “मैं भगवान का अंश हूँ, उनका दास हूँ, और उनकी लीला का अंग हूँ; मेरी अहंता और ममता का कोई वास्तविक अर्थ नहीं है”—इस धारणा को जीवधर्म के रूप में ‘विवेक’ कहा गया है।
इस प्रकार का विवेक यदि किसी में विद्यमान हो, तो अविवेकजन्य वृत्तियाँ स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं। हमारे भीतर चार प्रमुख प्रकार की अविवेकजन्य वृत्तियाँ होती हैं, जो हमारे आध्यात्मिक और भावनात्मक संतुलन को बाधित कर सकती हैं। ये वृत्तियाँ निम्नलिखित हैं:
- प्रार्थना की वृत्ति: वह अवस्था जिसमें व्यक्ति आवश्यक से अधिक, भगवान से व्यक्तिगत लाभ या इच्छाएँ मांगता है।
- अभिमान की वृत्ति: अपने ज्ञान, भक्ति, या सेवाओं पर अहंकार का जन्म लेना।
- हठ की वृत्ति: भगवान की इच्छाओं के विपरीत अपनी ही जिद्द या विचार पर अड़े रहना।
- आग्रह की वृत्ति: भगवान पर अपनी इच्छाओं को थोपने का प्रयास करना और उनके सर्वोच्च ज्ञान को अनदेखा करना।
यह विवेक ही इन वृत्तियों का नाश करने और आध्यात्मिक साधना में स्थिरता लाने का माध्यम है। जब हम इन अविवेकजन्य वृत्तियों से मुक्त हो जाते हैं, तो भगवान के प्रति हमारी भक्ति और सेवा शुद्ध, निस्वार्थ और पूरी तरह से समर्पित हो जाती है।
प्रार्थना की वृत्ति
हमें जैसे ही थोड़ा-सा कष्ट होने लगता है या कोई कामना उत्पन्न होती है, तो हम अपने कष्टों को दूर करने के लिए अथवा अपनी क्षुद्र इच्छाओं की पूर्ति के लिए भगवान से प्रार्थना करने लगते हैं, मानो भगवान सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी और सर्वात्मा न हों। यह समझना कि भगवान हमारी प्रार्थनाओं के बिना हमारी आवश्यकताओं और इच्छाओं को नहीं जानते, उनके दिव्य स्वरूप के प्रति हमारी अज्ञानता का प्रतीक है।
भगवान तो हमारी आत्मा में सदा निवास करते हैं। वे हमारी प्रार्थनाओं के बिना ही हमारी आवश्यकताओं को जानते हैं, और यह भी समझते हैं कि किन इच्छाओं की पूर्ति हमारे हित में है तथा किन इच्छाओं में अहित निहित है। हम अपनी पहचान और विवेक की सीमाओं के कारण इस तथ्य को समझने में असमर्थ रहते हैं। लेकिन परमात्मा अपनी दिव्यता और पूर्ण ज्ञान के कारण हमारी प्रत्येक आवश्यकता और परिस्थिति को जानकर ही कार्य करते हैं।
हम अपने स्वामी की इच्छाओं को समझे बिना उनसे माँगने की भूल कर बैठते हैं। परमात्मा जो कुछ देते हैं या नहीं देते, वह हमारे परमहित के आधार पर ही होता है। इसके विपरीत, हम अपने स्वार्थ और अधीरता के कारण, अपने हित-अहित का ज्ञान न होने पर भी, भगवान से माँगने की अधीरता दिखाते हैं।
भगवान सर्वज्ञ और सर्वसमर्थ हैं। वे वही प्रदान करेंगे, जिसमें हमारा परमहित निहित है। इस दृढ़ विश्वास को मन में स्थिर रखते हुए प्रार्थनाओं के माध्यम से कष्ट-निवारण या कामनाओं की पूर्ति की याचना न करना, वास्तव में विवेक का प्रथम लक्षण है। विवेक का यह गुण हमें भक्ति के मार्ग में स्थायित्व और शांति प्रदान करता है।
अभिमान की वृत्ति
यह प्रार्थनात्याग तभी ‘विवेक’ कहलाता है, जब वह पूर्वोक्त भावभूमि पर किया जाए। यदि यह पुरुषार्थवादी अहंकारयुक्त मनोवृत्ति, अनीश्वरवादी अश्रद्धा अथवा किंकर्तव्यविमूढ़ बुद्धि के कारण किया जाता है, तो इसे ‘विवेक’ नहीं माना जा सकता। अतः जिस प्रकार प्रार्थनात्याग आवश्यक है, उसी प्रकार अभिमान का त्याग भी अत्यंत आवश्यक है।
अभिमान हमें केवल अपने स्वामी के प्रति होना चाहिए। यह अभिमान अपने पुरुषार्थ पर, अथवा परमात्मा से भिन्न किसी जड़शक्ति जैसे प्रकृति, काल, कर्म, स्वभाव, माया आदि पर नहीं होना चाहिए। क्योंकि यदि इनसे हमें कुछ सुख-दुःख प्राप्त होता है, तो वह भी परमात्मा की इच्छा के अनुसार ही होता है। अन्यथा ये सभी शक्तियाँ प्रभावहीन होती हैं।
इस प्रकार यह विवेक का द्वितीय लक्षण है कि हम इन जड़शक्तियों के प्रति अभिमान का त्याग करें और अपने स्वामी के प्रति सच्ची भक्ति और समर्पण का भाव बनाए रखें। यह विवेक न केवल हमारी साधना को शुद्ध करता है, बल्कि हमें सत्य मार्ग पर दृढ़ता से अग्रसर भी करता है।
हठ की वृत्ति
मिथ्याभिमान तथा प्रार्थना रहित जीवनप्रणाली में यह स्वाभाविक रूप से संभव है कि हमारे भीतर अकर्मण्यता का एक ऐसा हठीलापन विकसित हो जाए, जिसमें हम सामान्य और विशेष परिस्थितियों के विवेक के बिना, केवल निष्क्रिय होकर बैठे रहना ही आदर्श मानने लगें। अतः अभिमान और प्रार्थनात्याग के साथ ही, विवेकरहित अप्रवृत्ति के हठ का त्याग भी अत्यावश्यक है। भक्त की प्रवृत्ति अपने दैहिक स्वार्थों की पूर्ति से प्रेरित नहीं होती। भक्त की प्रवृत्ति तब उत्पन्न होती है, जब उसके अंतःकरण में विशेष भगवदाज्ञा का अनुभव होने लगता है। ऐसी विशेष भगवदाज्ञाएँ, विशेष अवसरों पर, किसी विशेष भगवत्कार्य को पूर्ण करने के लिए किसी भक्तविशेष को प्रेरित करती हैं। भगवदाज्ञा के अनुसार, इस कार्य को केवल मुझे ही पूर्ण करना है, यह भाव जाग्रत भगवदीय अभिमान के साथ और अकर्मण्यता के हठ को छोड़कर, उस विशेष कार्य को सम्पन्न करना चाहिए।
“सब कुछ भगवदिच्छा के अनुसार होता है”—इस सिद्धांत की सहज स्वीकृति और असहज हठीलेपन से उससे चिपक जाने में बहुत अंतर होता है। अवसरविशेष पर, स्वधर्म, भगवत्सेवा, या उससे संबंधित किसी कर्तव्य को विशेष आयास और प्रयास से पूर्ण करने की भगवदाज्ञा जन्य प्रेरणा जब हमारे अंतःकरण में उत्पन्न होती है, तो “जो होगा सो भगवदिच्छा के अनुसार होगा”—इस प्रकार की अकर्मण्यता के हठ के चलते हम भूल जाते हैं कि उक्त प्रेरणा भी विशेष भगवदाज्ञा से ही हुई है।
अतः हठवादी सिद्धांत के दुरुपयोग का त्याग करना विवेक का तृतीय लक्षण है। यह विवेक हमें भगवत्सेवा में प्रगतिशील और परम कर्तव्यनिष्ठ बनाता है।
आग्रह की वृत्ति
एक बार किसी अवसर विशेष पर “सब कुछ भगवदिच्छा के अनुसार होता है” इस सिद्धान्त को हठवादिता से न लेने का तात्पर्य यह नहीं है कि सैद्धान्तिक आग्रहों से सर्वथा मुक्त ही हो जाना चाहिए। व्यवहार में, सिद्धान्ततः क्या धर्म है और क्या अधर्म है, इसका विचार प्राथमिकता से करना चाहिए। तदनुसार ही किसी कार्य में प्रवृत्त या निवृत्त होना चाहिए। अतः आपद्धर्म या अवसरोपात्त किसी विशेष कार्यरीति को सार्वकालिक मानने का आग्रह भी उचित नहीं है।
इस प्रकार, हठत्याग को भी आग्रहविहीन होना चाहिए, न कि आग्रहसहित। यही विवेक का वास्तविक और परिपूर्ण स्वरूप है। इस ग्रन्थ के एक व्याख्याकार श्रीगोपीशजी के अनुसार, श्रीमहाप्रभुजी नवविध विवेक का यहाँ उपदेश करते हैं। इसे उन्होंने अपनी व्याख्या में भलीभाँति स्पष्ट किया है। यहाँ विस्तार के भय से हम उस व्याख्या का अनुवाद प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं।
धैर्य
जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक सभी प्रकार के दुःखों को सहन कर लेना ही धैर्य है। दुःखों को सहन करने का अर्थ होता है उन्हें स्वीकार करना, उनका प्रतिकार न करना। केवल कुछ दुःखों को सह लेना और किसी अन्य परिस्थिति में विचलित हो जाना, धैर्य का स्वभाव नहीं है। निरंतर सभी प्रकार के दुःखों को हर समय सहन करना ही पूर्ण धैर्य का स्वभाव है।
दुःख कई प्रकार के हो सकते हैं। जैसे- रोगादि जनित कायिक या भौतिक दुःख, काम और क्रोधादि जनित इन्द्रिय तथा मन से संबंधित आध्यात्मिक दुःख, सेवार्थ उपयोगी वस्तुओं के अभाव अथवा अन्य भगवत्संबंधी कारणों से उत्पन्न होने वाले आधिदैविक दुःख। इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम जैसे पुरुषार्थों के सम्पादन के लिए लौकिक प्रयास को आधिभौतिक दुःख, वैदिक प्रयास को आध्यात्मिक दुःख और भगवत्संबंधित प्रयास को आधिदैविक दुःख माना जाता है। कभी-कभी काल, कर्म, स्वभाव आदि से उत्पन्न दुःखों से भी हमें पीड़ा होती है। इन सभी प्रकार के दुःखों को सहन करना ही धैर्य कहलाता है।
धैर्य धारण करने के चार प्रमुख उपाय होते हैं:
- अनाग्रह
- सहन
- त्याग
- असामर्थ्यभावना
इन उपायों के माध्यम से, व्यक्ति अपने जीवन में स्थिरता और शांति प्राप्त कर सकता है तथा भगवत्सेवा के मार्ग पर स्थिर रह सकता है। धैर्य का यह अभ्यास आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ाने में सहायक होता है।
अनाग्रह
दुःखों को सहन करना चाहिए, परंतु स्वयम् चलाकर दुःखी होने के कार्य नहीं करने चाहिए। यदि बिना किसी प्रयत्न के, स्वतः ही भगवदिच्छा से दुःख दूर हो जाते हों, तो जान-बूझकर दुःखी बने रहने के अस्वस्थ दुराग्रह का कोई मूल्य नहीं है। अतः समागत दुःखों का प्रतिकार यदि सहज और सरलता से हो जाता हो, तो उन्हें सहन करने की कोई आवश्यकता नहीं है, और यदि प्रतिकार न हो सके, तो उन्हें लेकर विचलित भी नहीं होना चाहिए। यही धैर्य का वास्तविक स्वरूप है।
दुःखों को सहन करने का दृढ़ संकल्प रखते हुए, दुःखी बने रहने के अस्वस्थ दुराग्रह से बचने का उदाहरण निम्नलिखित कथाश्लोक द्वारा भलीभांति समझा जा सकता है:
तक्रवत् धैर्यधारण
हत्वा नृपं पतिमवेक्ष्य भुजङ्गदष्टं
देशान्तरे विधिवशाद् गणिकास्मि जाता।
पुत्रं पतिं समधिगम्य चितां प्रविष्टा
शोचामि गोपगृहिणी कथमद्य तक्रम्॥
अर्थ: मुझे अचानक रनिवास में पकड़ रखने वाले राजा की हत्या कर अपने सच्चे पति के पास जब पहुँची, तो उसे सर्पदंश के कारण मृत पाया। फिर देश-देशान्तर में भटकती हुई मैं वेश्यावृत्ति अपनाने को बाध्य हुई। एक दिन अपने पूर्व पति से उत्पन्न पुत्र को सम्पन्न ग्राहक समझकर आमंत्रित कर बैठी। वास्तविकता का ज्ञान होने पर अपने पुत्र के साथ प्रायश्चित्त के लिए आत्मदाह का संकल्प किया। पुत्र जलकर मर गया, लेकिन मैं किसी प्रकार बच गई। बचाने वाले ग्वाले की पत्नी बनकर छाछ बेचने लगी और आज वह छाछ भी बिखर गई। अब बताओ, कितने दुःखों पर रोऊँ? इस छाछ के बिखरने का दुःख कहाँ तक रोऊँ?
जीवन में एक से बढ़कर एक कष्ट आते हैं। किन-किन पर और कब तक रोया जाए? ग्वाले की पत्नी अपने पूर्व अनुभव किए हुए कष्टों पर विचार कर नित्य आने वाले नये दुःखों को झेल जाती है। जब भी जैसे जीवन-यापन के अवसर सामने आते हैं, उन्हें सहजता से स्वीकार कर लेती है। वह न तो दुःख से विचलित होती है और न ही दुःखी बने रहने की निराशा या कुण्ठा से ग्रस्त होती है। न दुःखों के आने का कोई आग्रह, और न ही दुःखों के जाने का कोई आग्रह।
“प्रतीकारो यदृच्छातः सिद्धश्चेन्नाग्रही भवेत्” अर्थात यदि यथासंभव सहजता से किसी समस्या का समाधान मिल सके, तो उसे स्वीकार करना चाहिए, परंतु उस पर आग्रह नहीं करना चाहिए। यही धैर्य का स्वभाव है।
सहन
धैर्य धारण करने का दूसरा उपाय है—दुःखों, कष्टों या तिरस्कारों को सहन कर लेना। हमें यह विचार करना चाहिए कि जो कष्ट हमें हो रहा है, वह अन्य किसी को भी हो सकता है। हमारा कष्ट किसी दूसरे के लिए सुख का कारण भी बन सकता है। सुख-दुःख की अनुभूति के हम अकेले ही दावेदार नहीं हैं; इसके कई अन्य दावेदार भी हैं। ऐसे में केवल हमारे उद्विग्न होने का कोई औचित्य नहीं है।
देहवत् धैर्यधारण
देहः किमन्नदातुर्वा निषेक्तुर्मातुरेव वा।
मातुर्पितुर्वा बलिनः क्रेतुरग्नेः शुनोपि वा॥
अर्थ: इस देह पर वास्तविक अधिकार किसका है? क्या उसका जो हमें अन्न देता है, या हमारे जनक पिता का, या गर्भधारण करने वाली माता का, या बलपूर्वक जिसने हमें अधीन कर लिया हो, या धन देकर जिसने हमें खरीदा हो, या देह को भस्मसात् करने वाली अग्नि का, या उसे खाने वाले भूखे कृमि-कीट-पशु-पक्षियों का?
हमारे देह के दावेदार अकेले हम नहीं हैं। देह के साथ अनेक प्रकार के कष्ट और आनंद जुड़े हुए हैं। ऐसी सार्वजनिक संपत्ति के कारण केवल हमारे दुःखी होने की क्या आवश्यकता है? इसी प्रकार, हमारे सुख-दुःख में भी हमारे परिवार, समाज, राष्ट्र, मानव मात्र और प्राणि मात्र का कुछ न कुछ या किसी न किसी प्रकार का हिस्सा अवश्य होता है।
फिर अकेले हमें ही अपने कष्टों को असहनीय क्यों मानना चाहिए? जैसे वनस्पति का कष्ट बकरी के सुख का कारण है, बकरी का कष्ट सिंह के सुख का कारण है, सिंह का कष्ट शिकारी मानव के सुख का कारण है। इसी प्रकार, हमारा कष्ट भी किसी अन्य के सुख का कारण हो सकता है।
अतः हमारे पारिवारिक सदस्य, पत्नी या अन्य असाधु पुरुषों द्वारा किया गया तिरस्कार भी हमें सहन कर लेना चाहिए। धैर्य का यह अभ्यास, दुःख सहन करने की क्षमता को विकसित कर, जीवन को संतुलन और स्थिरता प्रदान करता है।
त्याग
धैर्य धारण करने का तृतीय उपाय है त्याग। त्याग का अर्थ है अपनी ओर से समस्त इन्द्रियों को स्थगित कर देना और उन्हें काया, वाणी तथा मन के अत्यधिक आग्रह से मुक्त करना।
जडवत् धैर्यधारण
जैसे जडभरत अपनी मस्ती में स्थित थे। जब राजा के सैनिक उन्हें पालकी ढोने के लिए ले गए, तो उन्होंने बिना किसी विरोध के पालकी उठाना शुरू कर दिया। ठीक से न उठाने के कारण राजा ने उन्हें गाली दी, जिसे उन्होंने अपनी मस्ती में सहजता से सुन लिया। जब राजा ने उनसे प्रश्न किया, तो उन्होंने बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण उत्तर दिया। और जब राजा उनके चरणों में गिर पड़ा, तो उसी पूर्व मस्ती में रहते हुए उन्होंने उसे ज्ञानोपदेश भी दिया।
इस प्रकार, जडवत व्यवहार करते हुए भी धैर्य को धारण किया जा सकता है। यह त्याग का वह रूप है, जिसमें व्यक्ति अपनी इन्द्रियों और मन के आग्रहों से पूर्णतः स्वतंत्र होकर शांतचित्त बने रहता है, और परिस्थितियों का सामना धैर्यपूर्वक करता है।
असामर्थ्यभावना
धैर्य धारण करने का चौथा उपाय है स्वयं अपनी असमर्थता की भावना का विचार करना।
गोपभार्यवत् धैर्यधारण
कृष्ण के विरह में गोपिकाओं ने तथा अन्य व्रजवासियों ने अपनी असमर्थता के बोध के द्वारा धैर्य धारण किया। रास के प्रसंग में और मथुरा गमन के अवसर पर भी, जब भगवान पर कोई बस नहीं चलता था, तब अपनी असमर्थता की भावना के द्वारा ही धैर्य धारण का सहारा लिया गया। इस स्थिति में धैर्य धारण के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह जाता।
इस प्रकार, भगवदिच्छा और अपनी असमर्थता का विचार करते हुए, आधिदैविक दुःखों को सहन कर लेना चाहिए। यदि ये सारे उपाय कठिन या असंभव प्रतीत होते हों, तो सर्वदुःखहर्ता भगवान हरि का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि भगवान के आश्रय से असंभव भी संभव हो जाता है और सभी दुर्लभ बातें सुलभ बन जाती हैं।
इस प्रकार, धैर्य का विस्तृत निरूपण किया गया। अब आश्रय के स्वरूप को समझना चाहिए।
आश्रय
ऐहिक और पारलौकिक सभी बातों में सर्वथा एकमात्र भगवान हरि का ही सहारा स्वीकार करना आश्रय कहलाता है। आश्रय की दृढ़ता बनाए रखने के लिए चार उपाय बताये गए हैं:
- मन और वाणी से निरंतर शरण भावना: प्रत्येक क्षण और हर परिस्थिति में मन और वाणी के माध्यम से भगवान हरि की शरण में रहने का अनुभव और भावना बनाए रखना।
- कायिक, वाचिक और मानसिक रूप में अन्य आश्रय का त्याग: शरीर, वाणी और मन से अन्य किसी भी प्रकार के सहारे को छोड़ देना और भगवान को ही एकमात्र सहारा मानना।
- भगवान पर अडिग विश्वास: मेघ पर चातक के दृढ़ विश्वास की तरह भगवान पर सदा अटूट विश्वास रखना। जैसे स्वयम् प्रयुक्त ब्रह्मास्त्र पर भी स्वयम् मेघनाद ने विश्वास नहीं खोया, वैसे ही भगवान पर किसी भी स्थिति में अविश्वास नहीं करना।
- सुख या दुःख का ममतारहित उपभोग: जो भी परिस्थिति आए, सुख हो या दुःख, उसे ममता रहित होकर स्वीकार करना और उसका उपभोग करना।
यह उपाय आश्रय को स्थिर और दृढ़ बनाते हैं और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और विश्वास का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
मन और वाणी से निरंतर शरण भावना
हमारे जीवन में विभिन्न प्रकार की विषम परिस्थितियाँ आती रहती हैं। ऐसी उद्वेगजनक परिस्थितियों में, जब हम विवेक और धैर्य का पालन करने में असमर्थ हो जाते हैं और विचलित हो उठते हैं, यदि हमारे मन और वाणी में शरणभावना बनी रहती है, तो आश्रय दृढ़ हो जाता है। जीवन में आने वाले अनेकविध आधिभौतिक, आध्यात्मिक एवं आधिदैविक कष्टों के समय, शरणभावना को बनाए रखना ही हमें इनसे उबरने का सशक्त साधन प्रदान करता है।
चाहे कोई भी परिस्थिति क्यों न हो—पाप का बोझ, भय, अपूर्ण इच्छाएँ, भक्तद्रोह, भक्ति का अभाव, अथवा भक्तों से तिरस्कार—भगवत्सेवा और भगवद्-शरणभावना ही सर्वथा उपयुक्त उपाय सिद्ध होती है। जब कोई अशक्य कार्य पूरा करने का उत्तरदायित्व हमारे ऊपर आ जाता है, तो उद्वेग, चिंता और कुण्ठा के कारण हम भगवान को भूल जाते हैं। दूसरी ओर, जब कोई सुशक्य कार्य पूरा करने का उत्तरदायित्व आता है, तो सफल होने की आशा, उत्साह और अहंकार हमें प्रभु से विमुख कर देते हैं।
कार्य चाहे अशक्य हो या सुशक्य, भगवान की शरणभावना सर्वदा मन और वाणी पर स्थिर रहनी चाहिए। जब हमारा अहंकार प्रबल हो, जब हम पर आश्रित लोग हमारे रक्षण और पोषण के लिए निर्भर हों, जब वे हमारे अहंकार को ठेस पहुँचाएँ, अथवा जब हमारे शिष्य भी हमारा तिरस्कार करें, तब भी शरणभावना को बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है।
मानसी सेवा, व्यसन की अवस्था, निरोध, या सर्वात्मभाव के अनुभव योग्य अलौकिक मन की सिद्धि के लिए भी एकमात्र श्रीहरि ही हमारी शरण हैं। मन और वाणी से निरंतर अष्टाक्षर मंत्र का अनुसंधान करना चाहिए। यही आश्रय को दृढ़ बनाने का प्रथम उपाय है।
कायिक, वाचिक और मानसिक रूप में अन्य आश्रय का त्याग
काया, वाणी और मन से अन्याश्रय का त्याग करना आवश्यक है। यदि श्रुति में नित्यकर्म के रूप में विहित न हो, तब भी किसी अन्य देवता का स्वतः चलाकर निष्काम या सकाम भजन करना अन्याश्रय कहलाता है। मार्ग में कहीं जाते समय, यदि किसी अन्य देव का मंदिर सहज रूप से मिल जाए, तो वह अलग बात है; किंतु अपनी ओर से प्रयासपूर्वक किसी अन्य देव के दर्शन के लिए उनके मंदिर में जाना अन्याश्रय माना जाता है।
मार्ग में अन्य देव का मंदिर मिल जाने पर नमन द्वारा आदरभाव प्रकट करना अन्याश्रय नहीं है। किन्तु किसी लौकिक या अलौकिक प्रयोजन से किसी अन्य देवता की प्रार्थना करना अन्याश्रय की श्रेणी में आता है। यहाँ ‘अन्यदेव’ का अर्थ है—वे देव रूप, जिन्हें पुष्टिमार्गीय सेवा प्रणाली में मान्यता नहीं दी गई है।
अन्याश्रय का त्याग करने से आश्रय और भी दृढ़ हो जाता है। यह त्याग, मन, वाणी और काया के माध्यम से भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और निष्ठा को अभिव्यक्त करता है। इससे भक्ति में स्थायित्व आता है और आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता है।
भगवान पर अडिग विश्वास
भगवान पर अविश्वास कभी नहीं करना चाहिए। सर्वदा चातक के समान दृढ़ विश्वास रखना आवश्यक है। जैसे लंका में हनुमानजी को जब ब्रह्मास्त्र से बांधा गया था, तब स्वयं बांधने वाले राक्षसों को ही ब्रह्मास्त्र पर अविश्वास हो गया था। इसलिए जब उन्होंने ब्रह्मास्त्र के अलावा रस्सी या अर्गला से बांधने का प्रयास किया, तो उनके अविश्वास के कारण हनुमानजी ने दोनों ही बंधनों को तोड़कर स्वयं को मुक्त कर लिया।
अतः अविश्वास कदापि नहीं करना चाहिए। चाहे जल बरसे या न बरसे, चातक का स्वातिबिंदु पर विश्वास कभी खंडित नहीं होता। इसी प्रकार, प्रभु पर भी ऐसा ही दृढ़ विश्वास रहना चाहिए। यह दृढ़ विश्वास भगवदाश्रय को स्थायित्व और गहनता प्रदान करता है। विश्वास की यह शक्ति न केवल भक्तिमार्ग में स्थायित्व लाती है, बल्कि जीवन की हर परिस्थिति में परमात्मा के प्रति अडिगता बनाए रखने में सहायक होती है।
सुख या दुःख का ममतारहित उपभोग
हमें जो कुछ जैसा और जितना प्राप्त होता है, यदि उसका ममतारहित उपभोग करने का व्रत ले लिया जाए, तो प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति से हर्ष और अप्रिय वस्तुओं की प्राप्ति से विषाद का भाव उत्पन्न नहीं होगा। इस प्रकार, जो भी वस्तु हमें प्राप्त होती है, उसका ममतारहित उपभोग भगवदाश्रय की दृढ़ता को सिद्ध करता है। ममता रहित होकर वस्तुओं का उपभोग करना न केवल आंतरिक शांति प्रदान करता है, बल्कि यह भगवान के प्रति समर्पण और शरणभावना को और भी गहन बनाता है।
उपसंहार
किसी भी प्रकार से, आश्रय की दृढ़ता अत्यावश्यक है। चाहे छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे, किसी भी प्रकार के कार्यों को करते हुए, यदि हम शरणभावना को अपने हृदय में बनाए रखने का प्रयास करें, तो अन्य सभी बातें शनैः-शनैः स्वतः ही सिद्ध हो जाती हैं। इस प्रकार, यह स्पष्ट होता है कि कलियुग में भक्ति आदि मार्गों पर चलना अत्यंत कठिन हो गया है, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण का आश्रय सभी के लिए सदा हितकारी और कल्याणकारी है।
यदि एक दृष्टि से देखें, तो मार्ग तो कर्म, ज्ञान और भक्ति—ये तीन ही हैं। परंतु जो जीव इन मार्गों पर चलने में असमर्थ होते हैं, या चलते हुए थककर रुक जाते हैं, उनकी साधना अधूरी रह जाती है। इसके विपरीत, जो जीव थके हुए हों या बिना थके ही भगवान के चरणों में शरणागत हो जाते हैं, वे बिना चले भी अपने गन्तव्य तक पहुँच जाते हैं। भगवान के चरण या शरण न केवल मार्ग हैं, बल्कि वे स्वयं गन्तव्य भी हैं।
एवमाश्रयणं प्रोक्तं सर्वेषां सर्वदा हितम्…
इस प्रकार, आश्रय लेना (या शरण में जाना) सभी के लिए और हर समय लाभकारी बताया गया है।
अस्वीकरण और श्रेय
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संदर्भ सूची
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