भक्तिमार्ग में प्रवेश के बाद, अङ्गीकार के माध्यम से जीव, भगवान के दासपने को प्राप्त करता है और भगवत्सेवा में प्रवृत्त होता है। यह सेवा, भक्ति की दृढ़ता को बढ़ाने में सहायक होती है। नवरत्न ग्रन्थ में इस उद्देश्य से चिन्ता के त्याग का महत्व बताया गया है और इसके लिए विवेक, धैर्य और आश्रय जैसे तत्वों का वर्णन संक्षेप में किया गया है। परंतु जब तक इन तत्वों—विवेक, धैर्य और आश्रय—का विस्तृत ज्ञान न हो, तब तक सेवक में भक्ति की पूरी दृढ़ता स्थापित होना कठिन होता है।

श्रीमहाप्रभुजी ने सेवकों के लिए इन तीनों तत्वों का विस्तारपूर्वक निरूपण करने हेतु ‘विवेकधैर्याश्रयः’ ग्रन्थ की रचना की। इसमें उन्होंने यह दर्शाया कि:

  • विवेक (विचार और बोध): यह समझने की क्षमता प्रदान करता है कि वास्तविकता क्या है और माया का प्रभाव क्या है। यह ज्ञान सेवक को आत्मबोध कराते हुए सेवा में स्थायित्व प्रदान करता है।

  • धैर्य (धीरता और सहनशीलता): सेवा के मार्ग में आने वाले कष्टों और बाधाओं को सहन करते हुए, दृढ़ता बनाए रखने का महत्व दिखाता है। यह सेवक को आत्मविश्वास देता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी भक्ति का मार्ग नहीं छोड़ना चाहिए।

  • आश्रय (पूर्ण समर्पण): भगवान में शरणागत होने की भावना, जो आत्मा को सुरक्षा और विश्वास देती है। यह मनोभाव सेवक को न केवल शांति प्रदान करता है, बल्कि उसे भगवान की कृपा के प्रति जागरूक भी बनाता है।

इस ग्रन्थ का उद्देश्य यही है कि सेवकों में विवेक, धैर्य और आश्रय की भावना का विकास हो, जिससे वे भगवान की सेवा में अडिग और निष्कलंक रह सकें। यह भक्तिमार्ग में स्थिरता और समर्पण को सुदृढ़ करता है, जिससे सेवकों को अपने धर्म और भगवान की प्रसन्नता में विश्वास बना रहता है। श्रीमहाप्रभुजी ने इन तत्वों के माध्यम से सेवकों के लिए भक्ति का सही मार्ग सुलभ और सुस्पष्ट कर दिया है।


विवेक और धैर्य का सतत संरक्षण करना चाहिए (विवेकधैर्ये सततं रक्षणीयें), और हरि का आश्रय लेना चाहिए (तथाश्रयः)। विवेक तो हरि ही हैं (विवेकस्तु हरिः), और वह अपनी इच्छा से सभी कुछ करेंगे (सर्वं निजेच्छातः करिष्यति)।

प्रार्थना से भी (प्रार्थिते वा), स्वामी के अभिप्राय में यदि संशय हो (ततः किं स्यात् स्वाम्यभिप्राय संशयात्), तो क्या परिणाम होगा? हरि के सामर्थ्य (सर्व सामर्थ्य) से यह निश्चित है कि उनके द्वारा सर्वत्र सब कुछ ही पूर्णता में होता है (सर्वत्र तस्य सर्वं हि)।

अभिमान का त्याग करना चाहिए (अभिमानः च सन्त्याज्यः), क्योंकि स्वामी के अधीनता का भाव होना चाहिए (स्वाम्यधीनत्व भावनात्)। विशेष रूप से यदि आज्ञा (विशेषतः चेत् आज्ञा स्यात्) अंतःकरण में प्रकट होती है (अन्तःकरण गॊचरः)।

तब विशेष गति और आरंभिक विचार (तदा विशेष गतिः आदि भाव्यं) को शारीरिक पहलुओं से भिन्न समझा जाना चाहिए (भिन्नं तु दैहिकात्)। संकट के समय की गति और अन्य कार्यों में (आपद गतिः आदि कार्येषु), हठ का पूर्णतः त्याग करना आवश्यक है (हठः त्याज्यः च सर्वथा)।

अनाग्रह, अर्थात् आग्रह का त्याग, सभी परिस्थितियों में आवश्यक है (अनाग्रहः च सर्वत्र)। यह धर्म और अधर्म को पहले पहचानने की क्षमता प्रदान करता है (धर्म अधर्म अग्र दर्शनम्)। इसे विवेक के रूप में जाना जाता है (विवेकः अयं समाख्यातः), और धैर्य को भी इस आधार पर परिभाषित किया जाता है (धैर्यं तु विनिरूप्यते)।

त्रिविध दुःखों को सहन करना (त्रि दुःख सहनं) ही धैर्य है (धैर्यम्)। यह हमेशा (सदा) अमृत समान होता है (आमृतः सर्वतः)। देह को तक्र समान समझना चाहिए (तक्रवत् देहवत् भाव्यं), जड़वत् व्यवहार करना चाहिए (जडवत्), और गोपियों की पत्नियों के समान श्रद्धा रखनी चाहिए (गोपभार्यवत्)।

यदृच्छा से यदि प्रतिकार उपलब्ध हो (प्रतिकारः यदृच्छतः सिद्धः चेन), तो इसमें आग्रह नहीं होना चाहिए (न आग्रहः भवेत्)। भार्या आदि और अन्य व्यक्तियों के असत् आचरण को (भार्यादीनाम तथा अन्येषाम असतः) सहन करना चाहिए (आक्रमं सहेत्)।

स्वयं इंद्रियों के कार्यों को (स्वयम् इन्द्रिय कार्याणि) शरीर, वाणी और मन से त्याग देना चाहिए (काय वाक् मनसा त्यजेत्)। यहाँ तक कि अशूर द्वारा भी (अशूरेण अपि), स्वामी की असमर्थता की भावना से (स्वस्य असामर्थ्य भावनात्) कर्तव्य का पालन किया जाना चाहिए (कर्त्तव्यम्)।

जहाँ कुछ भी असंभव हो (अशक्ये), वहाँ केवल हरि ही हैं (हरिः एव अस्ति)। सर्वत्र सब कुछ उनके आश्रय से ही संभव है (सर्वम् आश्रयतः भवेत्)। यही सहनशीलता यहाँ कही गई है (एतत् सहनम् अत्र उक्तम्), और इस प्रकार आश्रय की महिमा को स्पष्ट किया गया है (आश्रयः अतः निरूप्यते)।

हरि ऐहिक जीवन और परलोक में सर्वत्र शरण हैं (ऐहिके पारलोके च सर्वथा शरणं हरिः)। वह दुःख का अंत (दुःख हानौ), पाप का नाश (तथा पापे), भय का समाधान (भयॆ), और काम आदि इच्छाओं की अपूर्णता को संतुष्ट करने वाले हैं (काम आदि अपूरणे)।

जहां भक्त का विरोध होता है (भक्त द्रोहे), भक्ति का अभाव रहता है (भक्तिः अभावे), और भक्त द्वारा उल्लंघन किया जाता है (भक्तैः च अतिक्रमे कृतः), वहां भी हरि अशक्य और सुशक्य स्थितियों में (अशक्ये वा सुशक्ये वा) हर समय शरण हैं (सर्वथा शरणं हरिः)।

अहंकार के कारण (अहंकार कृतः च एव), पोष्य (पाल्य) के पोषण और रक्षण में बाधा आती है (पोष्य पोषण रक्षणे)। इसी प्रकार, जब पोष्य द्वारा उल्लंघन होता है (पोष्य अतिक्रमणे च एव), या शिष्य द्वारा अनुचित आचरण होता है (तथा अन्तेवास्य अतिक्रमे), तब भी यह सत्य है।

अलौकिक मानसिक सिद्धि में (अलौकिक मनः सिद्धौ), हरि सर्वत्र शरण हैं (सर्वथा शरणं हरिः)। चित्त में हमेशा इसी भावना का चिंतन करना चाहिए (एवं चित्ते सदा भाव्यं), और इसे वाणी द्वारा प्रशंसा के साथ व्यक्त करना चाहिए (वाचा च परिकीर्तयेत्)।

अन्य किसी का भजन करने में (अन्यस्य भजनं तत्र) स्वतः ही जाना पड़ता है (स्वतः गमनं एव च)। प्रार्थना केवल आवश्यक कार्यों तक सीमित होनी चाहिए (प्रार्थना कार्यमात्रे अपि), और इसे अन्यत्र त्याग देना चाहिए (तथा अन्यत्र विवर्जयेत्)।

अविश्वास कभी भी नहीं करना चाहिए (अविश्वासः न कर्त्तव्यः), क्योंकि वह हमेशा बाधक होता है (सर्वथा बाधकः तु सः)। ब्रह्मास्त्र और चातक को (ब्रह्मास्त्र चातकौ) विशेष रूप से ध्यान में रखना चाहिए (भाव्यौ), और जो भी प्राप्त हो, उसे बिना अहंकार या ममता के सेवा करनी चाहिए (प्राप्तं सेवेत निर्ममः)।

किसी भी प्रकार से कार्य करना चाहिए (यथा कथञ्चित् कार्याणि कुर्यात्), चाहे वह उच्च हो या निम्न स्तर का (उच्च अवचानि अपि)। बहुत अधिक बोलने से क्या लाभ (किं वा प्रोक्तेन बहुना)? हरि को शरण मानने का विचार सदा बनाए रखना चाहिए (शरणं भावयेत् हरिम्)।

इस प्रकार हरि का आश्रय (एवं आश्रयणं) सभी के लिए हमेशा हितकर बताया गया है (प्रोक्तं सर्वेषां सर्वदा हितम्)। कलियुग में भक्ति और अन्य मार्ग (कलौ भक्तिः आदि मार्गा) वास्तव में कठिनाई से साध्य हैं (हि दुःसाध्या), यह मेरा मत है (इति मे मतिः)।


॥इति श्रीवल्लभाचार्यविरचितं विवेकधैर्याश्रयनिरूपणं सम्पूर्णम्॥