भक्तिमार्ग में प्रवेश के बाद, अङ्गीकार के माध्यम से जीव, भगवान के दासपने को प्राप्त करता है और भगवत्सेवा में प्रवृत्त होता है। यह सेवा, भक्ति की दृढ़ता को बढ़ाने में सहायक होती है। नवरत्न ग्रन्थ में इस उद्देश्य से चिन्ता के त्याग का महत्व बताया गया है और इसके लिए विवेक, धैर्य और आश्रय जैसे तत्वों का वर्णन संक्षेप में किया गया है। परंतु जब तक इन तत्वों—विवेक, धैर्य और आश्रय—का विस्तृत ज्ञान न हो, तब तक सेवक में भक्ति की पूरी दृढ़ता स्थापित होना कठिन होता है।

श्रीमहाप्रभुजी ने सेवकों के लिए इन तीनों तत्वों का विस्तारपूर्वक निरूपण करने हेतु ‘विवेकधैर्याश्रयः’ ग्रन्थ की रचना की। इसमें उन्होंने यह दर्शाया कि:

  • विवेक (विचार और बोध): यह समझने की क्षमता प्रदान करता है कि वास्तविकता क्या है और माया का प्रभाव क्या है। यह ज्ञान सेवक को आत्मबोध कराते हुए सेवा में स्थायित्व प्रदान करता है।

  • धैर्य (धीरता और सहनशीलता): सेवा के मार्ग में आने वाले कष्टों और बाधाओं को सहन करते हुए, दृढ़ता बनाए रखने का महत्व दिखाता है। यह सेवक को आत्मविश्वास देता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी भक्ति का मार्ग नहीं छोड़ना चाहिए।

  • आश्रय (पूर्ण समर्पण): भगवान में शरणागत होने की भावना, जो आत्मा को सुरक्षा और विश्वास देती है। यह मनोभाव सेवक को न केवल शांति प्रदान करता है, बल्कि उसे भगवान की कृपा के प्रति जागरूक भी बनाता है।

इस ग्रन्थ का उद्देश्य यही है कि सेवकों में विवेक, धैर्य और आश्रय की भावना का विकास हो, जिससे वे भगवान की सेवा में अडिग और निष्कलंक रह सकें। यह भक्तिमार्ग में स्थिरता और समर्पण को सुदृढ़ करता है, जिससे सेवकों को अपने धर्म और भगवान की प्रसन्नता में विश्वास बना रहता है। श्रीमहाप्रभुजी ने इन तत्वों के माध्यम से सेवकों के लिए भक्ति का सही मार्ग सुलभ और सुस्पष्ट कर दिया है।

श्लोक १

भावार्थ

विवेक और धैर्य को सदा बनाए रखना चाहिए। इन दोनों की सिद्धि के लिए आश्रय को सदा स्थिर रखना चाहिए। प्रभु अपनी इच्छानुसार सब कुछ करेंगे, यही विवेक है।

टीका

प्रभु ‘हरि’ हैं, अर्थात् वे भक्तों के दुःख और पापों का हरण करते हैं। इस तथ्य को समझना ही पहला विवेक है। अतः लौकिक और भगवत्सेवा में उपयोग में आने वाले सभी कार्य—जो अपने प्रयत्न से सिद्ध नहीं हो सकते—उन्हें भी प्रभु ही सिद्ध करेंगे। इसलिए सेवा के अतिरिक्त अन्य किसी प्रयत्नादि में लिप्त नहीं होना चाहिए। यह पहला विवेक है, जिसका निरूपण नवरत्न के “चिन्ता काऽपि न कार्या” श्लोक में किया गया है।

यदि यह शंका उठे कि प्रार्थना किए बिना भगवान् कार्य कैसे सिद्ध करेंगे, तो कहा गया है कि प्रभु अपनी इच्छानुसार कार्य करेंगे। या यदि भक्तों की इच्छा विकाररहित होगी, तो भगवान् भक्तों की इच्छा को प्रमाण मानकर कार्य करेंगे। इसका अर्थ है, भक्तों की जो भी इच्छाएँ होती हैं, यदि उनमें विकार नहीं है, तो प्रभु स्वयं ही अपनी इच्छा से उन इच्छाओं को पूर्ण करेंगे। इसमें प्रार्थना की अपेक्षा नहीं रखी जाती। अतः प्रार्थना न करना दूसरा विवेक है। इसका वर्णन “सर्वेश्वरश्च सर्वात्मा” इस नवरत्न श्लोक में किया गया है।

वारंवार प्रार्थना क्यों नहीं करनी चाहिए?
इसकी जिज्ञासा होने पर कहा गया है कि प्रभु अपनी इच्छानुसार कार्य करेंगे। अथवा जब भक्तों की विकाररहित इच्छा होगी, तो प्रभु उसे अपनी इच्छा मानकर पूरा करेंगे। इस प्रकार, विश्वास के साथ समर्पण और शरणागति का पालन करना ही विवेक है।

श्लोक २

भावार्थ

प्रार्थना करने से क्या होता है? कुछ भी नहीं होता। क्यों? क्योंकि स्वामी का अभिप्राय क्या है, इसे हम नहीं जानते। सभी स्थानों में और समस्त वस्तुओं में भगवान् का ही अधिकार है। यदि कोई वस्तु नहीं है, तो उसे सिद्ध करने की सामर्थ्य भी भगवान में ही है।

टीका

प्रार्थना करने से क्या होता है? कुछ भी नहीं होता। क्यों? क्योंकि स्वामी का अभिप्राय क्या है, इसे हम नहीं जानते। भगवान् अपनी इच्छा से ही प्रदान करेंगे। यदि उनकी इच्छा नहीं होगी, तो वे नहीं देंगे। अतः प्रार्थना कर के स्वधर्म का ह्रास क्यों करना? इसे समझना ही तृतीय विवेक है।

सभी स्थानों में और समस्त वस्तुओं में भगवान् का ही अधिकार है। और जो वस्तु नहीं होती, उसे भी सिद्ध करने की सामर्थ्य केवल भगवान में है। इसलिए जिसे जो वस्तु अपेक्षित होती है, वह साक्षात् या परम्परा से भगवान ही प्रदान करते हैं। परंतु जीव अपनी अज्ञानता के कारण यह मानता है कि “मैंने अपने प्रयास से इसे सिद्ध किया।” अतः जीव को यह समझना चाहिए कि “जब मैं शरणागत नहीं था, तब भी मेरे पास जो वस्तु थी, वह प्रभु ने ही दी थी। अब जबकि प्रभु ने मेरा अंगीकार किया है, तो वे प्रार्थना किए बिना भी मुझे प्रदान करेंगे।” ऐसा निश्चय कर के केवल सेवा करनी चाहिए। परंतु सेवा छोड़ कर अन्य प्रयत्न आदि नहीं करना चाहिए। यही चतुर्थ विवेक है।

यहाँ एक शंका:
यदि कुछ समय सेवा करें और बाकी समय अन्य कार्य करें, तो इसमें क्या दोष है? इसका समाधान निम्न श्लोक में प्रस्तुत किया गया है।

श्लोक ३।१

भावार्थ

स्वामी के अधीन सब कुछ है, इस भावना से वासना और अभिमान का त्याग करना चाहिए।

टीका

इसका अभिप्राय यह है कि समर्पण के पश्चात् देह, इन्द्रियां और मन में अपनेपन का अभिमान नहीं रखना चाहिए। क्यों? क्योंकि यदि देह और इन्द्रियों में स्वतंत्रता का अभिमान हो, तो उनका उपयोग स्वार्थी प्रयोजनों में हो सकता है। अतः देह, इन्द्रियां और मन का अभिमान त्यागकर इन सभी को भगवान में समर्पित करना चाहिए।

इस भावना को अपनाने से यह अनुभव होता है कि सब कुछ भगवान के अधीन है। जब यह भावना दृढ़ हो जाती है, तब केवल भगवान के अधीनता का अनुसंधान सदा बना रहता है। इस प्रकार, भगवत्कार्य के अतिरिक्त अन्य सभी कार्य दोषपूर्ण प्रतीत होते हैं। इसी कारण, अपने स्वामी (भगवान) से संबंधित कार्यों में ही स्वधर्म की प्रेरणा उत्पन्न होती है।

तब वैष्णव केवल प्रभुसेवा करता है और अन्य किसी कार्य में दोषपूर्ण बुद्धि के कारण प्रवृत्त नहीं होता। यही पंचम विवेक है। इसका निरूपण नवरत्न के “निवेदनन्तु स्मर्तव्यम्” श्लोक के विवरण में श्रीगुसांईजी द्वारा किया गया है।

जैसे प्रभु ने हमारा अंगीकार किया है, वैसे ही स्त्री, पुत्र आदि का अंगीकार भी उन्होंने हमारे साथ ही किया है। अतः उनके लिए भी हमारे प्रयत्न आवश्यक नहीं हैं। इसका उल्लेख नवरत्न के “चिन्ता काऽपि” श्लोक की व्याख्या में किया गया है, जिसमें कहा गया है कि “लौकिक और अलौकिक चिन्ताओं का त्याग करना चाहिए।”

श्लोक ३।२ - ४।१

भावार्थ

सेवा करते हुए यदि अन्तःकरण में कोई विशेष भगवदाज्ञा का अनुभव हो, तो उसी के अनुसार कार्य करना चाहिए। ऐसी विशेष आज्ञा अपने देहादिक के संबंध से भिन्न होनी चाहिए, तब ही वह आज्ञा प्रमाण होकर विशेष मानी जाएगी।

टीका

श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी की आज्ञा के अनुसार विवेकादि से सेवा करते हुए, यदि प्रभु द्वारा अपेक्षित किसी विशेष वस्तु की आज्ञा श्रीआचार्यजी की आज्ञा से भिन्न हो, तो प्रभु की विशेष आज्ञा को ही प्रमाण मानकर कार्य करना चाहिए। यदि कोई विशेष आज्ञा प्राप्त न हो, तो श्रीआचार्यजी की आज्ञा के अनुसार ही सेवा करनी चाहिए।

प्रभु की विशेष आज्ञा की पहचान कैसे हो?
यह शंका होने पर बताया गया है कि प्रभु अन्तःकरण में विद्यमान हैं। वे अन्तर्यामी होने के कारण स्वप्नादि के माध्यम से या भक्त के अन्तःकरण में विराजमान होकर स्फूर्ति प्रदान करते हैं। प्रभु का आदेश अन्तःकरण में स्वयम् अनुभव होता है।

भगवान के स्वरूप और लीला के संबंध में यदि प्रभु की विशेष आज्ञा हो, तो उसकी प्रमाणता से सेवा में कृति करनी चाहिए। अन्यथा, श्रीआचार्यजी की आज्ञा का पालन करते हुए सेवा करनी चाहिए। प्रभु की विशेष आज्ञा यदि देहादिक के सामान्य संबंध से भिन्न हो, तभी वह प्रमाणित होकर विशेष मानी जाएगी। अतः स्त्री या पुत्रादिक के विवाह जैसे व्यक्तिगत संबंधों के कार्य में विशेष आज्ञा का होना संभव नहीं है। इसे ‘भिन्न’ पद के माध्यम से स्पष्ट किया गया है।

नवरत्न के

सेवाकृतिर् गुरोर् आज्ञा बाधनं वा हरीच्छया

श्लोक में इसी का निरूपण किया गया है। अतः समर्पण के पश्चात् तदीयता का अनुसंधान करते हुए प्रभु की प्रसादप्राप्ति के अनुसार जितना आवश्यक हो, उतना ही लौकिक कार्य करना चाहिए। आग्रह के साथ किसी विशेष प्रयास में लिप्त होना अनुचित है। यही छठा विवेक है।

सेवा में धन की आवश्यकता होने पर क्या करना चाहिए?
यदि धन आदि की सामग्री न हो, तो उसे उधार लेकर जुटाने का आग्रह करना चाहिए या नहीं? इसका समाधान अगले श्लोक में प्रस्तुत किया गया है।।।

श्लोक ४।२ - ५

भावार्थ

आपत्ति की स्थिति में हठ को सर्वथा छोड़ देना चाहिए और आग्रह का त्याग करना चाहिए। हर परिस्थिति में धर्म और अधर्म का विचार करना आवश्यक है। इसी प्रकार, विवेक को अच्छी तरह समझाया गया है। अब धैर्य का विस्तारपूर्वक निरूपण किया जाएगा।

टीका

आपत्ति आने पर, जो सामग्री या साधन को लेकर कोई नियम निर्धारित किया गया हो, उसे निभाने के लिए हठ नहीं करना चाहिए। उधार लेकर या अतिरिक्त प्रयासों से सामग्री जुटाने का हठ भी नहीं करना चाहिए। बिना किसी विशेष प्रयत्न के जो भी उपलब्ध हो, उसमें संतोष रखकर उसे ही भगवान को अर्पण करना चाहिए। विशेष पर आग्रह नहीं रखना चाहिए।

पुष्टिमार्ग की मर्यादा के अनुसार, भगवान् जो भी भक्त से स्वीकार करते हैं, वह उनका साक्षात अंगीकार होता है। इसलिए, जहां प्रभु संबंधी कार्यों में हठ नहीं करनी चाहिए, वहां लौकिक कार्यों में तो हठ का कोई स्थान ही नहीं है। यही सप्तम विवेक है।

वैदिक कार्य के संबंध में आचरण कैसे होना चाहिए?
स्मार्त्त और वैदिक धर्म के विषय में आग्रह नहीं करना चाहिए। भगवत्सेवा को छोड़कर स्मार्त-श्रौत धर्मों के पालन का आग्रह अनुचित है। भगवान की आज्ञा के अंतर्गत आने वाले आवश्यक कर्म सेवा के समय में नहीं, बल्कि समयानुसार करने चाहिए।

मूल रूप से, धर्म और अधर्म का अग्रदर्शन करते हुए परिणाम का विचार करना चाहिए। यदि किसी कार्य का परिणाम अधर्म दिखता हो, तो उसे नहीं करना चाहिए। भगवद्धर्म, श्रौत और स्मार्त धर्मों से अधिक प्रभावी और बलशाली है। यदि भगवद्धर्म का पालन करने के लिए स्मार्त-श्रौत धर्म का त्याग करना पड़े, तो इसमें कोई दोष नहीं है।

टिप्पणी:
यहां स्मार्त और वैदिक धर्म के त्याग का अभिप्राय यह है कि भगवद्धर्म का अनुसरण करने वाले भक्त यदि स्मार्त धर्म में समय व्यतीत करते हैं, तो उन्हें भगवद्धर्म में कमी का अनुभव होगा। इसी कारण भगवद्धर्म के लिए स्मार्त धर्म का त्याग उचित है।

इस प्रकार, विवेक का विस्तृत वर्णन किया गया। अब धैर्य का विस्तारपूर्वक निरूपण किया जाएगा। नवरत्न के “चित्तोद्वेगं विधायापि” श्लोक में धैर्य का संक्षेप में निरूपण हुआ है, लेकिन अब इसका विस्तार किया जाएगा।
अब धैर्य के लक्षण प्रस्तुत किए जाएंगे।

श्लोक ६

भावार्थ

मृत्यु के समान कष्ट आने पर, अथवा जब तक आयु है, तब तक आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक—इन तीनों प्रकार के कष्टों को सभी प्रकार से सहन करना ‘धैर्य’ कहलाता है।

टीका

देह से संबंधित जो कष्ट होता है, वह आधिभौतिक है। काम, क्रोध आदि से उत्पन्न इन्द्रियों से जुड़े कष्ट आध्यात्मिक हैं। और प्रारब्ध के अनुसार, भगवान की इच्छा से उत्पन्न कष्ट, या किसी वस्तु की प्राप्ति में देरी से उत्पन्न कष्ट आधिदैविक कहलाते हैं। जब ये तीनों प्रकार के कष्ट आते हैं, तब देह, इन्द्रिय और चित्त व्याकुल हो जाते हैं, जिससे सेवा सफल नहीं हो पाती। इसलिए, सेवा की सिद्धि के लिए इन तीनों प्रकार के कष्टों को सहन करना आवश्यक है।

यह सहनशीलता न केवल एक प्रकार के कष्टों तक सीमित हो, बल्कि सभी प्रकार के कष्टों को मरण पर्यन्त या आयु पर्यन्त सहन करना चाहिए।

दृष्टान्त:
तक्रवत् धैर्य में छाछ का उदाहरण दिया गया है—जब छाछ से मक्खन निकाल लिया जाता है, तो बचा हुआ छाछ साररहित हो जाता है। यदि वह गिर जाए, तो उससे कोई दुःख नहीं होता। इसी प्रकार, शरीर से जुड़ी वस्तुओं को छाछ के समान समझकर, उनका अभिमान छोड़ देना चाहिए। अपमान आदि की स्थितियों में दुःख महसूस नहीं होगा, यदि उन्हें भगवत्संबंधी कार्यों के लिए समर्पित मान लिया जाए। भगवत्संबंधी कार्य ही मक्खन है, और उसी का अभिमान रखना चाहिए।

आध्यात्मिक कष्टों को सहन करने के लिए जडभरत के उदाहरण को प्रस्तुत किया गया है। जडभरत, जो भगवद्भाव से प्रेरित होकर इन्द्रियों के प्रति उदासीन हो गए थे, उन्होंने अपने मन को भगवान की सेवा, कीर्तन और स्मरण में निरंतर लगा लिया। उनके लिए इन्द्रियों से उत्पन्न कष्ट कोई महत्व नहीं रखते थे।

आधिदैविक कष्टों के लिए गोपभार्या की भावना को दृष्टान्त स्वरूप रखा गया है। जब गोपभार्याओं को भगवान से मिलने में विलम्ब हुआ, तो उन्होंने भगवान के ध्यान और विरह को सहन किया। इस विरह ने उन्हें इतना दुःख पहुँचाया, जो कोटि-कोटि वर्षों तक नरक के कष्टों के समान था। किंतु, जब भगवान का साक्षात्कार हुआ, तो उस सुख ने समस्त स्वर्गीय सुखों को भी पराजित कर दिया।

इस प्रकार, धैर्य का अर्थ है, भगवान की इच्छा में अडिग रहकर सभी प्रकार के कष्टों को सहन करना और भगवन्मार्ग का अनुसरण करते हुए, भक्ति और समर्पण बनाए रखना।

टिप्पणी:

हत्वा नृपं पतिमवेक्ष्य भुजङ्गदंष्ट्रं देशान्तरे विधिवशाद् गणिकाऽस्मि जाता।
पुत्रं पतिं समधिगम्य चितां प्रविष्टा शोचामि गोपगृहिणी कथमद्य तक्रम् ॥

—यह आख्यायिका संबंधित भावनाओं को गहराई से समझने का माध्यम है।

श्लोक ७

भावार्थ

भगवदिच्छा से यदि दुखों की निवृत्ति का उपाय सिद्ध हो जाए, तो गृह का त्याग करने में आग्रह नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार, स्त्री, अन्य जनों और असत्पुरुषों के तिरस्कार को भी सहन करना चाहिए।

टीका

स्त्री प्रभृत्ति, यदि भगवदिच्छा से अनुकूल या उदासीन हों, तो उनके त्याग में आग्रह नहीं रखना चाहिए। अनुकूल होने पर उनसे भगवान की सेवा करवाई जाए, और उदासीन होने पर स्वयं सेवा करें। फिर भी, उनका योग-क्षेम अवश्य करना चाहिए और उन्हें त्यागना नहीं चाहिए। यदि वे सेवा में बाधक होकर प्रतिकूल व्यवहार करें, तो ही उनका त्याग करें। अन्यथा, त्याग सर्वथा उचित नहीं है।

क्यों? क्योंकि हठपूर्वक त्याग करने से उनमें क्रोध उत्पन्न हो सकता है, और यह द्वेष का कारण बन सकता है, जो सेवा में बाधा उत्पन्न करता है। अतः सेवा की सुचारुता के लिए, उनके प्रति पूर्ण धैर्य और सहनशीलता रखनी चाहिए। यह आधिभौतिक दुःख का प्रतिकार है।

आध्यात्मिक दुःख का प्रतिकार:
यदि इंद्रियों के भोग्य विषयों का त्याग करते समय दुःख उत्पन्न हो, तो समझना चाहिए कि इंद्रियों की प्रवृत्ति पहले से ही विषयों में न हो, और यह भगवदिच्छा के अनुकूल हो। भोग-सामग्री भगवान के लिए स्वीकार की जाती है और प्रसाद रूप में जो कुछ प्राप्त होता है, उसे सौभाग्य मानते हुए ग्रहण करें। इसका सेवन बाह्य और आंतरिक शुद्धि लाता है और भगवद्धर्म में स्थायित्व प्रदान करता है।

आधिदैविक दुःख का प्रतिकार:
जब प्रारब्ध भोग के कारण या प्रभु की परीक्षा के लिए विलंब होता है, तो धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए। प्राप्त वस्तु को भगवान के उपयोग हेतु मानते हुए, इसे स्वार्थ के लिए उपयोग नहीं करना चाहिए।

अतः, आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक दुःखों को सहन करना चाहिए। स्त्री, पुत्रादिक और अन्य संबंधियों का भरण-पोषण धर्मानुसार करना चाहिए और उनके द्वारा उत्पन्न अपमान आदि को सहन करना चाहिए।

धैर्य का अभ्यास:
धैर्य रखते हुए, किसी के प्रति क्रोध या प्रतिकूल भाव नहीं रखना चाहिए। विशेषतः, शिष्य या भक्तों के द्वारा यदि प्रमादवश कोई भूल हो जाए, तो धैर्य के साथ उसे सहन करना चाहिए। क्योंकि उनकी भलाई और प्रभुसंबंध स्थापित करना ही भगवदीय धर्म है।

अतः, सेवा में आने वाले प्रतिबंधों को सहन करते हुए, समर्पण और धैर्य का पालन करना ही भक्ति का आदर्श मार्ग है। यही सच्चा भगवद्धर्म है।

श्लोक ८

भावार्थ

काया, वाणी और मन से अपने भोग के लिए इन्द्रियों के कार्यों का त्याग करना चाहिए। यदि दुःख सहन करने में अपनी शक्ति न हो, तो अपनी असमर्थता को स्वीकार कर दुःख सहन करना चाहिए।

टीका

अपने भोग के लिए इन्द्रियों के कार्य करना सेवा में बाधा उत्पन्न करता है। अतः कायिक, वाचिक और मानसिक इन्द्रियों के कार्यों का त्याग करना आवश्यक है। यदि प्राकृतिक विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति हो, तो उन्हें अलौकिक विषयों में प्रवृत्त करना चाहिए। जब तक इन्द्रियाँ अलौकिक विषयों में प्रवृत्त नहीं होतीं, तब तक प्राकृतिक विषयों को छोड़ने में दुःख उत्पन्न होता है, जिसे सहन करना चाहिए।

प्रारब्ध भोग या परीक्षा के कारण, जब इच्छित वस्तु की प्राप्ति में विलम्ब होता है और उस विलम्ब से उत्पन्न दुःख सहन करना कठिन हो, तब अपने असमर्थता का विचार कर धैर्य धारण करना चाहिए। जैसे, एक दरिद्र व्यक्ति जिसके जीवन निर्वाह के लिए प्रतिदिन कुछ द्रव्य प्राप्त होता है, लेकिन एक दिन उसे कुछ भी न मिले, तो वह दुःख महसूस करता है। किन्तु वह अपनी असमर्थता का विचार कर उस दुःख को सहन करता है।

यह सिद्धांत नवरत्न में प्रस्तुत हुआ है:

चित्त को उद्वेग हो, तो भी भक्तों के दुःख को हरने वाले हरि जो-जो करते हैं, वही उनकी लीला है। इसे मानते हुए चिंता को शीघ्र त्याग देना चाहिए।

इस प्रकार, अनुसंधान के साथ धैर्य धारण करना चाहिए।

यदि कोई दुःख निवृत्त हो सकता हो, तो उसे सहन करना संभव होता है। किंतु जब दुःख ऐसा हो, जिसे अपनी सामर्थ्य से सहन न किया जा सके, तब धैर्य का अभ्यास कठिन हो जाता है।

अतः, अशक्य उपदेश क्यों दिया जाता है?
इस पर विस्तार से शंका का समाधान किया गया है। आगे इसी विषय में विवेचन होगा।

श्लोक ९

भावार्थ

जब अपनी अशक्ति हो, तब भगवान हरि को ही रक्षक मानते हुए उनका आश्रय ग्रहण करना चाहिए। ऐसा करने पर सब कुछ स्वतः ही सिद्ध हो जाता है। यह धैर्य का स्वरूप है। अब, इसके बाद आश्रय के विस्तार का निरूपण किया जाएगा।

टीका

जब कोई जीव सेवा में प्रवृत्त होता है, और विवेक या धैर्य आदि की स्थिति में शक्ति की कमी का अनुभव करता है, तो उसे भगवान हरि को शरण माननी चाहिए। भगवान हरि भक्तों के सर्व दुःख हर्ता हैं और कृपा करके सब कार्य संपन्न करते हैं। इसीलिए कहा गया है कि भगवान के आश्रय से सब कुछ सिद्ध होता है।

जो अशक्य प्रतीत होता है, वह भी भगवान के आश्रय से सिद्ध हो जाता है। दूसरी ओर, यदि आश्रय न हो, तो वह जो संभव प्रतीत होता है, वह भी सिद्ध नहीं हो पाता। जब निःसाधनता के समय में शरणागति का अभ्यास होता है, तब भगवान की कृपा से विवेक और धैर्य एक ही समय में सब कुछ सिद्ध कर देते हैं।

इस प्रकार, धैर्य का स्वरूप निरूपित करने के बाद, आश्रय द्वारा सब कुछ सिद्ध होने की बात कही गई है। अब, आश्रय के स्वरूप को विस्तार से समझाया जाएगा।

प्रथम, समुदाय रूप में आश्रय का स्वरूप प्रस्तुत किया जाएगा।

श्लोक १० - ११

भावार्थ

इस लोक और परलोक में, हर परिस्थिति में भगवान हरि ही सच्चा आश्रय हैं। चाहे दुःखों का हरण, पाप का निवारण, भय का सामना, इच्छित कामों की पूर्ति, भक्त द्वारा द्रोह, भक्ति का अभाव, या कोई अन्य कठिनाई हो—हरि की शरण ही सर्वोत्तम है।

टीका

भक्तिमार्ग में जो जीव अंगीकार किया गया है और सेवा में प्रवृत्त हुआ है, उसे सेवा को छोड़कर अन्य कर्म नहीं करना चाहिए। ऐहिक और पारलौकिक साधनों के लिए भी, हरि की शरण का अभ्यास करना चाहिए, परंतु सेवा को त्यागकर अन्य साधनों में नहीं लगना चाहिए।

यदि देह और इन्द्रियों से संबंधित आधिभौतिक दुःख हो, तो चित्त में उद्वेग उत्पन्न न हो, इसके लिए शरणभावना बनाए रखनी चाहिए। इसी प्रकार, भक्तिमार्ग में प्रवृत्त होने से पहले किसी प्रमाद से पाप हुआ हो, या सेवा में प्रवृत्त होने के बाद देह और इन्द्रियों के उपयोग से भगवदपराध रूपी पाप हो जाए, तो निवृत्ति के लिए शरण का अनुसंधान करें। प्रायश्चित्तादि कर्म की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह शरणधर्म को नष्ट कर सकता है।

राजा, चोर, पाप, या किसी अन्य भय के समय में भी शरणभावना करनी चाहिए। इच्छित कामना की पूर्ति के लिए भी हरि की शरण लेनी चाहिए। यदि प्रमाद से भक्त को द्रोह हो जाए या भक्त स्वयं द्रोह करे, तो भी शरणभावना से समाधान करना चाहिए।

अगर भक्ति में प्रवृत्त होने के बाद भगवत्स्वरूप में स्नेह उत्पन्न न हो, या भक्त धर्म में अतिक्रम करे, तो अपने दोष का विचार करके शरणभावना करनी चाहिए।

अशक्य कार्य हो या सुशक्य कार्य, हर परिस्थिति में हरि की शरण लेनी चाहिए। अपने सामर्थ्य से यह कार्य हुआ है, ऐसा अभिमान न करें, क्योंकि इससे शरणधर्म का ह्रास होता है।

सर्वात्मा के रूप में तदीयता का अनुसंधान करते हुए हरि की शरणभावना बनाए रखें। यही सच्चा आश्रय और भक्तिमार्ग का अनुसरण है।

यह आश्रय का सुंदर स्वरूप है।

श्लोक १२ - १३

भावार्थ

जीवस्वभाववश अहंकार उत्पन्न हो, पोषण-रक्षण योग्य लोगों का अतिक्रम हो, शिष्य द्वारा अतिक्रम हो, या मन अलौकिक सिद्धि प्राप्त करे—इन सभी परिस्थितियों में भगवान हरि ही शरण हैं। इस भावना को चित्त में सदा बनाए रखना चाहिए और वाणी से इसका निरंतर उच्चारण करना चाहिए।

टीका

यदि किसी परिस्थिति में अहंकार उत्पन्न हो, चाहे वह भक्तों के संग हो या अन्य लोगों के संग, और उसके परिणामस्वरूप आसुर प्रवृत्तियाँ प्रकट हों, तो पश्चाताप के साथ भगवान हरि की शरण लेनी चाहिए। यदि प्रभु की कृपा से भक्त उनके संग ही अहंकार करें, तब भी दोषों की निवृत्ति के लिए शरण की भावना करनी चाहिए।

जिनका पोषण और रक्षण आपका दायित्व है, जैसे स्त्री, पुत्र, दास या बंधु, उनके प्रति अतिक्रम की स्थिति में भी शरण की भावना बनाए रखनी चाहिए। शिष्य द्वारा अतिक्रम होने पर भी शरण की भावना करनी चाहिए, लेकिन क्रोध नहीं करना चाहिए।

मन की अलौकिकता की सिद्धि के लिए भी भगवान हरि की शरण लेनी चाहिए। यहाँ ‘मन’ शब्द सभी इन्द्रियों का संकेत देता है। देह और इन्द्रियों के प्राकृत अंशों से निवृत्ति और अलौकिकता की सिद्धि के लिए भी हरि को ही शरण मानना चाहिए।

ज्ञान रूपी चित्त में शरण की भावना रखनी चाहिए और वाणी द्वारा ‘श्रीकृष्णः शरणं मम’ का निरंतर उच्चारण करना चाहिए। यदि यह उच्चारण क्षण भर के लिए भी न हो, तो आसुर प्रवृत्तियों का प्रवेश हो सकता है।

मूल में ‘च’ शब्द से यह इंगित किया गया है कि सेवा तीन प्रकार की होनी चाहिए:

  • कायिक सेवा
  • मानसिक भावना
  • वाचिक उच्चारण

इन तीनों प्रकार की शरणागति को इस प्रकार निरूपित किया गया है।

शंका समाधान:
यदि कोई कार्य साधारण हो और उसे स्वयं किया जा सकता हो, तो क्या भगवान पर उसका भार डालना उचित है? और क्या ऐसे साधारण कार्य के लिए किसी अन्य देवता की उपासना में कोई बाधा है? इन शंकाओं का समाधान आगे प्रस्तुत किया गया है।

श्लोक १४

भावार्थ

अन्य देवताओं की पूजा, उनके स्थानों पर स्वेच्छा से जाना और प्रार्थना करना सब छोड़ देना चाहिए। केवल हरि ही सच्चे स्वामी और आश्रय हैं।

टीका

अन्य देवताओं का भजन और उनके लिए यात्रा करना उचित नहीं है। यदि कोई और प्रेरित करे, तब भी अन्य देवताओं के स्थान पर नहीं जाना चाहिए। ऐसा करने से शरण का भाव समाप्त हो जाता है। यह न्यासादेश में भी स्पष्ट किया गया है कि भगवान हरि के अलावा किसी और की पूजा या प्रार्थना न करें।

शंका:
यदि भगवान हरि से प्रार्थना करना योग्य नहीं माना जाता, तो क्या इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए अन्य देवताओं से केवल प्रार्थना करना सही है, बशर्ते भजन और गमन न किया जाए?

समाधान:
अन्य देवताओं के भजन, गमन और प्रार्थना सब छोड़ने चाहिए। मूल में ‘विवर्जयेत्’ का तात्पर्य है कि किसी भी प्रकार की प्रार्थना नहीं करनी चाहिए। ‘बहुवचन’ का प्रयोग यह दर्शाने के लिए किया गया है कि सभी प्रकार की प्रार्थनाओं का त्याग आवश्यक है।

व्रजवासियों का उदाहरण:
दावानल की घटना में, व्रजवासियों ने दो बार प्रार्थना की थी। पहली प्रार्थना में उन्होंने कहा था, “हम आपके चरणों को छोड़ने में असमर्थ हैं; दावानल सह सकते हैं परंतु आपके चरणों का वियोग नहीं।” दूसरी प्रार्थना का अर्थ यह था कि “हमने आपके साथ की लीला में समानता की भावना से अपराध किया है। परंतु आप और हम एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते। हमारा जीवन भी आपके बिना संभव नहीं है।” यह प्रार्थना उनके सुख की अभिलाषा से नहीं, बल्कि पूर्ण समर्पण और व्यसनभाव से थी।

निष्कर्ष:
व्रजवासियों की प्रार्थना भगवत्स्वरूप में पूर्ण अनुरक्ति का उदाहरण है। उनकी सभी कृतियाँ भगवान की लीला में सामंजस्य थीं। भगवान हरि प्रत्येक स्थिति में आवश्यकतानुसार कार्य संपन्न करते हैं। अतः अन्य देवताओं की ओर दृष्टि करने का कोई अवसर नहीं होना चाहिए।

शंका:
सब देवताओं और धर्मों का त्याग कर भगवान की शरणागति करने पर, क्या इच्छित फल भगवान प्रदान करेंगे या नहीं, यह कैसे पता चलेगा?
इस शंका का उत्तर आगे दिया गया है।

श्लोक १५

भावार्थ

अविश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि यह सबसे बड़ी बाधा है। ब्रह्मास्त्र के प्रति विश्वास और चातक पक्षी की निष्ठा जैसी भावना को बनाए रखना आवश्यक है। और जो भी प्राप्त हो, उसे ममता रहित होकर प्रभु सेवा में समर्पित करना चाहिए।

टीका

शरणागत होने के बाद, अविश्वास का स्थान नहीं होना चाहिए। अन्य बाधाओं की तुलना में अविश्वास सबसे अधिक बाधक है। यदि अविश्वास के कारण अन्य धर्मों का संबंध उत्पन्न होता है, तो शरण धर्म नष्ट हो जाता है।

अविश्वास के संदर्भ में ब्रह्मास्त्र का उदाहरण है: हनुमानजी जब श्रीजानकीजी की सुधि लेने लंका गए थे, तब रावण ने इन्द्रजीत को भेजा। इन्द्रजीत ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, लेकिन उस पर विश्वास न रखकर अन्य अस्त्रों का प्रयोग किया, जिससे ब्रह्मास्त्र निष्फल हो गया। उसी प्रकार, शरण गमन में अविश्वास रखने से शरण धर्म समाप्त हो जाता है।

विश्वास में चातक पक्षी की भावना रखनी चाहिए। चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र में बरसने वाले जल का ही सेवन करता है। इसी प्रकार, शरणागति में भगवान पर विश्वास रखना चाहिए कि वे सब कुछ सिद्ध करेंगे।

शरण में स्थिर रहते हुए प्रयत्न के बिना, भगवदिच्छा से प्राप्त होने वाली वस्तुओं को ममता रहित होकर प्रभु सेवा में उपयोग करना चाहिए। विशेष प्राप्ति के लिए कोई यत्न नहीं करना चाहिए। और जो भी प्राप्त हो, उसे भगवान के अर्थ में उपयोग करना चाहिए, स्वार्थ दृष्टि से नहीं।

शंका समाधान:
यदि दूसरे धर्मों का संबंध हो, तो शरण धर्म का ह्रास होता है। लेकिन आवश्यक लौकिक और वैदिक कर्मों के त्याग से यह मार्ग अप्रमाणित होगा, ऐसी शंका का समाधान अगले अंश में किया गया है।

आगे इस विषय पर विस्तृत विवेचन होगा।

श्लोक १६

भावार्थ

कार्य चाहे जैसा भी हो, उसे यथासंभव करना चाहिए। विशेष प्रयासों पर निर्भर न रहते हुए, भगवान हरि को ही आश्रय मानना चाहिए।

टीका

यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस मार्ग को अप्रमाणित न समझा जाए, अति आवश्यक लौकिक और वैदिक कार्य करने चाहिए। परंतु ये कार्य केवल प्रभु की आज्ञा के अनुरूप होने चाहिए, स्वधर्म की भावना से नहीं। जैसे गीता में अर्जुन ने कहा, “मैं आपके वचन को प्रमाण मानकर उसका पालन करूंगा,” और भगवान की आज्ञा के अनुसार युद्ध किया। इसी प्रकार, भगवान की आज्ञा का पालन करने से शरणपदार्थ नष्ट नहीं होता।

पुष्टिप्रवाहमर्यादा में भी कहा गया है कि “पुष्टिमार्गीय भक्तों में लौकिक और वैदिक कर्म कपटपूर्ण नहीं, बल्कि प्रभु की आज्ञा पर आधारित होते हैं।”

जैसे गीता में कहा गया, “लौकिक कार्यों में आसक्त अज्ञानी जिस प्रकार कर्म करता है, उसी प्रकार ज्ञानी भी लोकसंग्रह के लिए कर्म करता है।” यहां कर्म करना शरण धर्म को सिद्ध बनाए रखने के लिए आवश्यक हो सकता है, लेकिन शरणपदार्थ की हानि किए बिना ही।

सर्वधर्मरूप शरणधर्म का भाव बनाए रखना आवश्यक है। यदि लोकसंग्रह के लिए कर्म किया जाए और वह विधि रूप में हो, तो शरणपदार्थ समाप्त हो सकता है। इसलिए, कर्म केवल भगवान की आज्ञा मानकर करना चाहिए, न कि विधिरूप मानकर।

जब सर्वधर्म का त्याग करके शरण ली जाती है, तो पाप की संभावना हो सकती है। ऐसे में भगवान हरि की शरण भावना का अनुसंधान करना चाहिए। हरि, जो सभी दुःख और पापों के हर्ता हैं, वे कृपा करके पापों का निवारण करेंगे।

यही अर्जुन से श्रीकृष्ण द्वारा गीता (१८।६६) में “सर्वधर्मान् परित्यज्य” श्लोक के माध्यम से कहा गया है—

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

सभी धर्मों का त्याग करके मेरी शरण आओ, और मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूंगा।

उपसंहार:
इस प्रकार, आश्रय के स्वरूप का विस्तारपूर्वक निरूपण करके निष्कर्ष दिया गया कि शरणागति ही सभी समस्याओं का समाधान है और यही भक्तिमार्ग का परम लक्ष्य है।

श्लोक १७

भावार्थ

सब जीवन के लिए शरणागति को सदा हितकारी बताया गया है। कलियुग में भक्ति और धर्म के मार्ग को अपनाना अत्यंत कठिन है, यही मेरी मति है।

टीका

शरणागति जीवन के सभी वर्णों और आश्रमों के लिए सदा हितकारी है। यह ऐहिक और पारलौकिक दोनों संपत्तियों को साधने में सक्षम है। अन्य युगों में धर्म को प्राथमिकता दी गई थी, और साधनों द्वारा भक्ति, उपासना और कर्म का फल प्राप्त होता था। लेकिन कलियुग में पाप का प्रमुख स्थान है, और साधनों के अभाव के कारण विहित भक्ति का मार्ग संभव नहीं है।

कलियुग में साधन-संपत्ति के बिना कार्य करना पाषंड और पाप की ओर ले जाता है, जिससे भक्ति का मार्ग अत्यधिक कठिन हो जाता है। सत्ययुग आदि में जो मार्ग साधनों द्वारा साध्य था, वह कलियुग में साधनों की कमी के कारण असंभव हो गया है। और जो भक्तिमार्ग केवल भगवान की कृपा द्वारा सिद्ध होता था, वह भी कलियुग में और भी कठिन हो गया है।

इसलिए, शरणागति के द्वारा ही भक्तिमार्ग पर भगवान कृपा करेंगे। यही कारण है कि सर्वात्मा के रूप में शरणागति की भावना रखनी चाहिए और अन्य किसी साधन में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। श्री आचार्यचरण का “मेरी मति हे” कहने का अभिप्राय यह है कि पुष्टिमार्गीय भक्तों को शरणागति की भावना करनी चाहिए और अन्य कोई साधन नहीं अपनाना चाहिए। यही इस सिद्धांत का मर्म है।

इस प्रकार, शरणागति का स्वरूप और इसका महत्व स्पष्ट किया गया है।


॥इति श्रीमद्वल्लभाचार्य विरचित 'विवेकधैर्याश्रयः' की गोस्वामी श्रीनृसिंहलालजी महाराज विरचित व्रजभाषामें संक्षिप्त टीका समाप्त भई॥