श्रीयमुनाष्टक - परिचय
सुना जाता है कि ब्रजयात्रा के दौरान श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभु यमुना तट पर महावन में गोकुल ग्राम की खोज में परिभ्रमण कर रहे थे। उसी समय, स्वयं श्रीयमुनाजी ने प्रकट होकर वर्तमान गोकुल का स्थान दिखाया। प्राचीन गोकुल ग्राम का स्थान पहचानने के बाद श्रीमहाप्रभु वहां विराजमान हुए और उसी समय, श्रीयमुनाजी के पुष्टिमार्गीय महत्व का वर्णन उनके मुख से स्वतः निकलने लगा। यही स्तोत्र “श्रीयमुनाष्टक” के रूप में षोडशग्रंथों के मंगलाचरण में सम्मिलित हुआ।
एक किंवदंती के अनुसार, श्रीयमुनाष्टक विक्रम संवत १५४९ में श्रावण शुक्ल तृतीया के दिन श्रीगोकुल में रचा गया था। जैसे श्रीगंगा के साथ दास्यभाव की अन्तर्धारा बहती है, उसी प्रकार श्रीयमुना के साथ पुष्टिभक्ति की अद्वितीय अन्तर्धारा प्रवाहित होती है। यह धारा कालप्रवाह में बहते हुए जीवों को खींचकर श्रीकृष्ण की दिव्य मधुर नित्यलीलाओं तक पहुंचा देती है। यह पुष्टिमार्गीय गरिमा व्यापिवैकुण्ठ के नाथ को गोकुल के नाथ बनने का माध्यम प्रदान करती है।
श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभु ने यमुनाष्टक में श्रीयमुना के आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक रूपों का वर्णन करते हुए, उनके अष्टविध वैशिष्ट्य का आठ श्लोकों में चित्रण किया है। प्रत्येक श्लोक श्रीयमुना के एक विशेष ऐश्वर्य का वर्णन करता है, जैसे:
श्रीयमुना पुष्टिमार्गीय अनेक सिद्धियों को प्रदान करने वाली है। जैसे
- भगवत्सेवा के योग्य देह की प्राप्ति,
- भगवान की विभिन्न लीला-दर्शन की क्षमता,
- लीला के रसों का अनुभव और
- सर्वात्म भाव आदि।
ये सभी पुष्टिमार्गीय सिद्धियां श्रीयमुना के माध्यम से प्राप्त होती हैं।
श्रीयमुना भगवद्भाव को बढ़ाने वाली हैं। देवताओं और अन्य विषयों के प्रति जो रति या प्रीति भाव होता है, उसे भगवद्भाव कहा जाता है। पुष्टिमार्ग के आराध्य देव श्रीकृष्ण ही हैं, और श्रीयमुना पुष्टिजीवों को इसी कृष्णस्नेह रूप भगवद्भाव से सम्पन्न करती हैं।
अपने आराध्य श्रीकृष्ण के साथ संबंध जोड़ने में पुष्टिभक्तों के समक्ष आने वाले सभी प्रतिबंध या विघ्नों को श्रीयमुना दूर करती हैं। इन विघ्नों को हराकर, वे पुष्टिभक्तों को भगवदनुभव के लिए शुद्ध और सक्षम बना देती हैं। अतः श्रीयमुना पूरे पुष्टिजगत को पवित्र और पावन करने वाली हैं।
जैसे गुण, धर्म और स्वरूप भगवान ने पुष्टिलीलाओं में प्रकट किए हैं, वे सभी श्रीयमुनाजी में भी प्रकट हैं। इसलिए, जो व्यक्ति श्रीयमुनाजी से संबंध स्थापित करता है, उसका परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण से संबंध स्वतः ही स्थापित हो जाता है।
भगवान के प्रिय भक्तों में कलियुग के दोषों को श्रीयमुना दूर कर देती हैं।
रासलीला में भगवान के तिरोहित होने पर, गोपिकाओं ने श्रीयमुना तट पर निःसाधन भाव से उनकी प्रतीक्षा की। उसी प्रकार, जो भी पुष्टिजीव श्रीयमुना के आश्रय में भगवान को खोजने का प्रयास करता है, वह भगवान का प्रिय बनता है और उन्हें प्राप्त कर सकता है। यमुना जल-पान का असाधारण महत्व यह है कि यह पानकर्ता के देह और इंद्रियों को काल प्रवाह में बहने से रोकता है। बल्कि, यह कालातील परमात्मा को प्रेम की डोर में बांधकर पानकर्ता भक्त तक पहुंचा देता है।
देह, इंद्रिय, प्राण, अंतःकरण और आत्मा सभी के द्वारा भगवत लीला और भगवत स्वरूप की अनुभूति को अद्वितीय सामर्थ्य माना गया है, जिसे “तनुनवत्व” अर्थात् तनु-देह के नवीनीकरण के रूप में देखा गया है। श्रीयमुना पुष्टिजीवों के शरीर और आत्मा में ऐसा अलौकिक सामर्थ्य प्रकट करती हैं कि सहस्रों वर्षों से अपने प्रभु से बिछड़ा हुआ जीव, अपनी कालजर्जरित देह-इंद्रियों में विलक्षण शक्ति और नवीनता का अनुभव करता है। इससे उसे भगवान की रसात्मिका अनुभूति हर प्रकार से होने लगती है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि नित्यलीलाओं में भी वह श्रीयमुना के प्रभाव से नूतन देह प्राप्त करता है।
श्रीयमुना के तट और जल में श्रीकृष्ण की अनेक दिव्य लीलाएं आधिदैविक रूप में अनवरत चलती रहती हैं। जलक्रीड़ा में निमग्न परमानंदमय प्रभु का आनंद, श्रमजलकणों के रूप में उच्छलित होकर, श्रीयमुना जल में समाहित हो जाता है। यही कारण है कि श्रीयमुना जल में स्नान, पुष्टिभक्तों को श्रीकृष्ण के साथ अङ्गसङ्ग की अनुभूति का अद्वितीय अनुभव कराता है।
श्रीयमुना का यह आधिदैविक स्वरूप मुख्यतः लीलासामयिक पुष्टि भक्तों की अनुभूतियों का विषय होता है। आंशिक रूप से, यह आधुनिक पुष्टिजीवों के लिए भी सहायक है, क्योंकि यह प्रतिबंधकारी दोषों का निवारण करती है, स्वभाव पर विजय प्राप्त कराती है, भगवद्भक्ति का संचार करती है और उन्हें भगवत्प्रेम का पात्र बनाती है। श्रीयमुना की कृपा से पुष्टिजीव पुष्टिमार्ग में प्रवेश के योग्य बनते हैं। यही मङ्गलविधान श्रीयमुना का कार्य है। अतः इनकी स्तुति को पुष्टिमार्गीय उपदेश में मङ्गलाचरण के रूप में सम्मिलित किया गया है।
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