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श्रीयमुनाष्टक - ग्रन्थ
श्रीयमुनाष्टक श्रीवल्लभाचार्य द्वारा रचित एक स्तोत्र है, जो दिव्य नदी यमुना की प्रशंसा करता है। इसे श्रीकृष्ण की कृपा का प्रतीक माना जाता है। यह स्तोत्र यमुना जी के दिव्य गुणों, उनके शुद्धि करने की क्षमता और भक्तों को श्रीकृष्ण की लीलाओं से जोड़ने की भूमिका का वर्णन करता है। इसमें यमुना जी के आध्यात्मिक विकास और भक्ति में महत्त्व को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है।
- श्रीयमुना के तीन रूप: इनका वर्णन इस प्रकार है:
- आधिदैविक (दिव्य) – दिव्य कृपा का प्रतीक, जो श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक लोक में अनन्त रूप से निवास करती हैं।
- आध्यात्मिक (आत्मिक) – शुद्धि का प्रतीक, जो कर्मज भार को धो देती हैं।
- आधिभौतिक (भौतिक) – वह पवित्र नदी, जो मथुरा और वृंदावन से होकर प्रवाहित होती है।
- शुद्धिकरण शक्ति: यमुना जी पापों को समाप्त करती हैं और भक्तों को सांसारिक व्याकुलताओं से ऊपर उठाकर उच्चतम भक्ति के लिए तैयार करती हैं।
- भक्ति को प्रोत्साहित करना: श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम और लगाव (मुकुंद-रति) को बढ़ाकर आध्यात्मिक अभ्यास को गहन करती हैं।
- रक्षक और मार्गदर्शक: उनके जल भक्तों को नकारात्मक कर्म के प्रभावों से बचाते हैं और श्रीकृष्ण की लीलाओं (दिव्य क्रीड़ाओं) से गहरे रूप में जोड़ते हैं।
- भक्तों के लिए सशक्तिकरण: दिव्य कृपा (पुष्टि) प्रदान करती हैं, जिससे भक्त बाधाओं को पार कर अपने जीवन को आध्यात्मिक लक्ष्यों के अनुरूप बना सकते हैं।
मैं श्रीयमुनाजी को नमन करता हूँ। श्रीयमुनाजी सभी सिद्धियों का कारण हैं। मुरारी (श्रीकृष्ण) के चरणकमलों की रज से अधिक पवित्र उनके तट पर उगने वाले पुष्पों से सुगंधित वन के कारण यमुना का जल सुगंधित हो गया है। यह सुगंधित जल सुर और असुर भाव वाले भक्तों को प्रभु की स्मृति दिलाने में सहायक है। इस प्रकार, दोनों प्रकार के भक्त, भगवान की प्राप्ति के लिए श्रीयमुनाजी का पूजन करते हैं।
सूर्यमंडल से कलिंद पर्वत के ऊपर गिरने के कारण अत्यधिक फेन उत्पन्न होता है, जिससे जलधारा अत्यंत प्रवाहमान और उज्ज्वल दिखाई देती है। ऊँचे-नीचे पर्वतों पर चढ़ना-उतरना विलासमय गति के रूप में शोभित होता है। जलधारा का वेग पाषाणों को ऊपर फेंकता है, जिससे वे पाषाण दिखाई देने लगते हैं। इस कारण श्रीयमुनाजी की जलधारा ऊँची दिखाई देती है। प्रवाह की गति शब्द सहित विलासयुक्त उत्तम हिंडोले में विराजमान प्रतीत होती है।
मुकुंद (श्रीकृष्ण) भक्तों में अपने प्रति प्रेम की वृद्धि करते हैं और भक्तों की प्रीति को भगवान में बढ़ाते हैं। श्रीयमुनाजी को कमल के मित्र (सूर्य) की पुत्री माना गया है। इस प्रकार श्रीयमुनाजी सबके मध्य महानता के साथ प्रतिष्ठित और शोभायमान हैं।
श्रीयमुनाजी पृथ्वी पर अवतरित होकर भक्तों के शरीररूपी भुवन को भगवत्सेवा के योग्य शुद्ध करती हैं। श्रीगोपीजन जैसे श्रीयमुनाजी की सेवा करते हैं, वैसे ही विविध प्रकार के पक्षी, जैसे शुक, मयूर और हंस प्रभृति, श्रीयमुनाजी की सेवा में तत्पर रहते हैं और अपनी मधुर ध्वनियों से उन्हें आलोकित करते हैं।
जब श्रीयमुनाजी के श्रीहस्तरूपी तरंगें तट पर आती हैं, तो वे अपने श्रीहस्तों में धारण किए हुए कमल में मुक्ताफलरूपी बालुका को प्रकाशित करती हैं। श्रीयमुनाजी के उभरे हुए नितम्ब के समान तट शोभायमान हैं। वे प्रभु की चतुर्थ प्रिया के रूप में प्रतिष्ठित हैं। अतः श्रीयमुनाजी को समस्त भक्तगण नमन करें।
अनन्त गुणों से विभूषित, जिन्हें शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं ने स्तुति की है, सघन मेघ के समान कान्ति वालीं, ध्रुव, पराशर आदि ऋषियों के सभी मनोरथों को पूर्ण करने वालीं, विशुद्ध मथुराजी के तट पर विद्यमान, समस्त गोप और गोपांगनाओं से सुशोभित तथा कृपासागर श्रीकृष्ण के आश्रय में निवास करने वालीं हे श्रीयमुनाजी! कृपया मेरे मन को सुख प्रदान करें।
गङ्गाजी श्रीयमुनाजी के संग मिल जाने के कारण, वे भगवान मुररिपु (श्रीकृष्ण) को अत्यन्त प्रिय हो गई हैं और उनकी सेवा करने वालों को सभी प्रकार की सिद्धि प्रदान करने वाली हो गई हैं। ऐसी महानता वाली श्रीयमुनाजी की तुलना यदि किसी से की जा सके, तो वह केवल श्रीलक्ष्मीजी ही हो सकती हैं। क्यों? क्योंकि श्रीलक्ष्मीजी, श्रीयमुनाजी की सहपत्नी (सोति) के रूप में मानी जाती हैं। इसी प्रकार, श्रीयमुनाजी भक्तों के दुःख और पापों को हरने वाली हैं। ऐसी श्रीयमुनाजी की मेरे मन में स्थिति बनी रहे।
हे श्रीयमुनाजी! आपको सदा नमस्कार हो। आपका चरित्र अत्यन्त अद्भुत और पवित्र है। आपके जल का पान करने से कभी भी यम से संबंधित कोई पीड़ा नहीं होती। क्यों? क्योंकि यम भी जब बहन के पुत्र हों और यदि वे कदाचित् दुष्ट भी हों, तो उन्हें दंड कैसे दे सकते हैं? आपकी सेवा करने से, श्रीगोपीजन की तरह, जीव भी श्रीहरि के प्रिय हो जाते हैं।
हे हरिप्रिय यमुनाजी! आपकी सन्निधि में मेरा शरीर दिव्य और नवीन बन जाए, अर्थात् लीलाओं में प्रवेश करने के योग्य अलौकिक हो जाए। यही कारण है कि मुरदानव का वध करने वाले श्रीकृष्ण में प्रीति प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ नहीं है। इसी हेतु, आपकी स्तुति में विशेष रूप से लाड़ और चाव उत्पन्न होता है।
श्रीगङ्गाजी की भी आपके समागम के कारण ही भूतल पर स्तुति हुई है। किन्तु, पुष्टिस्थित जीवन में इस विषय में आपकी प्रशंसा के अतिरिक्त श्रीगङ्गाजी की स्तुति नहीं की गई है। इसका कारण यह है कि यद्यपि श्रीगङ्गाजी से मुक्ति प्राप्त होती है, किन्तु लीलाओं में उपयोगी देह नहीं प्राप्त होती।
लक्ष्मी की सपत्नि और हरि की प्रिय, हे श्रीयमुनाजी! आपकी स्तुति कौन करने में समर्थ हो सकता है? क्यों? क्योंकि श्रीहरि के पीछे लक्ष्मी जी भी सेवा करती हैं, और उनकी सेवा से मोक्ष-पर्यन्त का सुख प्राप्त होता है। परन्तु आपकी कथा तो इतनी अधिक है कि समस्त श्रीगोपी जन के संगम से उत्पन्न स्मर संबंधी श्रम के कारण जो स्वेदजल के बिन्दु उनके शरीर से प्रकट होते हैं, उनके साथ आपका संबंध है। आप उन संबंधों को भक्तों से भी स्थापित कराती हैं।
हे सूर्यपुत्री श्रीयमुनाजी! आपके इस अष्टक का आनंदपूर्वक जो सदा पाठ करता है, उसके समस्त दूरित का क्षय होता है और मोक्ष प्रदान करने वाले भगवान में निश्चय प्रीति उत्पन्न होती है। इसके परिणामस्वरूप, पहले से बताई गई सभी सिद्धियां प्राप्त होती हैं। प्रभु, जो बाधाओं को दूर करने वाले हैं, प्रसन्न हो जाते हैं।
अन्तःकरण का वासना सहित स्वभाव परिवर्तित हो जाता है और भगवान का स्वभाव प्रकट होता है। वह स्वभाव, जो व्रजभक्तों को आनंद प्रदान करता है और अन्य किसी को नहीं, भी बदल जाता है। श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी इसी प्रकार भगवान को प्रिय इस अष्टक का वर्णन करते हैं।