श्रीकृष्णाश्रय - परिचय
श्रीकृष्णाश्रयस्तोत्र का प्रणयन अडेल में श्री महाप्रभु ने लाहौर के बूढ़ा मिश्र के लिए किया था। बूढ़ा मिश्र का जन्म सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बूढ़ा के पिता पुरोहित का काम करते थे, लेकिन वे स्वयं पढ़े-लिखे नहीं थे। बूढ़ा जब दस वर्ष के हुए, तो उनके पिता ने उन्हें बुलाकर कहा, “बेटा! तुम ब्राह्मण कुल में जन्मे हो। कुछ थोड़ा-बहुत शास्त्रों का अध्ययन करोगे तो संपूर्ण जीवन जी पाओगे। अन्यथा मेरी तरह अनपढ़ ही रह जाओगे।”
पिता ने अपने पुत्र को विद्यार्जन के लिए जिस पंडित के पास भेजा, वह पूर्णतः ‘लाभ पूजा परायण’ पंडित था। चेला पटते देखकर बोला, “अच्छी तरह पढ़ना हो तो पहले पांच-दस रुपये भेंट के रूप में लाकर मेरी पूजा-भक्ति करो!” (पांच-दस रुपये आज से पांच सौ वर्ष पूर्व बहुत महंगे थे।)
बूढ़ा मिश्र घबरा गए, भागकर घर आ गए। भौहें तानकर पिता ने पूछा, “क्यों लौटकर घर आ गए न? अरे, यहां घर में पड़े रहे तो औरतों का काम चूल्हा फूंकना ही सिर्फ सीख पाओगे। क्यों गुरुजी के घर में रहने में क्या लज्जा आती है?” बूढ़ा बोले, “अरे, यह पंडित जी तो पढ़ाने से पहले ही गुरुदक्षिणा मांग रहे हैं! और यहां तो किसी के भी पास जाऊं, गति यही होगी। सो मैं तो काशी जाऊंगा पढ़ने।” बूढ़ा के पिता ने ताना कसा, “घर के बाहर निकलने की हिम्मत है नहीं और बेटा काशी पढ़ने जाएगा!”
इस बात से बूढ़ा के मन पर ठेस लग गई। बूढ़ा ने अपने पिता के पैर छुए और घर से बाहर निकल गए। भीख मांगकर पेट भरते हुए किसी तरह काशी पहुंचे। वहां भी भिक्षावृत्ति के अलावा कोई चारा न था, पर एक पंडित जी ने पढ़ाने की दयालुता बूढ़ा को दिखाई। बूढ़ा के कठोर परिश्रम के बावजूद भी तीन वर्ष की अवधि में कोई विशेष विद्यार्जन नहीं पाया। दोनों ही निराश हो गए, अध्यापक भी और विद्यार्थी भी। एक रोज पंडित जी ने साफ-साफ कह ही दिया, “बूढ़ा! तुम्हारे भाग्य में सरस्वती नहीं है। व्यर्थ परिश्रम क्यों करते हो?”
बेचारे बूढ़ा मिश्र खिन्न हो गए। पंडित जी की पाठशाला से निकलकर शहर के बाहर गंगा के तट पर अन्न-जल का त्याग कर बैठ गए। ब्राह्मणोचित महत्वाकांक्षा को लिए हुए एक ब्राह्मण बालक काशी में तीन वर्ष तक रहकर भी विद्यार्जन न कर पाए तो दूसरा मार्ग और क्या हो सकता था? बूढ़ा ने सोचा कि या तो इस तपस्या से सरस्वती प्रसन्न होंगी, नहीं तो फिर इसी तरह प्राण त्याग देना उचित है। तीन दिन बाद सरस्वती की वाणी सुनाई दी कि सब कुछ भगवदिच्छा के अनुसार होता है। भगवदिच्छा होने पर चांडाल भी विद्वान हो सकता है और भगवदिच्छा न होने पर ब्राह्मण भी मूर्ख ही रह जाते हैं।
बूढ़ा मिश्र के भीतर विवेक तो जागा, परन्तु धैर्य छूट गया। बूढ़ा ने सोचा कि यदि सब कुछ भगवदिच्छा के अनुसार ही होता हो तो भगवान की इच्छा को बदलने के लिए भगवान के नाम पर ही भूख हड़ताल करनी चाहिए! ऐसा विचार कर बूढ़ा “विष्णु-विष्णु-विष्णु” जप करते हुए भूखे-प्यासे बैठे रहे। अधीर होकर ही सही, पर भगवान नाम लेने पर बूढ़ा मिश्र को भगवत्साक्षात्कार हुआ और श्री महाप्रभु के पास अडेल जाने की भगवदाज्ञा भी हुई। बूढ़ा मिश्र भगवदाज्ञा पाकर अडेल पहुंचे। श्री महाप्रभु ने इनका स्वागत किया और कहा, “बूढ़ा! तुम धन्य हो। तुमने भगवद्दर्शन पाए।” बूढ़ा मिश्र ने सविनय निवेदन किया, “महाराज! भगवत्साक्षात्कार आपकी कृपा का फल है। परन्तु भगवद्दर्शन होने के बावजूद भगवत्स्वरूपानंद का अनुभव मुझे नहीं हुआ!” श्री महाप्रभु ने समझाना चाहा, “एक बार भी भगवत्साक्षात्कार हो जाने पर सांसारिक मोह के बंधन का भय नहीं रह जाता, जीव मुक्त हो जाता है।” इस पर बूढ़ा मिश्र ने विनती की, “महाराज! मुझे मुक्ति नहीं चाहिए, भक्ति चाहिए। अतः कृपा कर आप अपनी शरण में मुझे लें!”
श्री महाप्रभु ने प्रसन्न होकर बूढ़ा मिश्र को यमुना जी में स्नान करने की आज्ञा दी और पश्चात अष्टाक्षर तथा ब्रह्म संबंध का दान दिया। समग्र शास्त्रों के गृहतम रहस्य के उपदेश तथा मानसी सेवोपयोगी मन की सिद्धि के लिए श्री महाप्रभु ने कृष्णाश्रयस्तोत्र की रचना की और उसे बूढ़ा मिश्र को पढ़ाया।
‘आश्रय’ शब्द के दो अर्थ होते हैं:
- सहारा देने वाला,
- सहारा लेने की क्रिया।
अतएव विवेकधैर्याश्रय ग्रंथ में जब अशक्ये हरिरेवास्ति सर्वमाश्रयतो भवेद्
कहा तो वहां ‘आश्रय’ का अर्थ शरणागति या सहारा लेने की क्रिया है। इसी तरह भागवत के द्वितीय स्कंध के आभासश्च निरोधश्च यतश्चाध्यवसीयते स आश्रयः परं ब्रह्म परमात्मेति शब्दद्यते
इस वचन में ‘आश्रय’ शब्द आधार या सहारा बनने वाले के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ‘आश्रय’ शब्द के इन दोनों अर्थों को लेकर ही “कृष्ण एव गतिर्मम” में ‘गति’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् भगवान ही साधन हैं और भगवान ही फल भी, भगवान ही मार्ग हैं और गंतव्य भी। भगवान श्रीकृष्ण सभी अर्थों में हमारे आधार-आश्रय-गति हैं। अतएव “कृष्ण एव गतिर्मम” का अर्थ - कृष्ण ही हमारे आश्रय हैं और कृष्ण का ही हमें आश्रय लेना चाहिए - दोनों तरह से लिया जा सकता है।
इस जगत में अनेक प्रकार की जीवात्माएं हैं। कुछ जीवात्माओं में लौकिक फलों की प्राप्ति के लिए लौकिक साधनों के आश्रय की वृत्ति प्रबल होती है। प्रवाही जीवात्माओं का यह प्रमुख स्वभाव होता है। कुछ जीवात्माओं में वेदादि-शास्त्रीय फलों की प्राप्ति के लिए केवल शास्त्रीय साधनों के ही आश्रय की वृत्ति प्रबल होती है। मर्यादा मार्ग के अंतर्गत कर्ममार्गीय जीवों में यह स्वभाव बलवान होता है। कुछ वैदिक फलों की प्राप्ति के लिए वैदिक साधनों के साथ-साथ भगवान को भी आश्रय के रूप में अपनाते हैं। मर्यादा मार्ग के अंतर्गत ज्ञानमार्गीय, उपासनामार्गीय तथा मर्यादाभक्तिमार्गीय साधकों में यह स्वभाव पाया जाता है। कुछ जीवात्माओं को भगवान के अलावा अन्य किसी फल की कामना होत नहीं है। अतः वे साधन के रूप में भी केवल हरि का आश्रय स्वीकारते हैं। ऐसे जीवों को पुष्टि जीव समझना चाहिए (दृष्टव्य भागवतार्थ - निबंध 5-6/12)। अतएव “कृष्ण एव गतिर्मम” मनोभाव पुष्टि जीव का परम लक्षण है।
भागवत के बारहवें स्कंध का वर्ण्य विषय भी आश्रय लीला ही है। भागवतार्थ-निबंध में ‘आश्रय’ शब्द के अनेक अर्थ दिखलाए गए हैं।
यथा-भागवत के द्वितीय स्कंध से लेकर ग्यारहवें स्कंध तक भगवान की जिन सर्ग-विसर्ग स्थान पोषण ऊति मन्वंतर ईशानुकथा निरोध और मुक्ति रूप लीलाओं का वर्णन किया गया है, उन लीलाओं के कर्ता-आश्रय एकमात्र श्रीकृष्ण ही हैं। ये नवविध लीलाएं लक्षण हैं और इनसे लक्षित लक्ष्य-आश्रय एकमात्र श्रीकृष्ण ही हैं। इन नवविध लीलाओं का वर्णन भागवतकार ने इसी हेतु से किया है कि जिन-जिन विभूति रूपों को धारण कर सर्ग लीला से लेकर ईशानुकथा तक की लीलाएं भगवान करते हैं उन सभी रूपों के साथ भगवान का कार्य-कारणरूप शुद्धाद्वैतरूप संबंध है। अर्थात् एक ही ब्रह्म का नाम रूप में विस्तार यह समग्र ब्रह्मांड है (सर्वं खलु इदं ब्रह्म)। कार्य रूप सभी लौकिक या अलौकिक विभूति नामों तथा विभूति रूपों को धारण करने वाला कारणरूप परमात्मा एक ही है, ऐसा शुद्धाद्वैत-बुद्धि से समझना आवश्यक है। हृदय से स्नेह या आश्रय किंतु विभूति नाम अथवा विभूति रूप का नहीं प्रत्युत मूलरूप श्रीकृष्ण के ही नाम-रूप का होना चाहिए (ब्रह्मरूपं जगत् ज्ञातव्यं ब्रह्म जगतोतिरिच्यते इति न तत्रासक्तिः कर्तव्या)। अतः प्रथम स्कंध से लेकर नवम स्कंध तक वर्णित लीलाएं अन्याश्रय छुड़ाने के लिए हैं तथा दशम स्कंध से लेकर द्वादश स्कंध तक की लीलाएं कृष्णाश्रय के दृढ़ीकरणार्थ हैं। हमने कह दिया है कि द्वादश स्कंध का मुख्य वर्ण्य विषय आश्रय लीला है। भागवतार्थ निबंध के द्वादश स्कंधार्थ-प्रकरण में श्री महाप्रभु कहते हैं- “कृष्ण एवाश्रयो मतः।” यही वाक्य इस कृष्णाश्रयस्तोत्र में “कृष्ण एव गतिर्मम” के रूप में रखा गया है।
एवकार इतर व्यावर्तक माना जाता है। श्रीकृष्ण के मूल रूप के अलावा अन्य सारे विभूति रूप-लौकिक हों या अलौकिक - जड़ हों या चेतन-देव, दानव, मानव, पशु, पक्षी इत्यादि सभी रूपों को भक्तिमार्गीय एवम् प्रपत्तिमार्गीय आश्रय के दृष्टिकोण से इतर माना जाता है। ज्ञानमार्गीय दृष्टिकोण से शुद्धाद्वैतवाद के अनुसार ये सर्वथा अभिन्न ही हैं, परन्तु इस अभेद बुद्धि से ये विभूति रूप आश्रयणीय नहीं, किन्तु केवल ज्ञातव्य हैं। अतएव सभी विभूति रूप एवकार द्वारा व्यावर्तनीय माने जाते हैं। इस “कृष्ण एव गतिर्मम” के एवकार की ही व्याख्या श्री महाप्रभु ने - “अन्यस्य भजनं तत्र स्वतो गमनमेव च, प्रार्थना कार्यमात्रेपि ततोन्यत्र विवर्जयेत्” इस विवेकधैर्याश्रय की कारिका में दी हैं।
अन्याश्रय-रहित केवल श्रीकृष्ण का आश्रय ही उचित है, यह दिखलाने के लिए अन्यों के आश्रय की विफलता का बोध आवश्यक है। तदनुसार इस स्तोत्र के प्रथम तीन श्लोकों में लोकाश्रय की विफलता का निरूपण किया गया है तथा द्वितीय तीन श्लोकों में धर्माश्रय की विफलता का। तृतीय तीन श्लोकों में कृष्णाश्रय की महत्ता का निरूपण क्रमशः कर्ममार्गीय, ज्ञानमार्गीय तथा भक्तिमार्गीय दृष्टिकोण से किया गया है। अंतिम दो श्लोकों में पृथक्शरण-मार्ग अथवा प्रपत्तिमार्ग के उपदेश द्वारा गीता की तरह श्री महाप्रभु ने भी संपूर्ण निर्भयता का वरदान दिया है।
एक अन्य रीति से प्रारंभ के छह श्लोकों में काल, देश, द्रव्य, कर्ता, मंत्र तथा कर्म जो धर्म के आवश्यक छह अंग हैं, उनकी विफलता दिखलाते हुए, द्वादश स्कंध के वर्ण्य विषय पंचविध आश्रय- कृष्णाश्रय, जगदाश्रय, वेदाश्रय, भक्तिआश्रय तथा भागवताश्रय के अनुरूप पांच श्लोकों में भगवदाश्रय की महत्ता का निरूपण किया गया है।
एक तृतीय रीति से देखने पर प्रारंभ के नौ श्लोकों में नवविध लीलार्थ गृहीत विभूति रूपों का अन्याश्रय छुड़ाने के लिए नौ श्लोकों में- “कृष्ण एव गतिर्मम” कहकर इतराश्रय का वारण किया है तथा दसवें श्लोक में कृष्णाश्रय को सुदृढ़ किया गया है। ग्यारहवें श्लोक में इस कृष्णाश्रयस्तोत्र की फलश्रुति कही गयी है।
इस एक ही स्तोत्र में वाक्पति श्री महाप्रभु ने अनेक विवक्षाओं से अनेकधा कृष्णाश्रय का निरूपण बूढ़ा मिश्र को समझाया है।
(श्लोक १) कलियुग के कारण धर्मानुष्ठान में भी या तो आंतरिक दुराशय की प्रचुरता ही सर्वत्र दिखलायी देती है, या फिर ईश्वर-भजन-विरोधी उपधर्मों अनीश्वरवादी ज्ञान, वैराग्य, अहिंसा, दया, लोकोपकार इत्यादि-के पाखंड का ही प्रचुर प्रचार दिखलायी देता है। इससे भगवत्प्राप्ति के कर्म, ज्ञान और भक्ति मार्ग अवरुद्ध हो गए हैं। तथापि जिन्हें साधन और फल के रूप में एकमात्र श्रीकृष्ण का ही आश्रय है उन्हें किसी तरह का भय नहीं रह जाता। अतः इस कलियुग में एकमात्र श्रीकृष्ण ही गति हैं।
(श्लोक २) सारा देश तामसी म्लेच्छ शक्तियों से आक्रांत हो गया है। लोभ-लालच, कामुकता-व्यभिचार, लूट-खसोट, हिंसा-अत्याचार जैसे पापों के अनैतिक अड्डे ही सर्वत्र चल निकले हैं। स्वधर्म-पालन का जो थोड़ा बहुत प्रयास करते भी हैं उन्हें अनेकविध पीड़ा और क्लेशों से संत्रस्त किया जाता है। ऐसी स्थिति में सज्जनों का व्यग्र हो जाना स्वाभाविक बात है। ऐसी स्थिति का सामना करने के लिए केवल श्रीकृष्ण ही हमारे संबल हो सकते हैं।
(श्लोक ३) सभी पवित्र स्थल मंदिर, आश्रम, वन, पर्वत, सरोवर, गंगा आदि तीर्थ, धनलोलुप तथा दुष्कर्म-निरत धर्मध्वजी उपदेशक, पंडा, पुजारी, पुरोहितों से घिर गए हैं। अतः इन पवित्र स्थलों का जैसा आधिदैविक प्रभाव प्रकट होना चाहिए वह दिखलायी नहीं देता। परन्तु जिन भक्तों में श्रीकृष्ण की लालसा है उनकी कभी दुर्गति नहीं होगी।
(श्लोक ४) कर्ता धर्म का चतुर्थ अंग माना जाता है। वर्तमान युग में धर्म-भावना से धर्मानुष्ठान करने वाले कर्ता दुर्लभ हो गए हैं। सारे धार्मिक अनुष्ठान पंडितम्मन्य लोगों द्वारा राजसी-तामसी प्रकृति के म्लेच्छों के अनुसरण और अनुकरण के रूप में किए जा रहे हैं। और तिस पर भी धन और यश की लोलुपता ही इनका मुख्य हेतु होता है। फिर भी बुद्धि प्रेरक श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों का जिन्हें आश्रय है उन्हें ऐसी क्षुद्र लालसाओं से ही बचाएंगे।
(श्लोक ५) धर्म के पांचवें आवश्यक अंग मंत्रों में भी अब वह प्रभाव नहीं रह गया है। किसी योग्य अधिकारी गुरु के समक्ष प्रणिपात, परिप्रश्न और परिचर्या की शास्त्रीय विधि के अनुसार तत्तद् मंत्रों के विभिन्न न्यास, तात्पर्य और विनियोग के परिज्ञान तथा मंत्रार्थ अपेक्षित व्रत एवम् शुद्धि के पालनपूर्वक दीक्षा ग्रहण करने से मंत्रों में प्रभाव उत्पन्न होता है। इसके विपरीत आजकल अयोग्य-अनधिकारी व्यक्तियों से अशास्त्रीय विधि से न्यासादि के परिज्ञान के बिना तथा मंत्रार्थ अपेक्षित व्रतादि शुद्धि के बिना ही मंत्र ग्रहण की रीति चल पड़ी है। अतः मंत्र की आधिदैविक अथेशक्ति तिरोहित हो गयी है। फलतः सभी मंत्र प्रभावहीन और निष्फल हो गए हैं। परन्तु श्रीकृष्ण तो मंत्रशक्ति के अधीन नहीं हैं, प्रत्युत सभी मंत्रशक्तियां श्रीकृष्ण के अधीन हैं। अतः श्रीकृष्ण का ही आश्रय लेना चाहिए।
(श्लोक ६) धर्म के छठे आवश्यक अंग कर्म का भी स्वरूप भ्रष्ट हो गया है। क्यों कि जगत में अनेक प्रकार के वाद चल निकले हैं। जो कर्म शास्त्रदृष्ट्या आवश्यक होते हैं उन्हें ये वाद निरर्थक मान लेते हैं। जो कर्म शास्त्रीय दृष्टि से बहुत आवश्यक नहीं होते उन्हें ये वाद अनिवार्य सिद्ध करते हैं। जो वाद शास्त्रों का प्रामाण्य मानते हैं वे भी अर्धश्रद्धा से शास्त्रों के मनःकल्पित अर्थ निकाल लेते हैं। शास्त्रों के इस तरह के अन्यथा व्याख्यान के कारण भ्रान्त अनुयायी शास्त्रीय कर्मों का अनुष्ठान भी अन्यथा रीति से करने लग जाते हैं। जैसे अकरण से कर्मों का स्वरूपतः नाश होता है वैसे ही अन्यथाकरण से कर्मों के फलतः नाश होता है। प्रायः यथाविधि कर्मों का अनुष्ठान करने वाले भी केवल दुनिया को दिखाने के लिए कर्मानुष्ठान का पाखंड ही करते हैं। अतएव कर्मों का प्रभाव ही क्षीण हो गया है। फिर भी अन्याश्रय-दोष रहित होकर श्रीकृष्ण में आश्रय भाव रखना कभी निष्फल नहीं जाता। अतः कृष्ण ही अब केवल आश्रयणीय रह गए हैं।
इस तरह प्रथम तीन श्लोकों में लोकेश एवम् द्वितीय तीन श्लोकों में धर्मनाशकें निरूपण के बाद, अब जैसे कि भागवत के बारहवें स्कंध में पंचविध आश्रय का निरूपण माना गया है, तदनुसार श्रीकृष्ण की आश्रयरूपता का भी पांच ही श्लोकों में वर्णन किया गया है। सातवें श्लोक में कर्ममार्गीय दृष्टिकोण से, आठवें श्लोक में ज्ञानमार्गीय दृष्टिकोण से, नौवें श्लोक में भक्तिमार्गीय दृष्टिकोण से तथा दसवें-ग्यारहवें श्लोक में प्रपत्तिमार्गीय दृष्टिकोण से भी एकमात्र श्रीकृष्ण ही आश्रयणीय हैं, यह दिखलाया जा रहा है।
(श्लोक ७) कृष्ण सर्वोद्धारक है अतः सुसाधन, निःसाधन एवम् दुष्टसाधन जीवों का भी उद्धार करने में समर्थ है। अजामिल का उपाख्यान भागवत के छठे स्कंध में उपलब्ध होता है कि कैसे-कैसे निन्दित कर्मों में निरत होने पर भी भगवदनुग्रहवशात् उसके सारे कर्मदोष बिना नरकयातना के ही नष्ट हो गए। अतः कर्ममार्गीय दृष्टि से केवल श्रीकृष्ण ही आश्रयणीय हैं, अजामिल के प्रसंग में जैसे भगवान ने स्वयं के नाम का माहात्म्य प्रकट किया। इसी तरह श्रीकृष्ण के ध्यान, अर्चन आदि का भी माहात्म्य वहां दिखलाया गया है। मूलतः कृपा ही साधन है। बाकी उद्धार का व्यापार या व्याज तो भगवान शास्त्रतः विहित, अविहित या निषिद्ध कर्मों को भी बना सकते हैं। श्रीकृष्ण का यही तो माहात्म्य है कि वे काम, भय, द्वेष, संबंध, स्नेह या भक्ति किसी भी भावमूलक कर्म को अपने अनुग्रह के प्रकट होने का निमित्त बना सकते हैं। अतः “कृष्ण एव गतिर्मम।”
(श्लोक ८) ज्ञानमार्गीय दृष्टिकोण से भी आठ वसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, इंद्र एवम् प्रजापति; अथवा अग्नि से लेकर ब्रह्मा-विष्णु-शिव पर्यंत तेतीस कोटि देव सभी भगवान के अंश-कलावतार-रूप हैं तथा भगवान की सर्वभवन सामर्थ्यरूपा माया या प्रकृति के द्वारा लिए गए भगवद्रूप हैं। अतः वे स्वयं आविर्भाव-तिरोभावशाली हैं। अक्षरब्रह्म यद्यपि देशतः, कालतः तथा स्वरूपतः अपरिच्छिन्न एवम् पुरुषोत्तम से अविच्छिन्नतया स्थित होता है तथापि अक्षर ब्रह्म भगवान का ज्ञेय रूप है भजनीय रूप नहीं। अतः अक्षरब्रह्म का गणितानंद की तरह अनुभव होता है, पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की तरह अगणितानंद के रूप में नहीं। अतः उपासनामार्गीय देवों की और ज्ञानमार्गीय अक्षरब्रह्म की तुलना में भी उपास्यत्वेन, ज्ञेयत्वेन या भजनीयत्वेन भी एकमात्र श्रीकृष्ण ही आश्रयणीय है।
(श्लोक ९) भक्तिमार्ग दृष्टिकोण से भी पूर्ण विवेक, धैर्य या भक्ति आदि के अभाव में भी-मन कितना भी पापासक्त क्यों न हो परन्तु दैन्य के साथ एक बार जीव शरणागत हो जाता है तो सुदुराचारी को भी साधु-पुरुष बना देने वाली श्रीकृष्ण की भक्ति का लाभ हो ही जाता है।
(श्लोक १०-११) प्रपत्तिमार्ग में तो स्वयं प्रभु ने-“सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः” कहा है। अतः कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थ-सर्वसमर्थ तथा भक्तों के अखिल मनोरथों को पूर्ण करने वाले श्रीकृष्ण यदि शरणागत जीवों का उद्धार नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? अतः श्री महाप्रभु सभी पुष्टि जीवों को आश्वस्त करना चाहते हैं कि इस कृष्णाश्रयस्तोत्र का जो श्रीकृष्ण की सन्निधि में पाठ करेगा उस पाठकर्ता के श्रीकृष्ण आश्रय बनेंगे। जैसे अखिल ब्रह्मांड के नाथ होने पर भी अपने आश्रित व्रजभक्तों के लिए छोटे से गोकुल के नाथ श्रीकृष्ण बने ही हैं!
बूढ़ा मिश्र को हम देख सकते हैं कि इसी कृष्णाश्रयस्तोत्र के कारण न केवल विद्वदुलर्भ वाक्सिद्धि की प्राप्ति हुई अपितु मानसी-सेवोपयोगी अलौकिक मन भी सिद्ध हो गया (अलौकिकमनःसिद्धौ शरणं भावयेद् हरिम्)। विवेकधैर्याश्रय ग्रंथ में कहे गए विवेक और धैर्य सिद्ध हों या न हों पर ऐहिक-पार-लौकिक सभी विषयों में श्रीकृष्ण का आश्रय सभी के लिए सर्वदा हितकारी ही होता है। इसी कृष्णाश्रय को दृढ़ करने के लिए इस स्तोत्र की रचना की गयी है।
अस्वीकरण और श्रेय
हमने संरचना और भाषाई गुणों (जैसे व्याकरण, वाक्यशुद्धि आदि) में संपादकीय और भाषाई संशोधन लागू किए हैं, हालांकि हमने मूल शिक्षाओं और सिद्धांतों से भटकने से बचने का हर संभव प्रयास किया है। किसी भी प्रकार की चूक या त्रुटियाँ अनजाने में हुई हैं, और सुधार के लिए सुझावों का स्वागत है।
संदर्भ सूची
हम उन सभी लेखकों और योगदानकर्ताओं का धन्यवाद करते हैं जिनके कार्यों का इस दस्तावेज़ में संदर्भ दिया गया है। आपके अमूल्य प्रयास और विचार इस सामग्री को आकार देने में महत्वपूर्ण रहे हैं। हम आपके योगदानों का गहरा सम्मान करते हैं और ज्ञान के प्रसार और समझ को बढ़ावा देने में आपके कार्यों की भूमिका को स्वीकार करते हैं।