सिद्धान्त-रहस्यम् - परिचय
सिद्धान्त-रहस्यम् के रचनाकाल को लेकर एक मान्यता यह है कि इसका प्रणयन श्रीमहाप्रभु ने विक्रम संवत 1549 (1492 ई.) में किया था। श्रीमहाप्रभु के चरित्रग्रंथों और इस ग्रंथ के अंतःसाक्ष्यों के अनुसार, इसकी रचना गोकुल में श्रावण शुक्ल एकादशी की अर्धरात्रि में हुई थी।
श्रीयदुनाथजी द्वारा विरचित बल्लभदिग्विजय के मध्यमयात्रा परिच्छेद में इस घटना का वर्णन है।
श्रीमहाप्रभु मथुरा से गोकुल आए, वहाँ श्रावण शुक्ला एकादशी का व्रत और जागरण किया। मध्यरात्रि में भगवान प्रकट होकर दर्शन दिए। तत्पश्चात श्रीमहाप्रभु ने पवित्रा धराकर मिश्री का भोग अर्पित किया। इसके पश्चात, श्रीगोकुलनाथ ने उन्हें आश्वस्त किया कि दैवी जीवों के उद्धार हेतु उन्हें चिंतित होने की आवश्यकता नहीं। उन्होंने गद्यमंत्र सहित भावनाओं का दान दिया और निर्देश दिया कि इन भावनाओं के उपदेश के साथ अन्य अनुयायियों को गद्यमंत्र से दीक्षित किया जाए।
भगवान ने यह वचन भी दिया कि जो भी इस गद्यमंत्र के साथ सर्वस्व समर्पण पूर्वक आत्मनिवेदन की दीक्षा प्राप्त करेगा, उसे अहंता-ममता को सेवा में विनियोजित कर भगवल्लीलाओं की अनुभूति प्राप्त करने की सामर्थ्य दी जाएगी। अगले दिन श्रीमहाप्रभु ने यह दीक्षा दामोदरदास और कृष्णदास को प्रदान की।
८४ वैष्णवों की वार्ता के अनुसार, इस घटना के पश्चात श्रीमहाप्रभु ने समीप सोए हुए दामोदरदास हरसानी से पूछा,
दमला! ते कछु सुन्यो?
इस पर दामोदरदास ने उत्तर दिया,
महाराज! मैंने श्रीठाकुरजी के वचन सुने तो सही, लेकिन उन्हें समझ नहीं पाया।
जैसे बृहदारण्यक उपनिषद् में समर्पण सिद्धांत को प्रस्तुत किया गया है:
अयम् आत्मा सर्वेषां भूतानाम् अधिपतिः सर्वेषां भूतानाम् राजा
…
अस्मिन्न् आत्मनि सर्वे प्राणाः सर्वे लोकाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि सर्वे एवात्मानः समर्पिताः।
यह आत्मा सभी भूतों (जीवों) का अधिपति है, सभी भूतों (जीवों) का राजा है। इस आत्मा में ही सभी प्राण, सभी लोक, सभी देवता, सभी प्राणी और सभी आत्माएं समर्पित हैं।
पर इसकी गहराई हर किसी की समझ में नहीं आती। इसी प्रकार, गीता (९.३४) में भगवान ने कहा,
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
मेरा मनन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे प्रणाम करो। तुम निश्चय ही मेरे पास आओगे, यह मैं तुम्हें सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तुम मुझे प्रिय हो।
श्रीमद्भागवतम (९.४.६५),
ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तम् इमं परं।
हित्वा मां शरणं याताः कथं तांश् त्यक्तुमुत्सहे॥
जिन्होंने पत्नी, घर, पुत्र, संबंधी, प्राण, धन और इस संसार को छोड़कर मेरी शरण में आए हैं, मैं उन्हें कैसे छोड़ने का साहस कर सकता हूँ?
लेकिन उनके इस वचन की गहनता को समझना आसान नहीं। भागवत में भी यह विचार व्यक्त है कि “जो सब कुछ त्यागकर मेरे शरण में आते हैं, उन्हें मैं कैसे त्याग सकता हूँ,” परंतु इसका आशय भी हर किसी के लिए स्पष्ट नहीं होता। इस प्रकार, भगवान के वचन और उनके गहराई से जुड़े सिद्धांतों को समझने के लिए, दैवी कृपा और भक्ति का विशेष प्रयास आवश्यक होता है।
गद्द्यमंत्र का उद्गम: साक्षात् भगवदुक्त या परवर्ती काल का संशोधन?
स्वयं इस सिद्धान्त-रहस्यम में साक्षात् भगवदुक्त भावनाओं सहित गद्द्यमंत्र जब श्रीमहाप्रभु ने अक्षरशः दोहराया, फिर भी यह सुनने के बाद भी समझ में नहीं आता! कई विद्वानों को संशय होता है कि गद्द्यमंत्र साक्षात् भगवदुक्त है, श्रीमहाप्रभु द्वारा निर्मित है, या श्रीप्रभुचरणोक्त (श्री विठ्ठलनाथ जी के द्वारा) है, अथवा इसे श्रीगोकुलनाथजी ने परवर्ती काल में जोड़ा। तर्क-वितर्क उठते रहते हैं कि “साक्षाद् भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते” कहने के बाद जब गद्द्यमंत्र नहीं कहा गया, तो अवश्य ही वह परवर्ती काल में श्रीप्रभुचरण के चतुर्थात्मज श्रीगोकुलनाथजी ने जोड़ा होगा!
परन्तु यदि गद्द्यमंत्र को प्रक्षिप्त माना जाए तो पञ्चाक्षरमंत्र को भी क्यों न प्रक्षिप्त मान लिया जाए? जबकि श्रीगोकुलनाथजी से पूर्ववर्ती श्रीकृष्णदास अधिकारी ने उल्लेख किया है कि “श्रीगोपालमंत्र अष्टाक्षर पञ्चाक्षर के श्रवण कराये, गद्द्यमंत्र सब जीवों को दिया।" उन्होंने कहा कि “कृष्ण श्रीकृष्ण मनमाहि गति जानिये, देह इन्द्रिय प्राण दारागारादिवित्त आत्मा सकल श्रीकृष्ण की मानिये।" इसे सुनते और निरंतर गाते रहने पर भी आज यह समझ में नहीं आता!
कतिपय (अल्प संख्या में) विद्वानों के अनुसार, अतः यह गद्द्यमंत्र श्रीगोकुलनाथजी द्वारा नहीं बल्कि श्रीप्रभुचरण द्वारा पञ्चाक्षरमंत्र के साथ जोड़ा गया माना जाता है। जबकि उनके ज्येष्ठ भ्राता श्रीगोपीनाथजी ने अपनी स्वरचित साधनदीपिका में व्यक्त किया है, “नायमात्मा प्रवचनैः न धिया बहुना श्रुतैः…श्रीगोपालमंत्रं श्रयेत”, जो स्पष्ट करता है कि गद्द्यमंत्र श्रीप्रभुचरण (श्री विठ्ठलनाथ जी) के समय से पूर्व दीक्षाविधि में समाविष्ट हो गया था।
निवेदन, समर्पण, और विनियोग—ये तीनों रहस्य और तात्पर्य के रूप में एक-दूसरे से जुड़े हैं। जहां पञ्चाक्षरमंत्र आत्मनिवेदन को प्रकट करता है, वहीं गद्द्यमंत्र आत्मा और आत्मीय पदार्थों के समर्पण का रहस्य समझाता है। यह समर्पण तभी पूर्ण होता है जब समर्पित वस्तुओं का उपयोग श्रीकृष्ण की सेवा में किया जाता है। बिना इस सेवा-उन्मुख विनियोग के, समर्पण को पूर्णतया चरितार्थ नहीं माना जा सकता। इस प्रकार, गद्द्यमंत्र समर्पण की भावना को न केवल रेखांकित करता है, बल्कि उसे सेवा के विनियोग द्वारा पूर्ण करता है। यही गद्द्यमंत्र की विशिष्ट और अनिवार्य शिक्षा है।
श्रीमहाप्रभु को आत्मनिवेदन की भावना के रूप में यही प्रभु ने स्वयं प्रकट होकर समझाया था:
असमर्पित वस्तूनां तस्माद् वर्जनमाचरेत निवेदिभिः समयव सर्व कुर्यादिति स्थितिः।
इसका अर्थ है कि आत्मनिवेदी को असमर्पित वस्तुओं का त्याग करना चाहिए और अपने समस्त कार्य समर्पणपूर्वक ही करने चाहिए। यही ब्रह्मसम्बन्ध या आत्मनिवेदन की मूल भावना है।
नवरत्न के इस वचन, “निवेदन के समय अपने से संबंधित सभी वस्तुओं का प्रभु या ब्रह्म से सम्बन्ध हो जाता है। जिन्होंने अपने प्राणों को कृष्णसात् कर लिया है, उन्हें किस बात की चिंता हो सकती है?”, और सिद्धान्त-रहस्य के वचन, “ब्रह्मसम्बन्ध करने से देह और जीव के सभी दोष निवृत्त हो जाते हैं,” में परस्पर संगति है। इनकी तुलना करने पर पञ्चाक्षरमन्त्र द्वारा आत्मनिवेदन और गद्यमन्त्र के माध्यम से वियोगाग्नि के स्मरणपूर्वक आत्मीय पदार्थों के समर्पण को मिलाकर ब्रह्मसम्बन्ध कहा जाता है। यही सिद्धान्त का रहस्य सिद्धान्त-रहस्य ग्रन्थ में सुनाई पड़ता है।
यही रहस्य श्रावण शुक्ला एकादशी की महानिशा में साक्षात भगवान ने प्रकट होकर श्रीमहाप्रभु को बताया था। पञ्चाक्षर और गद्यमन्त्र के गोपनीय अंश को छोड़कर समर्पण के सिद्धान्त का यह भगवदुक्त रहस्य श्रीमहाप्रभु ने अक्षरशः दोहरा दिया। जो बात भगवान ने गद्यमन्त्र की भावना के रूप में कही थी, उसी का यहां अक्षरशः निरूपण है, न कि पञ्चाक्षर या गद्य मन्त्र का।
जीव स्वाभाविक रूप से अनेक प्रकार के दोषों से युक्त रहता है, जो विभिन्न स्तरों पर प्रकट होते हैं:
- अविद्या और भ्रांति: आत्मा के साथ अविद्या का सम्बन्ध, अहंता-ममता की भ्रांति, और प्राणधारण के प्रयत्न जैसी कमियां जुड़ी होती हैं। सूक्ष्म शरीर में काम, क्रोध, लोभ, क्षुधा और पिपासा जैसे सहज दोष भी उपस्थित रहते हैं। इसी प्रकार स्थूल शरीर में भी अशुद्धि और रोग जैसे दोष स्वाभाविक रूप से पाए जाते हैं।
- स्थानजन्य दोष: पापबहुल प्रदेशों में जन्म लेने से, या केवल ऐसे स्थानों पर गमन करने से भी शास्त्रों के अनुसार दोष उत्पन्न हो सकते हैं।
- कालजन्य दोष: कलियुग के कारण, अनेक धार्मिक व्यवस्थाएं लुप्त हो गई हैं। काल से उत्पन्न दोषों को भी शास्त्रों ने मान्यता दी है।
- स्वैच्छिक कर्म: कई बार मोहवश या जानबूझकर ऐसे कर्म कर लिए जाते हैं, जिन्हें लोक और शास्त्र में निन्दित माना गया है।
- अपरिहार्य परिस्थिति: कभी अनचाहे या अनजाने में अथवा विवशता से ऐसे कर्म हो जाते हैं, जो लोकवेद द्वारा निन्दित हैं।
इस प्रकार, जीव लोक और वेदों में गर्हित अनेक प्रकार के दोषों से युक्त रहता है। किन्तु ब्रह्मसम्बन्ध होने पर ये दोष चाहे निवृत्त हों या न हों, पुष्टिजीव द्वारा की जाने वाली भगवत्सेवा में यह बाधक नहीं बन सकते। ब्रह्मसम्बन्ध के अतिरिक्त अन्य किसी उपाय से इन दोषों की निवृत्ति संभव नहीं है।
ब्रह्मसम्बन्ध का वास्तविक स्वरूप तभी पूर्ण होता है जब असमर्पित वस्तुओं का त्याग किया जाता है। आत्मनिवेदित व्यक्ति को अपने समस्त कार्य समर्पणपूर्वक ही संचालित करने चाहिए। लेकिन इसमें सावधानी यह है कि ऐसी कोई वस्तु, जिसका प्रथम उपभोग हमने किया हो, उसे भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित न करें। प्रथम उपभोग से वस्तु अर्धभुक्त या उच्छिष्ट हो जाती है और ऐसी वस्तुओं का समर्पण श्रीकृष्ण के लिए उपयुक्त नहीं है। अतः सभी वस्तुओं का उपभोग करने से पहले उनका समर्पण आवश्यक है।
समर्पण के पश्चात दैनिक व्यवहार का प्रश्न: जब सभी वस्तुएं भगवान को समर्पित कर दी जाती हैं, तो आत्मनिवेदी के लिए अपने दैनिक व्यवहार कैसे पूरे होंगे?
पुष्टिमार्गीय साधना प्रणाली में, “भगवान को दानरूप में जो वस्तुएं भेंट की जाती हैं, उनका पुनः उपभोग वर्जित नहीं है। इस प्रणाली में, जैसे सेवक स्वामी द्वारा उपभोग की गई वस्तुओं का उपयोग करते हैं, वैसे ही सभी वस्तुएं पहले भगवान को समर्पित की जाती हैं और फिर उपयोग की जाती हैं। अतः सर्वसमर्पण और असमर्पित त्याग के सिद्धांत में कोई विरोधाभास या कठिनाई नहीं है।
ब्रह्मसम्बन्ध से वस्तुओं की पवित्रता: ब्रह्मसम्बन्ध लेते समय जिन वस्तुओं का समर्पण किया जाता है, वे साक्षात या परम्परा से एक बार भगवान की सेवा में विनियोग हो जाने पर दोषरहित हो जाती हैं। ऐसी ब्रह्मभावापन्न वस्तुओं के उपयोग से किसी सांसारिक अनर्थ की संभावना नहीं रहती।
जैसे नदी और नाले गंगा में मिलने पर गंगाजल का ही रूप धारण कर लेते हैं, और उनके गुण-दोष विचारणीय नहीं रहते, वैसे ही भगवान की सेवा के अंग बनने पर सांसारिक वस्तुओं के गुण-दोष अप्रासंगिक हो जाते हैं। यही सिद्धांत पुष्टिमार्गीय साधना की विशिष्टता है।
भगवान द्वारा लिये गए सभी लौकिक रूप भगवान के ही हैं और भगवान के लिए ही हैं। हमारा भी अस्तित्व और उद्देश्य भगवद्लीलाओं का अंग और भगवत्सेवा के लिए है। अतः, समर्पण के पश्चात जब उन वस्तुओं को भगवत्प्रसाद के रूप में पुनः ग्रहण किया जाता है, तो वह पूरी तरह दोषरहित होता है। जब सभी वस्तुएं भगवत्सेवार्थ बन जाती हैं, तब वे भगवदात्मक स्वरूप धारण कर लेती हैं।
यह पुष्टिमार्ग के सिद्धांत का सबसे गूढ़ रहस्य है। यही भावना भगवान के लिए प्रिय है और यह भावना ही पुष्टिमार्ग के प्रमुख कर्तव्य के रूप में दीक्षा लेते समय और उसके बाद भी आवश्यक मानी जाती है। इसी भावना को गोकुल में प्रकट होकर भगवान ने श्रीमहाप्रभु को समझाया था। उस महानिशा में, जब श्रीमहाप्रभु अपने पुष्टिजीवों के उद्धार की चिंता में जागृत थे, इस रहस्य के प्रकाशन द्वारा उनकी चिंता दूर हुई थी। परंतु आज भी श्रीमहाप्रभु के समीप सुषुप्त उनके पुष्टिजीव इस सिद्धांत-रहस्य को सुनने के बावजूद समझ नहीं पाते।
उपनिषद, गीता, पञ्चरात्र और श्रीमद्भागवत में समर्पण का सिद्धांत हर जगह पढ़ा और सुना गया है, लेकिन जब तक प्रभु स्वयं अपनत्व नहीं जताते, तब तक पुष्टिमार्ग के सिद्धांत केवल पढ़ने या सुनने से समझ में नहीं आते।
श्रीमद्भागवत रूपी अमृत के सागर का सर्वोत्तम मंथन कर, श्रीमद्वल्लभाचार्य महाप्रभु ने अपने सुषुप्त पुष्टिजीवों को जगाते हुए पूछा—“दमला! ते कछु सुन्योऽ?” श्रीमहाप्रभु केवल सुनाने या समझाने में संतुष्ट नहीं होते। वे अपने पुष्टिजीवों के हाथ में परब्रह्म, परमात्मा, पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को सौंपना चाहते हैं—
सेवा साज सिंगार सुभग रस न पान प्रकटायो,
वृन्दावन निकुञ्ज की लीला हरि जीवन स्वाद चखायो,
जो लौं हरि आपुनपो न जनावे तो लौं,
सकल सिद्धांत मार्ग को पढ़े सुने नहीं आवे।
यह पुष्टिमार्ग की विशिष्टता और इसकी गहनता को प्रकट करता है।
अस्वीकरण और श्रेय
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