सिद्धान्तमुक्तावली - परिचय
कहा जाता है कि सिद्धान्तमुक्तावली श्रीमहाप्रभु ने अच्युतदास सनोढिया के लिए लिखी थी। एक किंवदंती के अनुसार यह रचना विक्रम संवत १५५५ में जतिपुरा में की गई।
बालबोध वाले नारायणदास और अच्युतदास के चरित्र में कई समानताएं हैं, साथ ही उल्लेखनीय अंतर भी। नारायणदास को श्रीमहाप्रभु ने स्वरूपसेवा करने की अनुमति नहीं दी थी, जबकि अच्युतदास को श्रीगोवर्धनघर की सेवा में नियुक्त करना चाहते थे। नारायणदास का व्यावृत्तिमय जीवन स्वरूपसेवा के निर्वाह के अनुकूल नहीं था। वहीं अच्युतदास का चरित्र उनकी पूर्णतः अव्यावृत्त जीवन-यापन की ओर संकेत करता है। अतः उनके लिए तनुवित्तजा सेवा या गृहसेवा का निर्वाह संभव नहीं था।
अच्युतदास ने श्रीगोवर्धनघर की केवल तनुजा सेवा करने की अपेक्षा, सीधे ही श्रीमहाप्रभु से मानसी सेवा का वरदान मांगा। जैसे नारायणदास को स्वरूपसेवा के अनुकल्प श्रीहस्ताक्षर की सेवा द्वारा उत्कट भाव का दान मिला, वैसे ही अच्युतदास को तनुवित्तजा सेवा और मानसी सेवा के सिद्धान्तसम्मत क्रम को छोड़कर, सीधे ही फलरूपा मानसी सेवा का दान श्रीमहाप्रभु ने दिया।
सिद्धान्तमुक्तावली और सम्बद्ध वार्ता से यह स्पष्ट होता है कि जैसे विराट रूप के साक्षात्कार के समय श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच एक मीठा विवाद हुआ था, वैसा ही विवाद श्रीमहाप्रभु और अच्युतदास के बीच भी हुआ होगा। श्रीकृष्ण अपने विराट रूप की महत्ता और देवदुर्लभता का उल्लेख कर रहे थे, जबकि अर्जुन का कहना था कि उसे सौम्य मानुष स्वरूप के ही दर्शन सुहाते हैं। इसी प्रकार अच्युतदास को भी नाम निवेदन कराने के बाद श्रीमहाप्रभु ने श्रीगोवर्धनघर की सेवा में नियुक्त करना चाहा।
तुम गोवर्धनघर की सेवा करो!
तब अच्युतदास ने श्रीआचार्यजी को दण्डवत कर विनती की,
महाराज! मोपर ऐसी कृपा करो, जो एकान्त में बैठकर मानसी सेवा में मन लगे।
इस पर श्रीमहाप्रभु ने अपना चरणामृत दिया। अच्युतदास ने चरणामृत का पान कर, हाथ, नेत्र, मस्तक और हृदय पर लगाया। इसके बाद उनके नेत्र अलौकिक हो गए और वे लीलाओं के दर्शन करने लगे।
भक्तिवर्धिनी:
प्रार्थिते वा ततः किं स्यात् स्वाभ्यभिप्रायसंशायत्, सर्वत्र तस्य सर्वं हि सर्वमार्थ्यमेव च
का सिद्धान्त सभी शरणागत जीवों पर लागू होता है। स्नेह के आवेश में भक्त कभी-कभी कुछ मांग लेते हैं, और भगवान को भी कृपापूर्ण आवेश में वह देना पड़ता है।
सिद्धान्तमुक्तावली:
अनुग्रहः पुष्टिमार्गे नियामक इति स्थितिः
में निरूपित अनुग्रहशीलता या भक्तपरवशता का रहस्य कुछ भक्तों को ज्ञात हो जाता है। अच्युतदास भी उन्हीं अग्रगण्य भक्तों में से एक हैं।
भावप्रकाश:
तब श्रीआचार्यजी ने सिद्धान्तमुक्तावली पढ़ाई। उसके बाद अच्युतदास मानसी में मग्न हो गए। वे गोविन्दकुण्ड के पास एक गुफा में रहते थे। उनके नेत्र प्रेमरस से भरे रहते। श्रीगुसाईजी नित्य दर्शन देने के लिए पधारते। यह भाव मर्यादा बनाए रखने के लिए था, लेकिन श्रीगुसाईजी उनके दर्शन करने आते। श्रीगुसाईजी को श्रीआचार्यजी का अनुभव होता। अच्युतदास के नेत्रों में श्रीमहाप्रभुजी की झलक मिलती।
वस्तुतः पुष्टिमार्ग में अनुग्रह ही नियामक है, भक्त का भी और भगवान का भी; भक्तिकी साधना में भी और भक्तिके फलदान में भी।
अच्युतदास ने जो अधिकार अपवाद रूप से छीन-झपट कर प्राप्त किया था, उसका कोई गलत अर्थ न लगाया जाए, इसलिए श्रीमहाप्रभु अपनी सैद्धान्तिक स्थिति इस ग्रन्थ में स्पष्ट करते प्रतीत होते हैं।
कृष्णसेवा हम पुष्टिमार्गीय जीवों का सनातन कर्तव्य है। जब यह कृष्णसेवा मानसी रूप में फलित हो जाती है, तो वह सेवा की उत्कृष्टतम अवस्था होती है। क्योंकि चित्त का भगवान श्रीकृष्ण के साथ तन्मय हो जाना ही सेवा है। चित्त को श्रीकृष्ण के साथ तन्मय करने के लिए स्वयं अपने तन और धन को कृष्णसेवा में लगाना चाहिए। रही बात सांसारिक दुःखों के दूर होने की या अलौकिक ब्रह्मानन्द की प्राप्ति की, तो वह तो इस कृष्णसेवा में मिलने वाले भजनानन्द का एक आनुषंगिक लाभ है। क्योंकि ब्रह्मानन्द, अनुभूत होने पर अक्षरब्रह्म गणितानन्द (वह आनंद जो “गणित” (गणना) किया जा सके या सीमित हो) है, जबकि भजनानन्द तो परब्रह्म अगणित-सच्चिदानन्द श्रीकृष्ण की सेवा द्वारा ही मिल सकता है।
अक्षरब्रह्म, समग्र जागतिक रूपों का उपादान होने के कारण, सर्वरूप भी है और सर्वविलक्षण भी। जगत के कारण के स्वरूप के बारे में अनेक प्रकार के विवाद दिखलाई देते हैं। उदाहरणत:
- विवर्तवादी लोग जगत को मायिक मानते हैं।
- प्रकृति परिणामवादी इसे प्रकृति के सत्व, रज-तमो गुणों का परिणाम मानते हैं।
- आरम्भवादी इसे सूक्ष्म परमाणुओं से निर्मित मानते हैं।
- मीमांसकों के अनुसार, जगत जैसा आज दिखलाई देता है, वैसा ही सर्वदा था और रहेगा। अतः इसके कर्ता के रूप में परमात्मा को वे मान्य नहीं करते।
- श्रौत मत के अनुसार, माया, प्रकृति, परमाणु, अदृष्टकर्म, वासना, या स्वभाव आदि सभी रूपों में अक्षरब्रह्म ही जगत का एकमात्र कारण बनता है।
अक्षरब्रह्म, अतः सर्वरूप होने पर भी सर्वविलक्षण है।
जगत और अक्षरब्रह्म के परस्पर स्वरूप को आधिभौतिक गङ्गाजल, जो ग्रीष्म या वर्षा में घटता या बढ़ता है, और आध्यात्मिक तीर्थरूपा गङ्गा, जिसका ग्रीष्म या वर्षा से कोई संबंध नहीं है, के समान समझना चाहिए। आधिभौतिक रूप में गङ्गा केवल एक नदी है, लेकिन आध्यात्मिक रूप में मर्यादामार्गीय विधि के अनुसार तीर्थरूपा गङ्गा के तट पर तीर्थवास करने वाले को मनोवांछित फल देने वाली मानी गई है। इसी तरह जगत के सभी नाम-रूप अक्षरब्रह्म के आधिभौतिक रूप हैं। पर इनसे विलक्षण भी अक्षरब्रह्म का एक आध्यात्मिक रूप है, जो मर्यादामार्गीय ज्ञानियों के लिए उपास्य और मोक्षप्रापक रूप है।
गङ्गा के इन दो आधिभौतिक और आध्यात्मिक रूपों के अलावा, एक तीसरा आधिदैविक रूप भी कभी-कभी भक्तों को उनकी भक्ति के आवेश में अनुभूत होता है। एक मूर्तिमती देवी के रूप में। इस आधिदैविक रूप का प्रत्यक्ष सभी को नहीं होता। यह तो उन्हीं को दिखलाई देता है, जिन्हें गङ्गा के आधिभौतिक, आध्यात्मिक, और आधिदैविक सभी रूपों में तीव्र भक्ति के कारण अभेदबुद्धि घटित हो जाती है। यह घटित होने पर, आधिभौतिक रूप में भी सर्वत्र आधिदैविक रूप का सा व्यवहार सम्भव हो जाता है।
गङ्गा के आधिभौतिक रूप जल की तरह यह सारा जगत है। गङ्गा के आध्यात्मिक तीर्थरूप की तरह अक्षरब्रह्म को समझना चाहिए। गङ्गा के आधिदैविक रूप मूर्तिमती देवी की तरह श्रीकृष्ण को समझना चाहिए।
जगत जैसे त्रिविध सत्व, रजस्, तमोगुणात्मक है, वैसे उसके नियामक देवता भी त्रिविध, विष्णु-ब्रह्मा-शिव माने जाते हैं। इसी तरह, अक्षरब्रह्म क्योंकि एकविध है, अतः उसके नियामक अधिदेव भी परब्रह्म श्रीहरि ही हैं। अतः अक्षरब्रह्म में अवस्थित ब्रह्मादि सकल देवताओं के नियामक भी श्रीहरि ही हैं।
श्रीहरि द्वारा अधिकृत होने के कारण ही ये देवता भी मनोवांछित फल देने में समर्थ बनते हैं। जहां तक पुष्टिभक्तों का प्रश्न है, उनके सभी मनोवांछित ऐहिक या पारलौकिक फल परमानंदरूप श्रीकृष्ण से ही निश्चिततया परिपूर्ण हो जाते हैं।
अतः ब्रह्मवाद को अच्छी तरह समझकर केवल कृष्ण में ही अपनी बुद्धि लगानी चाहिए।
ब्रह्मवाद के अनुसार, सभी जीवात्मा अक्षरब्रह्म की अंश हैं, अतएव ब्रह्मात्मक हैं। पर अविद्या-जन्य अहंता-ममता बुद्धि के कारण अपनी ब्रह्मात्मकता का बोध नहीं हो पाता है। जैसे आकाश को एक चलनी में से देखा जाए तो चलनी के छिद्र आकाश के अनेक छिद्रों की तरह प्रतीत होंगे। ऐसी ही अहंता-ममता की चलनी में से अनुभूत होने के कारण अखण्ड अक्षर चैतन्य भी हमें खण्डशः व्यक्तिचेतना के रूप में भिन्न-भिन्न अनुभूत होता है।
व्यक्तिचेतना की ब्रह्मात्मकता का बोध केवल अहंता-ममता की उपाधि के दूर होने मात्र से नहीं हो जाता, अपितु परब्रह्म के धामरूप व्यापक अद्वैत अखण्ड अक्षरब्रह्म का ज्ञान होने पर ही वह संभव है। अपनी अक्षरब्रह्मात्मकता का बोध होने पर अक्षरब्रह्म में विराजमान परब्रह्म पुरुषोत्तम कृष्ण के दर्शन संभव हो जाते हैं। जैसे गङ्गा तट पर तीर्थवास करने वाला भक्त अपनी तीव्र भक्ति के कारण आधिदैविक स्वरूप मूर्तिमती गङ्गा के दर्शन पा लेता है, वैसे ही आध्यात्मिक अक्षरब्रह्म में निवास करने वाला भक्त उसके आधिदैविक स्वरूप श्रीकृष्ण के दर्शन पा लेता है।
माहात्म्यज्ञान के बिना, सांसारिक वृत्ति से जो कृष्णभजन में प्रवृत्त होते हैं उनकी भगवान के साथ दूरी मिटती नहीं है। जैसे कोई गङ्गा का भक्त गङ्गा तट से दूर रहने के कारण गङ्गाजल के स्नान, आचमन, अर्चन से वंचित रहने के कारण दुःखी रहता है, वैसे ही माहात्म्यज्ञान (और/अथवा सुदृढ़ सर्वतोधिक स्नेह) के अभाव में कृष्णभजन में प्रवृत्त होने पर कुछ-कुछ क्लेश तो होता है। पर कृष्णभजन कभी व्यर्थ नहीं जाता। अतः जन्मान्तर में भी कभी-न-कभी माहात्म्यज्ञान और/अथवा सुदृढ़ सर्वतोधिक स्नेह प्रकट होगा और जीवात्मा तथा परमात्मा कृष्ण के बीच की दूरी कम होगी ही, यह निश्चित है।
अतः जगत की सभी झंझटों को त्यागकर, पुष्टिमार्गीय पथ पर चलते हुए, पुष्टिजीव को श्रीकृष्ण का निरंतर चिंतन करना चाहिए। श्रीकृष्ण ने अपने आधिदैविक रसात्मक आनंदमय स्वरूप से सभी ब्रजभक्तों में परम आनंद का सागर प्रकट किया है। उसी आत्मीय आनंद के सागर में श्रीकृष्ण सनातन लीलाविहार करते हैं। हमें श्रीकृष्ण के उस स्वरूप का सदा चिंतन करना चाहिए, जो ब्रजभक्तों में लीलाविहार करता है।
‘पुष्टिप्रवाहमर्यादा’ ग्रंथ में पुष्टिजीव के दो अवांतर भेद —
- शुद्धपुष्टि और
- मिश्रपुष्टि
— को बताया गया है। मिश्रपुष्टि वाले जीवों में प्रवाही जीव कभी-कभी किसी लौकिक प्रयोजन के वशीभूत होकर भी कृष्णभजन में प्रवृत्त हो जाते हैं। ऐसे प्रवाह पुष्टिवाले जीवों के लिए कृष्णभजन अत्यंत क्लिष्ट हो जाता है। परंतु जो सारे क्लेशों को सहते हुए कृष्णभजन में लगे रहते हैं और उसे अधबीच में छोड़ते नहीं, उनके लौकिक आवेश पूरी तरह समाप्त हो जाते हैं।
स्वयं अपने आत्मस्वरूप और भजनीय परमात्मा के शास्त्रीय ज्ञान के बिना भी भजन में प्रवृत्त होने वाले जीव पुष्टिजीव हो सकते हैं और मर्यादाजीव भी। कभी-कभी मर्यादा मिश्रित पुष्टिके जीव को ‘मर्यादाभक्त’ कहा जाता है। सामान्यतः ‘मर्यादाभक्त’ से तात्पर्य केवल मर्यादामार्गीय भक्तिमान जीव से होता है।
मर्यादामिश्रित पुष्टिभक्त प्रारंभिक अवस्था में भक्तिरहित ज्ञानवान हो सकता है और शास्त्रीय माहात्म्यज्ञान के अभाव में भी भक्तिमान हो सकता है।
ज्ञानरहित मर्यादामिश्रित पुष्टिभक्त को अपने चित्त को भगवान में लगाए रखने के लिए भगवान की पूजा और उत्सवादि की प्रक्रियाओं में तत्पर रहना चाहिए। भक्तिरहित ज्ञानवान मर्यादामिश्रित पुष्टिभक्त को दास्यभाव प्रदायिनी गङ्गा के तट पर स्नेह उत्पत्ति हेतु श्रीभागवत के अनुशीलन में तत्पर होना चाहिए। इन दोनों प्रकार के मिश्रपुष्टिवाले भक्तों को जब भगवान के विशेष अनुग्रह का प्रकाश मिलता है, तब वे पुष्टिमार्ग को खोज पाते हैं और पूर्वोक्त तनुवित्तजा सेवा के क्रम से अंततः उन्हें मानसी सेवा फलित हो जाती है।
मर्यादामार्गीय जीव भक्तिरहित ज्ञानवान या ज्ञानरहित भक्तिमान हो सकते हैं। इन दोनों प्रकार के जीवों को सायुज्य मिलता है। परंतु अंतर यह है कि भक्तिरहित ज्ञानवान जीव ज्ञानमार्गीय प्रक्रिया से आध्यात्मिक अक्षरब्रह्म में सायुज्य-लय प्राप्त करता है, जबकि मर्यादाभक्त दास्यभाव प्रदायिनी गङ्गा के प्रसाद से आधिदैविक स्वरूप में मर्यादाभक्ति मार्गीय सायुज्य प्राप्त करता है।
मर्यादामार्गीय साधक की साधना में देश-काल आदि के नियम होते हैं, जबकि पुष्टिमार्ग की भक्ति देश-काल के बंधन से परे है। पुष्टिमार्ग में भगवान का अनुग्रह ही एकमात्र नियम या बंधन होता है। अतः जिस देश या काल में भगवान का अनुग्रह प्राप्त हो, वहीं और हर समय पुष्टिभक्ति संभव होती है।
हर दृष्टिकोण से अक्षरब्रह्म में सायुज्य प्रदान करने वाले ज्ञानमार्ग की तुलना में भक्तिमार्ग का उत्कर्ष दिखाई देता है। भक्तिविहीनता में सब कुछ व्यर्थ प्रतीत होता है। गङ्गा तट पर तीर्थवास करने वाला व्यक्ति यदि आधिदैविक गङ्गा के बारे में भक्तिरहित हो जाए, तो वह कभी-न-कभी गङ्गा के आध्यात्मिक महात्म्य को भूल सकता है या उसे केवल आधिभौतिक जल समझ सकता है। इसके परिणामस्वरूप अपने कर्मों के कारण वह अंततः आध्यात्मिक लाभ से वंचित हो सकता है। इसी प्रकार, आधिदैविक स्वरूप श्रीकृष्ण में भक्तिहीनता से, आध्यात्मिक स्वरूप अक्षरब्रह्म में ज्ञान के आधार पर निवास करने वाला विमुक्तिमानी साधक भी श्रीकृष्ण में भावशून्यता के कारण अक्षरब्रह्म में सायुज्य के लाभ से वंचित होकर पुनः भवप्रवाह में अधःपतित हो सकता है।
यह श्रीभागवत शास्त्र का गुप्त रहस्य है, जिसे श्रीमहाप्रभु ने न केवल अच्युतदास के लिए प्रकट किया, अपितु सभी पुष्टिजीवों के लिए और अपने स्वकीयों के कर्तव्य के उपदेश के रूप में दिखाया। इसे एक बार अच्छी तरह समझ लेने पर, सभी पुष्टिजीव अपने कर्तव्य संबंधी संशयों से पूर्णतया मुक्त हो सकते हैं।
अस्वीकरण और श्रेय
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संदर्भ सूची
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