सेवाफल और उसके विवरण की रचना श्रीमहाप्रभु ने आगरा में विष्णुदास छीपा के लिए की थी। किंवदंती के अनुसार इसका रचनाकाल वि. सं. १५८२ माना जाता है। वार्ता में इस विषयक उल्लेख इस प्रकार मिलता है:

सो आगरा के पास के गाँव में एक छीपा के घर में प्रकटे। सो बड़े हुए, बीस वर्ष के, तब विवाह हुआ। सो पिता वस्त्र छाप देते, विष्णुदास आगरा में जाकर बेच लाते। सो ऐसे करते एक समय श्रीआचार्यजी आगरा पधारे। तब विष्णुदास सुंदर छींट के थान लेकर आगरा गए। तब श्रीआचार्यजी ने कृष्णदास से कहा:

यह छीपा के पास छींट अच्छी है सो तू ले। जो मांगे सो दे।

तब कृष्णदास ने विष्णुदास से कहा:

यह छींट के थान सारे हमें दे। इसके दाम हैं सो तू ले।

तब विष्णुदास ने चौगुना मोल कहा। तब कृष्णदास ने सारे रुपये गिन दिए और कहा:

और अच्छे थान हो तो ले आना।

तब विष्णुदास चकित हो गए कि ये तो बड़े महापुरुष और अलौकिक जीव हैं जो मोल नहीं किया, सारे थान लिए और उनके दाम दिए। सो, इनको छींट देना उचित नहीं है। इनका पैसा मेरे घर आएगा तो सारा घर वैरागी हो जाएगा।

तब विष्णुदास ने कहा:

ये सारे अपने रुपये ले जाओ। मेरे छींट के थान वापस दे दो।

तब कृष्णदास ने कहा:

तू बड़ा हट्टी दीखता है, तुझे मोल बताया, सो दाम दिए। अब यह थान कभी वापस नहीं होगा। तेरा नुकसान हो तो और भी रुपये ले, चौगुने दाम तो लिए।

तब विष्णुदास ने कहा:

तुम महापुरुष हो, तुम्हारा धन घर में आएगा तो सारा घर वैरागी हो जाएगा। इसलिए मैं तुम्हें नहीं बेचता। यदि थान न दो तो ये रुपये भी अपने पास रखो और थान भी रखो, लेकिन तुम्हारा धन मुझे स्वीकार नहीं।

तब कृष्णदास ने कहा:

यह थान को श्रीआचार्यजी ने श्रीमुख से सराहा है और कहा है कि ले लो। तो तू करोड़ों उपाय करे, यह थान वापस नहीं आएगा। और श्रीआचार्यजी बिना सेवक के अन्य किसी से कुछ लेते नहीं।

तब विष्णुदास ने कहा:

श्रीआचार्यजी कहाँ हैं?

उपनिषद में ठीक ही कहा गया है कि परमात्मा न तो प्रवचन से मिलता है, न मेघा से और न बहुश्रुति से ही। परमात्मा कहाँ है? किसे मिलता है? उत्तर: परमात्मा जिसे खोज रहा हो, वही परमात्मा को खोज पाता है। परमात्मा जिससे मिलना चाहता है, वही परमात्मा से मिल पाता है, कठ. (१.२.२३):

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः

भारतवर्ष की तीन-तीन परिक्रमाओं में श्रीमहाप्रभु इन्हीं विष्णुदासों को तो खोज रहे थे। तभी तो विष्णुदास भी पूछ सके:

श्री आचार्यजी कहाँ हैं?

निरोधलक्षण ग्रन्थ में कहा गया है कि भक्तों के बीच भगवान का इस भूतल पर प्रकट होना करणनिरोध है। प्रपञ्च को भूल कर भक्तों का भगवान में आसक्त हो जाना व्यापारनिरोध है। इस प्रपञ्च विस्मृति पूर्वक भगवदासक्ति के व्यापार द्वारा भक्त के देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण, प्राण, आत्मा सभी से सर्वत्र सर्वदा भगवान के स्वरूप या लीला का निरंतर अनुभव होना (मानसी सेवा) फलनिरोध है।

तदनुसार विष्णुदास की छींट पर श्रीमहाप्रभु का रीझना करणनिरोध था। विष्णुदास का “श्री आचार्यजी कहाँ हैं?” पूछना व्यापारनिरोध था। और सेवा के बिना ही विष्णुदास को इस ‘सेवाफल’ का फलनिरोध था।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्

जीवात्मा का वरण करणनिरोध है और परमात्मा द्वारा निजरूप का विवरण फलनिरोध है।

वार्ता में आता है कि “तब श्रीआचार्यजी श्रीयमुनाजी के तीर पधारे। विष्णुदास को न्हवाई नाम सुनाया और ब्रह्मसम्बन्ध कराया। विष्णुदास ने विनती की:

महाराज, मैं मूर्ख हूँ। कृपा करें कि श्रीभागवत आदि आपके ग्रंथों में कुछ ज्ञान हो और आपके मार्ग का सिद्धान्त समझा जाए।

तब श्रीआचार्यजी ‘सेवाफल’ ग्रन्थ करके विष्णुदास को सुनाया।

सो सुन कर विष्णुदास ने विनती की:

महाराज, ‘सेवाफल’ ग्रन्थ को सुनने से सारे शास्त्रपुराण का ज्ञान हो गया, परन्तु ‘सेवाफल’ ग्रन्थ का अभिप्राय समझने में असमर्थ हूँ।

तब श्रीआचार्यजी कहें:

ग्रन्थ ‘सेवाफल’ ऐसो ही कठिन है। भली प्रकार पूछो।

पाछे उन्होंने ‘सेवाफल’ की टीका करके सुनाई। तब सारा मार्ग का सिद्धान्त विष्णुदास के हृदय पर आसीन हुआ और वे मग्न हो गए। विष्णुदास वस्त्र छाप कर आगरा में बेचते और उसी से जीवन निर्वाह करते। और सारे दिन-रात मानसी सेवा में, श्रीआचार्यजी के ग्रन्थ श्री सुबोधिनीजी के भाव में, मग्न रहते।

सेवाको उद्वेगरहित बनाने के लिए चिंता त्याग की बात समझाई गई है। अन्तःकरण प्रबोध, विवेक धैर्य आश्रय और कृष्णाश्रय के माध्यम से इसी पुष्टिमार्गीय भगवत्सेवा में विघ्नरूप उद्वेग और प्रतिबंधों से बचने के उपाय बताए गए हैं।

चतुःश्लोकी में इस सेवा का पुष्टिमार्गीय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की पुरुषार्थ चतुष्टयी में क्या स्थान है यह दिखाया गया है। भक्तिवर्धिनी में इस सेवा के बीजभाव से लेकर व्यसन दशा तक होने वाले विकास की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है।

सेवा के अनवसर में चित्त के भगवत्प्रवण बने रहने में कोई व्यवधान न हो, इसके लिए जलभेद-पञ्चपद्यानि में भगवत कथा के श्रवण और कीर्तन का स्वरूप समझाया गया है। यह सेवा न निभती हो तो भोगासक्ति पर काबू पाने के लिए गृहत्याग कर देना चाहिए। यह गृहत्याग व्यसन दशा सिद्ध होने पर ही करना चाहिए, अन्यथा नहीं। सन्यास निर्णय में इस प्रकार की सावधानी बरतने की सलाह दी गई है।

निरोधलक्षण में इस सेवा को मानसी सेवा के रूप में विकसित करने के सहायक कारणों को परिभाषित किया गया है। अब सेवाफल में तनु-वित्तजा सेवा का फलित रूप फलनिरोध अर्थात् अलौकिक सामर्थ्य के रूप में दिखाया जा रहा है। यह परमात्मा के भूमारूप में सकल वृत्तियों का योजन है। इसे ‘सर्वात्मभाव’ भी कहा गया है।

समग्र षोडश ग्रंथों की एकवाक्यता या आधारशिला के समान केंद्रीय धारणा, पुष्टिप्रवाह मर्यादा ग्रंथ के—“भगवद्सेवार्थं तत्सृष्टिः नान्यथा भवेत्”—वचन में श्रीमहाप्रभु ने स्पष्ट कर दी है। अतः षोडश ग्रंथ के उपसंहाररूप सेवाफल में पुष्टिमार्गीय फल से भिन्न किसी फल का निरूपण स्वीकार करने पर या पुष्टिमार्ग में भी सेवा से भिन्न किसी कर्तव्य या अवस्था को पुरुषार्थ या फल रूप मानने पर, उपक्रम, उपसंहार आदि तात्पर्य निर्धारक अंशों में परस्पर विसंवाद उत्पन्न हो जाएगा।

अतः इस ग्रंथ के उपसंहार में श्रीमहाप्रभु आज्ञा करते हैं:

कुसृष्टिरत्र वा काचिदुत्पद्येत स वे भ्रमः

इस ग्रंथ में सेवाफल के रूप में वर्णित ‘अलौकिक सामर्थ्य’, ‘सायुज्य’ तथा “वैकुण्ठादिषु सेवोपयोगि देह” की अनेक व्याख्याएँ विभिन्न टीकाकारों द्वारा दी गई हैं।

  • ये तीनों फल पुष्टिसर्ग के तीन अवान्तर वर्ग—पुष्टि, मर्यादा पुष्टि तथा प्रवाह पुष्टि—की त्रिविध कक्षा के जीवों के फल हैं।
  • तनुनवत्व रूप अलौकिक सामर्थ्य भगवद्विरह की फलात्मिका अनुभूति है। सायुज्य भगवत्संयोग की फलात्मिका अनुभूति है। नवतनुत्त्व स्वरूप सेवोपयोगि देह उभय साधारण अधिकार कोटि का फल है।

यह मानसी सेवा परासेवा है, यह सिद्धान्तमुक्तावली में कहा गया था। मानसी सेवा की सिद्धि तनु-वित्तजा सेवा करने से होती है, यह भी वहीं कहा गया था। इस पुष्टिभक्तिरूपा सेवा के अधिकारी पुष्टिजीव ही होते हैं, सभी नहीं, यह पुष्टिप्रवाहमर्यादा में निरूपित किया गया है। सिद्धान्त रहस्य में पुष्टिजीवों को पुष्टिभक्तिरूपा सेवा में दीक्षित करने के लिए आत्मसमर्पण का प्रकार समझाया गया है। इससे भोगासक्ति पुष्टिभक्ति में बाधा पहुँचाने में असमर्थ हो जाती है।

नवरत्न में:

  • अलौकिक सामर्थ्य पुष्टिभक्ति का फल है तथा सायुज्य और सेवोपयोगि देह मर्यादा भक्ति के फल हैं।
  • अलौकिक सामर्थ्य, सायुज्य और सेवोपयोगि देह क्रमशः उत्तम, मध्यम तथा साधारण कोटि के फल हैं।
  • संयोगानुभूतिरूप सायुज्य परम फल है। वियोगानुभूतिरूप अलौकिक सामर्थ्य तथा सेवोपयोगि देह अधिकारसिद्धिरूप अवान्तर फल हैं।
  • अलौकिक सामर्थ्य और सायुज्य पुष्टिभक्ति के फल हैं तथा सेवोपयोगि देह मर्यादा भक्ति का फल है।
  • अलौकिक सामर्थ्य अति-अन्तरंग सेवा का फल है। अंतरंग सेवा के द्विविध सायुज्य रूप फल होते हैं: केवल आत्मना अनुभूयमान सायुज्य और अलौकिक, देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण आत्मना अनुभूयमान सायुज्य। सेवोपयोगि देह बहिरंग सेवा का फल है।
  • सर्वेन्द्रियों की भगवत्परता अलौकिक सामर्थ्य है। देहनाशक विगतभाव से अन्य स्फूर्तिहीन अवान्तर संयोग सायुज्य है। मानसी सेवा की सिद्धि होने पर, वैकुण्ठादि भगवद्धामों में जैसे देह होते हैं, वैसे सेवोपयोगि देह की सिद्धि होती है।

तृतीय फल ‘सर्वात्मभाव’, ‘व्यसनोत्तर-कृतार्थता’, ‘तनुनवत्व’ या मानसी सेवा, जो भी कहें, एक ही अवस्था के विभिन्न पहलुओं का निरूपण है। स्थूल दृष्टि से शब्दार्थ भिन्न-भिन्न हैं, परन्तु पदार्थ सर्वत्र एक ही है।

भागवत के दशम स्कन्ध का वर्ण्य विषय निरोध है। एकादश स्कन्ध का वर्ण्य विषय मुक्ति है। द्वादश स्कन्ध का वर्ण्य विषय आश्रय ब्रह्मभावापत्ति है। इस स्कन्धत्रयी के विषय क्रम तथा श्रीमहाप्रभु के वचन की एकवाक्यता को दृष्टिगत करने पर यहाँ सेवाफल ग्रन्थ में वर्णित फलत्रय का रूप स्पष्टतया निर्धारित हो जाता है। सुबो. (३.२५.४०):

एवं भेदत्रयं निरूपितं सायुज्यं वैकुण्ठः जीवन्मुक्तिश्चेति

अलौकिक सामर्थ्य फलनिरोध है, जो इस भूतल पर घटित होने वाली भक्तों की जीवन्मुक्ति की तरह है, जैसा दशम स्कन्ध के भक्तों के जैसी भगवदनुभूति का एक अलौकिक प्रकार है। सायुज्य परमात्मा में लय है, विदेहमुक्ति की तरह, जो एकादश स्कन्ध का वर्ण्य विषय है। वैकुण्ठादिषु सेवोपयोगि देह आश्रय-ब्रह्मभावापत्ति है, वैकुण्ठादि दिव्य भगवद्धामों में दिव्य देह प्राप्त करके पुनः भगवद्भजन के सुअवसर की प्राप्ति है, जो भागवत के द्वादश स्कन्ध का वर्ण्य विषय है।

इस प्रकार तीनों की एकवाक्यता निर्धारित हो जाने पर निरोधलक्षण ग्रन्थ के बाद सेवाफल ग्रन्थ की क्रमसंगति भी स्पष्ट हो जाती है। निरोध की साधनावस्था का निरूपण निरोधलक्षण में अभिलषित है तथा निरोध की फलावस्था का निरूपण यहाँ सेवाफल में। जैसे सेवा की साधनावस्था सिद्धान्तमुक्तावली तथा सिद्धान्त रहस्य में विवक्षित है और सेवा की फलावस्था यहाँ सेवाफल में।

विभिन्न व्याख्याकारों के इस फलविचार के बारे में इतने अधिक मतभेद का कारण एक मधुर कलह है—पुष्टिभक्ति में भगवान की संयोगानुभूति परम फल है या विरहानुभूति। इस प्रश्न का उत्तर देते समय विभिन्न व्याख्याकार अपनी-अपनी भावरुचि के विवश उलझ जाते हैं। अतः सेवाफल ग्रन्थ के अध्ययन से पूर्व एतद्विषयक श्रीमहाप्रभु-श्रीप्रभुचरण के मन्तव्यों का अध्ययन उपकारक होगा।

तैत्तिरीयोपनिषद में ब्रह्म को ‘आनन्दमय’ (२५) और ‘आनन्द’ (३१६) कहा गया है। इसी प्रकार (२१७) में ब्रह्म को ‘रस’ भी कहा गया है—“रसो वे सः”। ब्रह्मसत्र के “आनन्दमयोभ्यासात” सत्र में दो बातें स्थापित की गई हैं।

‘आनन्द’ पद के साथ ‘मय (ट्)’ प्रत्यय प्रचुरता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अतः ‘आनन्दमय’ का अर्थ प्रचुर आनंदरूप है। ‘आनन्दमय’ शब्द परमात्मा का वाचक है।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं:

  • क्या ‘आनन्द’ और ‘आनन्दमय’ शब्द पर्यायवाची होने पर भी अर्थछाया के आधार पर भिन्नता रखते हैं?
  • भिन्नता होने पर ब्रह्म के किन्हीं दो रूपों का निरूपण करते हैं या नहीं?

तदनुसार श्रीहरिरायचरण की धारणा है कि बाह्य प्रकट परमात्मा का रूप, जो भक्त के स्नेहमय स्थायी भाव का ही आलम्बन विभाव के रूप में हृदय के बाहर प्रकट होता है, उसे धर्मसहित धर्मी माना जाना चाहिए। इसके विपरीत, भक्त के हृदय में प्रकट स्थायी भाव, जिसकी स्पष्ट अनुभूति विरह दशा में ही संभव है, उसे केवल धर्मी मानना चाहिए। “एतावान्परं विशेषो यद् बहिःप्रकटं रूपं रसधर्मसहितम् ‘आनन्दमय’ शब्देनोच्यते, धर्मिमात्र केवल भाव रूपम् ‘आनन्द’ शब्देन इति” (प्रभुप्रादुर्भाव विचार)। अतः केवल धर्मी को उपनिषद में ‘रस’ कहा गया है।

श्रीहरिरायचरण के अनुसार, ‘आनन्द’ और ‘रस’ पर्यायवाची शब्द हैं, और ‘आनन्दमय’ का अर्थ होता है—रसधर्म, आलम्बनविभावहित स्थायिभाव। ‘आनन्दमय’ और ‘रस’ पर्यायवाची नहीं हैं। परन्तु अणुभाष्य में भाष्यकार कुछ भिन्न प्रकार का दृष्टिकोण दिखलाते हैं, अणु भा. (३.३.१५):

अग्रे ‘रसो वै सः’ इति वक्ष्यमाणत्वात् तस्य च स्थायिभावात्मकत्वात् तस्येव आनन्दमयत्वाच्च।

यहाँ ‘आनन्दमय’ और ‘रस’ को पर्यायवाची माना गया है।

ब्रह्म को आनन्दरूप माना गया है—“आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्”। ब्रह्म अपरिच्छिन्न, अनन्त और पूर्ण आनन्द है। परन्तु भक्त के हृदय में जब परमात्मा के प्रति प्रीति प्रकट होती है, तो उस अनुभव का सुख ब्रह्म की केवल तत्त्वानुभूति से कहीं अधिक पूर्ण और प्रचुर होने के कारण ‘आनन्दमय’ कहलाता है।

अतः भाष्यकार के मत में ‘रस’ का पर्यायवाची शब्द ‘आनन्दमय’ है। तैत्तिरीयोपनिषद (२५) में विज्ञानमय कोश के भीतर आनन्दमय की उपस्थिति दिखलाई गई है। इस आनन्दमय की आत्मा ‘आनन्द’ है। यह ‘आनन्द आत्मा’ के रूप में वहाँ वर्णित किया गया है।

ऐसी स्थिति में यह विचार करना आवश्यक है कि आनन्द को धर्मी मानें या आनन्दमय को। यदि आनन्द को धर्मी मानते हैं, तो आनन्दमय धर्म बनेगा, और यदि आनन्द को धर्म मानते हैं, तो आनन्दमय को धर्मी मानना पड़ेगा। रसशास्त्र के अनुसार प्रेम को धर्मी और प्रियतम आदि को धर्म माना जाता है। चूंकि रसशास्त्र भावों का विवेचन करता है और प्रेम एक भाव है, अतः अपने परिभाषित अर्थ में प्रियतम रसशास्त्र के लिए धर्म बन जाता है। प्रियतम के स्वरूप, गुणधर्म या विभिन्न प्रकारों का विवेचन, रसशास्त्र के लिए प्रेम के जनक और प्रेम के आलम्बन विषय के रूप में अपेक्षित है, न कि स्वतंत्र रूप से।

भागवत में भगवान से भिन्न किसी लौकिक चरित्र के रसात्मक वर्णन का कोई स्थान नहीं है। उसी प्रकार, ब्रह्म के शुष्क तात्त्विक विवेचन हेतु भी भागवत का प्रस्तुतीकरण नहीं हुआ है। भागवत भगवान के रसात्मक रूप एवं उनकी लीलाओं के वर्णन हेतु रचित है। इसलिए, कभी रसशास्त्रीय परिभाषाओं के सहारे भगवान के स्वरूप एवं लीला का वर्णन किया जाता है, तो कभी ब्रह्मशास्त्रीय परिभाषाओं के माध्यम से।

कभी भक्तों की भक्ति को भगवान के अङ्ग के रूप में वर्णित किया जाता है, तो कभी भगवल्लीलाओं के अङ्ग के रूप में भक्तों और उनकी भक्ति का चित्रण किया जाता है। कभी भक्ति को धर्मी मानकर तदङ्गभूत भगवान का धर्म के रूप में वर्णन होता है (यह रसशास्त्रीय विवेचन शैली है) और कभी भगवान को धर्मी मानकर उनकी लीला के अङ्गभूत भक्ति और भक्तों का धर्म रूप में निरूपण होता है (यह ब्रह्मशास्त्रीय विवेचन शैली है)।

इनमें से किसी एक प्रकार की परिभाषा के अनुसार विवेचना का आग्रह सरस हो सकता है, लेकिन सर्वांगीण नहीं। इस कारण विविध दृष्टिकोण को समाहित करने वाली विधा अधिक उपयुक्त प्रतीत होती है।

अतएव भागवत के अनुसार भगवान के रसात्मक रूप के निरूपण में दोनों वर्णन शैलियों का यथासंभव उपयोग उपयुक्त है। भक्तों के प्रियतम भगवान को कभी ‘धर्मी’ कहा जाता है, और उनके स्वरूप, गुण एवं लीला के आकर्षण से उत्पन्न होती प्रीति को ‘धर्म’।

सुबोधिनी (१.१९.१६) में श्रीमहाप्रभु ने यह समझाया है कि

स्नेह एक विलक्षण पदार्थ है। स्नेह का आधार और विषय दोनों ही भगवान होते हैं। जैसे-जैसे कोई भगवान के निकट पहुँचता जाता है, वैसे-वैसे भगवान के ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणों का संक्रामण भासित होने लगता है, जैसे अग्नि के निकट स्थित वस्तुओं में उष्णता संक्रांत होती है। इसी प्रकार, जैसे-जैसे हमारी निकटता भगवान के साथ बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे भगवद्धर्म रूपी प्रीति भी हमारे भीतर प्रकट होती जाती है।

प्रीति भगवान का आत्मरतिरूप धर्म है, लेकिन भगवान के निकट होने पर वह भक्तों के भीतर भी प्रकट होती है। इसीलिए श्रीमहाप्रभु कहते हैं—“प्रीतिस्तु भगवद्धर्मः” (सुबोधिनी २।२।७)। यह ब्रह्मशास्त्रीय विवेचन शैली है।

प्रेम, प्रियतम के कारण प्रेमी के हृदय में प्रकट होता है। प्रेम के अति गाढ़ होने पर, प्रियतम की अनुपस्थिति में भी आसक्ति भ्रम न्याय से, उस प्रेम के कारण प्रियतम कभी-कभी प्रकट हो सकता है। प्रियतम से प्रकट होने के रूप में प्रेम को धर्म और प्रियतम को धर्मी माना जाता है। लेकिन प्रगाढ़ अवस्था में प्रेम के कारण प्रियतम के प्रकट होने पर, प्रेम को धर्मी और प्रियतम को धर्म माना जाता है। अतः प्रेम और प्रियतम का भेद बड़ा लचीला है।

अणु भा. (१।१।११):

विरहभावे… तु ज्ञानादि सर्वतिरोधानेन अग्रिम रसानुभवो न भविष्यतीति स्वयमेव (आलम्बन विभाव एव) तदनुभवात्मक भवतीति ज्ञापनाय विज्ञानरूपत्वं उच्यते तदनुभवविषयः आनन्दमयः इति तत्स्वरूपं उच्यते। तत्र निरुपधि प्रीतिरेव मुख्य नान्यदिति ज्ञापनाय प्रियस्य प्रधानाङ्गत्वं उच्यते स्थायिभाव स्वयंकरूपत्वादात्मत्वं उच्यते। यतः ततः (स्थायिभावादेव) विभावादिः विविध भावोत्पत्तिः।

प्रेम जब प्रगाढ़ बनकर प्रियतम के रूप में बाहर प्रकट होता है तो बाह्य प्रकट रूप को ‘आनन्दमय’ कहा जाता है और अंतःस्थित प्रेम को ‘आनन्द’। अन्यथा, प्रियतम भगवान आनन्द हैं और भगवत्प्रेम आनन्दमय।

अणुभाष्य (३.३.१०) में यह बताया गया है कि जैसे तंतुओं के आपसी आतान-वितान से बना हुआ पट (कपड़ा) तंतुओं से अलग नहीं होता, उसी प्रकार आलम्बन विभाव (स्वयं भगवान), उद्दीपन विभाव (जैसे वेणुनाद), अनुभाव (जैसे भूभृङ्गादि), और संचारी भाव (जैसे मान या दैन्य) के परस्पर संयोग से जो स्थायिभाव (भगवत्प्रीति) प्रकट होता है, वह स्वयं भगवान से भिन्न नहीं होता। अतः आनन्द और आनन्दमय का भेद वस्तुगत न होकर विवक्षागत होता है।

अवतारकाल में भगवान अपनी लीलाओं के माध्यम से भक्तों के हृदय में अनेक प्रकार के स्नेह प्रकट करते हैं। ऐसे भक्त, जब भगवद्विरह की अवस्था में भगवान के गुणगान में तल्लीन हो जाते हैं, तो हृदय में स्थित स्नेह, भगवत विषयक विभिन्न मनोरथों के सांचे में ढलकर, स्वयं भगवान एवं उनकी लीलाओं का रूप धारण कर लेता है। अनवतारकाल में भी यही स्नेह सेवावार्ता के माध्यम से हृदय में प्रकट होता है। यह स्नेह भगवद्कथा के श्रवण और कीर्तन के समय भक्त के हृदय में भगवद्स्वरूपानुभूति का रूप धारण कर लेता है।

सुबोधिनी के तामसप्रमेय प्रकरण में इसी प्रकार भगवान के स्वरूप को ‘नटवरवपु’ कहा गया है:

रसानुभूति के दो प्रकार हो सकते हैं। पहला प्रकार वह है, जहाँ प्रेम (स्थायिभावधर्मी) और प्रियतम (आलम्बन विभाव धर्म) दोनों की अनुभूति होती है। दूसरा प्रकार वह है, जब प्रियतम (आलम्बन विभाव धर्म) उपस्थित न हो, पर प्रेम (स्थायिभाव धर्मी) की अनुभूति हो रही हो। नाट्य में, दूसरे प्रकार में केवल रति या प्रेम की वास्तविक अनुभूति होती है। प्रियतम-आलम्बन विभाव का तो केवल नाटन (अभिनय) होता है, उसकी साक्षात उपस्थिति नहीं होती।

संयोगलीला में आलम्बन विभाव (प्रियतम रूप भगवान) और स्थायिभाव (भगवत्प्रीति) दोनों उपस्थित होते हैं। बाह्य रूप में आलम्बन विभावरूप भगवान नेत्रों के समक्ष प्रकट होते हैं और हृदय में स्थायिभावरूप भगवद्रति स्थित होती है। अतः संयोगलीला वर के समान सजीव अनुभव प्रदान करती है। दूसरी ओर, विप्रयोगलीला में गहन स्नेह के कारण ‘आसक्ति भ्रम’ की तरह अनुभवित भगवदुपस्थिति ‘नट’ की भांति केवल अभिनय मात्र प्रतीत होती है।

इसीलिए, नटवत् (नट के समान) और वरवत् (वर के समान) लीला करने वाले भगवान को ‘नटवरवपु’ कहा जाता है। शृंगाररस के अनुसार, प्रत्यग्र साक्षात सम्भोग वर के कार्य की तरह है, और नाट्य में सम्भोग का नाटन नट (अभिनेता) का कार्य है। भगवान एक साथ दोनों प्रकार के कार्य पूर्ण करते हैं—बाह्य प्रकट स्वरूप में रस प्रदान करते हैं और हृदय में तीव्र आसक्ति के कारण अनुभूत रसाभिनय भी करते हैं।

सुबोधिनी (१०.१२.५) के अनुसार, ज्ञानियों द्वारा उपासनार्थ कल्पित रूप हृदय में अनुभव सुख प्रदान कर सकता है, किंतु भक्तों के लिए भगवान उनके द्वारा भावित रूप को धारण कर बाह्य रूप से भी प्रकट होते हैं और यह प्रकट रूप सभी इन्द्रियों से अनुभूत होने का दिव्य सुख भक्तों को प्रदान करता है। इस बाह्य प्रकट भावित रूप को मायिक या केवल कल्पना मात्र नहीं समझा जा सकता, न ही इसे देह-देही भाव न्याय से परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को आवृत करने वाला भिन्न रूप माना जा सकता है। यह भावित-बाह्य प्रकट रूप उतना ही पारमार्थिक होता है जितना कि स्वयं परमात्मा।

इस संदर्भ में, रसशास्त्रीय दृष्टिकोण के आधार पर भगवान को धर्म के रूप में निरूपित किया गया है। फिर भी, ध्यान देने योग्य यह है कि वृन्दावन में भगवान ने प्रत्यग्र भोक्ता के रूप में, और व्रज की गोपिकाओं के हृदय में वृन्दावन की आन्तरिक लीला-अनुभूति के दान द्वारा, अपने उभयविध (नटवत् और वरवत्) रूप को एककालावच्छेदेन प्रकट किया है।

यदि भगवान बाह्य रूप से स्वयं को प्रकट न करें, तो ज्ञानियों और भक्तों के आनंद में कोई विशेष अंतर न रहेगा। परंतु भक्तों के लिए भगवान का केवल हृदय में अनुभूत होना एक प्रकार से दुःख का कारण बन जाता है। सुबोधिनी टिप्प. (१०.१८.५):

हृद्येव प्राकट्ये तु मनोमात्रभोग्यत्वम्। बहिः प्राकट्ये सर्वेन्द्रियभोग्यत्वम् एवं सति चक्षुराद्यविषयत्वे प्रियपदार्थस्य मनोमात्रविषयत्वं दुःखदमित्यनुभवसिद्धम्।

अतः भक्तों के लिए भगवान का बाह्य प्राकट्य आवश्यक और विशेष सुख प्रदान करने वाला होता है।

यदि ‘आनन्द’ को स्थायिभावात्मक आत्मस्थानीय धर्मी माना जाए, तो बाह्य प्रकट आनन्दमय स्वरूप, अर्थात् आलम्बन विभाव रूप वपु, उस स्थायिभाव से भिन्न नहीं होता। इसी प्रकार, यदि ‘आनन्द’ को आलम्बन विभाव रूप धर्म माना जाए, तो भी प्रत्यग्र भोक्ता ‘वर’ के रूप में केवल-रस रूप आनन्दमय धर्मी ‘नट’ रूप भगवान से भिन्न नहीं होते। “यत्रेकाग्रता तत्राविशेषात्” (४.१.११) ब्रह्मसूत्र के भाष्य में कहा गया है कि:

जिन भक्तों को आन्तरिक भगवदनुभूति होती है या जिन भक्तों को बाह्य भगवदनुभूति होती है, उनके भाव या अनुभूत भगवत्स्वरूप में किसी प्रकार का अंतर नहीं होता।

आन्तर-संयोग में भक्त के हृदय स्थित भाव भगवदाकार ग्रहण कर लेता है, और बाह्य संयोग में भगवान भक्त के हृदय में भावाकार ग्रहण करते हैं। दोनों स्थितियों में समानता होती है। पुरुषोत्तम की अनुभूति से पहले अनिवार्य सर्वात्मभाव, वियोग की तरह संयोग में भी स्वीकार किया गया है।

वेणुगीत की सुबोधिनी में सकल इन्द्रियों के भगवान में विनियोग को सर्वात्मभाव कहा गया है। वाणी से भगवान के साथ संवाद, नेत्रों से दर्शन, बाहुओं से आलिंगन, हाथों से सेवा, त्वचा से स्पर्श, रसना से अधरामृतपान, कानों से वेणुकूजन का श्रवण, नासिका से भगवद्गंध का आस्वादन, चरणों से भगवान के निकट गमन, अंतःकरण से भगवत्स्वरूप की भावना, और पायूपस्थ इन्द्रियों से रोमोद्गम व भोग को, वेणुगीत में, इन्द्रियवानों का परमफल माना गया है।

सकल इन्द्रियों के भगवान में ऐसे विनियोग की तुलना में, मुक्ति तो भक्तों को सर्वविध सम्पूर्ण निष्फलता ही प्रतीत होती है। जैसे किसी नयनवान को सदा-सर्वदा के लिए अंधकूप में धकेल देना या उसे नयनों से वंचित कर देना, दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं होता। जागतिक विषयों में अनुराग समाप्त होने पर और सर्वात्मभाव से सम्पन्न होने पर, भक्त को सकल इन्द्रियों द्वारा भगवत्स्वरूपानन्द की अनुभूति प्राप्त होती है, वेणुगीत सुबोधिनी, कारिका:

बान्धकानां परित्यागे साधकानां न तद् भवेत्।

इन कारिकाओं में संयोगकालीन सर्वात्मभाव का वर्णन है।

श्रीप्रभुचरण द्वारा उल्लिखित ‘बाधक’ का अर्थ प्रापञ्चिक विषयों में अनुराग है और ‘साधक’ का अर्थ सर्वात्मभावपूर्वक भजन है। सर्वभाव सिद्ध होने पर ही भक्त सायुज्य मुक्ति (भगवान में लीनता) से बच सकता है।

प्रस्तुत सेवाफल विवरण में विवक्षित प्रथम फल ‘अलौकिक सामर्थ्य’ के सिद्ध होने पर ही भक्त द्वितीय फल ‘सायुज्य’ से बच सकता है। तृतीय स्कन्ध की सुबोधिनी के विचारों से एकवाक्यता करने पर, सायुज्य के पश्चात नूतन अलौकिक देह की प्राप्ति को भी एक प्रकार से मान्य किया गया है।

इस प्रकार, अलौकिक सामर्थ्य के पश्चात सीधे सेवोपयोगि देह की प्राप्ति, अथवा सायुज्य के उपरांत सेवोपयोगि देह की प्राप्ति, या केवल सायुज्य की अनुभूति—फलानुभूति के अनेक प्रकार संभव हैं। परन्तु यह निश्चित है कि इन्द्रियवानों का मुख्य फल तो सर्वात्मभाव या अलौकिक सामर्थ्य ही है। अन्यथा, तृतीय स्कन्ध (३.२५.३६) के

हृतात्मनो हृतप्राणांश्च भक्तिरनिच्छतो गतिमण्वी प्रयक्ते

वचन में निरूपित गौण फल रूप सायुज्य प्राप्त होता है। इन्द्रियादि से रहित होकर भगवान के दर्शन, स्पर्श, श्रवण आदि के सुख से वंचित होना, इन्द्रियवान भक्तों के लिए एक विडम्बना है।

भ्रमरगीत के “सर्वात्मभावोधिकृतो भवतीनामधोक्षजे” (श्रीमद्भागवतम १०.४७.२७) वचन में विप्रयोगकालीन सर्वात्मभाव का उल्लेख है, जबकि वेणुगीत में संयोगकालीन सर्वात्मभाव का वर्णन किया गया है। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि रसशास्त्रीय दृष्टि से करुणविप्रयोग और शृङ्गारविप्रयोग में एक प्रमुख अंतर यह है कि जहाँ पुनर्मिलन निश्चित हो, वहाँ विप्रयोग को शृङ्गाररसात्मक माना जाता है। परन्तु जहाँ पुनर्मिलन असंभव हो या केवल जन्मांतर में संभव हो, वहाँ यह विप्रयोग शृङ्गाररस न रहकर करुणरस बन जाता है।

साहित्यदर्पण (३।१२०९) में कहा गया है:

युनोरेकतरस्मिन् गतवति लोकान्तरं पुनरलभ्ये विमनायते यदैकस्तदा भवेत्करुणविप्रलम्भाख्यः।

और (३।२२६) में कहा गया है:

शोकस्थायितया भिन्नो विप्रलम्भादयं रसः विप्रलम्भे रतिः स्थायी पुन: सम्भोगहेतुकः।

परम फल संयोग को मानना चाहिए या विप्रयोग को, इस विवाद में अतिवादी दृष्टिकोण अपनाने पर, या तो अधूरे शृङ्गार की महत्ता स्वीकारनी पड़ती है, या फिर शृङ्गारविप्रयोग और करुणविप्रयोग के मौलिक भेद को अनदेखा करना पड़ता है। रसशास्त्र में यह माना गया है कि विप्रयोग के बिना संयोगानुभूति में वह चमत्कृति नहीं आ सकती। अतः पूर्वराग, मान, या प्रवास जनित विप्रयोग को ही विशेष चमत्कृति के लिए महत्वपूर्ण माना गया है:

न विना विप्रलम्भेन सम्भोगः पुष्टिमश्रुते कषायिते हि वस्त्रादौ भूयान् रागो विवर्धते।

श्रीमहाप्रभु भी इसी प्रकार “बाह्याभावे तु आन्तरस्य व्यर्थता” का विधान करते हैं और साथ ही “आन्तरं तु परं फलम्” को भी स्वीकार करते हैं। श्रीप्रभुचरण ने भी स्पष्ट किया है, अणु. (४.२.१):

स रसस्तु संयोगविप्रयोगाभ्यामेव पूर्णो भवत्यनुभूतो नैकतरेण।

केवल विप्रयोग या केवल संयोग को परम फल मानना भगवान के ‘नटवरवपु’ रूप की अस्वीकृति है। विप्रयोग में भक्त के हृदय में भगवान की आन्तर अनुभूति होती है (नटवत), और संयोग में भक्त के नेत्रों एवं अन्य इन्द्रियों के माध्यम से भगवान की बाह्य अनुभूति होती है (वरवत)।

श्रीमहाप्रभु न केवल नटवत् या वरवत् रूप को फल मानते हैं, बल्कि ‘नटवरवपु’ के रूप में भगवान को “इदमेवेन्द्रियवता फलम्” के रूप में स्वीकार करते हैं। यह दृष्टिकोण संयोग और विप्रयोग दोनों को पूर्णता प्रदान करता है।

लोकिक शृङ्गार में, विप्रयोगकालीन आन्तर संयोग की अनुभूति को आसक्तिवश उत्पन्न भ्रान्ति ही माना जाता है, क्योंकि नायक अथवा नायिका की अनुपस्थिति में उनकी अनुभूति वास्तविक नहीं हो सकती। परन्तु, परमात्मा, जो सर्वव्यापी और सनातन हैं, के संदर्भ में अनुपस्थित होने की कल्पना करना अकल्पनीय है। चाहे उनकी अनुभूति हो या न हो, परन्तु भगवान तो हृदय में और हृदय के बाहर सर्वत्र और सर्वदा विद्यमान हैं।

अतः, भगवदनुभूति पर भ्रान्ति की परिभाषा लागू नहीं हो पाती। भक्तिके दो प्रमुख घटक तत्त्व माने गए हैं:

  • माहात्म्यज्ञान और दूसरा
  • सुदृढ़ सर्वतोधिक स्नेह।

यह माहात्म्य भगवान का ही हो सकता है, क्योंकि वे बाह्य रूप से अप्रकट होने पर भी भक्त के हृदय में भावात्मना प्रविष्ट होकर भक्त को करुणरस में परिवर्तित होने से बचाते हैं।

इसी प्रकार, सुदृढ़ सर्वतोधिक स्नेह में भी यह सामर्थ्य स्वीकारा जाता है कि भगवान, इस स्नेह के वशीभूत होकर, भक्त के मनोरथों के अनुरूप बाह्य रूप से प्रकट होते हैं। इस विचार के माध्यम से भगवान की सन्निधि और भक्त की भावनात्मक पूर्णता को स्पष्ट किया गया है।

इस विषय में श्रीप्रभुचरण की यह उक्ति अत्यंत विचारणीय है कि—“भगवद्विरह का सर्वसाधारण भाव होने के बावजूद, जिनके हृदय में स्थायिभावात्मक रसस्वरूप भगवान का प्रादुर्भाव होता है, उन्हीं को तदप्राप्ति से उत्पन्न ताप होता है, और तत्पश्चात, नियमतः भगवान की प्राप्ति होती है” (अणु। ४।२।११)।

भक्तिवर्धिनी में भक्ति की चार अवस्थाओं का वर्णन किया गया है:

  • बीजभाव,
  • प्रेम,
  • आसक्ति,
  • व्यसन।

वहीं ‘भावेरङ्कुरित’ कारिका और उसके व्याख्यान में व्रजभक्तों में प्रकट सुदृढ़ सर्वतोधिक भगवद्भक्ति, जो बिना किसी माहात्म्यज्ञान के ही अवतारकालीन स्थिति में प्रकट हुई, की चार अवस्थाओं के स्थान पर सात अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। श्रीप्रभुचरण तथा श्रीहरिरायजी ने इन अवस्थाओं को इस प्रकार प्रस्तुत किया है:

  • भाव,
  • प्रेम,
  • प्रणय,
  • स्नेह,
  • राग,
  • अनुराग,
  • व्यसन।

श्रीमत्प्रभुचरण—

भावेरङ्कुरितं महीमृगदृशामाकल्पमासिञ्चितम्
प्रेम्णा कन्दलित मनोरथमयैः शाखाशतेः सम्भृतम्।
लोल्येः पल्लवित मुदा कुसुमित प्रत्याशया पुष्पितम्
लीलाभिः फलितं भजे व्रजवनीशृङ्गारकल्पद्रुमम्।।

श्रीहरिरायचरण—

भावः प्रेमप्रणयः स्नेहो रागानुरागव्यसनानि।
अङ्कुरकन्दलशाखापल्लवकलिकाप्रसूनफलानीति।।

इस क्रम में भक्ति का बीजभाव अङ्कुर के समान है, प्रेम कन्दल के समान, प्रणय शाखा के समान, स्नेह पल्लव के समान, राग कली के समान, अनुराग पुष्प के समान और व्यसन फल के समान है। यह भक्ति वृक्ष व्रज के रसात्मक स्वरूप को सजीव रूप में प्रस्तुत करता है।

यह विवेचन रसशास्त्र और भगवतशास्त्र के समन्वय पर आधारित भक्तिशास्त्रीय दृष्टिकोण है। अन्यथा, यदि केवल रसशास्त्र की बात करें, तो रति की दस अवस्थाएँ इस प्रकार मानी गई हैं:

  • चतुराग,
  • मनःसङ्ग,
  • सङ्कल्प,
  • जागर,
  • तनुता,
  • विषयद्वेष,
  • लज्जात्याग,
  • उन्माद,
  • मूर्छा,
  • मरण।

इस प्रकार, रसशास्त्र भावों के क्रमिक विकास और उनकी गहराई का विश्लेषण करता है, जबकि भगवतशास्त्र इस विवेचना में आध्यात्मिक चेतना और भगवद्भक्ति के तत्वों को समाहित करता है। इस समन्वय से भक्ति की एक व्यापक और संवेदनशील व्याख्या प्रस्तुत की जाती है।

इन्हें भक्तिवर्धिनी में वर्णित चार अवस्थाओं में विभाजित करके इस प्रकार समझा जा सकता है:

  • बीजभाव

    • चक्षूराग
    • मनःसङ्ग
    • सङ्कल्प
  • प्रेम

    • जागर
    • तनुता
  • आसक्ति

    • विषयद्वेष
    • लज्जात्याग
  • व्यसन

    • उन्माद
    • मूर्छा
    • मरण

इस प्रकार, भक्तिवर्धिनी में वर्णित भक्ति के चार चरणों को रसशास्त्र की दस अवस्थाओं के संदर्भ में संयोजित किया जा सकता है। यह दृष्टिकोण भक्ति के विकास क्रम और उसके भावों की गहराई को स्पष्ट करता है।

व्यसन अवस्था में उन्माद और मूर्छा तक बाह्य या आंतरिक संयोग की अनुभूति संभव है। अतः इन्हें निरोधलीला का अंग माना जा सकता है। जब निरोध भगवत्स्वरूप और भगवद्गुण दोनों से प्रेरित होता है, तो यह फलात्मक बनकर अंग रूप में स्वीकार किया जाता है। अन्यथा, केवल भगवद्गुणकृत निरोध को एकादश-द्वादश स्कन्ध में वर्णित मुक्तिलीला और आश्रय भावापत्ति की लीला का अंग मानकर ‘साधनकृत्स्नता’ का रूप दिया गया है।

मुक्ति या आश्रय लीलाओं के अंगरूप निरोध की व्यसन अवस्था में स्नेह की दसवीं अवस्था, मरण, संभव हो जाती है। भक्त इस भौतिक देह को त्यागकर या तो भगवान में लीन हो जाता है या नूतन अभौतिक सच्चिदानन्दात्मक दिव्य देह प्राप्त कर, व्यापिवैकुण्ठ की नित्यलीलाओं में सम्मिलित होता है। इस संबंध में अणुभाष्य (४.४.५) में कहा गया है:

ब्राह्मण ब्रह्मसम्बन्धिना ब्रह्मणा भगवतेव स्वभोगानुरूपतया सम्पादितेन सत्यज्ञानानन्दात्मकेन शरीरेण पूर्वोक्तान् अश्नुते।

इस दिव्य देहान्तर से प्राप्त पुनः संयोग को भगवद्भक्ति शास्त्र की दृष्टि से मुक्ति के रूप में महत्वपूर्ण माना गया है। किन्तु रसशास्त्र की दृष्टि से, यह देहान्तरलभ्य संयोग शृङ्गाररस की मर्यादा से बहिर्भूत या विपरीत है।

अतः भक्तिशास्त्र में इस प्रकार के संयोग की फलरूपता गौण मानी गई है। पुष्टिप्रवाहमर्यादा:

भगवानेव हि फल स यथाविर्भवेद् भुवि

इस वचन में भगवान को भूतल पर ही आविर्भूत करके पुष्टिफल के रूप में देखा गया है। इसी प्रकार, मुक्ति या आश्रय लीलाओं की ओर हठात् ले जाने वाली भक्ति का वर्णन स्वयं भगवान ने इन शब्दों में किया—“अनिच्छतो गतिमण्वी प्रयुक्त।” भ्रमरगीत पर टिप्पणी में श्रीप्रभुचरण ऐसी भगवदलीलाओं को “अस्मदधिकारविरुद्धा” कहते हैं।

  • अलौकिक सामर्थ्य, जो सर्वात्मभाव रूप है, संयोग और वियोग दोनों अवस्थाओं में फलनिरोध स्वरूप है। इसे ‘तनुनवत्व’ या ‘मानसी सेवा’ भी कहा जाता है। पुष्टिभक्तों के लिए यह जीवन्मुक्ति के समान अनुभूति प्रदान करता है।
  • सायुज्य विदेहमुक्ति का प्रतीक है, जिसमें जीव पुरुषोत्तम में लीन हो जाता है।
  • वैकुण्ठ आदि लोकों में सेवोपयोगी देह की प्राप्ति ‘नवतनुत्व’ कहलाती है। इसे ‘ब्रह्मभावापत्ति’ या ‘आश्रयभावापत्ति’ भी कहा जाता है।

समग्र षोडश ग्रन्थों में प्रस्तुत सेवाफल ग्रन्थ, श्रीमहाप्रभु के स्वयंकृत विवरण के बावजूद, अति क्लिष्ट और सूत्रात्मक भाषा में लिखा गया है। छन्दशास्त्र की दृष्टि से इस ग्रन्थ में साढ़े सात कारिकाएँ हैं। परन्तु, वाक्यार्थबोध की दृष्टि से इसमें पन्द्रह सूत्रात्मक वाक्य दृष्टिगोचर होते हैं।

पाणिनि सूत्रों की भांति, इसमें भी यह नियम लागू होता है कि—“सूत्रेष्वदृष्टं पदं सूत्रान्तरादनुवर्तनीयं सर्वत्र।” तदनुसार, इन वाक्यों को पृथक-पृथक करके देखने का प्रयास करना आवश्यक है। इसमें दो-तीन मार्गदर्शक तत्वों को आधार मानना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, यदि पूर्ववाक्य के किसी अंश से उत्तरवाक्य पूर्ण होता हो, तो उसे स्पष्ट कर लेना चाहिए।

सेवाफल विवरण में, श्रीमहाप्रभु द्वारा स्वयं जिस अस्पष्ट शब्द का जो अर्थ दिया गया हो, उसे कोष्ठक में रखकर सुस्पष्ट रूप से व्यक्त करना चाहिए। कभी-कभी, साकाङ्क्ष पदों की आकाङ्क्षा पूर्ति के लिए, कोष्ठक में सम्बन्ध घटक सर्वनाम आदि पदों का समुचित विन्यास करना भी आवश्यक हो सकता है।

तदनुसार, प्रथम वाक्य एकदम स्पष्ट रूप से मिल जाता है और इसी दृष्टिकोण को समग्र विवेचन में अपनाना चाहिए।

(१) यादृशी सेवना प्रोक्ता तत्सिद्धौ फलमुच्यतेः

सिद्धान्तमुक्तावली में, भगवान की सेवा के स्वरूप को इस प्रकार व्याख्यायित किया गया है:

कृष्णसेवा सदा कार्या मानसी सा परा मता, चेतस्तत्प्रवणं सेवा तत्सिद्ध्यं तनुवित्तजा।

इस वचन में मानसी सेवा को परा सेवा कहा गया है, और सेवा की सिद्धि तनुवित्तजा सेवा के माध्यम से प्राप्त होती है।

चतुःश्लोकी में इस सेवा का धर्म और उसका महत्व इस प्रकार व्यक्त किया गया है: “सर्वदासर्वभावेन भजनीयो व्रजाधिपः स्वस्यायमेव धर्मो हि नान्यः क्त्रापि कदाचन।” यहाँ भगवान को सर्वदासर्वभाव से भजने का आदेश दिया गया है और इसे स्वयं भक्त का धर्म माना गया है।

भक्तिवर्धिनी में सेवा के प्रारंभिक स्वरूप को इस प्रकार समझाया गया है: “बीजदायंप्रकारस्तु गृहे स्थित्वा स्वधर्मतः अव्यावृत्तो भजेत्कृष्णं पूजया श्रवणादिभिः।” यहाँ सेवा के बीजभाव स्वरूप को वर्णित किया गया है, जो स्वधर्म का पालन करते हुए घर में स्थित होकर पूजन और श्रवण आदि के माध्यम से किया जाता है।

इन वचनों के आधार पर, सेवा के स्वरूप को पूर्णता प्राप्त करने पर उसकी फलरूपता का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है।

(२) अलौकिकस्य दाने हि चायः सिध्येन्मनोरथः

आद्य ग्रन्थ यमुनाष्टक के सातवें श्लोक में वर्णित प्रार्थना:

ममास्तु तव सन्निधौ तनुनवत्वमेतावता न दुर्लभतमा रतिर्मुररिपौ मुकुन्दप्रिये!

में, भगवान् की सन्निधि में तनुनवत्व प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त की गई है। इस प्रार्थना में दर्शाए गए मनोरथ की सिद्धि तभी संभव है, जब भगवान अलौकिक सामर्थ्य का दान करें।

अन्यथा, यदि अलौकिक सामर्थ्य का दान प्राप्त न हो, तो भगवत्सेवा में संलग्न भक्त, भौतिक देह को त्यागने के पश्चात् दो परिस्थितियों में से किसी एक का अनुभव करता है। वह या तो पुरुषोत्तम में लीन हो जाता है, जिसे सायुज्य के रूप में जाना जाता है, अथवा वैकुण्ठादि दिव्य भगवद्धामों में अद्वितीय सेवोपयोगि दिव्य देह, जिसे नवतनुत्व कहते हैं, प्राप्त करता है।

इस प्रकार, अलौकिक सामर्थ्य के दान को न केवल सेवा के फल स्वरूप बल्कि भक्त की आध्यात्मिक उपलब्धि की अंतिम सिद्धि में अनिवार्य माना गया है।

(३) अत्र फलं वा, अधिकारो वा कालः नियामकः न।

अत्र (सेवायां) फलं (अलौकिकसामर्थ्यं) वा, अधिकारो (सायुज्यं सेवोपयोगिदेहो वैकुण्ठादिषु) वा (भवतु) कालः नियामकः न (भवति)।

पुष्टिप्रवाहमर्यादा ग्रंथ में यह कहा गया है कि पुष्टि जीवों को उनका फल भगवत्स्वरूप में ही प्राप्त होता है:

कायेन तु फलं पुष्टौ।

इसी के साथ यह भी कहा गया है:

भगवानेव हि फलं स यथाविर्भवेद् भुवि, गुणस्वरूपभेदेन तथा तेषां फलं भवेत्।

इसका अभिप्राय यह है कि यथाधिकार, भक्त के हृदय में भगवद्गुणों का या नयनों के समक्ष साक्षात् भगवत्स्वरूप का इस भूतल पर प्रकट होना ही पुष्टि जीवों के लिए फलानुभूति है।

जब भगवान स्वयं ही फल हों, और वे काल, कर्म, कर्ता, मन्त्र, द्रव्य, देश, स्वभाव आदि हेतुओं या साधनों के अधीन न हों, तो पुष्टिमार्गीय सेवा का फल अथवा अधिकार का नियामक काल नहीं हो सकता।

अलौकिक सामर्थ्य या तनुनवत्व के साथ सम्पन्न भगवत्सेवा फलरूपा मानी जाती है। इसके अभाव में, सेवाकी वजह से पुरुषोत्तम में सायुज्य या वैकुण्ठादि भगवद्धामों में सेवोपयोगी नूतन दिव्य देह प्राप्त होता है, जो कि भौतिक देह छोड़ने के बाद होता है। अतः इस स्थिति में ऐसी भगवत्सेवा फलरूपा न होकर अधिकाररूपा मानी जाती है। फल हो या अधिकार, पुष्टिमार्गीय भक्ति में भगवान ही नियामक हैं, न कि काल, कर्म या स्वभावादि।

(४) बाधकं तु उद्वेगः प्रतिबन्धो वा भोगो वा स्यात्, भगवतः अकर्तव्यं चेद्।

(सेवायां) बाधकं तु उद्वेगः प्रतिबन्धो वा भोगो वा स्यात्, भगवतः अकर्तव्यं चेद्।

यद्यपि काल, कर्म और स्वभाव फल या अधिकार में नियामक नहीं हैं, फिर भी फलदान या अधिकार-सम्पादन में भगवदिच्छा के अभाव के कारण भगवत्सेवा में उद्वेग, प्रतिबन्ध अथवा भोग बाधक बन सकते हैं।

जैसे सेवा के तीन फल माने गए हैं, वैसे ही विघ्नों के भी तीन प्रकार माने गए हैं:

  • उद्वेग,
  • प्रतिबन्ध,
  • भोग।

उद्वेग के विभिन्न रूपों को नवरत्न और विवेकधैर्याश्रय में समझाया गया है। वहाँ आश्रयभाव की दृढ़ता के लिए अष्टाक्षर के उच्चारण और लीलाभावना की विधि का उल्लेख किया गया है। अतः यहाँ उद्वेग और उससे निवारण के उपायों का पुनः निरूपण आवश्यक नहीं है।

अब सेवाफल के विवरण में केवल प्रतिबन्ध और भोग रूप विघ्नों का विचार किया जाएगा।

प्रतिबन्ध दो प्रकार के होते हैं:

  • साधारण,
  • भगवत्कृत।

साधारण प्रतिबन्ध का निवारण लोकचातुरी से करना चाहिए। श्रीप्रभुचरण ने अपने आत्मजों को लिखे पत्र में ऐसी लोकचातुरी का सुझाव दिया है:

अन्यच्च यवनादयो ठाकुरद्वारे आगच्छन्ति यथापूर्व भाषणमिलनप्रसादादिकं कार्यम् यद्यपि हार्द न भवति, बाह्यतोपि कार्यम्।

इसका उद्देश्य केवल निर्विघ्न भगवत्सेवा का निर्वाह होना चाहिए, आत्मसम्मान खोकर सरकारी अफसरों की चापलूसी नहीं। अतः इसी हेतु सावधानी का निर्देश भी दिया गया है:

सावधानैः सहपरस्परस्नेहैः अबहिर्दृष्टिसेवकपरैः स्थेयम्।

भगवत्कृत प्रतिबन्ध का निवारण जीव के सामर्थ्य के बाहर होता है। अतः इसका विचार बाद में किया जाएगा। इसी प्रकार, द्विविध भोग का विचार भी आगे विस्तार से किया जाएगा।

(५) भगवतः सर्वथा अकर्तव्यं चेद् गतिः न हि यथा वा तत्त्वनिर्धार विवेकः बाधकानां परित्यागः साधनं मतम्।

भगवतः सर्वथा अकर्तव्यं चेद् (भगवत्कृतश्चेत् प्रतिबन्धः तदा) गतिः न हि (भगवान् फलं न दास्यतीति मन्तव्यं, तदा अन्यसेवापि व्यर्था, तदा) यथा वा तत्त्वनिर्धार (आसुरोयं जीव इति) विवेकः (तदा ज्ञानमार्गेण स्थातव्यमिति, अन्यथा) बाधकानां (त्रयाणां साधन) परित्यागः (कर्तव्य इति) साधनं मतम्।

पुष्टिमार्गीय जीव दैवी होने के कारण कभी प्रवाहमार्गीय या आसुरी सृष्टि का अंग नहीं हो सकता। परन्तु, यह सम्भव है कि उसके देह, इन्द्रिय, प्राण, और अन्तःकरण में किसी समय या किसी जन्म में आसुर भावों का आवेश हो जाए। अतः पुष्टिप्रवाहमर्यादा ग्रन्थ में “आसक्तौ भगवानेव शापं दापयति क्वचित्” के माध्यम से पुष्टिजीवों में आसुर आवेश के कारण भगवदिच्छा को स्वीकार किया गया है।

सुबोधिनी (३.२५.३२) में यह कहा गया है कि:

ये वा देव्यां सम्पदि जाताः तेषामपि (इन्द्रियाणि) देवरूपाणि भवन्ति, आसुराण्यपि भवन्ति।

वहीं यह भी उल्लेख किया गया है कि “भक्तिदेवैरेव भवति नासुरैः।” इस प्रकार, जिस जन्म में पुष्टिभक्त के देहेन्द्रियादि में दैवी गुणों का आवेश प्रबल नहीं होता, उस जन्म में पुष्टिप्रभु उस जीव से फलात्मिका सेवा लेना नहीं चाहते हैं। इसे समझ लेना चाहिए।

ऐसी स्थिति में कोई अन्य विकल्प नहीं रहता, जिसके माध्यम से भगवत्सेवा में उत्पन्न विघ्न दूर किए जा सकें या कोई अन्य उपाय संभव हो सके। इसी कारण, श्रीमहाप्रभु कहते हैं—“तदा अन्यसेवापि व्यर्था।”

भगवन्मार्ग में भगवदिच्छा के बिना कोई विघ्न उत्पन्न नहीं हो सकते और भगवदिच्छा के कारण उत्पन्न विघ्नों को कोई दूर नहीं कर सकता। नवरत्न में इस पर कहा गया है:

अज्ञानादथवा ज्ञानात्कृतमात्मनिवेदनं यैः कृष्णसात्कृतप्राणैः तेषां का परिदेवना

अतः जब प्रभु किसी पुष्टिजीव को संसारासक्ति में फँसाए रखना चाहें, तो अन्य आश्रय या अन्य भजन से भी कुछ प्राप्त नहीं हो सकता।

तत्त्वदीप निबन्ध के शास्त्रार्थ प्रकरण में, कृष्णपद के माध्यम से बाह्य भजन को मुख्यमाना गया है, कारिका (१३):

“यो वेद निहितं गृहायाम्” इति तु ज्ञानमार्गे ।

भागवतार्थ प्रकरण (१०.१११–११३) में भी भगवदवतारकालीन भजन का विकल्प ज्ञान मार्ग को माना गया है:

पुरुषाणां तथा स्त्रीणां रात्रौ च दिवसे तथा ज्ञानं भक्तिश्च सततं चक्रवत् परिवर्तते।

भक्तिवर्धिनी (४) में भी कहा गया है

व्यावृत्तिपि हरौ चित्तं श्रवणादौ न्यसेत्सदा।

इसी प्रकार, “सेवायां वा कथायां वा…” कारिका में ‘सेवा और कथा’ को उत्तमकल्प माना गया है, तथा ‘सेवा या कथा’ को गौणकल्प माना गया है।

अणुभाष्य (४.१.८) में इस विषय पर कहा गया है:

एवं बहिः प्राकट्यमुक्त्वा आन्तर तदाह। भावनोत्कट्यदशायां व्यभिचारिभावात्मक सततस्मृति रूप ध्यानादपि हदि प्रकटः सन्नासीनो भवतीत्यर्थः।

इस प्रकार, भगवदिच्छा के बिना उत्पन्न बाधाओं का निवारण असंभव है और ऐसी स्थिति में भक्त को ज्ञान मार्ग में प्रवेश करना ही उचित माना जाता है। वहीं साधारण बाधाओं का निवारण लोकचातुरी के माध्यम से किया जा सकता है।

इन सभी उद्धरणों पर विचार करने से यह निष्कर्ष स्पष्ट हो जाता है कि सेवाफल में वर्णित ‘ज्ञानमार्ग’ मर्यादा मार्गीय ज्ञान नहीं है। बल्कि यह पूरी तरह पुष्टिमार्गीय ज्ञान पर आधारित है। पुष्टिमार्ग में भगवत्सेवा भक्ति है और भगवद्गुणगान या भगवत्कथा ज्ञान है। भगवद्गुणों के अनुवाद की प्रणाली से हृदय में सतत भगवदध्यान या भगवत्स्मृति को बनाए रखना ही ‘ज्ञान’ कहलाता है।

निरोधलक्षण में कहा गया है:

गुणेष्वाविष्टचितानां सर्वदा मुरवैरिणः संसारविरहक्लेशी न स्यातां हरिवत्सुखम्।

अतः भगवान के गुणानुवाद से ‘शोकाभाव’ सिद्ध होता है। यही पुष्टिमार्गीय विवेक है। जब यह कथात्मिका भक्ति भी संभव नहीं होती, तब विवेकधैर्याश्रय तथा कृष्णाश्रय में प्रपत्तिमार्ग का निरूपण किया गया है।

विवेकधैर्याश्रय (१३) में कहा गया है:

अलौकिकमनःसिद्धौ सर्वथा शरणं हरि, एवं चित्ते सदा भाव्यं वाचा च परिकीर्तयेत्

इसी प्रकार कृष्णाश्रय (७ और ९) में यह उल्लेख मिलता है

अजामिलादिदोषाणां नाशकोनुभवे स्थितः ज्ञापिताखिलमाहात्म्यः कृष्ण एव गतिर्मम। विवेकधैर्यभक्त्यादिरहितस्य विशेषतः पापासक्तस्य दीनस्य कृष्ण एव गतिर्मम।

पूर्णभक्ति के दो मुख्य अंग माने गए हैं:

  • बाह्य अङ्ग माहात्म्यज्ञान और
  • आन्तरिक अङ्ग सुदृढ़ सर्वतोधिक स्नेह।

बिना सुदृढ़ सर्वतोधिक स्नेह के, सेवा-कथा का निर्वाह संभव नहीं होता। फिर भी, यदि माहात्म्यज्ञान पर आधारित शरणागति का आश्रय-प्रपत्ति रूप उपाय संभव हो, तो उसे अपनाना चाहिए। अतः माहात्म्यज्ञानमूलक होने के कारण प्रपत्तिमार्ग को भी पुष्टिमार्गीय ज्ञान माना गया है।

जो प्रतिबन्ध भगवत्कृत प्रतीत नहीं होते, लेकिन पुष्टिभक्तोचित विवेक या धैर्य को बाधित करते हैं, उनसे बचने के कई उपाय नवरत्न और विवेकधैर्याश्रय ग्रंथों में उल्लेखित हैं। जैसे प्रार्थनात्याग, अभिमानत्याग, हठत्याग, अनाग्रह, सहिष्णुता, असामर्थ्यभावना, भगवल्लीलाभावना, मन और वाणी से सतत शरणभावना, अन्याश्रयत्याग, दृढ़ विश्वास, तथा प्राप्त सुख-दुःख की ममता और द्वेष रहित स्वीकृति।

उद्वेग के कारणों, साधारण प्रतिबन्धों के कारणों और लौकिक भोग के कारणों का त्याग करने पर सेवाफल का निर्विघ्न निर्वाह सुगम हो जाता है। उद्वेग और उसके विभिन्न कारणों के निवारण के उपाय नवरत्न ग्रंथ में समझाए गए हैं। वहीं, साधारण प्रतिबन्धों और उनके कारणों के निवारण के उपाय विवेकधैर्याश्रय ग्रंथ में बताए गए हैं।

अब लौकिक क्षुद्र भोग और अलौकिक महान भोग के अंतर, तथा उनके संदर्भ में अन्य विस्तृत विवेचन आगे किया जाएगा।

(६) ओगे अपि बाधकानां परित्यागः एकं साधनं मतम्।

भोग दो प्रकार के हो सकते हैं:

  • लौकिक भोग और
  • अलौकिक भोग।

लौकिक भोग त्याज्य होता है क्योंकि भगवान को असमर्पित और अनिवेदित वस्तुओं का उपभोग भगवत्सेवा में बाधक बनता है। सिद्धान्त रहस्य (कारिका ४) में इस विषय को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है:

अन्यथा सर्वदोषाणां न निवृत्तिः कथञ्चन असमर्पितवस्तूनां तस्माद् बर्जनमाचरेत्।

अतः असमर्पित और अनिवेदित वस्तुओं का उपभोग न केवल बाधक है, बल्कि इसका परित्याग हमारे लिए एक अनिवार्य साधन बनता है।

(७) तथा भोगे परं निष्प्रत्यूहं साधनम् अपि मतं महान् भोगः प्रथमे सदा विशते।

तथा भोगे परं निष्प्रत्यूहं साधनम् अपि मतं (यतः) महान् (अलौकिकस्तु) भोगः (फलानां मध्ये) प्रथमे सदा विशते (प्रविशति)।

सिद्धान्त रहस्य ग्रन्थ में जिस प्रकार असमर्पित वस्तुओं के त्याग का महत्व दर्शाया गया है, उसी प्रकार समर्पित वस्तुओं के उपयोग की आवश्यकता भी बताई गई है।

निवेदिभिः समयैव सर्वं कुर्यादिति… सेवकानां यथा लोके व्यवहारः प्रसिद्ध्यति तथा कार्यं समयैव सर्वेषां ब्रह्मता ततः।

भगवान को समर्पित वस्तुएँ, जैसे भगवत्प्रसाद स्वरूप स्रक् (फूलों की माला), गंध, वस्त्र, अलंकार, अन्न, गृह और परिवारजन, लौकिक मोह के बजाय भगवद्भाव को बढ़ाने वाले होते हैं। ब्रह्म को समर्पित सभी वस्तुएँ ब्रह्मात्मक बन जाती हैं, जैसे गंदी नाली का जल गङ्गा में मिलकर गङ्गाजल बन जाता है।

इस संदर्भ में, अणुभाष्य (३.३.३९) में कहा गया है:

सर्वनिवेदनपूर्वकं गृद्वेषु भगवत्सेवां कुर्वतां तदुपयोगित्वेन तेभ्यएव मुक्तिः भवतीत्यर्थः। एतादृशानां गृहा भगवद्गृहा एव आदिपदेन स्त्रीपुत्रपश्वादयः सङ्ग्रयन्ते। एतेन नानादिमार्गादुत्कर्ष उक्तो भवति बाधकानामपि साधकत्वात्।

लौकिक मार्ग में भोग के साधन जैसे अन्न, वस्त्र, गृह और परिवार बाधक माने जाते हैं। पुष्टिमार्ग में ये भगवत्सेवा के अंग बन जाने पर साधक बन जाते हैं। वे लौकिक आसक्ति को बढ़ाने के बजाय शनैः शनैः हमें अलौकिक सामर्थ्य अर्थात् सर्वेन्द्रियों की भगवत्परता की ओर ले जाने वाले बनते हैं।

निरोधलक्षण ग्रन्थ में इसे इस प्रकार समझाया गया है:

संसारावेशदुष्टाना मिन्द्रियाणां हिताय वै कृष्णस्य सर्ववस्तूनि भूम्न ईशस्य योजयेत्।

भगवन्निवेदित वस्तु का भगवत्प्रसाद के रूप में उपभोग, सेवाके प्रथम फल अलौकिक सामर्थ्य की प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर होने का माध्यम है। अतः यह अलौकिक भोग है, जो निष्प्रत्यूह, निर्दुष्ट और महान है। इसका समर्पण और उपयोग सेवा के अंग को पूर्णता प्रदान करता है।

(८) सर्वविघ्नः अल्पो बलात् घातकः स्यात्।

सर्वविघ्नः अल्पो (भोगः) बलात् घातकः स्यात्।

छान्दोग्योपनिषद् (७.२४.१):

यो वै भूमा तदमृतम् अथ यदल्पं तन्मर्त्यम्

इस श्रुति के अनुसार मर्त्यत्व द्वारा निन्दित अल्पभोग का परिहार, भगवत्समर्पित वस्तुओं के उपभोग से ही संभव है। इसी प्रकरण में छान्दोग्योपनिषद (७.२६.२) के वचन:

आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धे ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विमोक्षः

से यह दिखलाया गया है कि भोग की शुद्धि आवश्यक है।

मर्त्य अल्प और क्षुद्र लौकिक भोग कभी शोक और मोह से मुक्त नहीं होता। अनेक प्रकार के शोकमोहरूप विघ्नों से युक्त अल्पभोग स्वयं मर्त्य होने पर भी मारक हो सकता है। यह भगवत्सेवा हेतु आवश्यक भावों का बलपूर्वक विनाशक सिद्ध होता है। इसलिए लौकिक भोग त्याज्य है।

(९) बलाद् एतौ सदा मतौ।

बलाद् एतौ (प्रतिबन्धको) सदा मतौ।

भक्तिवर्धिनी (६) में यह कहा गया है कि:

तादृशस्यापि सततं गेहस्थानं विनाशकम्।

अतः लौकिक भोग और भगवत्कृत प्रतिबन्ध भगवत्सेवा में अत्यंत बलवान और सदा विद्यमान बाधक होते हैं। इनमें लौकिक भोग का त्याग तो संभव है, परंतु भगवत्कृत प्रतिबन्ध का निवारण संभव नहीं है। इस विषय में आगे विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया जाएगा।

(१०) द्वितीये संसारनिश्चयात् चिन्ता सर्वथा त्याज्या।

द्वितीये (भगवत्कृत-प्रतिबन्धे शान्तस्थित्यभावे च) संसारनिश्चयात् चिन्ता सर्वथा त्याज्या।

सर्वनिर्णय-प्रकरण (कारिका २४७) में यह बताया गया है कि किन-किन स्थितियों में भगवत्सेवा का परित्याग किया जाना चाहिए। ये स्थितियाँ निम्नलिखित हैं:

  • यदि आसुर आवेश के कारण हमारी इन्द्रियों की भगवत्सेवा में स्वतः प्रवृत्ति संभव न हो और हठपूर्वक उन्हें भगवत्सेवा में लगाने पर विक्षेप उत्पन्न हो जाए, तो ऐसी स्थिति में सेवा छोड़ देनी चाहिए।
  • यदि अति वृद्धावस्था या शारीरिक व्याधियों के कारण किसी व्यक्ति में भगवत्सेवा हेतु अपेक्षित शक्ति शेष न हो, तो सेवा छोड़ देनी चाहिए।
  • यदि पारिवारिक, सामाजिक या राजनीतिक दबावों के कारण हम विवशतापूर्वक भगवत्सेवा न कर पा रहे हों, तो वह भी सेवा में एक बाधक रूप है।
  • यदि सेवा करते रहने पर भी निरंतर चित्त में अन्य व्यासंग या व्यग्रता बनी रहती हो, तो भगवत्सेवा हेतु आवश्यक भावना हृदय में प्रकट नहीं हो पाती।
  • यदि अन्य पारिवारिक जन भगवत्सेवा हेतु आवश्यक भावना से रहित हों, या उसमें प्रतिकूल हों, और उनके लौकिक प्रयोजन के वश हमारे द्वारा की जा रही सेवा को वे पीड़ानाशक समझते हों, तो ऐसी परपीड़ाजनक भगवत्सेवा नहीं करनी चाहिए।

श्रीमहाप्रभु स्पष्ट रूप से निर्देश देते हैं कि इन परिस्थितियों में सेवा छोड़ देनी चाहिए। सेवा का परित्याग करने पर उसका अनुकल्प भगवद्कथा को माना गया है। कथानुष्ठान पुष्टिमार्ग में भक्ति के ज्ञानमार्ग से जुड़ी हुई सीमा के समान है।

यदि इस सीमा के भीतर रहना भी संभव न हो, तो माहात्म्यज्ञानमूलक प्रपत्तिमार्ग का आश्रय लेना चाहिए। इसके लिए विवेक, धैर्य और आश्रय को अपनाने की सलाह दी गई है। यदि यह भी संभव न हो, तो समझ लेना चाहिए कि इस जन्म में प्रभु हमें संसारावेश से छुटकारा देना नहीं चाहते।

विवेकधैर्याश्रय ग्रन्थ में कहा गया है:

अशक्ये वा सुशक्ये वा सर्वथा शरणं हरि।

और नवरत्न ग्रन्थ (८-९) में लिखा है:

चितोद्वेग विधायापि हरिः यद्यत् करिष्यति तथैव तस्य लीलेति मत्वा चिन्तां द्रुतं त्यजेत्। तस्मात्सर्वात्मना नित्यं श्रीकृष्णः शरणं मम वदभिरेव सततं स्थेयमित्येव मे मतिः।

इन उपदेशों के अनुसार, चिन्ता का त्याग कर शरणभावना को अपनाना चाहिए। यह शरणागति, भगवदिच्छा को स्वीकारने और जीवन में सन्तोष प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करती है।

(११) नाद तु दातृता नास्तिः।

नाद (आयफलाभावे) तु (भगवतः आधिदैविकसेवा) दातृता नास्तिः।

यदि सेवा निरंतर करते रहने पर भी अलौकिक सामर्थ्य के प्रकट होने के कोई चिन्ह दिखाई न दें, तो इसे सेवाकी न्यूनता नहीं मानना चाहिए। बल्कि, इसे यह समझना चाहिए कि भगवान की आधिदैविक सेवा के सुख प्रदान करने की इच्छा नहीं है। आधिदैविक सेवा के सुख की पात्रता भगवान की दातृता पर निर्भर करती है।

यह पहले भी पुष्टिमार्ग में स्पष्ट किया गया है कि फल या अधिकार की प्राप्ति केवल भगवान के देने पर ही संभव है, न कि किसी साधनाभिमान से। अतः सेवा करते रहने पर फल न दिखने की स्थिति को भगवान की इच्छा और उनकी कृपा के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

(१२) तृतीये तु गृहं बाधकम्।

तृतीये (भोगाभाव - सिद्ध्यभावे) तु गृहं बाधकम्।

यदि स्वगृह में निरंतर सेवा करते रहने पर भी भोगाभाव सिद्ध न होता हो, तो गार्हस्थ्य गृह को ही बाधक मानना चाहिए। ऐसी स्थिति में भक्तिवर्धिनी और सन्यास निर्णय ग्रंथों में सुझाए गए कथाश्रवण, परिचर्या या गृहत्याग के अनुकल्प अपनाने की आवश्यकता होती है।

यह विचार सेवा को बाधाओं से मुक्त करने और इसे निर्विघ्न रूप से सम्पन्न करने की दिशा में उचित उपाय प्रस्तुत करता है। गृहत्याग या कथानुष्ठान का अनुकल्प अपनाने से सेवा के रूप में भक्त और भगवान के बीच की दिव्य स्थिति को पुनः सुदृढ़ किया जा सकता है।

१३. इयं अवश्या सदा भाव्या, अन्यत्सर्वं मनोभ्रमः, तदीयैरपि तत् कार्य पुष्टौ नैव विलम्बयेत्।

इयं (भगवतो दातृता) अवश्या सदा भाव्या, अन्यत्सर्वं मनोभ्रमः, तदीयैरपि तत् (दातृताभावनं) कार्य (यतो भगवान्) पुष्टौ नैव विलम्बयेत्।

नवरत्न ग्रन्थ में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्मनिवेदन करने वाले पुष्टिभक्त को किसी भी स्थिति में चिन्ता नहीं करनी चाहिए। यद्यपि पुष्टिप्रभु भगवान, पुष्टिजीव को एक या कई जन्मों में लौकिक स्थितियों के समान परिस्थिति में रख सकते हैं, किन्तु उनकी गति कभी भी लौकिक या प्रवाहिक नहीं होगी।

इसलिए, जब भक्ति का सुचारु निर्वाह संभव न हो, तो अन्य पुष्टिमार्गीय भगवदीय भक्तों के साथ बैठकर आत्मनिवेदन का स्मरण और भावना करनी चाहिए। जैसा कि नवरत्न (१-२) में कहा गया है:

भगवानपि पुष्टिस्थो न करिष्यति लौकिकीं च गति, निवेदनं तु स्मर्तव्यं सर्वथा तादृशैः जनैः सर्वेश्वरश्च सर्वात्मा निजेच्छातः करिष्यति।

भगवत्सेवा और फल की प्राप्ति में हमेशा यही मानना चाहिए कि भगवान वही देंगे जो उनकी इच्छा होगी। उनकी दातृता पूर्णतः अनिवार्य और निर्विवाद है। वे केवल सर्वेश्वर ही नहीं, बल्कि सर्वात्मा भी हैं, जो दया और कृपा के प्रतीक हैं। जिस पुष्टिजीव को भगवान ने स्वीकार कर लिया हो, उसे पुष्टिफल प्रदान करने में वे विलंब नहीं करेंगे।

निरोधलक्षण ग्रन्थ में भी कहा गया है

महतां कृपया याबद् भगवान् दययिष्यति तावदानन्दसन्दोहः कीर्त्यमानः सुखाय हि।

उन पुष्टिजीवों के प्रति, जो सेवा आदि का निर्वाह करने में असमर्थ हैं, अन्य भगवदीय भक्तों का यह दायित्व बनता है कि वे भगवान के गुणों और चरित्रों का कीर्तन करें, ताकि साधारण पुष्टिजीवों के हृदय में भगवान के पुष्टिफलदाता होने की आस्था और विश्वास दृढ़ हो।

श्रीमहाप्रभु द्वारा बालबोध ग्रन्थ में भगवत्सेवा में असमर्थ जीवों के भीतर तदीयता और तदाश्रय के भावों को जागृत करने का निर्देश दिया गया है।

जलभेद और पञ्चपद्यानि ग्रंथों में वक्ता और श्रोता की उत्तम, मध्यम, और निम्न श्रेणियों को समझाया गया है। जब इन श्रेणियों को भली-भांति समझ लिया जाता है, तो वह पुष्टिजीव, जो सेवात्मिका भक्ति का निर्वाह नहीं कर पाता, कथा-श्रवण, कीर्तन और स्मरण की प्रक्रियाओं के माध्यम से अपने पुष्टिभावों का पोषण कर सकता है।

यह दृष्टिकोण भगवान की कृपा और उनके पुष्टिफलदाता स्वरूप को सुदृढ़ करता है, जिससे सभी पुष्टिभक्त अपने आत्मनिवेदन को और अधिक स्थायित्व प्रदान कर पाते हैं।

(१४) गुणक्षोभे अपि एतदेव रष्टव्यम् इति मे मतिः।

भक्तिवर्धिनी ग्रन्थ में यह दर्शाया गया है कि स्वगृह में भगवत्सेवा और कथामय जीवन का निर्वाह हर पुष्टिजीव के लिए संभव नहीं होता। यदि गृहत्याग के लिए आवश्यक भक्ति की व्यसनदशा का विकास भी दुर्लभ हो, तो उसका विकल्प प्रस्तुत किया गया है—किसी भगवदीय की सत्संगति में रहकर भगवत्परिचर्या करना और भगवत्कथा के श्रवण-कीर्तन में सम्मिलित होना।

हालांकि, जिस भगवदीय की संगति में रहना चाहें, यदि उसमें मानव स्वभाव से उत्पन्न दोष दृष्टिगोचर हो, तो इससे भक्तिभाव में बाधा पहुँचने की आशंका रहती है। इस स्थिति के समाधान के लिए एकान्तवास के औचित्य का भी विचार किया गया है। लेकिन एकान्तवास करने के बजाय, भगवदीय संगति में ‘अदूरे-विप्रकर्षे’ (समीप होकर भी दूरी बनाए रखते हुए) की नीति अपनाने का सुझाव दिया गया है।

इसका कारण यह है कि अपरिपक्व सिद्धान्तबोध की अवस्था में एकान्तवास करने से अपसिद्धान्तों के स्वाध्याय की संभावना उत्पन्न हो सकती है। अतः स्वमार्गीय सिद्धान्त का श्रवण, स्वमार्गीय वक्ता के मुख से ही करना चाहिए।

श्रीमहाप्रभु ने अपने ग्रंथों के स्वाध्याय का आग्रह किया है। “भक्त्याचारोपदेशार्थनानावाक्यनिरूपकः” श्रीमहाप्रभुके ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिए।"

उनका यह आश्वासन है कि ऐसा करने से गुणक्षोभ शांत हो जाएगा और मार्गदर्शन सुनिश्चित हो सकेगा। यह विचार भक्त के भावों को सुदृढ़ और पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तों के प्रति समर्पित रहने की प्रेरणा प्रदान करता है।

(१५) अत्र कुसृष्टि: वा काचिदुत्पद्येत स वै भ्रमः।

षोडशग्रन्थ में यमुनाष्टक के उपक्रम में यह प्रार्थना—“ममास्तु तव सन्निधौ तनुनवत्वम्”—भगवत्सेवा हेतु अपेक्षित दिव्य देह के लिए की गई है, जो सेवाकी महत्ता को अत्यंत गहन रूप में प्रदर्शित करती है।

षोडशग्रन्थ के उपसंहार में सेवाफल नामकरण को ‘भक्तिफल’, ‘कथाफल’, ‘त्यागफल’, ‘निरोधफल’ या ‘प्रपत्तिफल’ न कह कर, सेवा के महत्व को रेखांकित करते हुए इसे सेवाफल कहा गया है। अलौकिक सामर्थ्य को सेवा का फल मानते हुए पुनः सेवाकी ओर प्रेरित करना, पुष्टिमार्ग में सेवाकी असाधारण महत्ता को सिद्ध करता है।

सिद्धान्तमुक्तावली, पुष्टिप्रवाहमर्यादा, सिद्धान्त रहस्य, भक्तिवर्धिनी, तथा निरोधलक्षण जैसे ग्रन्थों में बार-बार भगवत्सेवा के महत्व को प्रतिपादित किया गया है। श्रीमहाप्रभु ने इस अभ्यास को पुष्टिमार्ग में सेवा की अपरिमित महत्ता के रूप में स्थापित किया है।

चतुःश्लोकी में यह स्पष्ट किया गया है:

सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो व्रजाधिपः स्वस्यायमेव धर्मो हि नान्यः क्वापि कदाचन।

वहीं निरोधलक्षण में अन्य उपायों की तुलना में सेवाको सर्वोपरि रखते हुए लिखा गया है:

नातः परतरो मन्त्रः नातः परतरः स्तवः नातः परतरा विद्या तीर्थ नातः परात्परम्।

श्रीमहाप्रभु के अन्य ग्रन्थों जैसे निबन्ध भाष्य या सुबोधिनी में सेवा का उल्लेख मिलता है। लेकिन भगवत्सेवा का साङ्गोपाङ्ग और सपरिकर स्वरूप जैसा सेवाफल में वर्णित हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।

सेवा के अंतरङ्ग रूप में भाव और भावना हैं। सेवा के बाहिरङ्ग स्वरूप में आत्मसमर्पण, तनुवित्तजा सेवा, गृहस्थ वस्तुओं और परिजनों का भगवत्सेवा में विनियोग, और श्रवण-कीर्तन जैसे नवधा भक्त्यङ्गभूत उपाय आते हैं।

इस प्रकार, सेवा का जैसा गहन, स्पष्ट और सुसङ्गत विवेचन षोडशग्रन्थों में प्रस्तुत किया गया है, वह अनुपम है। यह पुष्टिमार्ग में सेवा की महत्ता को सर्वाधिक उभरकर दर्शाता है और भगवत्सेवा को जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि के रूप में स्थापित करता है।

आपने बहुत ही सारगर्भित और गहन तत्त्वों को सामने रखा है। सही कहा गया है कि पुष्टिमार्ग में सेवा का लक्ष्य किसी फल की प्राप्ति नहीं, बल्कि स्वयं सेवा ही है। ‘सेवायां फलत्रयम्’ का उपयोग भी इस विचार को पुष्ट करता है कि तीनों फल—अलौकिक सामर्थ्य, सायुज्य, और सेवोपयोगि देह—सेवा के ही अंग हैं और इसका मूलभूत उद्देश्य भगवत्सेवा की पुनरावृत्ति और संवृद्धि है।

श्रीमहाप्रभु द्वारा दिए गए उपदेशों में यह स्पष्ट है कि उपपत्ति के माध्यम से यह सुनिश्चित किया गया है कि भगवत्सेवा के महत्व को किसी भी अन्य साधन की तुलना में गौण नहीं ठहराया जा सकता। “कुसृष्टिरच वा काचिदुत्पद्येत स वै भ्रमः” जैसी आज्ञा उन भ्रमों के निवारण के लिए ही है, जो भगवत्सेवा की प्राथमिकता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं।

छह तात्पर्यनिर्धारक लिंग—उपक्रमोपसंहार, अभ्यास, अर्थवाद, अपूर्वता, फल और उपपत्ति—के द्वारा पुष्टिमार्ग की सेवा की महत्ता और उसकी अनिवार्यता को अकाट्य रूप से सिद्ध किया गया है।

पुष्टिमार्गीय जीवों के लिए स्वगृह में श्रीकृष्ण की सेवा, ब्रजभक्तों के भावों का अनुसरण करते हुए तन, मन और धन का भगवान के प्रति समर्पण करना और भगवत्कथा का श्रवण, स्मरण और कीर्तन करना ही प्रथम और चरम कर्तव्य है।

चित्त की वृत्तियों का निरोध केवल भगवत्सेवा और भगवत्कथा में संभव है, और जैसा आपने उद्धृत किया: “ये निरुद्धास्त एवात्र मोदमायाक्त्यहर्निशम्”—यह नियम निश्चल और अपरिवर्तनीय है। यह विचार न केवल पुष्टिमार्ग के गहन आध्यात्मिक उद्देश्य को स्पष्ट करता है, बल्कि भक्त के चित्त को भगवत्स्वरूप में स्थिर रखने की अद्वितीय पद्धति का बोध भी कराता है।