अपने मार्ग में स्वतंत्र-पुरुषार्थ से ही सेवा की जानी चाहिए। इसका परिणाम प्रस्तुत करने हेतु यह ग्रंथ है। यहाँ प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि जो सेवा करते हैं, वह स्वतंत्र-पुरुषार्थ से ही करते हैं और सेवा से अन्य कोई फल प्राप्त हो ऐसा विचार न रखते हुए करते हैं, तो सेवा के फल को कैसे परिभाषित किया जाए? इसका समाधान इस प्रकार समझा जा सकता है कि जो व्यक्ति जीवनभर ऐसी सेवा करता है, उसकी देहावसान (मृत्यु) के समय जो गति होती है, उसे यहाँ ‘फल’ पद से अभिहित किया गया है। इसलिए, सेवा का फल अंत में प्राप्त होने वाली गति को समझना चाहिए। इस प्रकार यहाँ सेवा का फल अंत में मिलने वाली गति के रूप में कहा गया है।

आज के समय में सेवा स्वरूप जो भजन होता है, उसमें संलग्न सर्वात्मभाव की प्राप्ति और उससे मिलने वाला विशेष भजनानंद ही उसका फल है। अतः विशेष भजनानंद रूप जो फल है, वह सेवा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं है।

इसी प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है, “अंत समय में जो-जो भाव का स्मरण करते हुए व्यक्ति शरीर का त्याग करता है, वह उसी भाव को प्राप्त करता है” और “अंत में जो मति होती है वही गति होती है” — ऐसा न्याय है। अतः सेवा का फल सेवा ही है, यह समझना चाहिए। इसलिए, सेवा से अन्य कोई फल होने के संबंध में जो विरोध प्रस्तुत किया गया है, वह वास्तव में विरोध नहीं है।

इस प्रकार सेवा का फल क्या है? इसे जानने की इच्छा हो तो यही उत्तर है कि सेवा का फल सेवा ही है।


जैसी सेवा कही गई है (यादृशी सेवना प्रोक्ता), उसका फल सिद्धि में प्रकट होता है (तत् सिद्धौ फलम् उच्यते)। अलौकिक दान करने से (अलौकिकस्य दाने हि), आज ही मनोकामना सिद्ध हो सकती है (च अद्यः सिध्येत् मनोरथः)। इसमें सेवा और त्याग का गहन महत्व दर्शाया गया है।

यहां फल या अधिकार (फलम् वा हि अधिकारः वा) को समय द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाता (न कालः अत्र नियामकः)। उद्वेग, प्रतिबंध या भोग (उद्वेगः प्रतिबन्धः वा भोगः वा) बाधक हो सकते हैं (स्यात् तु बाधकम्)।

भगवान् के लिए कोई अकर्तव्य नहीं होता (अकर्त्तव्यं भगवतः), और उनकी गति सर्वथा अवरुद्ध नहीं हो सकती (सर्वथा च गतिः नहि)। जैसे तत्त्व का निर्धारण विवेक से होता है (यथा वा तत्त्व निर्धारः विवेकः), उसी प्रकार विवेक को साधन माना जाता है (विवेकः साधनं मतम्)।

बाधाओं का परित्याग (बाधकानां परित्यागः) भोग में भी एकमात्र और परम उपाय है (भोगे अपि एकं तथा परम्)। ऐसी अवस्था में, जब कोई रुकावट नहीं होती (निष्प्रत्यूहं), महान भोग हमेशा प्रारंभ में प्रवेश करता है (महान् भोगः प्रथमे विशते सदा)।

सविघ्नता और अल्पता को हमेशा घातक माना गया है (सविघ्नः अल्पः घातकः स्यात्), और बलपूर्वक इन्हें स्वीकार किया जाता है (बलात् एतौ सदा मतौ)। दूसरे मामले में, पूरी तरह से चिंता छोड़ देना चाहिए (द्वितीये सर्वथा चिन्ता त्याज्या), क्योंकि यह संसार के प्रति निश्चय का प्रतीक है (संसार निश्चयात्)।

आज के दिन, दान देने की प्रवृत्ति नहीं है (नत्वा अद्ये दातृता नास्ति), और तीसरे चरण में, घर बाधक बन जाता है (तृतीये बाधकं गृहम्)। यह निश्चित रूप से हमेशा विचारणीय है (अवश्यं इयं सदा भाव्या), क्योंकि बाकी सब मन का भ्रम मात्र है (सर्वम् अन्यत् मनो भ्रमः)।

उनके द्वारा ही वह कार्य (तदीयैः अपि तत् कार्यं), यदि पुष्टि में हो, तो कभी विलंबित नहीं करना चाहिए (पुष्टौ न एव विलम्बयेत्)। गुणों के क्षोभ में भी यही देखा जाना चाहिए (गुण क्षोभे अपि दृष्टव्यं), यही मेरी धारणा है (एतत् एव इति मे मतिः)।

यहां कोई अनुचित रचना उत्पन्न हो सकती है (कुसृष्टिः अत्र वा काचित् उत्पद्येत), और वह वास्तव में भ्रम मात्र है (सः वै भ्रमः)।


॥इति श्रीमद्वल्लभाचार्यकृता पञ्चश्लोकी समाप्ता॥