सेवाफलम् - गोस्वामी श्रीनृसिंहलालजी महाराज द्वारा टीका
अपने मार्ग में स्वतंत्र-पुरुषार्थ से ही सेवा की जानी चाहिए। इसका परिणाम प्रस्तुत करने हेतु यह ग्रंथ है। यहाँ प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि जो सेवा करते हैं, वह स्वतंत्र-पुरुषार्थ से ही करते हैं और सेवा से अन्य कोई फल प्राप्त हो ऐसा विचार न रखते हुए करते हैं, तो सेवा के फल को कैसे परिभाषित किया जाए? इसका समाधान इस प्रकार समझा जा सकता है कि जो व्यक्ति जीवनभर ऐसी सेवा करता है, उसकी देहावसान (मृत्यु) के समय जो गति होती है, उसे यहाँ ‘फल’ पद से अभिहित किया गया है। इसलिए, सेवा का फल अंत में प्राप्त होने वाली गति को समझना चाहिए। इस प्रकार यहाँ सेवा का फल अंत में मिलने वाली गति के रूप में कहा गया है।
आज के समय में सेवा स्वरूप जो भजन होता है, उसमें संलग्न सर्वात्मभाव की प्राप्ति और उससे मिलने वाला विशेष भजनानंद ही उसका फल है। अतः विशेष भजनानंद रूप जो फल है, वह सेवा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं है।
इसी प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है, “अंत समय में जो-जो भाव का स्मरण करते हुए व्यक्ति शरीर का त्याग करता है, वह उसी भाव को प्राप्त करता है” और “अंत में जो मति होती है वही गति होती है” — ऐसा न्याय है। अतः सेवा का फल सेवा ही है, यह समझना चाहिए। इसलिए, सेवा से अन्य कोई फल होने के संबंध में जो विरोध प्रस्तुत किया गया है, वह वास्तव में विरोध नहीं है।
इस प्रकार सेवा का फल क्या है? इसे जानने की इच्छा हो तो यही उत्तर है कि सेवा का फल सेवा ही है।
श्लोक १ - २।१
यादृशी – जा प्रकार की; सेवना – सेवा; प्रोक्ता – कही गई है; तत्सिद्धौ – उसकी सिद्धि से; फलम् – फल; उच्यते – कहा जाता है। अलौकिकस्य – अलौकिक के; दाने – दान में; हि – तो; चाद्यः – पहला; सिद्ध्येन् – सिद्ध होता है; मनोरथः – मनोरथ। फलं वा – फल या; ह्यधिकारो वा – अधिकार; न कालः अत्र – यहाँ काल; नियामकः – नियामक नहीं होता।
भावार्थ
सिद्धान्तमुक्तावली, पुष्टिप्रवाह मर्यादा, सिद्धान्त रहस्य, चतुःश्लोकी, भक्तिवर्धिनी, सन्यास निर्णय, और निरोधलक्षण जैसे ग्रन्थों में जिस प्रकार भगवत्सेवा का उपदेश दिया गया है, उसी के आधार पर अब भगवत्सेवा के फलस्वरूप अवस्थाओं का वर्णन किया जा रहा है। यमुनाष्टक में तनुनवत्व को जो मनोरथ रूप में प्रकट किया गया है, वह तभी पूर्ण होता है जब पुष्टिप्रभु द्वारा पुष्टिजीव को अलौकिक सामर्थ्य स्वरूप पुष्टिफल का दान किया जाता है। परंतु यह भी स्पष्ट है कि प्रभु द्वारा फल प्रदान किया जाए अथवा नहीं, इस मार्ग में फल सिद्धि या अधिकार सिद्धि में काल नियामक नहीं बनता है।
विवरणार्थ
पुष्टिमार्गीय भगवत्सेवा के अभ्यास में पुष्टिभक्त के फल अनुभव के तीन प्रमुख प्रकार होते हैं:
- अलौकिक सामर्थ्य: इसमें मानसी सेवा, व्यसनात्मिका भक्ति, तथा सर्वात्मभावरूपा निरोध सिद्धि सम्मिलित है। यह फल आत्मनिवेदन और सर्वात्मभाव से प्राप्त होता है।
- सायुज्य: यह फल साक्षात् पुरुषोत्तम में लीनता के रूप में है, जिसमें लीलानुभाव की संभावना तात्कालिकता के आधार पर प्राप्त होती है। यह मर्यादा मार्ग में अधिक सामान्यतः देखा जाता है।
- वैकुण्ठादि लोक में सेवोपयोगी देह की प्राप्ति: इसमें प्रवाह मार्ग के अनुयायियों को भगवद्धाम में दिव्य देह प्राप्त होती है।
पुष्टिमार्ग में सेवा का उद्देश्य केवल सेवा ही है और इसका फल भी सेवा ही होता है। यहाँ तीनों फल—अलौकिक सामर्थ्य, सायुज्य, तथा सेवोपयोगी देह—सेवा के अंतर्गत समाहित हैं। यह षोडश ग्रंथ में प्रतिपादित सिद्धांत का स्पष्ट परिचय देता है कि पुष्टिमार्गीय जीव के लिए जीवन पर्यंत भगवत्सेवा, कथा, और उसके अनुष्ठान में दृढ़ता ही सर्वोच्च कर्तव्य है। ऐसा करते हुए आत्मनिवेदन, भगवद स्मरण और कथा श्रवण जैसे अभ्यासों द्वारा सेवा के गहनतम रूप का अनुभव किया जा सकता है।
टीका
जैसी सेवा (मुझे) कही गई है, यदि वह सेवा सिद्ध हो, तो उसके जो फल प्राप्त होते हैं, उन्हें इस ग्रंथ में वर्णित किया गया है। अलौकिक सामर्थ्य का दान हो तो आद्य (मुख्य फलरूप) मनोरथ सिद्ध हो जाता है। फल सिद्ध हो अथवा अधिकार सिद्ध हो, इसमें काल नियामक नहीं होता, अर्थात् फल की प्राप्ति समय की अपेक्षा नहीं रखती।
सेवाफल का विवरण श्रीआचार्यचरण ने ही प्रस्तुत किया है, जिसमें यह आज्ञा की गई है:
सेवायां फलत्रयम्—अलौकिकसामर्थ्यं, सायुज्यं, सेवोपयोगिदेहो वा वैकुण्ठादिषु।
अर्थात्, अलौकिक सामर्थ्य, सायुज्य, अथवा वैकुण्ठादि लोकों में सेवोपयोगी देह मिले; इस प्रकार, सेवाके तीन फल हैं। श्रीआचार्यचरण ने जिस रीति से श्रीव्रजभक्तों के भावपूर्वक सेवा करने की आज्ञा दी है, उसी रीति से जीवनपर्यंत सेवा करने पर अंत में प्राप्त फल को यहाँ वर्णित किया गया है। यही बात भक्तिवर्धिनी में “सेवायां वा कथायां वा” इस श्लोक से दर्शाई गई है। इसमें अभिप्राय यह है कि “जीवनपर्यंत सेवा या कथा में जिसकी दृढ़ आसक्ति हो, उसका कभी नाश नहीं होता।” इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि जीवनभर सेवा करने पर फल की प्राप्ति अनिवार्य है।
यहाँ तीन फलों का विकल्प दिया गया है, क्योंकि भक्तिमार्ग में पुष्टि, मर्यादा और प्रवाह के भेद से जीवन में तीन प्रकार के (भगवान के) अंगीकार होते हैं। इससे अधिकारी के भेद से तीन प्रकार की सेवाएँ होती हैं और तदनुसार फल भी तीन प्रकार के होते हैं।
- अलौकिक सामर्थ्य: यह पुष्टिसेवा का मुख्य फल माना जाता है। यह केवल सर्वात्मभाव के माध्यम से प्राप्त होता है और भजनानंद का अनुभव कराता है। इसे कोटि साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसका अनुभव करने की योग्यता को ‘अलौकिक सामर्थ्य’ कहा गया है। भगवान के विप्रयोग को सहन कर सकने की क्षमता भी ‘अलौकिक सामर्थ्य’ मानी जाती है। व्रजभक्त ही इस सामर्थ्य के दृष्टांत हैं।
- सायुज्य: इसे मर्यादामार्ग में ग्रहण किया गया है। यह श्रीपुरुषोत्तम में लीनता है, अक्षर में नहीं। क्योंकि अक्षर में सायुज्य केवल ज्ञानादिक साधनों से ही प्राप्त होता है। पुष्टिमार्ग में श्रीपुरुषोत्तम के सायुज्य में विशेषता यह है कि प्रभु समयानुसार भक्तों को बाह्य रूप से प्रकट कर, भजनानंद का अनुभव कराने के बाद पुनः सायुज्य में लीन कर देते हैं।
- वैकुण्ठादि लोक में सेवोपयोगी देह की प्राप्ति: इसे प्रवाहमार्ग में अंगीकृत किया गया है। यहाँ ‘वैकुण्ठ’ का अर्थ श्रीलक्ष्मीजी के रमावैकुण्ठ लोक से लिया गया है। कुछ टीकाकार इसे ‘अक्षरात्मक व्यापिवैकुण्ठ’ कहते हैं। प्रभु जिनसे अलौकिक सामर्थ्यरूप फल देने की इच्छा रखते हैं, उनके लिए यह वैकुण्ठादि सेवा का फल सिद्ध होता है। प्रवाहमार्ग में जिनसे अंगीकार होता है, उनके लिए यह फल अलौकिक सामर्थ्य के रूप में कभी संभव नहीं होता।
आद्य फल: यह स्वरूपगत साध्य है, इसलिए ‘हि’ अव्यय का प्रयोग किया गया है। यदि आद्य फल के अधिकारी न हों, तो प्रभु मनोरथ कैसे पूर्ण करेंगे? इस शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि “फल अथवा अधिकार सिद्धि में काल नियामक नहीं होता।”
टिप्पणी: जैसे अंतर्गृहगत सायुज्य का दान होता है, जब भगवान् रमण की इच्छा करते हैं, तो भक्तों के साथ बाह्य रूप से प्रकट होकर भजनानंद का दान देते हैं और फिर सायुज्य प्रदान करते हैं।
अब इसके साथ तीन प्रतिबंधक भी बताए गए हैं।
श्लोक २।२
उद्वेगः – चिंता या अशांति; प्रतिबन्धः – रुकावट या अवरोध; वा – अथवा; भोगः – भोग; स्यात् तु बाधकः – ये बाधक माने जाते हैं।
भावार्थ
पूर्वोक्त ग्रन्थों में उपदिष्ट भगवत्सेवा के अनुष्ठान में, तीन बाधक बताए गए हैं:
- उद्वेग,
- प्रतिबन्ध,
- भोग।
इन तीनों बाधकों का परित्याग करना अनिवार्य है।
टीका
उद्वेग, प्रतिबन्ध और भोग, ये तीन सेवाफल में बाधक हैं। यदि मन में उद्वेग रहे, तो चित्त भगवत्सेवा में प्रवृत्त नहीं हो सकता। भगवत्सेवा के लिए प्रवण चित्त का होना आवश्यक है। यदि चित्त ही सेवा में प्रवृत्त न हो, तो वह सेवा सिद्ध नहीं हो सकती और तब फल की प्राप्ति भी संभव नहीं होती।
दूसरा बाधक है प्रतिबन्ध। प्रतिबन्ध दो प्रकार का होता है:
- साधारण प्रतिबन्ध,
- भगवत्कृत प्रतिबन्ध।
इन दोनों का विस्तृत विवेचन आगे किया गया है।
तीसरा बाधक है भोग। यदि लौकिक भोग में आसक्ति हो, तो एकाग्रता से सेवा करना असंभव हो जाता है। अतः ये तीनों—उद्वेग, लौकिक भोग और साधारण प्रतिबन्ध—सेवा में बाधक हैं। भगवत्कृत प्रतिबन्ध की निवृत्ति संभव नहीं है। परंतु उद्वेग, लौकिक भोग और साधारण प्रतिबन्ध को त्याग करने की आज्ञा दी गई है। इसका निर्देश “त्रयाणां साधनपरित्यागः कर्तव्यः” के माध्यम से किया गया है। इन तीनों बाधकों की उत्पत्ति के कारणों को भी त्यागना आवश्यक है।
शंका उत्पन्न हो सकती है कि यदि सेवा के समय लौकिक या वैदिक कार्य आ जाए, तो सेवा में प्रतिबन्ध उत्पन्न होता है। यह साधारण प्रतिबन्ध है। परंतु यदि ये कार्य लोक और वेद में सिद्ध हैं, तो उनका त्याग कैसे संभव होगा?
इस शंका के समाधान हेतु विवरण में यह आज्ञा दी गई है कि लौकिक भोग का त्याग कर देना चाहिए और साधारण प्रतिबन्ध को बुद्धि द्वारा त्यागना चाहिए। सेवा में बाधक बनने वाले लौकिक और वैदिक कार्य रूपी साधारण प्रतिबन्ध के मामले में यह निश्चित करना चाहिए कि सेवा में विघ्न न उत्पन्न हो। उदाहरण के लिए, पुत्र के विवाह जैसे लौकिक कार्य अथवा किसी वैदिक कर्तव्य का निर्वाह करना हो, तो पहले से ही बुद्धि द्वारा यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सेवा में प्रतिबन्ध न हो।
यदि कोई आवश्यक लौकिक या वैदिक कार्य आ पड़े, तो शरीरादिक से उस कार्य का निर्वाह किया जा सकता है, परंतु बुद्धि को भगवत्सेवा में ही केंद्रित रखना चाहिए, न कि उस कार्य में।
अलौकिक भोग तीनों फलों में मध्यम फल है, परंतु इसे मुख्य माना गया है।
साधारण प्रतिबन्ध का समाधान संभव है, परंतु भगवत्कृत प्रतिबन्ध का निवारण संभव नहीं। इस तथ्य को समझाकर साधारण प्रतिबन्ध के समाधान के उपाय भी बताए गए हैं।
श्लोक ३ - ४
भगवतः – भगवान को; (फलदानं) – फल देने योग्य को; सर्वथा – किसी भी तरह से; अकर्तव्यं – न करने योग्य होता है; चेद् – यदि ऐसा हो; गतिः न हि – तो गति प्राप्त नहीं होती। यथा – जैसे; वा – अथवा; तत्त्वनिर्धारो – तत्त्व का निर्णय; (भवति) – होता है; तथा विवेकः – विवेक; साधनं – साधन; मतम् – माना गया है। भोगे अपि – भोग में भी; बाधकानां परित्यागः – बाधकों का त्याग; एकं – एक; तथा परम् – और श्रेष्ठ। निष्प्रत्यूहं – निर्विघ्न; परं – श्रेष्ठ; महान् – महान्; भोगः – भोग; सदा – सदा; प्रथमे – शुरुआत में; विशते – समावेश होता है।
भावार्थ
जब भगवान फल देने की इच्छा न करें, तब जीव के पास कोई भी गति या उपाय शेष नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में यह विचार करना चाहिए—“यह जन्म मेरा आसुर आवेश से प्रभावित है।” इस प्रकार का विवेक ही शोक के निवारण का उपाय है।
उद्वेग, प्रतिबन्ध और भोग के कारणों या साधनों का परित्याग करना आवश्यक है। भोग में, भक्तिभाव में बाधक विषयों का त्याग एक महत्वपूर्ण साधन है। साथ ही, निष्प्रत्यूह भोग (भगवान को समर्पित विषयों का उपभोग) को दूसरा और श्रेष्ठ साधन माना गया है।
क्यों इसे श्रेष्ठ माना गया है? इसका उत्तर यह है कि भगवत्समर्पित विषयों का भोग, जो कि महान् भोग है, वह अलौकिक सामर्थ्य रूपी प्रथम फल के अंतर्गत आता है। यह भोग सेवा को बाधित न करते हुए, उसे और अधिक सशक्त बनाने में सहायक होता है।
इस प्रकार, भोग के परित्याग और भगवत्समर्पित विषयों के उपभोग के बीच का अंतर यह दिखाता है कि महान भोग की प्रवृत्ति भगवत्सेवा को फलसिद्धि की दिशा में अग्रसर करती है।
विवरणार्थ
भोग के प्रकार:
भोग मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं—- लौकिक भोग: यह त्याज्य है क्योंकि यह भगवत्सेवा में बाधा उत्पन्न करता है।
- अलौकिक भोग: यह अलौकिक सामर्थ्य रूपी फल के अंतर्गत आता है और भगवत्सेवा का एक प्राकृतिक अंग माना जाता है।
प्रतिबंध के प्रकार:
प्रतिबंध भी दो प्रकार के होते हैं—- साधारण प्रतिबंध: यह लोकिक चातुरी (सामाजिक विवेक) से दूर किया जा सकता है।
- भगवत्कृत प्रतिबंध: यह भगवान द्वारा उत्पन्न होता है, और इसे स्वीकार करना ही उचित है। ऐसी स्थिति में यह मान लेना चाहिए कि भगवान फल प्रदान करने की इच्छा नहीं रखते।
भले ही भगवान फल प्रदान न करें, परंतु अन्य आश्रय ग्रहण करना अनुचित है। ऐसी स्थिति में यह विचार करना चाहिए—“मेरे स्वामी ने मुझे इस जन्म में आसुर आवेशयुक्त ही रहने का निर्णय किया है।” इस प्रकार जीव को अपने स्वरूप का तत्वनिर्धार करना चाहिए।
भगवद्भाव और विवेक:
भगवान पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं; वे कर्तुम्, अकर्तुम्, और अन्यथा कर्तुम्—तीनों में सक्षम हैं। उनकी लीला उनकी इच्छा पर निर्भर है। अतः विवेक और माहात्म्यज्ञान के माध्यम से भगवत्सेवा का अवलम्बन करना चाहिए। इससे व्यर्थ के शोक का निवारण होता है।तीसरी कारिका में ‘विवेक’ पद को विशेष रूप से इसलिए रखा गया है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि भगवान की इच्छा को समझते हुए किसी भी प्रकार की चिंता या शोक से मुक्ति प्राप्त की जा सके। यह भगवत्कृपा और भगवत्सेवा के प्रति पूर्ण समर्पण को पुष्ट करता है।
टीका
जब भगवान सर्वथा कर्त्तव्य न हो, तब जीव के पास कोई गति नहीं रहती। ऐसी स्थिति में तत्त्व का निर्धारण करते हुए विवेक का पालन ही साधन माना जाता है।
जब भगवान किसी जीव पर विशेष कृपा करते हुए भी द्वेषादिक का प्रतिबन्ध लगाते हैं, तो इसे भगवत्कृत प्रतिबन्ध समझा जाना चाहिए। भगवान पूर्ण सामर्थ्ययुक्त और स्वतंत्र हैं। यदि उनकी इच्छा सेवा करवाने की नहीं हो, तो जीव के लिए सेवा का फल भी सर्वथा अभाव में होता है। ऐसी स्थिति में यह विचार करना चाहिए कि यदि भगवान प्रतिबन्ध लगाते हैं, तो अन्य किसी प्रकार की सेवा करके भी दूसरा फल प्राप्त होने की आशा व्यर्थ है।
इस विचार की निवृत्ति के लिए व्याससूत्र में स्पष्ट कहा गया है: “सभी फल भगवान से ही प्राप्त होते हैं।” इस प्रकार, भगवान ही सर्वफल दाता हैं, और अन्य जो फल प्रदान करते हैं, वे भी भगवान के अधीन हैं। यदि प्रभु की फल देने की इच्छा न हो, तो अन्य भी फल प्रदान करने में सक्षम नहीं हो सकते। अतः यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे समय में सर्वथा फल का अभाव ही है।
शंका: यदि यह कहा जाए कि फल देने की प्रभु की इच्छा न होने पर आसुरजीवन से संबंधित फल की बात है, तो दैवी जीव के लिए फल का अभाव कैसे संभव है? यह जीव भगवन्मार्ग में आया है और सेवा कर रहा है, अतः वह दैवी जीव है। फिर फल का अभाव क्यों कहा गया?
समाधान: इस शंका की निवृत्ति के लिए स्पष्ट किया गया है: “तदा आसुराऽयं जीव इति निर्धारः।” सृष्टि के प्रारंभ में ही प्रभु की इच्छा से आसुरजीव उत्पन्न हुए थे। जब प्रभु किसी जीव को आसुर बनाना चाहें, तो वह जीव आसुर हो जाता है। यदि कोई भक्त द्वेष करे, तो वह भी आसुर बन सकता है। अतः सेवा करते हुए भी यदि भक्त द्वेष करता है, तो उसे आसुर जीव समझा जाना चाहिए। ऐसे जीव के साथ दुःसंग से सावधान रहना चाहिए।
जहाँ भगवत्कृत प्रतिबन्ध होता है, वहाँ सेवा न होने के कारण पश्चात्ताप और शोक उत्पन्न हो सकता है। ऐसे समय में विवेक द्वारा तत्त्वनिर्धार ही उपाय होता है। तत्त्व का ज्ञान शोक का निवारण करता है। उपनिषदों में विवेकद्वारा तत्त्वनिश्चय किया जाता है, जैसे—संसार ब्रह्मात्मक है, मैं कौन हूँ, साधन क्या है, फल क्या है, दाता कौन है, भोक्ता कौन है। यह सब तत्त्व समझने से शोक दूर होता है। यही अभिप्राय “तदाज्ञानमार्गेण स्थातव्यं शोकाभावाय इति विवेक” द्वारा स्पष्ट किया गया है।
विवरण में कहा गया है—“शोक के अभाव के लिए ज्ञानमार्ग में स्थित होना चाहिए।” इसका अर्थ यह है कि ज्ञानमार्ग की स्थिति से शोक का अभाव होता है, मुक्ति नहीं। ज्ञान के माध्यम से शरण में आया हुआ सहज आसुर जीव भी शोकाभावरूप फल प्राप्त करता है।
तीन बाधकों का परित्याग:
भोग, जो बाधक बताया गया है, वह लौकिक भोग है। अलौकिक भोग फलरूप है। इस प्रकार, भोग एक ओर फलरूप है और दूसरी ओर बाधक रूप है। निर्विघ्न महान भोग का स्थान प्रथम फल में है। इस प्रकार, भोग में अलौकिक भोग फल के अंतर्गत आता है। भगवत्कृत प्रतिबन्ध का त्याग संभव नहीं है, किंतु अन्य प्रतिबन्धों का विवेक द्वारा त्याग करना चाहिए।
शंका: लौकिक और अलौकिक भोग में कोई तारतम्यता नहीं दीखती। इसका समाधान यह है कि अलौकिक भोग में विलक्षणता है। भगवत्स्वरूपानंद के अनुभव में कालादि का विघ्न नहीं होता, जबकि लौकिक भोग में सदा विघ्न उपस्थित रहता है। इस प्रकार, लौकिक और अलौकिक भोग में बहुत भेद है।
इस प्रकार, सन्यास निर्णय में यह कहा गया है—“यदि भगवान बाधा को दूर न कर सकें, तो और कौन कर सकता है?” इससे यह सिद्ध होता है कि अलौकिक भोग स्वरूप, फल और साधन से श्रेष्ठ है। विषयानंद और ब्रह्मानंद की तुलना में भजनानंद श्रेष्ठ है। इसी कारण तीन फलों में अलौकिक सामर्थ्य स्वरूप प्रथम फल में भजनानंद को प्रवेश दिया गया है।
शंका: साधारण भोग का त्याग कैसे किया जाए? इसका उत्तर है: “सविघ्नो अल्पो घातकः स्यात्।” साधारण भोग सविघ्न, अल्प और घातक होता है। यही कारण है कि साधारण भोग का त्याग करना आवश्यक है।
श्लोक ५ - ६।१
अल्पः – थोड़ा; (च) – और; भोगः – भोग; सविघ्नः – विघ्न सहित; घातकः – घातक; स्याद् – होय; एतौ – ये दोनों। लौकिकः – लौकिक; भोगः – भोग; भगवत्कृतश्च – और भगवान के द्वारा किया गया; प्रतिबन्धः – प्रतिबंध। सदा – हमेशा; बलाद् – बलपूर्वक; मतौ – माने गए हैं; घातकौ – घातक। द्वितीये – दूसरे में; संसारनिश्चयात् – संसार का निश्चय हो जाने से; चिन्ता – चिंता; सर्वथा – हर प्रकार से; त्याज्या – त्यागनी चाहिए। आद्ये – पहले में; दातृता – देने की इच्छा; नास्ति – नहीं है; तृतीये – तीसरे में; लौकिकभोगे – लौकिक भोग में; गृहं – घर; बाधकं – बंधनकारक; भवति – होता है।
भावार्थ
अल्पभोग, अर्थात् लौकिक भोग, सदैव क्षुद्र सुख प्रदान करता है और यह अनेक प्रकार के विघ्नों से युक्त होता है। जब इस तथ्य को भली-भांति समझ लिया जाता है, तभी इनका परित्याग संभव हो पाता है। अन्यथा, लौकिक भोग और भगवत्कृत प्रतिबंध, दोनों ही भक्तिभाव के लिए अत्यंत शक्तिशाली बाधक बन जाते हैं। इस सत्य को स्वीकार करके ही जीवनयापन करना चाहिए।
जब भगवत्कृत प्रतिबंध का अनुभव हो, तो यह निश्चित कर लेना चाहिए कि अपनी संसारासक्ति टूटने वाली नहीं है। इस स्थिति में, चिंता का त्याग करना ही एकमात्र उपाय है।
सेवा करते समय, यदि सेवक के भीतर अलौकिक सामर्थ्य का प्राकट्य नहीं होता, तो इसे प्रतिबंध मान लेना उचित नहीं है। बल्कि, यह समझना चाहिए कि अलौकिक सेव्य प्रभु द्वारा सेवक के माध्यम से की जा रही सेवा में आधिदैविकता प्रकट नहीं करना उनकी इच्छा है।
यदि लौकिक भोग किसी भी प्रकार से त्यागा न जा सके, तो गृहत्याग करना ही एक श्रेष्ठ विकल्प है।
विवरणार्थ
साधारण भोग के परित्याग का प्रश्न उठता है। इसका समाधान इस प्रकार दिया गया है कि लौकिक भोग अनेक विघ्नों के साथ क्षुद्र सुख प्रदान करने वाला होता है, अतः यह त्याज्य है। लेकिन यदि जीव सावधानी नहीं रखता, तो लौकिक भोग, सविघ्न और अल्प होते हुए भी भगवत्कृत प्रतिबन्ध के समान भगवत्सेवा के भक्तिभाव का बलवान बाधक बन जाता है। इसी कारण पाँचवे श्लोक में ‘सविघ्न’ और ‘अल्प’ जैसे विशेषणों का उपयोग किया गया है।
भोग क्यों त्याज्य है?
भोग के दो मुख्य विशेषण सविघ्न और अल्प हैं। सविघ्न होने के कारण यह त्याज्य है, और अल्प सुख प्रदान करने के कारण भी इसका त्याग करना आवश्यक है। पाँचवे श्लोक में ‘एतौ’ शब्द का उपयोग किया गया है, जो ‘लौकिक भोग’ और ‘भगवत्कृत प्रतिबन्ध’ को इंगित करता है। ये दोनों ही बलवान बाधक के रूप में चित्रित हैं।
पाँचवी कारिका में दूसरे प्रतिबन्ध के संदर्भ में चिंता त्यागने की बात कही गई है। यहाँ ‘दूसरे’ शब्द का अभिप्राय भगवत्कृत प्रतिबन्ध से है। तीसरी कारिका में उपदिष्ट माहात्म्यज्ञान पर आधारित विवेक को कोई यदि रख न सके, तो ऐसी स्थिति में चिंता की निवृत्ति का उपाय ‘संसारनिश्चय’ है।
भवितव्य, अर्थात जो निश्चित है, उसे टालने की चिंता करने से कोई लाभ नहीं होता। इसी कारण भगवत्कृत प्रतिबन्ध की चर्चा में पुनरुक्ति नहीं है। जब भगवत्सेवा में अलौकिक सामर्थ्य का प्राकट्य नहीं होता, तो इसे भगवत्कृत प्रतिबन्ध मानकर संसारनिश्चय जानना चाहिए। लेकिन सेवा का त्याग करना उचित नहीं है।
क्यों सेवा का त्याग उचित नहीं है?
कहा गया है कि यदि वर्तमान जन्म में प्रभु अलौकिक सामर्थ्य रूपी फल प्रदान करना न चाहें, तो इस प्रकार की सेवा को आधिदैविक न माना जाए। लेकिन शरीर के छूटने के बाद, प्रभु सेवोपयोगी देह का दान देकर नित्यलीला में आधिदैविक सेवा प्रदान करेंगे।
यह विचार दर्शाता है कि लौकिक भोग, जो त्याज्य है, उसे पहचानकर छोड़ना चाहिए। साथ ही, भगवत्कृत प्रतिबन्ध को स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि यह प्रभु की इच्छा का परिणाम है। सेवक को चाहिए कि वह चिंता का त्याग कर, विवेक और माहात्म्य ज्ञान का अवलम्बन करते हुए, भगवत्सेवा में संलग्न रहे।
टीका
लौकिक भोग विघ्नयुक्त है तथा अल्प सुख प्रदान करता है, जबकि भगवत्कृत प्रतिबन्ध बलपूर्वक घातक होता है। अतः ये दोनों ही प्रतिबन्ध माने गए हैं। इनमें पहला, अर्थात् लौकिक भोग, त्याग करने योग्य है। लेकिन दूसरे, अर्थात् भगवत्कृत प्रतिबन्ध की स्थिति में, संसार के प्रति निश्चय करना चाहिए और सर्वथा चिंता को त्याग देना चाहिए।
लौकिक भोग में आधि-व्याधि जैसे विघ्न अत्यधिक हैं। कर्म और कालादि से भी विघ्न उत्पन्न हो सकते हैं। लौकिक भोग स्वरूप, फल और साधन के दृष्टिकोण से अल्प है। भगवत्कृत प्रतिबन्ध सेवा के समय अवरोध उत्पन्न करता है, जिससे वह घातक सिद्ध होता है। अतः दोनों को सदा प्रतिबन्धक माना गया है। पहला, लौकिक भोग, त्याग करने योग्य है। लेकिन दूसरा, अर्थात् भगवत्कृत प्रतिबन्ध, गति का अभाव प्रदर्शित करता है। इसी संदर्भ में विवरण में आज्ञा दी गई है: “एतौ सदा प्रतिबन्धकौ।”
अतः लौकिक भोग का त्याग करना अनिवार्य है। साथ ही, भगवत्कृत प्रतिबन्ध को त्याग करना संभव नहीं है। यदि ज्ञानमार्ग की स्थिति में अधिकार न हो और मंदमति हो, तो फल की चिंता करके शोक उत्पन्न होता है। उसकी निवृत्ति के लिए यह स्पष्ट किया गया है कि जब भगवत्कृत प्रतिबन्ध हो, तब सर्व प्रकार से अन्य साधनों से फल के संबंध का अभाव होता है। इसलिए फल विषयक चिंता का त्याग करना चाहिए।
क्योंकि अहन्ता और ममता का रूप जो संसार है, वह सर्वथा अनर्थ का मूल है। इसलिए इसे निश्चयपूर्वक समझना चाहिए कि जब भगवत्कृत प्रतिबन्ध हो, तब संसार ही फल है और अन्य कोई फल नहीं।
भगवत्सेवा में प्रतिबन्ध और फल:
जब भगवत्सेवा करते हुए आद्य—अलौकिक सामर्थ्य—की अनुभूति न हो, तो इसे भगवान द्वारा फल देने की इच्छा के अभाव में मानना चाहिए। साथ ही, लौकिक भोग, जो तृतीय प्रतिबन्ध है, उसमें गृह बाधक है।
इसलिए यह कहा गया है:
अलौकिक सामर्थ्य रूप फल का अभाव हो, तो भगवान की फल देने की इच्छा नहीं है। तब सेवा का आधिदैविक स्वरूप सिद्ध नहीं होता। जब गृह का परित्याग होता है, तभी लौकिक भोग का अभाव संभव है।
इसका अभिप्राय यह है कि भगवान सर्व समर्थ हैं और अंतःकरण से जुड़े हैं। तथापि, यदि चित्त में विक्षेपरूप उद्वेग उत्पन्न हो, तो मानसी सेवा सिद्ध नहीं हो सकती। ऐसी स्थिति में सेवा का आधिदैविक स्वरूप सिद्ध नहीं होता और भगवान द्वारा फल देने की इच्छा का अभाव स्पष्ट होता है।
भोग और बाधक:
उद्वेग रूप बाधक का विचार करने के बाद, भोग रूप बाधक में यह ध्यान रखना चाहिए कि लौकिक भोग में गृह ही बाधक होता है। लौकिक भोग भगवान से बहिर्मुखता उत्पन्न करता है। जब तक व्यक्ति घर में स्थित होता है, तब तक यह बाधा रहती है। इसे हटाने पर भी यह पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकती।
इसीलिए श्रीमदाचार्यचरण ने निबंध में आज्ञा दी है:
गृह का सर्वात्मा से त्याग करना चाहिए। यदि ऐसा संभव न हो, तो घर को श्रीकृष्ण के लिए समर्पित कर देना चाहिए।
क्योंकि श्रीकृष्ण ही अहन्ता और ममता रूप संसार को समाप्त करने वाले हैं।
श्लोक ६।२ - ७
इयं – यह (दातृता – देने की इच्छा); अवश्या – ऐसी जो किसी के अधीन नहीं हो; भाव्या – इसका चिंतन करना चाहिए। अन्यत् – और; सर्वम् – सब कुछ; मनोभ्रमः – मन का भ्रम है। तदीयैः – उनके द्वारा; अपि – भी; तत् कार्यं – वह कार्य; पुष्टौ – वृद्धि में; न एव विलम्बयेत् – कभी देरी नहीं करनी चाहिए। गुणक्षोभे अपि – गुण के संकट में भी; एतत् एव दृष्टव्यं – यही देखना चाहिए; इति मे मतिः – यह मेरी समझ है।
भावार्थ
भगवान की फल प्रदान करने की दातृता किसी के भी वश में नहीं है। इसलिए, जो भी विचार मन में उत्पन्न होते हैं, उन्हें केवल मनोभ्रम ही समझना चाहिए।
भगवत्सम्बंधित व्यक्ति को यह विचार करना चाहिए कि फल और प्रतिबंध दोनों का अध्ययन और विवेचना करना आवश्यक है। श्रीहरि अपनी कृपा प्रदान करने में कभी विलम्ब नहीं करते। जब सत्त्व आदि गुणों के प्रभाव से किसी प्रकार का विकार उत्पन्न हो, तब भी यह समझना चाहिए कि प्रभु ने ही फल प्रदान करने में विलम्ब करना उचित समझा है। यही मेरी (प्रभु-भक्त) बुद्धि है।
टीका
सेवा के तीन फल और तीन प्रतिबन्धों का निरूपण करके यह स्पष्ट किया गया है कि प्रभु के भक्तों को इनका रात्रि और दिन विचार करना चाहिए। इस निर्देश में यह बताया गया है कि फलत्रयी तथा प्रतिबन्धत्रयी सदा चिंतन और विश्लेषण के योग्य हैं। यदि इनके बारे में निरंतर विचार किया जाए, तो भक्तिमार्ग में अन्य कोई प्रतिबन्ध उत्पन्न नहीं होगा। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करने हेतु कहा गया है कि इन तीन फलों और प्रतिबन्धों को छोड़कर अन्य सभी विचार केवल मनोभ्रम हैं। अर्थात् अन्य फलों या प्रतिबन्धों की कल्पना करना मन की भ्रांति मात्र है। (श्लोक ६)
शंका:
यह भी शंका उत्पन्न हो सकती है कि ऊपर वर्णित फल और प्रतिबन्ध केवल उन भक्तों के लिए प्रासंगिक हैं जो प्रभु के प्रति समर्पित हैं। ऐसे भक्तों के लिए इनका कोई प्रभाव नहीं होता, क्योंकि उनके शरीर, इन्द्रियाँ आदि सब प्रभु को समर्पित हैं। उनका सब कुछ प्रभु के फलरूप में ही समाहित है। अतः उनके लिए फल और प्रतिबन्ध का निरूपण व्यर्थ प्रतीत होता है।
समाधान:
इस शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि प्रभु के तदीय भक्तों को फल और प्रतिबन्ध की भावना करनी चाहिए। यदि कोई केवल पुष्टिमार्ग में अंगीकृत है, तो उसे फल प्रदान करने में प्रभु विलम्ब नहीं करते। सात्विक गुणों के कारण यदि अन्तःकरण में क्षोभ उत्पन्न हो, तो भी यही भावना रखनी चाहिए कि यह प्रभु की इच्छा का भाग है। यही मेरी (श्रीवल्लभाचार्य जी की) मति है।
जिन भक्तों ने ब्रह्मसम्बन्ध किया है, उन्हें फल और प्रतिबन्धों के प्रति भावना रखनी चाहिए। क्योंकि जिनको केवल पुष्टिमार्ग में अंगीकृत किया गया है, उनके लिए फल प्रदान करने में प्रभु विलम्ब नहीं करते। लेकिन आधुनिक जीवन, जो पुष्टिमर्यादा में ही अंगीकृत है, उसमें फलसिद्धि में विलम्ब संभव है।
प्रेषितभर्तृक की स्थिति के समान, फल और प्रतिबन्ध की भावना हमेशा बनी रहनी चाहिए। सात्विक गुणों के कारण जब अन्तःकरण में क्षोभ हो, तब भी फल और प्रतिबन्ध की भावना करनी चाहिए। इसके निवारण हेतु अन्य साधन न अपनाने का निर्देश दिया गया है।
यहां “मेरी मति है” का प्रयोग इसलिए किया गया है ताकि यह दर्शाया जा सके कि इस विषय पर विचार करते हुए मेरी बुद्धि स्थिर हो गई है। अन्य कोई साधन मेरी बुद्धि में प्रकट नहीं होता।
शंका:
यदि ऐसा करने में दोष का आभास हो, तो मन में यह विचार उत्पन्न हो सकता है कि आत्मसमर्पण करके तदीय बनने के बाद फल प्राप्त होना संभव है। ऐसे में फल और प्रतिबन्धों का निरूपण करना व्यर्थ प्रतीत होता है।
समाधान:
इस शंका को दूर करते हुए कहा गया है: “कुसृष्टिर् अत्र वा काचिद् उत्पद्येत स वै भ्रमः”। किसी भी प्रकार का विपरीत विचार या कुसृष्टि यहां उत्पन्न होती है, वह भ्रम के समान ही है।
श्लोक ८।१
अत्र – यहां; वा – हु; काचित् – कोई प्रकार की; कुसृष्टिः – कुसृष्टि; उत्पद्येत – उत्पन्न होय; सः – वो; वै – निश्चयही; भ्रमः – भ्रम है।
भावार्थ
इस उक्ति में यदि किसी के मन में कोई संदेह या भ्रांति उत्पन्न होती है, तो वह केवल भ्रममात्र है।
टीका
यहां कहा गया है कि यदि किसी भी प्रकार की कुसृष्टि (दोषपूर्ण विचार या भ्रांति) उत्पन्न हो, तो वह निश्चित रूप से भ्रमरूप ही मानी जाती है।
इससे स्पष्ट है कि जो भक्त प्रभु के तदीय (समर्पित) हैं, उनके लिए नियमपूर्वक फल की प्राप्ति संभव है। यदि सत्त्वादिक गुणों के प्रभाव से मन में किसी प्रकार का अन्यथाभाव उत्पन्न हो, तो वह भी भ्रम है।
क्योंकि प्रभु स्वतंत्र इच्छावाले हैं, यह तथ्य पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है। अतः मन में यह विचार उत्पन्न होना कि प्रभु फल नहीं देंगे, यह अनुपपत्ति (तर्कहीनता) है और इसे पहले ही नकारा गया है। इसके स्थान पर यह भावना बनाए रखनी चाहिए कि प्रभु की इच्छा ही सब कुछ है और उन्हीं की कृपा पर हमें विश्वास करना चाहिए।
अस्वीकरण और श्रेय
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