यहां भक्तिमार्गीय परित्याग की चर्चा की गई है, जिसमें अन्य सभी पदार्थों के संबंध में विचार करके त्याग करने की बात कही गई है। इस परित्याग के बिना यदि कोई त्याग किया जाए, तो जो पश्चात्ताप होता है, उसकी निवृत्ति के लिए भक्तिमार्गीय परित्याग के विचार का आरंभ किया जाता है। ऐसे लोग कहते हैं कि कर्ममार्गीय व्यक्तियों का वृद्धावस्था में भी संसार से वैराग्य होना संभव नहीं होता, इसलिए उनके संग से भगवदीय लाभ भी नहीं होता। अतः सुख रूप उपाय के लिए सन्यास का निरूपण आवश्यक है।

जब शरीर अशक्त हो जाता है और व्यक्ति अपनी पूर्व दशा को स्मरण करके यह सोचता है कि उसने प्रारंभ में ही भगवान के लिए प्रयत्न क्यों नहीं किया, तो जो भगवदीय ताप होता है, उसे ही यहां ‘पश्चात्ताप’ कहा गया है।

साधनदशा और सिद्धदशा में परित्याग:
कई लोग मानते हैं कि भक्ति और ज्ञान मार्ग में साधनदशा और सिद्धदशा में कर्तव्य रूप से परित्याग किया गया है। लेकिन साधनदशा में पूर्ण वैराग्य के अभाव में परित्याग संभव नहीं होता। ऐसे परित्याग में पाखंडीपन और पश्चात्ताप की संभावना बनी रहती है। अतः भगवदीय प्रेम के तत्परता में यदि ऐसा देखा जाए, तो श्री आचार्य चरण को इस प्रकार के दो प्रकार के पश्चात्ताप से बचाने के लिए इस प्रतिज्ञा का आरंभ किया गया है।

त्रिदंड धारण की आज्ञा:
कुछ मानते हैं कि निबंध में आचार्यचरण ने त्रिदंड धारण करने की आज्ञा दी थी। इसे पढ़कर पुष्टिमार्गीय जीवों ने संन्यास रूप त्रिदंड ग्रहण किया और पश्चात्ताप का अनुभव किया। इसके निवारण के लिए पुष्टिमार्गीय संन्यास के विचार का आरंभ किया गया।

विरहात्मक भाव और शरणागति:
कई लोग यह भी मानते हैं कि श्रुति और प्रमाणों के आधार पर भगवान का रसात्मक अनुभव केवल विरहात्मक भाव और शरणागति से संभव है। इसके लिए संपूर्ण परित्याग अनिवार्य है। लेकिन कुछ पुष्टिमार्गीय जीव त्याग के स्वरूप को न जानते हुए बिना विचार किए परित्याग कर लेते हैं, जो पश्चात्ताप का कारण बनता है। इसके अभाव को समाप्त करने के लिए इस विचार का आरंभ किया गया है।

श्री पुरुषोत्तमजी महाराज का अभिप्राय:
श्री पुरुषोत्तमजी महाराज ने यह अभिप्राय बताया है कि ‘पश्चात्ताप’ और ‘परित्याग’ इन पदों का जो अभिप्राय है, वह अंतःकरण में प्रबोधन से लिया जाना चाहिए। जब प्रभु ने देह और देश के परित्याग की आज्ञा दी, और आचार्यचरण ने उसका पालन नहीं किया, तो पश्चात्ताप हुआ। इसके बाद लोक त्याग विषयक तीसरी आज्ञा आई, तब उन्होंने विचार किया कि प्रभु प्रसन्न हैं या अप्रसन्न। यदि अप्रसन्न होते, तो वे उपेक्षा करते, परंतु आज्ञा नहीं देते।

तीसरी आज्ञा से स्पष्ट होता है कि प्रभु प्रसन्न हैं। परंतु पहली दो आज्ञाओं के उल्लंघन के बावजूद वे प्रसन्न क्यों हैं, यह विचार कर आचार्यचरण ने पाया कि पहली दो आज्ञाओं को सिद्ध कराने का कार्य स्वयं प्रभु ने किया। इस पश्चात्ताप को निवृत्त करने के लिए उन्होंने अपनी स्थिति का संकेत करते हुए परित्याग के निरूपण की प्रतिज्ञा की।

इस प्रकार, परित्याग के इस विचार में पश्चात्ताप को समाप्त करने और भक्त के कल्याण की गहन भावना प्रकट होती है।

श्लोक १।१

भावार्थ

पश्चात्ताप की निवृत्ति के लिए जो परित्याग है, उसका विचार किया जा रहा है।

टीका

अथ श्रीआचार्यचरण सन्यास निर्णय ग्रंथ का आरंभ करते हैं। यहां पर विचार को प्रस्तुत किया गया है, जो विधि-निषेध की श्रेणी में नहीं आता। यदि इसे विधान के रूप में आज्ञा के तौर पर प्रस्तुत किया जाता, तो यह विधि-निषेध के माध्यम से सबके लिए अनिवार्य कर्तव्य बन जाता। इसी कारण इसे विधान के रूप में न लिखकर केवल विचार के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

भक्तिमार्गीय सन्यास और अन्यमार्गीय सन्यास को उनके स्वरूप, साधन, और फल की दृष्टि से पृथक रूप से समझने के लिए यह आवश्यक है कि पहले अन्यमार्गीय त्याग के स्वरूप को समझाया जाए। इसके माध्यम से वर्तमान विचार को तारतम्य से समझने में सहूलियत होती है। इसलिए सबसे पहले अन्यमार्गीय त्याग की चर्चा की गई है।

श्लोक १।२

भावार्थ

त्याग को विशेष रूप से भक्तिमार्ग और ज्ञानमार्ग में वर्णित किया गया है। यह दोनों मार्ग त्याग को विभिन्न प्रकार से परिभाषित करते हैं।

टीका

त्याग विशेष रूप से पुष्टिमार्ग में वर्णित है, जहाँ रासमण्डल की मण्डनभूत व्रजभक्तों का त्याग, उनके प्रेम और समर्पण का प्रतीक है। फलप्रकरण के प्रथम अध्याय में व्रजभक्तों ने कहा है, “सब विषयों को छोड़कर हम आपके चरणारविन्द के मूल में प्राप्त हुए हैं।” इसी प्रकार चतुर्थ अध्याय में भगवान ने व्रजभक्तों से कहा, “मेरे लिए ही तुमने लोक, वेद और सभी संबंधों का त्याग किया है।” यहाँ त्याग को विशेष रूप से महत्व दिया गया है।

ज्ञानमार्ग में भी परित्याग का विशेष स्थान है। इसमें विविदिषा-सन्यास (ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा के आधार पर त्याग) और विद्वत-सन्यास (ज्ञान प्राप्त होने के बाद त्याग) के बीच भेद किया गया है। इसे ज्ञानमार्ग के शास्त्र में विशेष रूप से निरूपित किया गया है। अतः ‘विशेषतः’ शब्द का प्रयोग किया गया है।

कर्ममार्ग और त्याग:
ज्ञान, कर्म, और भक्ति—ये तीन मार्ग एकादश स्कंध में भगवान द्वारा कल्याण के उपाय के रूप में वर्णित किए गए हैं। इनमें कर्ममार्ग भी सम्मिलित है। कर्ममार्ग में त्याग की प्राप्ति की आशंका उत्पन्न होती है, जिसे स्पष्ट रूप से निषेध किया गया है। भगवान ने इस संदर्भ में कर्ममार्ग में त्याग की उपयुक्तता को नकारा है, क्योंकि यह मार्ग त्याग के लिए उपयुक्त नहीं है।

श्लोक २

भावार्थ

कलिकाल के प्रभाव के कारण कर्ममार्ग में परित्याग कर्तव्य नहीं माना गया है। अब भक्ति और ज्ञान के दो मार्ग शेष हैं, जिनमें प्रथम भक्ति मार्ग में कर्तव्य के स्वरूप पर विचार किया जाता है।

टीका

कर्ममार्ग में यावज्जीवन अग्निहोत्र करने का विधान है, जिससे सन्यास ग्रहण करने का समय नहीं आता। यद्यपि कुछ स्थानों पर “आयुष्य का चतुर्थ भाग संन्यास आश्रम में बिताना चाहिए” ऐसा कहा गया है, लेकिन कलियुग के दोषों के कारण मनुष्य की क्षमता कम हो गई है और चतुर्थ भाग आयुष्य वृद्धावस्था में होता है। इस कारण आश्रम धर्म अति कठिन और कष्टपूर्ण हो जाता है, जिससे विपरीत फल उत्पन्न हो सकता है।

इसी प्रकार ज्ञानमार्ग में कर्तव्यता और कर्ममार्ग में अकर्तव्यता को स्पष्ट करते हुए भक्तिमार्ग में कर्तव्य के प्रकार पर विचार किया गया है। भक्ति और ज्ञान के इन दो मार्गों में कर्तव्यता को मान्यता दी गई है।
प्रथम श्लोक में भक्तिमार्ग में कर्तव्यता को बताया गया है, जिसका विचार किया जाता है। इस संदर्भ में यह प्रश्न उठता है:

  • परित्याग कब करना चाहिए?
  • कैसे करना चाहिए?
  • और क्यों करना चाहिए?

भक्तिमार्ग में श्रवणादि साधनों की सिद्धि के लिए कर्तव्य के पक्ष का निराकरण प्रस्तुत किया गया है।

श्लोक ३ - ५

भावार्थ

श्रवणादि जैसे भक्तिमार्गीय साधनों की प्रवृत्ति के लिए त्याग (सन्यास) करना उचित नहीं है। क्योंकि श्रवणादि की सिद्धि सहयोग और संगति के माध्यम से होती है। जबकि सन्यास में इन साधनों को बनाए रखना संभव नहीं है। आश्रम की उत्तमता का अभिमान और सन्यास के धर्म, भक्तिमार्ग के श्रवण के धर्म के विरोधी हैं। अतः श्रवणादि संभव नहीं हो सकते। यदि गृहस्थ जीवन के बाधक पक्षों के कारण साधनों के लिए त्याग किया जाए, तो त्याग के बाद भी सहयोग केवल उन्हीं के साथ हो सकता है, जो समान मार्ग के हैं, दूसरों के साथ नहीं। और यदि चित्त अस्थिर हो, तो कालक्रम में त्याग करने वाला पाखंडी बन सकता है।

टीका

शास्त्र में यह कहा गया है कि “जो त्यागी है, वह अकेले, निःसंग और शांत होकर विचरण करे।” लेकिन श्रवण और अन्य भक्ति साधनों को करने में सहायता और संगति आवश्यक है। यदि त्याग के बाद संगति प्राप्त होती है, तो वह संगति अपने मार्ग के अनुसार श्रवण का परिचय कराएगी, लेकिन वह पुष्टिमार्गीय श्रवण के अनुकूल नहीं हो सकती।

उदाहरणस्वरूप:
1। मायावादी:
मायावादी समस्त जगत को केवल एक कल्पना मानते हैं। वे वेदों में वर्णित ब्रह्म के गुणों को व्यवहारोपयोगी मानते हैं, लेकिन वे परमार्थ में इन्हें सत्य नहीं मानते। इसलिए मायावाद का दृष्टिकोण भक्तिमार्ग के विरोध में है।

2। नैयायिक:
नैयायिक ईश्वर को जगत का कर्ता मानते हैं, लेकिन वे ईश्वर में ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न के अतिरिक्त अन्य गुणों को स्वीकार नहीं करते। यह मत भी भक्तिमार्ग के विपरीत है।

3। मीमांसक:
मीमांसक देवताओं को केवल मन्त्रों के माध्यम से व्यक्त मानते हैं और ईश्वर को फल प्रदान करने वाला नहीं मानते। अतः उनके मत में श्रवण और अन्य साधन मान्य नहीं हैं।

इस प्रकार, इन भिन्न-भिन्न मतों के अनुयायियों के साथ संगति होने पर भक्तिमार्गीय श्रवण को सिद्ध करना संभव नहीं है।

यदि कोई शास्त्रविहित सन्यास आश्रम को अपनाकर भक्तिमार्गीय परित्याग करता है, तो सन्यास आश्रम के धर्मों का पालन करना अनिवार्य हो जाएगा। इससे श्रवण और अन्य साधनों के लिए समय नहीं बचेगा। इसके अतिरिक्त, सन्यास आश्रम के आदरणीय होने के कारण श्रेष्ठता का अभिमान उत्पन्न हो सकता है, जो भक्तिमार्ग के विपरीत है।

संभावना:
यदि यह तर्क दिया जाए कि गृहस्थ जीवन में व्यवधानों के कारण श्रवणादिक संभव नहीं है और इसीलिए त्याग किया जाना चाहिए, तो भी साधनदशा में भक्तिमार्ग के पूर्ण भाव की सिद्धि नहीं हो पाएगी। चित्त की चंचलता और विजातीय संग के कारण भाव समाप्त हो सकता है। यदि संग उन लोगों का हो, जिनके चित्त में भगवद्भाव नहीं है, तो उनका विषयाक्रांत चित्त भक्त के आरंभिक भाव को नष्ट कर सकता है।

अतः, भक्ति मार्ग में त्याग के माध्यम से श्रवणादिक की सिद्धि का पक्ष उपयुक्त नहीं है। इसके विपरीत, यह व्यक्ति को पाखंड की ओर ले जा सकता है। यदि यह तर्क दिया जाए कि भाव की स्थिति में दुःसंग बाधक होती है, लेकिन भाव की रक्षा के लिए त्याग किया गया है और दुःसंग हो भी जाए, तो भाव सुरक्षित रहेगा—यह पक्ष भी अनुचित है। इसके निराकरण हेतु आगे चर्चा की जाती है।

श्लोक ६

भावार्थ

विषय के प्रभाव से जिनके शरीर आक्रांत हैं, उन्हें हरि का आवेश (भगवद्भाव) सर्वदा नहीं होता। यदि मूल पाठ में ‘सर्वथा’ शब्द का अर्थ लिया जाए तो हरि का आवेश निश्चय ही नहीं होता। अतः भक्तिमार्ग की साधनरूप अवस्था में अथवा साधन दशा में त्याग करना सुख प्रदान करने वाला नहीं हो सकता।

टीका

विषय को लेकर नेत्र सहित सभी इंद्रियां और उनके विषय सब भौतिक (सांसारिक) साधन हैं। जिनके शरीर इन विषयों से आक्रांत होते हैं (अर्थात जिनके हृदय में विषय का आवेश होता है), उन्हें हरि का आवेश नहीं हो सकता। क्योंकि इंद्रियों के विषय में आसक्ति, प्रभु के आवेश में बाधा उत्पन्न करती है। अतः श्रवण, आदि जो साधनरूप भक्ति हैं, उनकी अवस्था में त्याग करने वाला व्यक्ति पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं कर सकता। मूल पाठ में ‘एक’ का उपयोग किया गया है जिससे स्पष्ट होता है कि यह सर्वथा पुरुषार्थ को असाधक बताने का प्रयास है।

व्यर्थता के संदर्भ में:
ऐसे में भक्तिमार्ग में त्याग के प्रयोजन का अभाव प्रतीत होता है। यदि त्याग की व्यर्थता पर शंका हो, तो आगे इस विषय पर स्पष्टीकरण दिया जाता है। भक्तिमार्ग में त्याग के महत्व को समझने के लिए यह तात्त्विक विचार आवश्यक है।

श्लोक ७

भावार्थ

भगवान के विरह के अनुभव के लिए त्याग को उत्तम माना गया है। त्याग में काषाय वस्त्र और अन्य बाह्य वेष केवल अपने संबंधियों के बंधन से निवृत्ति के लिए उपयोगी हैं, अन्यथा उनका कोई अन्य प्रयोजन नहीं है।

टीका

पुष्टिमार्गीय परित्याग केवल पूर्ण भगवद्भाव की प्राप्ति के बाद ही उचित होता है। भगवान के विरह का अनुभव तभी संभव है जब पहले संयोगसुख का अनुभव हो चुका हो। अतः प्रथम भावपूर्वक भगवान के श्रीमुख का दर्शन और श्रीअंग की सेवा करने का आनंद प्राप्त किया गया हो। जब वियोग में यह दर्शन और सेवा का सुख न मिले, तब विरह अनुभव होता है। इस स्थिति में गृहादि का त्याग करके भगवान के प्रति अनुराग को और गहन बनाने का मार्ग प्रशस्त होता है।

इस प्रकार के त्याग में शुद्ध पुष्टिमार्गीय भाव वाला भक्त ही योग्य माना जाता है। पूर्णभाव वाले भक्त, जो सर्वात्मभाव में स्थित हैं, उन्हें भगवान की रासलीला जैसे दिव्य कृत्य का विचार करना चाहिए। इन लीला को परम फलरूप मानते हुए, पुष्टिमार्गीय अनुयायी इनका अनुसरण करते हैं। भगवान के दर्शन और दिव्य अनुभव में बाधा उत्पन्न होने पर, भक्त में विरह का अनुभव होता है। और यदि ऐसे भक्त गृह में विजातीय भाव वाले लोगों के साथ रहते हैं, तो उनके भाव का नाश हो सकता है। ऐसे वातावरण में विरह का अनुभव संभव नहीं होता। अतः गृह का त्याग करना आवश्यक हो जाता है।

इस त्याग को दर्शाने के लिए काषाय वस्त्र और अन्य बाह्य वेष की कल्पना की गई है। यदि यह वेष न हो, तो स्त्री और पुत्रादि जैसे संबंधी बाधा उत्पन्न कर सकते हैं। परंतु वेष धारण करने पर वे त्याग को पहचानते हैं और बाधा नहीं उत्पन्न करते। इसी कारण से संन्यास का वेष केवल व्यावहारिक उद्देश्य को पूरा करता है, इसका अन्य कोई विशेष प्रयोजन नहीं है।

मार्ग भेद:
मर्यादा मार्ग और पुष्टिमार्ग में गृह का त्याग समान है। हालांकि, इन मार्गों के भेद को स्पष्ट करने के लिए त्याग का उद्देश्य और गुरु एवं साधन को भिन्न रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह भेद मार्ग की गहराई और विचार को स्पष्ट करता है।

श्लोक ८

भावार्थ

कौण्डिन्य ऋषि और श्रीगोपीजन को त्याग के गुरु माना गया है। भावनात्मक दृष्टि से यह विचार किया गया है कि भाव की सिद्धि केवल भावनाओं के परिपक्व होने से हो सकती है। इसके लिए कोई अन्य साधन की अपेक्षा नहीं है।

टीका

कौण्डिन्य ऋषि को अनंत व्रत के प्रसंग में वर्णित किया गया है, और श्रीगोपीजन तो सर्वविदित हैं, इसलिए इनके संबंध में विशेष प्रकार से कुछ नहीं कहा गया है। यद्यपि कौण्डिन्य ऋषि मर्यादा मार्गीय होने के कारण इस मार्ग की पूर्ण जानकारी नहीं रखते, और वे उपदेशक भी नहीं हैं, अतः उन्हें गुरु के रूप में स्वीकारना स्वाभाविक नहीं है। फिर भी, दत्तात्रेय की तरह, जो वैराग्य में प्रेरणादायक हैं, कौण्डिन्य ऋषि का त्याग वैराग्य के लिए उपयोगी है। जैसे दत्तात्रेय ने पृथ्वी आदि को अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया, वैसे ही कौण्डिन्य के माध्यम से अनंत के गुणों का श्रवण किया गया और उनके प्रति आर्त्ति उत्पन्न हुई। इससे उनकी विरक्ति और अस्थिरता प्रकट हुई, जिससे वे वृक्षादि से प्रश्न पूछने लगे। इसी कारण कौण्डिन्य का त्याग इस मार्ग के त्याग से समान माना गया और उन्हें गुरु के रूप में स्वीकार किया गया।

श्रीगोपीजन किसी को उपदेश देने वाले नहीं हैं, फिर भी उन्होंने अपने भाव के अनुरूप आचरण किया और पञ्चाध्यायी में वर्णित भगवान के समीप पहुँचने के लिए अपने शरीर, गृह, और अन्य सांसारिक संबंधों का त्याग किया। इस प्रकार उनका त्याग यहां के लिए आदर्श है और उन्हें गुरु के रूप में सम्मानित किया गया है।

अपने में श्रीगोपीजन के भाव के अनुरूप भावनाएं उत्पन्न करके जो सिद्धि हुई, वह साधन के रूप में योग्य मानी जाती है। अन्य साधन, जैसे दान, व्रत आदि, को साधन के रूप में स्वीकार नहीं किया गया।

भाव की परिपक्वता के बाद की स्थिति:
यदि भाव की परिपक्वता के पश्चात ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जो बुद्धि को विचलित कर दे और यह दुःख का कारण बन जाए, तो ऐसी शंका का निराकरण इनके भाव स्वरूप को स्पष्ट करके किया जाता है। यह दिखाता है कि प्राकृत या लौकिक बाधाओं से बचने के लिए इस मार्ग पर भाव का स्वरूप किस प्रकार उत्कृष्ट और दिव्य है।

श्लोक ९

भावार्थ

विकलता और अस्वस्थता विप्रयोगभाव (विरहभाव) की प्रकृति है, इसे लौकिक या सांसारिक नहीं माना जा सकता। ऐसे भाव में जो व्यक्ति स्थित रहता है, उसके लिए ज्ञान और भगवान के गुण बाधक सिद्ध होते हैं।

टीका

जिनके अंतःकरण में विप्रयोगभाव उत्पन्न होता है, उनके लिए विकलता स्वाभाविक धर्म है। यह अस्वस्थता लौकिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक है। इसे स्पष्ट करने के लिए ‘हि’ अव्यय का प्रयोग किया गया है। एकादश स्कंध में भगवान के ज्ञान को प्रस्तुत करते हुए यह कहा गया है कि “कैवल्यादिक ज्ञान सगुण है,” जबकि भगवान स्वयं अपने विषयक ज्ञान को निर्गुण बताते हैं। मर्यादा मार्ग में भगवान के संबंद्ध से वस्तु का निर्गुणपना है, वहीं भक्तिमार्ग में भगवद्भाव का धर्म अत्यंत उत्कृष्ट और निर्गुण रूप में प्रकट होता है। यह ‘हि’ अव्यय से सूचित होता है।

शंका का समाधान:
यदि यह शंका हो कि भगवान के संबंद्ध से निर्गुणता तो है, लेकिन विप्रयोगभाव को दुःखात्मक मानने पर उसकी उत्कृष्टता क्यों है? इसका समाधान भगवान के रसात्मक स्वरूप द्वारा किया गया है। रस दो प्रकार के होते हैं—संयोग और विप्रयोग। विप्रयोग भी रसस्वरूप ही है। जैसे शोक से अश्रु आते हैं और आनंद से भी अश्रु आते हैं, लेकिन दोनों का परिणाम समान नहीं होता। अतः विप्रयोग को दुःखस्वरूप नहीं माना जा सकता।

इस विकल अवस्था में जो विप्रयोगभाव का अनुभव होता है, उसके लिए “सर्वजगत भगवान का शरीर है” ऐसा ज्ञान, श्रवण-कीर्तन तथा भगवान के गुण बाधक बन जाते हैं। जब अंतःकरण में विप्रयोगभाव प्रबल हो, तो यह ज्ञान कि “भगवान सर्वत्र हैं और सर्वजगत उनका शरीर है,” इस भाव को समाप्त कर देता है। इसी प्रकार श्रवण-कीर्तनादि के विषयरूप जो भगवान के गुण हैं, वे भगवान के विरह की विह्वलता को मिटा देते हैं। इसलिए ज्ञान और गुण दोनों विप्रयोग रस के अनुभव और फल में बाधक सिद्ध होते हैं।

लौकिक ज्ञान और मन की स्वस्थता, जो गुण के कारण उत्पन्न होती है, विप्रयोग रस के अनुभव तथा उसकी पूर्णता में बाधक होती है।

भक्तिमार्ग और ज्ञानमार्ग में त्याग:
भक्तिमार्ग और ज्ञानमार्ग में घर का त्याग समान है। हालांकि, जहाँ ज्ञान और मन की स्वस्थता ज्ञानमार्ग में साधक है, वहीं ये भक्तिमार्ग में बाधक क्यों हैं? इस शंका का समाधान फलभेद के आधार पर किया गया है। दोनों मार्गों में फल का स्वरूप भिन्न होने के कारण, इनकी स्थिति अलग है और इसे समझने के लिए आगे स्पष्टीकरण किया गया है।

श्लोक १०

भावार्थ

सन्यास के माध्यम से उत्तमता प्राप्त करने वाले ज्ञान से सत्यलोक की प्राप्ति होती है। क्योंकि जिस मार्ग में जैसी भावना और साधन होता है, उसी के अनुरूप फल की प्राप्ति होती है।

टीका

सन्यास के माध्यम से प्राप्त ज्ञान से सत्यलोक में स्थित होना संभव है। जैसे, ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है, यह ज्ञान होने पर, और इसके साथ सन्यास ग्रहण करने पर, व्यक्ति ब्रह्मलोक में स्थित होता है। तैत्तिरीय श्रुति में कहा गया है:
“वेदांत के ज्ञान से जिन लोगों ने भली-भांति अर्थ का निश्चय किया है और सन्यास योग से जिनका अंतःकरण शुद्ध हुआ है, वे सक्क्यासि ब्रह्मलोक में जाते हैं और ब्रह्माजी के साथ मुक्ति प्राप्त करते हैं।”

छान्दोग्य श्रुति में कहा गया है:
“जैसा यह यज्ञ वाला पुरुष इस लोक में है, वैसा ही मरण के पश्चात भी होता है।”

तैत्तिरीय श्रुति ब्रह्मा की मुक्ति के समय मुक्ति की बात करती है, जबकि छान्दोग्य श्रुति मरणोपरांत भावना अनुसार पारलौकिक फल की चर्चा करती है। इस प्रकार, जिस पुरुष में जैसी भावना और साधन है, उसे उसी के अनुरूप फल प्राप्त होता है। ज्ञानयुक्त सन्यासी को ब्रह्मलोक में स्थान मिलता है और ब्रह्मा के साथ मोक्ष प्राप्त होता है।

इस प्रकार, ब्रह्मलोक में जाने के लिए ज्ञान की प्रमुखता है। स्वास्थ्य के अभाव में ज्ञान स्थिर नहीं रह सकता, इसलिए मन की स्वस्थता को ज्ञान द्वारा ही सुनिश्चित किया जाता है।

भक्तिमार्ग में फलस्वरूप साक्षात् पुरुषोत्तम का संबंध ही मुख्य है। पुरुषोत्तम रसात्मक हैं, यह श्रुतियों में स्पष्ट किया गया है। इस कारण भक्तिमार्ग में विप्रयोग रसात्मक भाव ही साधन के रूप में होता है। ज्ञान और मन की स्वस्थता इस भाव के लिए बाधक होती है।

अतः, जहाँ भावनारूप साधन है, वहाँ फल भी उसी के अनुरूप होता है। यह छान्दोग्य श्रुति का अभिप्राय है।

साधन और फल में भेद:
ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग में साधन और फल के भेद को स्पष्ट करते हुए यह बताया गया है कि ज्ञानमार्ग में फल प्राप्ति में विलंब होता है, जबकि भक्तिमार्ग में ऐसा नहीं है। इसका कारण आगे निरूपित किया गया है।

श्लोक ११ - १२।१

भावार्थ

सन्यास ग्रहण करने के पश्चात ज्ञानी सत्यलोक और अन्य उच्च लोकों में स्थित होता है। परंतु भक्तिमार्ग में भगवान, जो बाह्य रूप में प्रकट होते हैं, अग्नि की भांति पुनः भक्त के अंतःकरण में प्रवेश करते हैं। केवल तभी उनके समस्त बंधनों का नाश होता है। अन्य किसी प्रकार से बंधन नष्ट होना संभव नहीं है।

टीका

सन्यास के साथ ज्ञान प्राप्त करने वाला व्यक्ति सत्यलोक जैसे उच्च लोकों में स्थित होता है, इसमें कोई संशय नहीं है। इसलिए ज्ञानमार्ग में मुक्ति प्राप्त करने में विलंब होता है। दूसरी ओर, भक्तिमार्ग में काष्ठ में विद्यमान अग्नि का दृष्टांत दिया गया है। काष्ठ के भीतर अग्नि विद्यमान होते हुए भी वह काष्ठ को जलाने में समर्थ नहीं होती। जब बाहरी अग्नि भीतर प्रवेश करती है और काष्ठ के भीतर की अग्नि के साथ मिलती है, तभी काष्ठ को जलाकर अग्निरूप बना देती है।

उसी प्रकार, ब्रह्म जो सर्वत्र व्यापक है, वह केवल मुक्ति में सहायक नहीं होता। परंतु जब भगवान, जो आत्मस्वरूप में बाहरी रूप से प्रकट होते हैं, भीतर प्रविष्ट होकर आंतरिक स्वरूप से मिलते हैं, तब ही सारे बंधनों का नाश होकर मुक्ति संभव होती है। अन्यथा, मुक्ति संभव नहीं है।

इस प्रकार, सन्यासयुक्त ज्ञानी की स्थिति सत्यलोक में होती है। सत्यलोक में जो निष्काम होते हैं, वे वहीं रहते हैं, और जो सकाम होते हैं, वे अन्य लोकों में जाते हैं। इसे स्पष्ट करने के लिए ‘आदि’ शब्द का प्रयोग किया गया है। सत्यलोक में स्थित सभी लोगों की मुक्ति ब्रह्माजी के साथ होती है। ब्रह्मा की आयु दो परार्द्ध तक होती है, इसलिए उनकी मुक्ति में विलंब होता है।

भक्तिमार्ग में अग्नि का दृष्टांत यह स्पष्ट करता है कि जैसे काष्ठ में मौजूद अग्नि काष्ठ को जलाने में अक्षम होती है, लेकिन मथन के द्वारा प्रकट हुई बाहरी अग्नि जब अंदर की अग्नि से मिलती है, तो काष्ठ का काष्ठपन नष्ट होकर वह अग्निरूप हो जाता है। उसी प्रकार, भक्त के हृदय में भगवान रहते हुए भी वह उनके भगवद्रूप को सिद्ध करने में सक्षम नहीं होते। परंतु गहन भाव द्वारा बाहरी रूप में प्रकट होकर जब वे भीतर के स्वरूप से मिलते हैं, तब सभी बाधाओं को दूर कर भगवद्रूप की सिद्धि करते हैं।

मुक्ति की इस सिद्धि में अन्य कोई उपाय संभव नहीं है।

शंका का समाधान:
यदि यह शंका हो कि गहन भाव (विगाढ़ भाव) को साक्षात् संग के अभाव के कारण स्वरूप के अनुसंधान की आवश्यकता है और गुणगान से भाव क्यों नहीं प्रकट होता, तो इसका समाधान आगे दिया गया है।

श्लोक १२।२

भावार्थ

श्रवण, कीर्तन आदि में भगवान के गुणों का निरंतर स्मरण भक्तों के जीवन के लिए आवश्यक है। क्योंकि जहां तक भक्तों को भगवान का साक्षात् संग नहीं प्राप्त होता, वहां तक वे भगवान के गुणों का स्मरण और कीर्तन करके ही अपने जीवन को बनाए रख सकते हैं।

टीका

संग-रहित स्थिति में भगवान के गुण भक्तों के जीवन का आधार होते हैं। जब से जीव भगवान से बिछुड़ा है, तब से उसे भगवान का संग प्राप्त नहीं है। परंतु जब तक उसे भगवान के वियोग की अनुभूति नहीं होती, तब तक उसे वियोग का दुःख नहीं होता। जब वियोग की अनुभूति होती है, तभी वियोग का दुःख प्रकट होता है। उस समय भक्त की स्वस्थता बनाए रखने के लिए भगवान के गुणों के अलावा और कोई साधन उपलब्ध नहीं होता।

भगवान, जो परमानंद स्वरूप हैं, उनके विरह में जीवन का अस्तित्व नहीं रहता। ऐसे समय में केवल उनके परमानंद स्वरूप गुण ही जीवन को बनाए रखने का कार्य करते हैं। यही बात श्रीगोपीजन ने गोपिकागीत में व्यक्त की है: “आपकी कथा रूप अमृत ही संतप्त हृदय को जीवन प्रदान करता है।”

जब अक्रूरजी के साथ भगवान मथुरा गए, और गोपियों ने भगवान के रथ की ध्वजा और उसकी धूल को देखा, तब तक वे स्थिर खड़ी रहीं, मानो चित्रित मूर्तियां हों। लेकिन जब उन्हें यह विश्वास हुआ कि भगवान वापस नहीं आएंगे, तब उन्होंने भगवान के गुणों का गान करके अपने शोक को शांत किया और दिन व्यतीत किए। इस प्रकार, गुणगान को जीवन का साधन बताया गया है।

अतः भगवान के गुण जीवन के लिए आवश्यक हैं, परंतु वे स्वस्थता प्रदान करने वाले नहीं हैं।

शंका:
यदि यह शंका उठे कि विप्रयोग भाव में स्थित भक्त के लिए भगवान के गुण बाधक क्यों होते हैं, और जिनके वियोग भाव का अनुभव है, उनके लिए भगवान विलंब उत्पन्न करने वाले कैसे नहीं माने जा सकते, तो इसका समाधान अगली चर्चा में प्रस्तुत किया जाएगा।

श्लोक १३

भावार्थ

भगवान फलस्वरूप हैं और इसलिए उनके द्वारा बाधा उत्पन्न नहीं होती। स्वस्थता प्रदान करने वाले वाक्य कहना भगवान का कर्तव्य नहीं है। क्योंकि भगवान दयालु हैं और उनकी कृपा में कोई विरोधाभास नहीं होता।

टीका

इस मार्ग में भगवान ही फलस्वरूप हैं और उनकी प्राप्ति में विप्रयोगभाव ही साधक है। यदि विप्रयोगभाव न हो, तो फल की प्राप्ति संभव नहीं है। इसलिए, यदि भगवान बाधक होते, तो फल ही सिद्ध नहीं होता। अतः भगवान बाधक नहीं हैं।

यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि भगवान फलस्वरूप हैं और फल प्रदान करने की उनकी इच्छा है। यदि वे स्वरूपगत रूप से विप्रयोग के दुःख को समाप्त नहीं करते, तो भी क्या वे आश्वासन रूपी वाक्य कहकर स्वस्थता क्यों नहीं प्रदान करते? जैसे नारदजी को भगवान ने दर्शन दिया, और तद्पश्चात तिरोहित हो गए। जब नारदजी ने पुनः दर्शन के प्रयास किए, तो उन्हें आकाशवाणी द्वारा आदेश दिया गया कि “इस निंदनीय लोक को छोड़कर मेरे भक्तों की प्राप्ति कर।” इस प्रकार स्वस्थता प्रदान करने वाले वाक्य कहे गए।

इस शंका के निराकरण हेतु यह कहा गया है कि स्वस्थता प्रदान करने वाले वाक्य कहना भगवान का कर्तव्य नहीं है। क्योंकि भगवान दयालु हैं और उनकी कृपा में कोई विरोध नहीं होता। नारदजी के कषाय पक्व नहीं हुए थे, परंतु वे शुद्धभाव वाले थे। इसलिए उनकी स्वस्थता हेतु भगवान ने तिरोहित होकर वाक्य द्वारा उनकी स्थिति को सुधारा।

यहां, भक्त की अंतःस्थितिके अनुसार उनके बंधन की तुरंत निवृत्ति करनी होती है। इन बंधनों का नाश केवल विरह के ताप के दुःख और भीतर प्रकट होकर आलिंगन के सुख से ही संभव है। क्योंकि उनके भाव अत्यंत उत्कट होते हैं। यदि भगवान ऐसे भक्त को वाक्य कहकर स्वस्थ करें, तो फल प्राप्ति में विलंब होगा, जिससे उनकी दयालुता में विरोध उत्पन्न हो सकता है। अतः स्वस्थता प्रदान करने वाले वाक्य भगवान का कर्तव्य नहीं है।

उपसंहार:
इस प्रकार भक्तिमार्गीय सन्यास के स्वरूप, साधन, और फल के प्रकार का विचार करके निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है।

श्लोक १४।१

भावार्थ

इस प्रकार यह भक्तिमार्गीय सन्यास अत्यंत दुर्लभ है। यह केवल प्रेम के माध्यम से प्राप्त हो सकता है। तप, दान, और अन्य साधनों से इसकी प्राप्ति संभव नहीं है।

टीका

यह भक्तिमार्गीय परित्याग दुर्लभ है और इसे केवल प्रेम के द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है। अन्यथा, व्रत, दान और तप जैसे साधनों से इसे सिद्ध करना संभव नहीं है। क्योंकि इस प्रकार के त्याग को सिद्ध करने वाला कोई भी साधन शास्त्रों में वर्णित नहीं है। यह केवल प्रेम से ही सिद्ध होता है। यदि भगवान के प्रति प्रेम न हो, तो भक्तिमार्गीय त्याग कभी सिद्ध नहीं हो सकता।

श्लोक १४।२ - १५

भावार्थ

ज्ञानमार्ग में जो सन्यास है, वह ज्ञान की प्राप्ति के लिए (पूर्वाङ्ग) और ज्ञान प्राप्ति के बाद (उत्तराङ्ग) इन दो प्रकारों में वर्णित है। परंतु इन दोनों प्रकार के सन्यास और ज्ञान के द्वारा मोक्ष सेंकड़ों जन्मों में प्राप्त होता है। यज्ञादिक का श्रवण भी ज्ञान के साधन पर ही आधारित है।

टीका

ज्ञानमार्ग में ज्ञान की प्राप्ति हेतु विविदिषा-सन्यास और विद्वत-सन्यास के रूप में दो प्रकार के सन्यास का वर्णन किया गया है। यज्ञादिक का श्रवण भी ज्ञान के साधन की अपेक्षा करता है। इसी कारण ज्ञान के रूप में जो फल है, वह सेंकड़ों वर्षों में ही सिद्ध होता है।

गीता में भी यह कहा गया है:
“ज्ञानवान व्यक्ति अनेक जन्मों के अंत में इस सत्य को जानकर कि ‘सभी वासुदेव हैं,’ मेरी शरण में आता है। ऐसे महात्मा अत्यंत दुर्लभ हैं।”

इससे यह स्पष्ट होता है कि ‘सब वासुदेव रूप हैं’ ऐसी शरणागति ज्ञानवान को अनेक जन्मों के अंत में ही प्राप्त होती है।

कलियुग में सन्यास:
अब यह कहा गया है कि कलियुग में सन्यास के माध्यम से कोई विशेष फल सिद्ध नहीं होता। इसका कारण आगे विस्तार से बताया गया है।

श्लोक १६ - १७।१

भावार्थ

ज्ञानमार्गीय सन्यास कलियुग में केवल पश्चाताप के लिए उपयुक्त होता है, अन्यथा नहीं। इसके अतिरिक्त, यह पाखंड का भी कारण बनता है। अतः कलिकाल के दोषों के कारण ज्ञानमार्ग में सन्यास ग्रहण करना उचित नहीं है।

टीका

ज्ञानमार्ग में ज्ञान कर्म, ध्यान, और भक्ति रूप साधनों की अपेक्षा रखता है। प्रमाण यह कहते हैं कि ज्ञान की उत्पत्ति के लिए सभी साधनों की आवश्यकता होती है। जैसे दूर देश में प्राप्ति के लिए अश्व आदि की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार ज्ञान प्राप्ति के लिए सभी साधनों का साथ अनिवार्य है। श्रुति में कहा गया है कि निष्काम यज्ञ करने वाले ही चित्त की शुद्धि प्राप्त करते हैं। केवल शम और दम के अभ्यास से ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता; आश्रम के अनुसार कर्म का साथ होने पर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसे व्यास सूत्र में स्पष्ट किया गया है।

विविदिषा सन्यास के संदर्भ में यह कहा गया है कि ज्ञान के माध्यम से ही मोक्ष प्राप्त होता है। विद्वत सन्यास मोक्ष का एक अंग है। हालांकि, गीता में यह लिखा है कि ज्ञानी को अनेक जन्मों के अंत में ही शरणागति प्राप्त होती है। शरणागति का अर्थ भक्तिपूर्ण समर्पण है, जिससे यह सिद्ध होता है कि भक्ति के बिना केवल ज्ञान मोक्ष का साधन नहीं हो सकता।

निष्काम यज्ञ चित्त को शुद्ध करता है, लेकिन तभी जब इसे निष्काम भाव से किया जाए। इस चित्त की शुद्धि के बाद ही ज्ञान की प्राप्ति संभव होती है।

विविदिषा सन्यास में साधनों की अत्यधिक आवश्यकता होती है। इनके अभाव में ज्ञान का उदय नहीं हो सकता। यदि कोई दुराग्रह से सन्यास ग्रहण करे, तो ऐसा सन्यास केवल पश्चाताप के लिए होता है, और पाखंड का कारण भी बनता है। यदि व्यक्ति शम और दम में सिद्ध न हो और सन्यास ग्रहण करे, तो उसकी भिक्षा भी शुद्ध नहीं होती। इससे अन्नदोष के कारण अंतःकरण की मलिनता बढ़ जाती है, और काम, क्रोध आदि विकारों के माध्यम से धर्म का नाश होता है।

कलियुग में विद्वत सन्यास संभव नहीं है। इसीलिए शास्त्रों में इसे निषेध किया गया है। सन्यास में अत्यधिक प्रयास की आवश्यकता है। यदि कोई अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए सन्यास ग्रहण करे, तो वह सन्यास आश्रम के धर्म को निभाने में असमर्थ होता है। इस स्थिति में सन्यास केवल वेष मात्र में परिणत हो जाता है, जो पाखंड का रूप ले लेता है।

शास्त्रकारों ने इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि कलियुग में सन्यास ग्रहण नहीं करना चाहिए। गीता और भागवत के 11वें स्कंध में भगवान ने सन्यास ग्रहण की आज्ञा दी है। इन वचनों का विस्तार से विवेचन किया गया है।

कर्तव्य के विचार में निष्कर्ष:
1। कर्ममार्ग में जैमिनि के मतानुसार परित्याग की अकर्तव्यता है।
2। ज्ञानमार्ग में चतुर्थ आश्रम के पक्ष में कर्तव्यता है, लेकिन कलिकाल के कारण आश्रम धर्म का पालन संभव नहीं है, अतः अकर्तव्यता है।
3। भक्तिमार्ग में कर्तव्यता है, लेकिन सन्यास के स्वरूप और धर्म श्रवणादि की सिद्धि में बाधक हैं। अतः स्वरूप से सन्यास ग्रहण करना अकर्तव्य है।
4। भगवान के प्रति प्रेम सिद्ध करने के लिए त्याग करने में सन्यास के स्वरूप और धर्म का विरोध है। अतः सन्यास अकर्तव्य है।
5। भगवान के प्रति प्रेम होने के बाद त्याग स्वतः सिद्ध हो जाता है। अतः सन्यास की कोई अपेक्षा नहीं है।

अब यह विचार किया जाता है कि प्रेम की आरंभिक अवस्था में परित्याग करना उचित है या नहीं। इस प्रश्न का विचार आगे प्रस्तुत है।

श्लोक १७।२ - १८

भावार्थ

यदि भक्तिमार्ग में भी कलियुग के दोष उपस्थित हों, तो क्या करना चाहिए? इस शंका के समाधान में यह कहा गया है कि भक्तिमार्गीय सन्यास के आरंभ में नाश नहीं होता। क्योंकि भक्तिमार्ग में प्रवृत्त हुए किसी व्यक्ति का नाश हुआ हो, ऐसा कोई दृष्टांत नहीं मिलता। स्वस्थता के लिए जो त्याग किया गया है, उसमें बाधा उत्पन्न करना असंभव है।

टीका

यदि वह दोष, जो ज्ञानमार्ग में प्रकट होता है, भक्तिमार्ग में भी आ जाए, तो क्या करना चाहिए? इस शंका के उत्तर में यह कहा गया है कि भक्तिमार्ग में त्याग के आरंभ में नाश नहीं होता। ज्ञानमार्ग में त्याग के आरंभकर्ता को दुःसंग और सहायक कारणों से नाश का सामना करना पड़ता है। परंतु भक्तिमार्ग में त्याग का आरंभ अलौकिक भगवद्भाव के साथ होता है, इसलिए दुःसंग की संभावना भी नहीं रहती। अतः भक्तिमार्गीय त्याग का नाश संभव नहीं है।

यह शंका उठ सकती है कि यदि दुःसंग न हो, तब भी काल, कर्म, और स्वभाव के कारण नाश हो सकता है। इसका समाधान यह है कि मर्यादामार्गीय त्याग करने वालों, जैसे आग्नीध्र और भरतादिक, का काल आदि के कारण नाश हुआ, परंतु शुद्ध पुष्टिमार्गीय भक्तों का नाश कभी नहीं हुआ।

भक्तिमार्ग का त्याग भगवद्धर्म है। निमिराज ने श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कंध के द्वितीय अध्याय में यह प्रश्न किया, जिसका उत्तर कवियोगेश्वर ने दिया। उन्होंने कहा, “भगवान की प्राप्ति के लिए ऐसे धर्मों का उल्लेख किया गया है, जो बिना श्रम के भी भगवान की प्राप्ति कराते हैं। इन्हें भगवद्धर्म कहते हैं।” इसके बाद उन्होंने कहा, “वे धर्म, जिनसे कोई भी जीव प्रमादयुक्त नहीं होता, जैसे बंद आँखों से दौड़ने पर भी कोई ठोकर न खाए और न गिरे,” यहां से आरंभ कर, “लज्जा रहित होकर भगवान के गुणों का गान करते हुए असंग होकर विचरण करे,” तक इसे भगवद्धर्म कहा गया है।

इस प्रकार, भगवद्धर्म के आरंभ में नाश नहीं होता।

शंका:
यदि भगवद्धर्म के आरंभ में नाश न हो, तब भी देह की रक्षा के लिए भिक्षा आदि की आवश्यकता से फल में विलंब हो सकता है। ऐसी बाधा कैसे दूर होगी? इसका उत्तर यह है कि त्यागकर्ता के लिए स्वस्थता के कारण रूप में चार वर्णों में भिक्षा और माला-चंदन आदि का त्याग किया गया है। अतः इससे कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती।

भगवान के विप्रयोग के ताप के कारण भक्तिमार्गीय त्याग होता है, जो बाह्य पदार्थों से निवृत्ति के माध्यम से नहीं होता। अतः किसी भी प्रकार से इसमें बाधा उत्पन्न नहीं हो सकती।

निष्कर्ष:
दृश्य और अदृश्य दोनों उपायों से भक्तिमार्गीय त्याग को नष्ट करने वाला कोई कारण नहीं है। भगवान या उनकी माया भी इसे बाधित नहीं कर सकते। यही इस टीका में स्पष्ट किया गया है।

श्लोक १९

भावार्थ

इस मार्ग में स्वयं हरि भी बाधा करने में असमर्थ हैं, तो अन्य कोई कैसे बाधा उत्पन्न कर सकता है? यदि हरि स्वयं बाधा करें, तो यह वैसा ही होगा जैसे माता अपने बच्चे को दूध से पोषण न करे।

टीका

हरि सर्व दुःखों के हर्ता हैं, और इसलिए इस मार्ग में, भगवान होते हुए भी बाधा करने में समर्थ नहीं हो सकते। इसका कारण यह है कि हरि को सभी भावों और उनके परिणामों का पूर्ण ज्ञान है। उन्हें यह ज्ञात है कि इस भाव के नाश में किसी भी कारण की कमी है। इसके अतिरिक्त, भगवान अपने भक्तों के भाव के अधीन होते हैं, इसलिए वे अपनी असमर्थता को समझते हुए बाधा उत्पन्न करने के लिए प्रवृत्त नहीं होते।

जब स्वयं हरि बाधा नहीं कर सकते, तो अन्य किसी के द्वारा बाधा कैसे संभव हो सकती है? इसके लिए दृष्टांत दिया गया है कि यदि भगवान बाधा करें, तो यह उस माता की भांति होगा जो अपने स्तन का दूध देकर बच्चे का पोषण न करे। अर्थात, जो भगवान स्वयं धर्म की उत्पत्ति और उसकी रक्षा करते हैं, यदि वे बाधा करें, तो यह उसी प्रकार होगा जैसे कोई माता अपने बच्चे को उत्पन्न करके उसकी रक्षा करने के बजाय उसे पोषण न दे।

इससे यह सिद्ध होता है कि इस मार्ग के नाश के लिए कोई भी बाधा उत्पन्न नहीं हो सकती।

श्लोक २०

भावार्थ

मार्कण्डेय पुराण में यह कहा गया है कि “ज्ञानी के चित्त को समर्थ देवी अपने बल से खींचकर मोह में डाल देती हैं।” परंतु भक्त के लिए ऐसा नहीं कहा गया है। क्योंकि यह वाक्य केवल ज्ञानी के चित्त के मोह के विषय में है, भक्त के विषय में नहीं। भगवान, जो स्वरूपानंद प्रदान करने वाले और प्रिय हैं, वे भक्तों को क्यों मोह में डालेंगे?

टीका

इससे स्पष्ट होता है कि जो किसी के प्रिय होता है, उसके कार्य में विलंब होने पर भी सहनशीलता बनी रहती है। जहां स्वरूपानंद देने की भगवान की इच्छा होती है, वहां भगवान ज्ञानी को मोह उत्पन्न करने वाली माया से भी रक्षा करते हैं। लेकिन जहां स्वरूपानंद देने की इच्छा नहीं होती, वहां वे ऐसा नहीं करते।

जैसे द्विजपत्नियों ने “हम प्रभु के पास जाकर सेवा करेंगे” ऐसा विचार कर सभी सामग्रियों की व्यवस्था की और पति, बंधु-बांधवों का त्याग कर भगवान के पास पहुंचीं। फिर भी, उनके प्रति स्वरूपानंद देने की भगवान की इच्छा न होने के कारण भगवान ने उन्हें यह उपदेश दिया कि “यहां मनुष्य को अंगसंग, प्रीति और स्नेह के लिए नहीं लाया गया है। अतः अपने मन को मुझमें लगाने का प्रयास करो, थोड़े समय में मुझसे जुड़ जाओगी।”

दूसरी ओर, व्रजभक्तों के प्रति भगवान की स्वरूपानंद देने की इच्छा तीव्र होने के बावजूद उन्होंने भी “घर वापस जाओ” यही वचन दिया। फिर भी, जब यह कहा कि “रात्रि अंधकारमय है, और चंद्रमा की किरणों से आलोकित वन तुम्हें भटकने में बाधा देगा,” तो उन्होंने उद्दीपन विभाव के माध्यम से भावनाओं को प्रकट किया।

द्विजपत्नियां, जिन्हें मोह उत्पन्न हुआ, चली गईं। लेकिन व्रजभक्त, जिन्हें मोह उत्पन्न नहीं हुआ, भगवान के प्रत्येक वचन का प्रत्युत्तर देने में सक्षम रहे। इसी प्रकार, उद्धवजी के संदेश के दौरान भी भगवान ने ज्ञानमार्गीय संदेश प्रेषित किया, लेकिन व्रजभक्तों में मोह उत्पन्न नहीं हुआ।

उद्धवजी ने जब गोपीजन के कृष्ण-प्रेम की गहनता और उनकी आत्मिक विकलता देखी, तो अपने उपदेश की निष्फलता को स्वीकार किया। उन्होंने गोपियों के प्रेम की अनिर्वचनीय उत्कृष्टता को देखा और स्वयं में हीनता का अनुभव किया। गोपियों के चरणों को स्पर्श करने के योग्य न मानते हुए, उन्होंने चरणरेणु को वंदन किया। यहां तक कि उन्होंने एक ही चरणरेणु को वंदन किया, यह मानते हुए कि अधिक चरणरेणुओं का वंदन करना उनकी योग्यता से परे है।

इस प्रकार, जहां भगवान स्वरूपानंद देने की इच्छा रखते हैं, वहां ज्ञानमार्गीय वाक्य से मोह उत्पन्न नहीं होता।

उपसंहार:
इस प्रकार, सन्यास निर्णय के विभिन्न पक्षों को प्रस्तुत करते हुए इसका समापन किया गया है।

श्लोक २१ - २२

भावार्थ

भक्तिमार्गीय सन्यास का स्वरूप इस प्रकार है कि भगवान के विरह का अनुभव करने के लिए उपर्युक्त विधि से त्याग किया जाए। यदि ऐसा न किया जाए, तो व्यक्ति स्वार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा, ऐसा मेरा निश्चित मत है। श्रीकृष्ण के प्रसाद से प्रेरित होकर श्रीवल्लभाचार्यजी ने भक्तिमार्ग में सन्यास को अपनाना निश्चित किया है। अन्य किसी विधि से सन्यास करने वाला पतित हो जाता है।

टीका

सन्यास के अन्य सभी प्रकार दोषपूर्ण और असंभावित हैं। अतः यह सन्यास वही होना चाहिए जैसा भगवान ने उद्धवजी को बताया था। उसी विधि से सन्यास करना उचित है। यदि व्यक्ति इस विधि का अधिकारी न हो और फिर भी त्याग करे, तो वह अपने स्वार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा, ऐसा मेरी निश्चित बुद्धि है।

जैसा त्याग उद्धवजी ने किया था, वह श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कंध के चतुर्थ अध्याय में वर्णित है। उद्धवजी ने विदुरजी से कहा था, “मैं यहां भगवान के दर्शन के आनंद और वियोग की व्याकुलता के साथ आया हूं।” इस प्रकार उद्धवजी के वाक्य से त्याग का स्वरूप प्रकट हुआ।

त्याग का यह स्वरूप श्रीकृष्ण के प्रसाद से ही जाना जाता है। इसे स्पष्ट करने के लिए मूल में “श्रीकृष्ण के प्रसाद से” कहा गया है, जिसे श्रीमहाप्रभुजी ने आज्ञा स्वरूप स्वीकार किया है। इस प्रकार भक्तिमार्ग में सन्यास भगवान को वरण करने के रूप में ही है। यदि भक्ति के बिना त्याग किया जाए, तो वह व्यक्ति पतित हो जाता है।

ग्रंथ के प्रारंभ में परित्याग के विचार को प्रस्तुत किया गया है, और समाप्ति में उसी प्रकार से परित्याग करने की बात कही गई है। इसके बाद श्रीकृष्ण के प्रसाद से सन्यास को निश्चित करने की चर्चा की गई है। यह दर्शाता है कि श्रीआचार्यजी को देह और देश के परित्याग विषयक दो आज्ञाएँ प्राप्त हुई थीं, जिन्हें प्रमाणित न कर पाने का खेद था।

जब लोक परित्याग विषयक तीसरी आज्ञा प्राप्त हुई, तब उन्होंने उस आज्ञा के वाक्यार्थ का विचार किया और उसी प्रकार से कार्य किया। भगवान विशेष रूप से प्रसन्न होकर श्रीआचार्यजी के मन में सन्यास के स्वरूप की स्फूर्ति करते हैं। यही बोध अंतिम श्लोक में प्रकट होता है।

इसका अभिप्राय यह है कि पूर्वोक्त प्रकार से किए गए परित्याग के विचार से भगवान को प्रिय यह निष्कर्ष निकला कि भक्तिमार्ग में उद्धवजी के समान सन्यास को अपनाना निश्चित किया गया। उद्धवजी को भगवान ने आज्ञा दी थी कि “सब कुछ छोड़कर मेरा मन में प्रवेश करो और पृथ्वी पर विचरण करो।”

यदि यह प्रमाणित आज्ञा न हो और सन्यास ग्रहण किया जाए, तो व्यक्ति पतित हो जाता है। क्योंकि भक्तिमार्ग और सन्यास के धर्म परस्पर विरोधी हैं। भगवान की आज्ञा के बिना, अथवा अंतःकरण में भगवान के विरह का भाव न उत्पन्न हुए भी यदि सन्यास ग्रहण किया जाए, तो व्यक्ति भक्तिमार्ग से च्युत हो जाता है।

अंतिम निष्कर्ष:
सन्यास का यह निर्णय भक्तिमार्ग में त्याग के स्वरूप को दर्शाता है और इसे सही ढंग से अपनाने की प्रक्रिया को सुनिश्चित करता है।


॥इति श्रीमद्वल्लभाचार्यजी कृत सन्यास निर्णयकी गोस्वामी श्रीनृसिंहलालजी महाराज विरचित संक्षिप्त भाषाटीका समाप्त भई॥