जगत में जितने भी जीव हैं, वे सभी चिदंशरूप और भगवदंशपने से समान हैं। उनमें से कुछ को श्रीपुरुषोत्तम की प्राप्ति होती है, कुछ को अक्षरब्रह्म की, कुछ को स्वर्गादि की, और कुछ को अन्धतम की।
यहां यह शंका उठती है कि इन फलों में भेद क्यों है? स्वभाव में भेद क्यों है? कुछ के स्वभाव के विपरीत देह और क्रिया क्यों हैं, और कुछ के स्वभावानुकूल देह और क्रिया क्यों हैं? इन भेदों को समझने और सन्देहों को मिटाने के लिए उपायभूत मार्ग और मार्ग की सामर्थ्य का निरूपण किया जाता है। यह सभी भेदों को समझने से सभी प्रकार के सन्देहों की निवृत्ति संभव है। इसी विचार से तीन मार्गों के भेद का निरूपण प्रस्तुत किया जाता है।
पुष्टि-प्रवाह-मर्यादा विशेषेण पृथक्पृथक् । जीव-देह-क्रिया भेदैः प्रवाहेण फलेन च ॥ १ ॥
पुष्टिप्रवाहमर्यादा विशेषेण पृथक्पृथक् । जीवदेहक्रिया भेदैः प्रवाहेण फलेन च ॥ १ ॥
प्रवाह (प्रवाह) और मर्यादा (मर्यादा) को विशेष रूप से (विशेषेण) अलग-अलग (पृथक्पृथक्) रूप में समझाया गया है। यह भेद जीव (जीव-भेद), देह (देह-भेद), और क्रियाओं (क्रिया-भेदैः) में देखा जाता है, और प्रवाह के माध्यम से (प्रवाहेण) और उनके परिणामों (फलेन च) के द्वारा प्रकट होता है।
वक्ष्यामि सर्व-सन्देहा न भविष्यन्ति यत्-श्रुतेः । भक्ति-मार्गस्य कथनात् पुष्टि: अस्ति इति निश्चयः ॥ २ ॥
वक्ष्यामि सर्वसन्देहा न भविष्यन्ति यच्छ्रुतेः । भक्तिमार्गस्य कथनात्पुष्टिरस्तीति निश्चयः ॥ २ ॥
मैं बताऊँगा (वक्ष्यामि), जिससे सभी संदेह (सर्व-सन्देहा) समाप्त हो जाएंगे (न भविष्यन्ति), क्योंकि यह श्रुति (यत्-श्रुतेः) पर आधारित है। भक्ति मार्ग (भक्ति-मार्गस्य) के वर्णन से (कथनात्), पुष्टि (पुष्टि:) की सत्यता (अस्ति) का निश्चय (इति निश्चयः) हो जाता है।
द्वै भूत-सर्ग (द्वौ भूत-सर्गौ) का उल्लेख (इति उक्तेः) प्रवाह (प्रवाहः) की व्यवस्थितता (अपि व्यवस्थितः) को भी दर्शाता है। वेद के विद्यमान होने के कारण (वेदस्य विद्यमानत्वात्), मर्यादा (मर्यादा अपि) भी व्यवस्थित (व्यवस्थितः) है।
कश्चिदेव हि भक्तः हि यः मद्-भक्तः इति ईरणात् । सर्वत्र उत्कर्ष-कथनात् पुष्टि: अस्ति इति निश्चयः ॥ ४ ॥
कश्चिदेव हि भक्तो हि यो मद्भक्त इतीरणात् । सर्वत्रोत्कर्षकथनात्पुष्टिरस्तीति निश्चयः ॥ ४ ॥
किसी विशिष्ट व्यक्ति (कश्चिदेव) का भक्त होना (हि भक्तः), और "जो मेरा भक्त है" (यः मद्-भक्तः) इस प्रकार की श्रुति (इति ईरणात्) द्वारा प्रकट किया गया है। सर्वत्र उत्कर्ष (सर्वत्र उत्कर्ष-कथनात्) के वर्णन से पुष्टि (पुष्टि:) की सत्यता (अस्ति) का निश्चय (इति निश्चयः) होता है।
न सर्वः अतः प्रवाहात् हि भिन्नः वेदात् च भेदतः । यदा यस्य इति वचनात् न अहम् वेदैः इति ईरणात् ॥ ५ ॥
न सर्वोऽतः प्रवाहाद्धि भिन्नो वेदाच्च भेदतः । यदा यस्येति वचनान्नाहं वेदैरितीरणात् ॥ ५ ॥
न हर व्यक्ति (न सर्वः) प्रवाह से (अतः प्रवाहात्) और वेद से (हि भिन्नः वेदात्) पूर्णतः भिन्न होता है, क्योंकि यह भेद (भेदतः) ज्ञान और विवेक के आधार पर होता है। “जब-जब जिसका” (यदा यस्य इति वचनात्) यह श्रुति प्रमाणित करती है, और “मैं वेदों से परे हूँ” (न अहम् वेदैः इति ईरणात्) यह उद्घोषणा भी ब्रह्म के व्यापक और असीम स्वरूप को समझाने का संकेत देती है।
मार्ग-एकत्वे अपि चेत्-अन्त्यौ तनू भक्ति-आगमौ मतौ । न तत्-युक्तं सूत्रतः हि भिन्नः युक्त्या हि वैदिकः ॥ ६ ॥
मार्गेकत्वेऽपि चेदन्त्यौ तनू भक्त्यागमौ मतौ । न तद्युक्तं सूत्रतो हि भिन्नो युक्त्या हि वैदिकः ॥ ६ ॥
मार्ग के एकत्व (मार्ग-एकत्वे) के बावजूद, यदि भक्ति और आगम (भक्ति-आगमौ) के अंतिम स्वरूप (चेत्-अन्त्यौ तनू) को मान्यता दी जाती है (मतौ), तो यह सूत्रतः (न तत्-युक्तं सूत्रतः) सही नहीं होता। क्योंकि वेद (वैदिकः) युक्ति के आधार पर (युक्त्या हि) एक स्पष्ट भिन्नता (हि भिन्नः) स्थापित करता है।
जीव-देह-कृतीनां च भिन्नत्वं नित्यता-श्रुतेः । यथा तद्वत् पुष्टि-मार्गे द्वयोः अपि निषेधतः ॥ ७ ॥
जीवदेहकृतीनां च भिन्नत्वं नित्यताश्रुतेः । यथा तद्वत्पुष्टिमार्गे द्वयोरपि निषेधतः ॥ ७ ॥
जीव (जीव-देह-कृतीनां) और उनके कार्यों में भिन्नता (भिन्नत्वं) नित्यता से संबंधित श्रुति (नित्यता-श्रुतेः) के आधार पर स्पष्ट होती है। उसी प्रकार (यथा तद्वत्), पुष्टि मार्ग (पुष्टि-मार्गे) में भी इन दोनों (द्वयोः अपि) के निषेध (निषेधतः) का उल्लेख मिलता है।
प्रमाण-भेदात् भिन्नः हि पुष्टि-मार्गः निरूपितः । सर्ग-भेदं प्रवक्ष्यामि स्व-रूप-अंग-क्रिया-युतम् ॥ ८ ॥
प्रमाणभेदाद्भिन्नो हि पुष्टिमार्गो निरूपितः । सर्गभेदं प्रवक्ष्यामि स्वरूपांगक्रियायुतम् ॥ ८ ॥
जीव (जीव-देह-कृतीनां) और उनके कार्यों में भिन्नता (भिन्नत्वं) नित्यता से संबंधित श्रुति (नित्यता-श्रुतेः) के आधार पर स्पष्ट होती है। उसी प्रकार (यथा तद्वत्), पुष्टि मार्ग (पुष्टि-मार्गे) में भी इन दोनों (द्वयोः अपि) के निषेध (निषेधतः) का उल्लेख मिलता है।
इच्छा- मात्रेण मनसा प्रवाहं सृष्टवान् हरिः । वचसा वेद- मार्गं हि पुष्टि कायेन निश्चयः ॥ ९ ॥
इच्छामात्रेण मनसा प्रवाहं सृष्टवान् हरिः । वचसा वेदमार्गं हि पुष्टि कायेन निश्चयः ॥ ९ ॥
इच्छा मात्र से (इच्छा- मात्रेण) और मन से (मनसा) हरि (हरिः) ने प्रवाह (प्रवाहं) को उत्पन्न किया (सृष्टवान्)। वचन (वचसा) के माध्यम से वेद का मार्ग (वेद- मार्गं) प्रकट हुआ, और पुष्टि (पुष्टि) का निश्चय (निश्चयः) कार्य के द्वारा (कायेन) किया गया।
मूल-इच्छातः फलं लोके वेद-उक्तं वैदिके अपि च । कायेन तु फलं पुष्टौ भिन्न-इच्छातः अपि न एकधा ॥ १० ॥
मूलेच्छातः फलं लोके वेदोक्तं वैदिकेऽपि च । कायेन तु फलं पुष्टौ भिन्नेच्छातोऽपि नैकधा ॥ १० ॥
लोक में (लोके) मूल इच्छा से (मूल-इच्छातः) प्राप्त फल (फलं) वेद में बताए गए हैं (वेद-उक्तं) और वैदिक मार्ग (वैदिके अपि च) में भी यही सत्य है। जबकि पुष्टि में (पुष्टौ), कर्म (कायेन) के माध्यम से फल की प्राप्ति होती है (तु फलं), और यह भिन्न इच्छाओं (भिन्न-इच्छातः) के कारण होता है, किंतु यह एक समान (न एकधा) नहीं है।
जो जीव (तान् जीवाः) हरि के प्रति द्वेष रखते हैं (अहम् द्विषतः) और उनके वचनों से विचलित होते हैं (वाक्यात्), वे प्रवाह में स्थित भिन्न जीव (भिन्ना-जीवाः प्रवाहिणः) होते हैं। अतः (अतः एव), अन्य दो मार्ग (इतरौ) — प्रवाह और मर्यादा — दोनों भिन्न (भिन्नौ) होते हैं, किंतु मोक्ष (मोक्ष-प्रवेशतः) के अंतिम लक्ष्य (सान्तौ) में प्रवेश के लिए सक्षम होते हैं।
तस्मात् जीवाः पुष्टि-मार्गे भिन्नाः एव न संशयः । भगवत्-रूप-सेवार्थं तत्-सृष्टिः न अन्यथा भवेत् ॥ १२ ॥
तस्माज्जीवाः पुष्टिमार्गे भिन्ना एव न संशयः । भगवद्रूपसेवार्थं तत्सृष्टिर्नान्यथा भवेत् ॥ १२ ॥
तस्मात् (इसलिए), पुष्टि मार्ग में जीव (जीवाः पुष्टि-मार्गे) निश्चित रूप से भिन्न (भिन्नाः एव) होते हैं, इसमें कोई संशय (न संशयः) नहीं है। भगवत स्वरूप की सेवा (भगवत्-रूप-सेवार्थं) के लिए ही यह सृष्टि (तत्-सृष्टिः) की गई है, और यह अन्यथा (न अन्यथा) नहीं हो सकती।
स्वरूपेण अवतारेण लिंगेन च गुणेन च । तारतम्यं न स्वरूपे देहे वा तत्-क्रियासु वा ॥ १३ ॥
स्वरूपेणावतारेण लिंगेन च गुणेन च । तारतम्यं न स्वरूपे देहे वा तत्क्रियासु वा ॥ १३ ॥
स्वरूप, अवतार, लिंग और गुण (स्वरूपेण अवतारेण लिंगेन च गुणेन च) के माध्यम से भिन्नता (तारतम्यं) स्पष्ट होती है। किंतु यह भिन्नता (न स्वरूपे) न तो स्वरूप में है, न शरीर (देहे वा), और न ही क्रियाओं (तत्-क्रियासु वा) में है।
तथापि यावता कार्यं तावत् तस्य करोति हि । ते हि द्विधा शुद्ध-मिश्र-भेदात् मिश्राः त्रिधा पुनः ॥ १४ ॥
तथापि यावता कार्यं तावत्तस्य करोति हि । ते हि द्विधा शुद्धमिश्रभेदान्मिश्रास्त्रिधा पुनः ॥ १४ ॥
तथापि, जितना कार्य निर्धारित है (तथापि यावता कार्यं), उतना ही वह करता है (तावत् तस्य करोति हि)। वे (ते हि) दो प्रकार के होते हैं (द्विधा)—शुद्ध और मिश्रित (शुद्ध-मिश्र-भेदात्)। मिश्रित (मिश्राः) पुनः तीन प्रकार के होते हैं (त्रिधा पुनः)।
प्रवाह आदि (प्रवाह-आदि-विभेदेन) के भेदों के माध्यम से, भगवत कार्य (भगवत्-कार्य) की सिद्धि (सिद्धये) होती है। पुष्टि के माध्यम से (पुष्ट्या), मिश्रित (विमिश्राः) और सर्वज्ञ (सर्व-ज्ञाः) जीव प्रवाह द्वारा (प्रवाहेण) क्रियाओं में संलग्न रहते हैं (क्रिया-रताः)।
मर्यादया गुण-ज्ञाः ते शुद्धाः प्रेम्णा अति-दुर्लभाः । एवं सर्गः तु तेषां हि फलम् तत्र निरूप्यते ॥ १६ ॥
मर्यादया गुणज्ञास्ते शुद्धाः प्रेम्णातिदुर्लभाः । एवं सर्गस्तु तेषां हि फलं त्वत्र निरूप्यते ॥ १६ ॥
मर्यादा के माध्यम से (मर्यादया), जो गुणों को जानने वाले (गुण-ज्ञाः) होते हैं, वे शुद्ध (शुद्धाः) होते हैं और प्रेम द्वारा (प्रेम्णा) अत्यंत दुर्लभ (अति-दुर्लभाः) माने जाते हैं। इस प्रकार (एवं), उनके सृजन (सर्गः) का फल (फलम्) वहाँ (तत्र) स्पष्ट रूप से वर्णित किया गया है (निरूप्यते)।
भगवान् एव हि फलम् स यथा अविर्भवेत् भुवि । गुण-स्वरूप-भेदेन तथा तेषां फलम् भवेत् ॥ १७ ॥
भगवानेव हि फलम् स यथाविर्भवेत् भुवि । गुणस्वरूपभेदेन तथा तेषां फलम् भवेत् ॥ १७ ॥
भगवान् ही (भगवान् एव) अंतिम फल (हि फलम्) हैं, जो (स) भुवि में (भुवि) प्रकट (अविर्भवेत्) होते हैं। गुण और स्वरूप के भेद (गुण-स्वरूप-भेदेन) के अनुसार, उसी प्रकार (तथा) उनके फलों का (तेषां फलम्) निर्माण (भवेत्) होता है।
आसक्तौ भगवान् एव शापं दापयति क्वचित् । अहंकारे अथवा लोके तन्-मार्ग-स्थापनाय हि ॥ १८ ॥
आसक्तौ भगवानेव शापं दापयति क्वचित् । अहंकारेऽथवा लोके तन्मार्गस्थापनाय हि ॥ १८ ॥
आसक्ति के कारण (आसक्तौ), भगवान् स्वयं (भगवान् एव) कभी-कभी (क्वचित्) शाप प्रदान करते हैं (शापं दापयति)। यह शाप अहंकार में (अहंकारे) या लोक में (अथवा लोके) उस मार्ग की स्थापना के लिए (तन्-मार्ग-स्थापनाय हि) दिया जाता है।
न ते पाषण्डतां यान्ति न च रोग-आदि-उपद्रवः । महानुभावाः प्रायेण शास्त्रं शुद्धत्व-हेतवे ॥ १९ ॥
न ते पाषण्डतां यान्ति न च रोगाद्युपद्रवः । महानुभावाः प्रायेण शास्त्रं शुद्धत्वहेतवे ॥ १९ ॥
वे (न ते) पाखंडता (पाषण्डतां) को प्राप्त नहीं करते (यान्ति) और न ही रोग आदि (रोग-आदि-उपद्रवः) के संकट उनमें होते हैं। महानुभाव (महानुभावाः) सामान्यतः (प्रायेण) शास्त्र का उपयोग (शास्त्रं) शुद्धता के कारण (शुद्धत्व-हेतवे) करते हैं।
भगवत्-तारतम्येन तारतम्यं भजन्ति हि । लौकिकत्वं वैदिकत्वं कापट्यात् तेषु न अन्यथा ॥ २० ॥
भगवत्तारतम्येन तारतम्यं भजन्ति हि । लौकिकत्वं वैदिकत्वं कापट्यात्तेषु नान्यथा ॥ २० ॥
भगवान के तारतम्य (भगवत्-तारतम्येन) के आधार पर, वे भी तारतम्य का पालन करते हैं (तारतम्यं भजन्ति हि)। उनमें (तेषु) लौकिकता (लौकिकत्वं) और वैदिकता (वैदिकत्वं) कापट्य से (कापट्यात्) नहीं होती, बल्कि यह अन्यथा भी नहीं हो सकती (न अन्यथा)।
वैष्णवत्वं हि सहजं ततः अन्यत्र विपर्ययः । सम्बन्धिनः तु ये जीवाः प्रवाह-स्थाः तथा अपरे ॥ २१ ॥
वैष्णवत्वं हि सहजं ततोऽन्यत्र विपर्ययः । सम्बन्धिनस्तु ये जीवाः प्रवाहस्थास्तथापरे ॥ २१ ॥
वैष्णवत्व (वैष्णवत्वं) स्वाभाविक रूप से सहज (हि सहजं) है, जबकि अन्यत्र (ततः अन्यत्र) विपरीत स्थिति (विपर्ययः) होती है। जो जीव भगवान् से संबंधित (सम्बन्धिनः तु ये जीवाः) होते हैं, वे प्रवाह में स्थित (प्रवाह-स्थाः) रहते हैं, और अन्य (तथा अपरे) उनसे भिन्न होते हैं।
चर्षणी-शब्द-वाच्याः ते ते सर्वे सर्व-वर्त्मसु । क्षणात् सर्वत्वम् आयान्ति रुचिः तेषां न कुत्रचित् ॥ २२ ॥
चर्षणीशब्दवाच्यास्ते ते सर्वे सर्ववर्त्मसु । क्षणात्सर्वत्वमायान्ति रुचिस्तेषां न कुत्रचित् ॥ २२ ॥
चर्षणी शब्द से इंगित (चर्षणी-शब्द-वाच्याः) वे सभी जीव (ते ते सर्वे) विभिन्न मार्गों (सर्व-वर्त्मसु) में विचरण करते हैं। वे क्षणभर में (क्षणात्) सर्वव्यापकता (सर्वत्वम् आयान्ति) को प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन उनकी रुचि (रुचिः तेषां) किसी एक स्थान (न कुत्रचित्) पर स्थिर नहीं होती।
तेषां क्रिया-अनुसारेण सर्वत्र सकलं फलम् । प्रवाह-स्थान् प्रवक्ष्यामि स्व-रूप-अङ्ग क्रिया-युतान् ॥ २३ ॥
तेषां क्रियानुसारेण सर्वत्र सकलं फलम् । प्रवाहस्थान् प्रवक्ष्यामि स्वरूपांग क्रियायुतान् ॥ २३ ॥
उनकी क्रियाओं के अनुसार (तेषां क्रिया-अनुसारेण), हर स्थान (सर्वत्र) पर सभी फल (सकलं फलम्) प्राप्त होते हैं। मैं प्रवाह में स्थित (प्रवाह-स्थान्) उन जीवों का वर्णन करूंगा (प्रवक्ष्यामि), जो अपने स्व-रूप (स्व-रूप) और अंगों (अङ्ग) के साथ क्रियाओं (क्रिया-युतान्) में संलग्न होते हैं।
जीवाः ते हि आसुराः सर्वे प्रवृत्तिं च इति वर्णिताः । ते च द्विधा प्रकीर्त्यन्ते हि अज्ञ-दुर्ज्ञ-विभेदतः ॥ २४ ॥
जीवास्ते ह्यासुराः सर्वे प्रवृत्तिं चेति वर्णिताः । ते च द्विधा प्रकीर्त्यन्ते ह्यज्ञदुर्ज्ञविभेदतः ॥ २४ ॥
वे सभी जीव (जीवाः ते हि) आसुर प्रवृत्ति के (आसुराः) माने गए हैं (सर्वे प्रवृत्तिं च इति वर्णिताः)। इन जीवों को (ते च) दो प्रकार में विभाजित किया गया है (द्विधा प्रकीर्त्यन्ते), अर्थात् अज्ञ (अज्ञ) और दुर्ज्ञ (दुर्ज्ञ) के भेद के अनुसार (विभेदतः)।
दुर्ज्ञाः ते भगवत्-प्रोक्ताः हि अज्ञाः तान् अनु ये पुनः । प्रवाहे अपि समागत्य पुष्टि-स्थैः तैः न युज्यते । सः अपि तैः तत्-कुले जातः कर्मणा जायते यतः ॥ २५ ॥
दुर्ज्ञास्ते भगवत्प्रोक्ता ह्यज्ञास्ताननु ये पुनः । प्रवाहेऽपि समागत्य पुष्टिस्थस्तैर्न युज्यते । सोऽपि तैस्तत्कुले जातः कर्मणा जायते यतः ॥ २५ ॥
दुर्ज्ञ जीव (दुर्ज्ञाः ते), जिन्हें भगवान द्वारा वर्णित किया गया है (भगवत्-प्रोक्ताः), वे अज्ञ जीवों का अनुसरण करते हैं (हि अज्ञाः तान् अनु ये पुनः)। प्रवाह में आने के बावजूद (प्रवाहे अपि समागत्य), वे पुष्टि मार्ग में स्थित जीवों के साथ (पुष्टि-स्थैः तैः) जुड़ नहीं पाते (न युज्यते)।
जो व्यक्ति उनके कुल में जन्म लेता है (सः अपि तैः तत्-कुले जातः), वह कर्म के कारण (कर्मणा जायते यतः) उनके समान प्रवृत्त होता है।
info
आगे प्रवाहमार्गीय जीवन के प्रयोजन, स्वरूप, साधन, अङ्ग, क्रिया और फल, तथा मर्यादामार्गीय जीवन के प्रयोजन, स्वरूप, अङ्ग, क्रिया, साधन और फल के विषय में जितने ग्रंथों में जानकारी मिल सके, उतने ग्रंथों का होना आवश्यक है।
परंतु आधुनिक जीवन की परिस्थितियों के चलते, आगे ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। इसी कारण, जो ग्रंथ उपलब्ध हैं, उन्हीं का व्याख्यान लिखा गया है।