पुष्टि-प्रवाह-मर्यादाभेदः - गोस्वामी श्रीनृसिंहलालजी महाराज द्वारा टीका
जगत में जितने भी जीव हैं, वे सभी चिदंशरूप और भगवदंशपने से समान हैं। उनमें से कुछ को श्रीपुरुषोत्तम की प्राप्ति होती है, कुछ को अक्षरब्रह्म की, कुछ को स्वर्गादि की, और कुछ को अन्धतम की।
यहां यह शंका उठती है कि इन फलों में भेद क्यों है? स्वभाव में भेद क्यों है? कुछ के स्वभाव के विपरीत देह और क्रिया क्यों हैं, और कुछ के स्वभावानुकूल देह और क्रिया क्यों हैं? इन भेदों को समझने और सन्देहों को मिटाने के लिए उपायभूत मार्ग और मार्ग की सामर्थ्य का निरूपण किया जाता है। यह सभी भेदों को समझने से सभी प्रकार के सन्देहों की निवृत्ति संभव है। इसी विचार से तीन मार्गों के भेद का निरूपण प्रस्तुत किया जाता है।
श्लोक १ - २.१
पृथक्-पृथक् – अलग-अलग; विशेषेण – विशेष रूप से; जीव-देह-क्रिया-भेदै: – जीव, देह और क्रिया के भेद से; प्रवाहेण – प्रवाह से; च – और; फलेन – फल से। पुष्टि-प्रवाह-मर्यादा: – पुष्टि, प्रवाह और मर्यादा; (अहं) – मैं; वक्ष्यामि – कह रहा हूं। यत् – जो; श्रुते: – सुना गया है; सर्वसन्देहाः – सभी प्रकार के सन्देह; न – नहीं; भविष्यन्ति – होंगे।
भावार्थ-टीका
पुष्टि, प्रवाह और मर्यादा—इन तीन मार्गों के अंतर इस प्रकार स्पष्ट किए जाते हैं:
- धर्म द्वारा: प्रत्येक मार्ग के लिए विशिष्ट धर्म या सिद्धांत होते हैं, जो उन्हें अन्य मार्गों से अलग बनाते हैं।
- जीवों के भेद द्वारा: सृष्टि की अविच्छिन्न परम्परा में हर मार्ग के जीव, उनके स्वरूप, शरीर, और कर्मों में भेद होता है।
- फल द्वारा: हर मार्ग के फल और परिणाम भी एक-दूसरे से भिन्न होते हैं।
इन तीनों पहलुओं पर विचार करने से और उनके धर्म, जीवों के स्वरूप, शरीर, क्रियाओं, सृष्टि और फल के ज्ञान से सभी प्रकार के संदेह समाप्त हो जाएंगे।
इस प्रकार, इन मार्गों की गहरी समझ शास्त्र के सिद्धांत को स्पष्ट करती है और जीवन के हर प्रश्न का समाधान प्रस्तुत करती है।
श्लोक २.२
भक्तिमार्गस्य – भक्तिमार्ग के; कथनात् – कहने से; पुष्टि: – पुष्टि; अस्ति – है; इति – ऐसा; निश्चय: – निश्चितता (अस्ति – है)।
भावार्थ
शास्त्रों में भक्तिमार्ग को स्पष्ट रूप से एक अलग मार्ग के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि यह मार्ग भगवान के अनुग्रह पर आधारित है। इसी से पुष्टि मार्ग की अनूठी और स्वतंत्रता स्पष्ट हो जाती है।
टीका
इस लोक और परलोक की सभी इच्छाओं को छोड़कर, प्रभु में मन लगाना ही ‘भक्ति’ कहलाती है। यह भक्ति केवल भगवान के अनुग्रह से प्राप्त होती है।
श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध में ऋषभदेवजी के चरित्र की समाप्ति पर यह कहा गया है कि भगवान, अपने भजन करने वाले भक्तों को मुक्ति प्रदान करते हैं, लेकिन भक्तियोग (भक्ति का विशेष रूप) सबको नहीं देते।
श्रीदेवकीजी ने भगवान की स्तुति करते हुए उनके माहात्म्य का वर्णन किया, जिससे उनके भीतर सुदृढ़ स्नेह उत्पन्न हुआ। सुदृढ़ स्नेह का यह स्वरूप भगवान के अनुग्रह से ही प्राप्त होता है, जिसे ‘पुष्टि’ कहा गया है।
जैसे कोई पाप करता है और प्रायश्चित के माध्यम से उसका निवारण करता है, लेकिन विद्वानों की सभा में अनुग्रह से यह प्रायश्चित सुगम हो जाता है। इसी प्रकार, कर्ममार्ग में अनुग्रह की प्रार्थना फल की सिद्धि के लिए होती है। भक्तिमार्ग को भी सुगमता और प्रभु के अनुग्रह का आधार बताकर श्रीकृष्ण ने उद्धवजी से इसका महत्व समझाया।
इस प्रकार, पुष्टि मार्ग की मूलभूत प्रकृति ‘अनुग्रह’ पर आधारित है। इसे शास्त्रों में भक्तिमार्ग के अनिवार्य तत्व के रूप में निरूपित किया गया है।
श्लोक ३
पुष्टि की विद्यमानता को स्पष्ट करते हुए, प्रवाह और मर्यादा की विद्यमानता का भी वर्णन किया जाता है।
द्वौ – दो; भूतसर्गौ – जीव सृष्टि; इति – ऐसा; उक्ते: – कहने से; प्रवाह: – प्रवाह; अपि – भी; व्यवस्थितः – विशेष रूप से स्थित (अस्ति – है)। (किंच) – और; वेदस्य – वेद के; विद्यमानत्वात् – विद्यमान होने से; मर्यादा – मर्यादा; अपि – भी; व्यवस्थिता – विशेष रूप से स्थित (अस्ति – है)।
भावार्थ
श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में स्पष्ट रूप से कहा है कि इस संसार में दैव और आसुर दो प्रकार की सृष्टि है। आसुर जीवन का पृथक् उल्लेख प्रवाहमार्ग को सिद्ध करता है। इसी प्रकार, कर्मादि की व्यवस्था वाले वेद विद्यमान हैं, जिससे मर्यादामार्ग को अनादिकाल से अस्तित्व में मानना स्पष्ट हो जाता है।
टीका
दैव और आसुर इन दो विभागों के माध्यम से सृष्टि की परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती आ रही है। इसे ‘प्रवाह’ कहा गया है। जैसे नदी का प्रवाह आरम्भ से अन्त तक निरन्तर रहता है, वैसे ही दैव और आसुर प्रकार की सृष्टि का प्रवाह प्रलय पर्यन्त चलता है। यदि ऐसा न हो, तो श्रीकृष्ण द्वारा गीता में इन दोनों का विभाग करना व्यर्थ हो जाता।
गीता में यह कहा गया है कि “दैव और आसुर प्रकार के भूतसर्ग हैं।” इससे प्रवाहमार्ग का अस्तित्व सिद्ध होता है। कर्म और ज्ञान आदि के प्रकार को जो नियम बनाते हैं, उन्हें ‘मर्यादा’ कहा गया है। वेद, जिनके पूर्वकाण्ड और उत्तरकाण्ड दोनों विद्यमान हैं, इन नियमों का स्रोत हैं।
प्रवाहित सृष्टि के परम्परा को तोड़ने वाली इच्छाओं को प्रवाहमार्ग में अन्तर्भूत किया गया है। वही मार्ग जो भगवान के अनुग्रह द्वारा होता है, पुष्टिमार्ग में शामिल किए जाते हैं। जो भी मार्ग वेद की मर्यादा को उल्लंघन नहीं करते हैं, वे सब मर्यादामार्ग में अन्तर्भूत होते हैं।
श्लोक ४ - ५
इस प्रकार, विश्व के सभी मार्ग तीन मुख्य मार्गों—पुष्टि, प्रवाह और मर्यादा में वर्गीकृत किए जा सकते हैं।
अब पुष्टिमार्ग की विलक्षणता को प्रमाणित करने के लिए शंका समाधान प्रस्तुत है:
पहली शंका: क्या सभी भक्ति मार्ग एक ही प्रकार के हैं, और भजन केवल भक्ति मार्ग का भिन्न-भिन्न रूप है?
- समाधान: भजन के प्रकार भले ही अलग-अलग हों, लेकिन हर मार्ग—पुष्टि, मर्यादा और प्रवाह—के अपने सिद्धांत और साधन हैं, जो उन्हें अन्य से अलग करते हैं।
दूसरी शंका: क्या तीनों मार्ग एक समान हैं, क्योंकि सभी फलों की प्राप्ति भगवान से होती है?
- समाधान: भले ही सभी फल भगवान से होते हैं, पुष्टिमार्ग भगवान के अनुग्रह पर आधारित है, प्रवाहमार्ग प्राकृतिक परम्परा का अनुसरण करता है, और मर्यादामार्ग वेदों द्वारा स्थापित नियमों का पालन करता है। इसलिए यह तीनों मार्ग परस्पर भिन्न हैं।
इस प्रकार, ये सभी मार्ग स्पष्ट रूप से परस्पर भिन्न हैं और उनके महत्व को स्थापित किया गया है। यदि कोई अन्य शंका हो, तो इसे आगे विस्तार से समझाया जाता है।
यो – जो; मद् – मेरा; भक्त: – भक्त; इति – ऐसा; ईरणात् – कहने से। (किंच) – और; सर्वत्र – सब जगह; उत्कर्षकथनात् – श्रेष्ठता कहने से; पुष्टि: – पुष्टि; हि – निश्चित ही; अस्ति – है; इति – ऐसा; निश्चय: – निश्चितता। भक्त: – भक्त; कश्चित् – कोई; एव – ही; सर्व: – सब (है)। च – और; यदा – जब; यस्य – जिसका; इति – इस प्रकार; वचनात् – वचन से; न – नहीं; अहं – मैं; वेदै: – वेद से; इति – यह; ईरणात् – कहने से। वेदत: – वेद से होने पर; (स्थित: – स्थित है; इति शेष: – यह अंतिम आशय है)।
भावार्थ
श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, “जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है,” और इसी कथन से तथा सभी शास्त्रों में भक्ति के उत्कर्ष की बात से पुष्टिमार्ग का भिन्न और विशिष्ट होना सिद्ध होता है। यह भी स्पष्ट है कि “भक्त कुछ ही होते हैं, सभी नहीं,” इससे पुष्टिमार्ग और प्रवाहमार्ग में भेद सिद्ध होता है।
इसके साथ ही, “जब भगवान अनुग्रह करते हैं, तब भक्त न तो लोकमार्ग और न ही वेदमार्ग में बुद्धि लगाते हैं” भागवत के इस वचन और “वेद आदि के द्वारा मेरे इस स्वरूप का दर्शन नहीं हो सकता” श्रीकृष्ण के इस वचन से पुष्टिमार्ग की मर्यादामार्ग से भिन्नता भी सिद्ध होती है।
टीका
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, “संतोष वाला, हमेशा मुझ में चित्त को जोड़ने वाला, जिसका मन मेरे अधीन है, जो मुझे अपने स्वामी के रूप में दृढ़ता से मानता है और जिसने अपना मन और बुद्धि मुझमें अर्पित कर दी है—ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।”
यह कथन स्पष्ट करता है कि सभी लोग भक्त नहीं होते, केवल विशिष्ट लोग ही होते हैं। अगर सभी भक्त होते, तो “जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है” कहने की आवश्यकता नहीं होती।
गीता में यह भी कहा गया है कि तपस्वी, ज्ञानी और कर्ममार्गी से श्रेष्ठ योगी हैं, और “सब योगियों में जो श्रद्धा और अंतःकरण पूर्वक मुझे भजता है, वह सर्वश्रेष्ठ है”—श्रीकृष्ण के इस वचन से पुष्टिमार्ग का महत्व उजागर होता है।
पंद्रहवे अध्याय में, श्रीकृष्ण ने कहा है, “जो व्यक्ति मोह से रहित होकर मुझे पुरुषोत्तम मानकर जानता है, वह सब कुछ जानने वाला है और मुझे सर्वभाव से भजता है।”
सर्वभाव से भजन केवल पुष्टिमार्ग में होता है और यह भजन सभी स्थलों में श्रेष्ठ कहा गया है। अतः पुष्टिमार्ग की पुष्टि स्पष्ट है।
गीता के इन श्लोकों में यह प्रमाणित किया गया है कि भक्त सभी नहीं होते, केवल कुछ ही होते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जिस मार्ग में ऐसे भक्त होते हैं, वह पुष्टिमार्ग प्रवाहमार्ग से अलग है।
अगर कोई यह शंका करता है कि पुष्टिमार्ग प्रवाहमार्ग से भिन्न है, लेकिन पुष्टिमार्ग को वेद, स्मृति, पुराण आदि में वर्णित किया गया है, तो यह मर्यादामार्ग से भिन्न नहीं हो सकता। इसका समाधान श्रीभागवत के वचनों से मिलता है—“भगवान जिन पर अनुग्रह करते हैं, वे लोक और वेदमार्ग को छोड़ देते हैं।”
गीता में कहा गया है कि “वेद, तप, दान और यज्ञ से मेरे स्वरूप का दर्शन नहीं हो सकता; यह केवल अनन्य भक्ति से संभव है।”
अतः पुष्टिमार्ग वेद के नियमरूप मर्यादामार्ग से भिन्न है।
श्लोक ६
शास्त्रों में धर्म, कर्म और ज्ञान की निंदा की गई है जब इनमें भक्ति का अभाव होता है। लेकिन भक्ति सहित इनकी निंदा नहीं होती। गीता में
निबन्धायाऽऽसुरी मता
जैसे वचनों से प्रवाहमार्ग की निंदा की गई है, लेकिन यह निंदा भक्ति रहित प्रवाहमार्ग की है। भक्ति सहित प्रवाहमार्ग को दैवी कहा गया है।
अतः सभी मार्ग भक्तिमार्ग के अंगभूत हैं और इनकी भिन्नता का समाधान इस प्रकार से दिया गया है।
मार्गैकत्वे – मार्ग एक होने पर; अपि – भी; अक्त्यौ – अंतिम दो; तनू – अंग; भक्त्त्यागमौ – भक्ति देय वाले; मतौ – माने गए हैं; इति – ऐसा। चेत् – यदि ऐसा हो तो; तत् – वह; युक्तं – उचित; न – नहीं है। हि – क्योंकि; सूत्रत: – सूत्र से; युक्त्या – युक्ति से; वैदिक: – वैदिक (मार्ग); हि – निश्चित ही; भिन्न: – अलग (अस्ति – है)।
भावार्थ
भक्तिमार्ग एक स्वतंत्र मार्ग है, और प्रवाह और मर्यादा मार्ग इसके अंग नहीं बल्कि भिन्न मार्ग हैं। प्रवाह और मर्यादा को भक्तिमार्ग के साधन या अंग मानने वाले का तर्क “सूत्र” और “युक्ति” से निराधार साबित होता है। वैदिकमार्ग और अनुग्रहप्रयुक्त मार्ग, अर्थात् पुष्टिमार्ग, दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं।
टीका
शाण्डिल्य भक्तिसूत्र में लिखा गया है,
तत्संस्थस्य अमृतत्त्वोपदेशात्
श्रीपुरुषोत्तम में निष्ठावान व्यक्ति अमरत्व को प्राप्त करता है। जैमिनीय सूत्र के अनुसार, यज्ञ जैसे कर्म स्वर्गादि फल उत्पन्न करने के बाद समाप्त हो जाते हैं। इसीलिए ये कर्म भक्तिमार्ग के अंग नहीं हो सकते।
व्याससूत्र में कहा गया है,
तनिष्ठस्य मोक्षोपदेशात्
ज्ञानमार्ग मोक्ष का फल देता है लेकिन भक्ति नहीं देता। इसलिए ज्ञानमार्ग भी भक्तिमार्ग का अंग नहीं हो सकता। इसी प्रकार, वैदिकमार्ग और अनुग्रहप्रयुक्त मार्ग अलग-अलग हैं।
प्रवाहमार्ग में देवसर्ग मोक्ष फल देने वाला और आसुरसर्ग बंधन उत्पन्न करने वाला है। इस प्रकार, प्रवाहमार्ग भी भक्तिमार्ग का अंग नहीं हो सकता। फल और प्रमाण के भेद से मार्ग भिन्नता को प्रमाणित किया गया है।
यदि प्रवाहमार्ग भक्तिमार्ग का अंग होता, तो गीता में श्रीकृष्ण ने दैवी और आसुरी सम्पत्तियों का अलग-अलग उल्लेख नहीं किया होता।
इसी तरह, यदि मर्यादामार्ग और पुष्टिमार्ग एक ही होते, तो गीता (१२.५) के द्वादश अध्याय में
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥
जिनका चित्त अव्यक्त (निर्गुण, निराकार ब्रह्म) में लगा रहता है, उनके लिए अत्यधिक क्लेश होता है। क्योंकि अव्यक्त की प्राप्ति देहधारी व्यक्तियों के लिए अत्यंत कठिन है।
और गीता (१२.७)
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युंसंसारसागरात्।
भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
उनके लिए, जिनके चित्त मुझमें लगे हुए हैं, हे पार्थ, मैं मृत्यु और संसार के सागर से उनका उद्धारकर्ता हूँ। और मैं उन्हें शीघ्र ही (न चिरात्) इस संकट से उबार लेता हूँ।
यह कथन (“मर्यादामार्ग और पुष्टिमार्ग एक है।”) भी असंगत हो जाता।
भागवत के दशम स्कंध में भी कहा गया है, “श्रीयशोदाकुमार श्रीकृष्ण की भक्ति का जो सुख भक्तों को मिलता है, वह देहधारी व्यक्तियों और आत्मा को ब्रह्म मानने वाले ज्ञानीजनों को प्राप्त नहीं होता।”
इन युक्तियों से यह स्पष्ट है कि पुष्टिमार्ग, प्रवाहमार्ग और मर्यादामार्ग से भिन्न है। सूत्र और युक्तियों द्वारा पुष्टिमार्ग की भिन्नता को सिद्ध करने के बाद, इन मार्गों में जीव, जीवन के शरीर और कृतियों के भेद को निरूपित किया गया है।
श्लोक ७ - ८.१
यथा – जैसे; पुष्टिमार्गे – पुष्टिमार्ग में; श्रुते: – वेद से; जीवदेहकृतीनां – जीव, देह और कृति के; भिन्नत्वं – अलगपन (अस्ति – है); तद्वत् – उसी प्रकार; नित्यता – नित्यत्व; च – भी (सिद्ध्यति – सिद्ध होता है)। द्वयो: – दोनों का; अपि – भी; निषेधत: – निषेध से। (किञ्च) – और; प्रमाणभेदाद् – प्रमाण के भेद से; पुष्टिमार्ग: – पुष्टिमार्ग; भिन्न: – अलग; निरूपित: – निरूपण किया गया है।
भावार्थ
तीनों मार्ग—पुष्टिमार्ग, प्रवाहमार्ग और मर्यादामार्ग—के जीव, देह, और कृतियाँ स्पष्ट रूप से भिन्न हैं। श्रुति के प्रमाण से ब्रह्मवाद में जीवन की नित्यता सिद्ध होती है, जबकि प्रवाहमार्ग और मर्यादामार्ग के जीवों की अनित्यता एवं विशिष्टता उनके भेद को स्पष्ट करती है। अतः पुष्टिमार्ग इन दोनों मार्गों से भिन्न है।
टीका
प्रवाहमार्ग के जीव:
प्रवाहमार्ग के जीव आसुर प्रवृत्ति के हैं। इनके शरीर भगवद्भजन के प्रति प्रतिकूल हैं और इनकी क्रियाएँ स्वार्थी हैं, जो दूसरे को दुःख पहुँचाने के लिए होती हैं।मर्यादामार्ग के जीव:
मर्यादामार्ग के जीव दैवी प्रवृत्ति के हैं। इनके शरीर वैदिक धर्म और भगवत पूजा के अनुकूल हैं। इनकी कृतियाँ श्रौत और स्मार्त कर्म, जैसे अग्निहोत्र और त्याग आदि के नियमों के अनुसार होती हैं।पुष्टिमार्ग के जीव:
पुष्टिमार्ग के जीव दैवी हैं, परंतु वे भगवान के विशेष अनुग्रह से विभूषित हैं। इनके शरीर भगवत्सेवा के अनुकूल हैं और भगवान के स्वरूप में पूरी तरह आसक्त रहते हैं। इनकी कृतियाँ लोकिक और वैदिक फलों की इच्छा से मुक्त होकर, केवल भगवत्सेवा और पुरुषोत्तम के साक्षात् संबंध में फलों की प्राप्ति के लिए होती हैं।
श्रुति में लिखा गया है कि
भगवान का कीर्तन करने वाले जीव नित्य होते हैं
और श्रीभागवत में कहा गया है कि
भगवद्भक्तों को मिलने वाला सुख अन्य किसी को प्राप्त नहीं होता।
इन प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि पुष्टिमार्गीय जीव अनुग्रह विशिष्ट और अन्य मार्गों से भिन्न हैं।
श्लोक ८.२ - ९
प्रमाणों के भेद से पुष्टिमार्ग को प्रवाह और मर्यादामार्ग से भिन्न निरूपित किया गया है। तीनों मार्गों के जीव, देह और कृतियों के भेद को समझने के लिए पुष्टिमार्ग को सामान्य रूप से सृष्टि के भेद की दृष्टि से निरूपित किया गया है।
अब आगे प्रमाण बल और साधन के भेद से तीनों मार्गों की भिन्नता को विस्तार से निरूपित किया जाएगा।
स्वरूपाङ्ग-क्रियायुतं – स्वरूप, अंग और क्रिया के साथ; सर्गभेदं – सृष्टि का भेद; प्रवक्ष्यामि – अच्छी तरह से कहता हूं। हरि: – श्रीकृष्ण; इच्छामात्रेण – इच्छामात्र से; मनसा – मन से; प्रवाहं – प्रवाह को; (अस्ति) – है; इति – ऐसा। निश्चय: – निश्चय (अस्ति – है)।
भावार्थ
स्वरूप, अंग (देह), और क्रिया से युक्त सृष्टि के भेद को मैं समझाऊँगा। भगवान ने केवल अपनी इच्छा से प्रवाहमार्ग को मन के माध्यम से, वेदमार्ग (मर्यादामार्ग) को वचन के माध्यम से, और पुष्टिमार्ग को शरीर के माध्यम से उत्पन्न किया।
टीका
एकादश स्कंध में लिखा गया है कि “वैकारिक अहंकार के कार्य रूप मन से सृष्टि हुई।” वेदों में भी मन से सृष्टि हुई ऐसा लिखा गया है, जिसे प्रवाह सृष्टि कहा गया। इसमें माया ही मुख्य कारण है, जो आसुरी रूप की मायिक सृष्टि उत्पन्न करती है। इस सृष्टि का उद्देश्य जगत को मायिक मानना है, जैसा कि कई लोगों ने स्वीकार किया है।
वचन से मर्यादा सृष्टि हुई, जिसे माण्डूक्य उपनिषद में लिखा गया है: “ॐकार से ही सबकी उत्पत्ति होती है। भूत, भविष्य और वर्तमान जो कुछ भी है, वह सब ॐकार का ही विस्तार है।” इसी प्रकार एकादश स्कंध में परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी—वाणी के चार रूपों की उत्पत्ति लिखी गई है, जो जगत की उत्पत्ति का स्रोत हैं। भगवान की वाणी वेद रूप है, और वेद साक्षात नारायण हैं। इस प्रकार, वेदों से सृष्टि हुई, जो मर्यादा मार्ग की सृष्टि है।
पुरुषविध ब्राह्मण की श्रुति में लिखा गया है: “एक आत्मा के दो विभाग किए गए। उनमें पति और पत्नी उत्पन्न हुए।” इसी प्रकार, आनंदात्मक स्वरूप से अनेक रूपों की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार, शरीर से सृष्टि हुई, जिसे पुष्टिसृष्टि कहा गया।
भगवान ने वीर रस का अनुभव करने की इच्छा की, और तब अपनी शक्ति से अपने विरुद्ध आसुरी जीव उत्पन्न किए, जो प्रवाह सृष्टि का हिस्सा हैं। जीवन के दुःख की निवृत्ति के लिए वेदमार्ग उत्पन्न किया गया, जिसमें अक्षरब्रह्म से प्रेरित दैवी जीव उत्पन्न हुए, जो मर्यादा सृष्टि का हिस्सा हैं। जीवन में भजन आनंद प्रदान करने के लिए, भगवान ने अपने आनंदात्मक स्वरूप से जीव उत्पन्न किए, जो पुष्टिसृष्टि का हिस्सा हैं।
अतः:
- प्रवाह सृष्टि: भगवान के मन और माया से उत्पन्न होती है।
- मर्यादा सृष्टि: भगवान के वचन और अक्षरब्रह्म से उत्पन्न होती है।
- पुष्टिसृष्टि: भगवान के स्वरूप, मन, और वचन से उत्पन्न होती है।
विशेष:
प्रवाह सृष्टि के जीव दो प्रकार के होते हैं:
- सहज आसुरी (स्वाभाविक रूप से आसुरी) और
- आसुरावेशी (अस्थायी रूप से आसुरी)।
इनमें से आसुरावेशी जीव मुक्त हो सकते हैं, जबकि सहज आसुरी जीव अंधतम में जाते हैं।
संकर्षण वेद रूप हैं। अक्षरब्रह्म और शब्दब्रह्म संकर्षण के स्वरूप हैं। इसलिए अक्षरब्रह्म से उत्पन्न सृष्टि को वेद से उत्पन्न सृष्टि समझा जाता है।
श्लोक १०
प्रवाह सृष्टि का उपादान कारण माया है, मर्यादा सृष्टि का उपादान कारण अक्षरब्रह्म है, और पुष्टिसृष्टि का उपादान कारण भगवान का स्वरूप है।
यद्यपि इन सृष्टियों का कारण अलग-अलग है, इनका फल समान दिख सकता है। जैसे तांबा, चांदी और सोने से बने तीन अलग-अलग पात्रों का उपयोग पानी रखने के लिए समान होता है। इसी प्रकार, प्रवाह, मर्यादा, और पुष्टिसृष्टि के फलों में समानता हो सकती है।
इस प्रकार, तीनों मार्गों—प्रवाह, मर्यादा, और पुष्टिमार्ग—के फलों की भिन्नता को समझाने का प्रयास किया गया है।
लोके – लोक में; मूलेच्छात: – मूल इच्छा से; फलं – फल (भवति – होता है); च – और; वैदिके – वैदिक में। अपि – भी; वेदोक्तं – वेद में कहा गया; (फलं) – फल; पुष्टौ – पुष्टि में; तु – तो; कायेन – काया से; फलं – फल; (एवं) – ऐसा। भिनने च्छात: – इच्छा के भिन्न होने से; अपि – भी; एकधा – एक प्रकार से; न – नहीं।
भावार्थ
अविच्छिन्न सृष्टि के आधार पर, प्रावाहिक जीवन लौकिक फल प्राप्त करता है। मर्यादामार्गीय जीवन वेद द्वारा निर्देशित फलों को प्राप्त करता है, जबकि पुष्टिमार्गीय जीवन प्रभु के स्वरूप के अनुरूप फल प्राप्त करता है। इस प्रकार, इन तीनों के फल एक प्रकार के नहीं होते।
टीका
अविच्छिन्न सृष्टि के अंतर्गत, प्रावाहिक जीवन लौकिक फल प्राप्त करता है। इसमें:
- सहज आसुरजीव: ये जन्म-मरण के चक्र में फंसे रहते हैं और अंततः अंधतम (अत्यधिक अंधकार) में चले जाते हैं।
- आसुरावेशी जीव: ये कामना में आसक्त रहते हुए धूममार्ग में यज्ञादि कर्म करते हैं। बार-बार के आवागमन से आसुरावेश का नाश होता है और अंततः ये मुक्त हो जाते हैं।
मर्यादामार्गीय जीवन को वेदों में बताए गए फल प्राप्त होते हैं। इसमें:
- निष्काम यज्ञादि: जो निस्वार्थ यज्ञ करते हैं, उन्हें आत्मिक सुख प्राप्त होता है।
- सकाम यज्ञादि: जो स्वार्थपूर्ण यज्ञ करते हैं, उन्हें स्वर्ग आदि लोकों का सुख प्राप्त होता है।
पुष्टिमार्गीय जीवन को प्रभु के स्वरूप के अनुसार फल प्राप्त होते हैं। वेणु गीत में, गोपीजन ने इंद्रियों के माध्यम से भजनानंद रूप फल को सर्वोत्तम बताया है, और यही फल पुष्टिमार्गीय जीवों को प्राप्त होता है।
इस प्रकार, भिन्न-भिन्न इच्छाएँ और फलों का भेद स्पष्ट करते हैं कि एक प्रकार की सृष्टि और एक प्रकार का मार्ग संभव नहीं है। मूल पाठ ‘नैकता’ इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि सृष्टि और मार्ग की एकता संभव नहीं है।
श्लोक ११
तीनों मार्गों के जीवन चिद्रूपता में समान हैं, लेकिन उनके धर्म अलग-अलग हैं, जिसके कारण उनके फलों में भी भेद है। इसलिए, पहले प्रावाहिक जीवन के धर्म का वर्णन किया गया है।
तान् – विनकुं; अहं – मैं; द्विषतो – द्वेष करने वाले (इति – ऐसा); वाक्यात् – वाक्य से; प्रवाहिण: – प्रवाही; जीवा: – जीव; भिन्ना: – अलग (सन्ति – हैं)। अत: – इसलिए; एव – ही; इतौरौ: – दोनों; मोक्षप्रवेशत: – मोक्ष में प्रवेश करने वाले; सान्तौ – अंतवाले; भिन्न: – अलग (स्त – हैं)।
भावार्थ
गीताजी में लिखा है, “जो मुझसे द्वेष करते हैं… प्रवाह मार्ग के जीवों को मैं हमेशा आसुरी योनियों में डालता हूं” (भगवद गीता १६.१९)। इससे स्पष्ट होता है कि प्रवाहमार्ग के जीव, मर्यादामार्गीय और पुष्टिमार्गीय जीवों से भिन्न हैं। मर्यादामार्गीय जीवन को अक्षरब्रह्म प्राप्ति के रूप में मोक्ष प्राप्त होता है, जबकि पुष्टिमार्गीय जीवन को पुरुषोत्तम में प्रवेश मिलता है। इस प्रकार, ये दोनों मार्गों के जीव अपने अंत में जीवभाव से मुक्त हो जाते हैं।
टीका
भगवान से द्वेष करना प्रवाहमार्गीय जीवों का प्रमुख धर्म है, जो उन्हें अंततः अंधतम (पूर्ण अंधकार) में ले जाता है। भगवद गीता (१६.१९):
तानेवाहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥
जो मुझे द्वेष करते हैं, जो क्रूर और अधम हैं, उनको मैं इस संसार में बार-बार अशुभ और आसुरी योनियों में गिरा देता हूँ।
भगवान से द्वेष के तीन प्रकार होते हैं:
- मूल रूप और अवतार रूप से द्वेष: जो इस प्रकार द्वेष करते हैं, उन्हें भगवान स्वयं पराजित करते हैं, जिससे वे अंततः मुक्त हो जाते हैं।
- विभूति आदि से द्वेष: जो विभूतियों से द्वेष करते हैं, वे द्वेष का त्याग करने पर मुक्ति प्राप्त करते हैं। ये दोनों प्रकार के जीव आसुरावेशी कहलाते हैं।
- जगत रूप से द्वेष: जो जगत से द्वेष करते हैं, वे सहज-आसुरी जीव हैं। ये किसी भी दिन मुक्त नहीं हो सकते और हमेशा अंधतम में ही रहते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि जगत से द्वेष करने का अर्थ है भगवद्भक्तों से भी द्वेष करना।
दशम स्कंध में, अक्रूरजी ने धृतराष्ट्र से कहा, “जो अधर्मपूर्वक दूसरों का पोषण करता है, वह अंततः उनसे छूट जाता है।” श्रीसुबोधिनी में इसका निर्णय किया गया है: “जो प्राण, स्त्री, और पुत्र आदि का अधर्म से पोषण करता है, वह अंततः सबको छोड़ देता है और अकेला अंधतम में चला जाता है।”
इस प्रकार, प्रवाहमार्गीय जीवों का धर्म और फल मर्यादामार्गीय और पुष्टिमार्गीय जीवों से भिन्न हैं।
मर्यादामार्गीय जीवन को अक्षरब्रह्म प्राप्ति के रूप में मोक्ष प्राप्त होता है, जबकि पुष्टिमार्गीय जीवन को पुरुषोत्तम में प्रवेश मिलता है। इन दोनों मार्गों के जीव अपने अंत में जीवभाव से निवृत्त हो जाते हैं।
इस प्रकार, तीनों मार्गों के लक्षण और फलों के भेद का स्पष्ट निरूपण किया गया है।
श्लोक १२
तस्मात् – इसलिए; पुष्टिमार्गे – पुष्टिमार्ग में; जीवा: – जीव; भिन्ना: – अलग; एव – ही (सन्ति – हैं); संशय: – शंका; न – नहीं (अस्ति – है)। तत्सृष्टि: – वह सृष्टि; भगवद्-रूपसेवार्थं – श्रीकृष्ण की रूप सेवा के लिए (अस्ति – है); अन्यथा – अन्य प्रकार से; न – नहीं; भवेत् – होती है।
भावार्थ
अतः पुष्टिमार्गीय जीव अन्य मार्गों के जीवों से भिन्न हैं, इसमें कोई संशय नहीं है। यदि पुष्टिमार्गीय जीव भिन्न न होते, तो भगवद्रूप की सेवा के लिए पुष्टिमार्गीय जीवन की सृष्टि नहीं होती।
टीका
अतः पुष्टिमार्गीय जीव अन्य मार्गों के जीवों से भिन्न हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। वाराहपुराण में कहा गया है,
ब्रह्माजी की सृष्टि से अलग यह सृष्टि किसी अन्य का ही परिणाम है।
इस वाक्य से पुष्टिमार्गीय जीवों की भिन्नता स्पष्ट होती है।
यदि पुष्टिमार्गीय जीव भिन्न न होते, तो भगवद्रूप की सेवा के लिए पुष्टिमार्गीय जीवन की सृष्टि का कोई प्रयोजन नहीं होता। श्रुति में कहा गया है, “प्रभु अकेले आत्मरमण में लीन थे। तब बाहरी कुछ भी नहीं था। इसलिए रमण नहीं हो सका। तब रमण के लिए उन्होंने किसी और के होने की इच्छा की।” इस प्रकार, इच्छा से ही समस्त जगत का रूप उत्पन्न हुआ।
नाम सेवा तो मर्यादा सृष्टि में होती है, लेकिन रूप सेवा उसके लिए उपयुक्त नहीं है। अतः रूप सेवा के लिए ही पुष्टि सृष्टि हुई। यदि पुष्टिमार्ग प्रवाह और मर्यादा मार्ग से भिन्न न होता, तो पुष्टिसृष्टि के प्रयोजन का सिद्ध होना संभव नहीं था। तब प्रभु का जगद्रूप होने का श्रुति वचन भी व्यर्थ हो जाता।
अतः प्रभु के रमण के लिए यह पुष्टिसृष्टि हुई है, जो सभी से भिन्न है।
श्लोक १३ - १४.१
इस प्रकार, सृष्टियों के भेद के कारण उनके साधन भी अलग-अलग हैं। अतः एक-दूसरे के साधन आपस में मेल नहीं खा सकते। फिर भी, लीला सृष्टि में उत्पन्न भक्तों के स्वरूप, देह और क्रिया में कोई अंतर न दिखने के कारण, पूर्व में बताए गए सृष्टि के भेद व्यर्थ प्रतीत हो सकते हैं। ऐसी शंका की निवृत्ति के लिए तारतम्य (अंतर) स्पष्ट किया जाता है।
स्वरूपेण – स्वरूप से; अवतारेण – अवतार से; लिङ्गेन – चिह्न से; च – और; गुणेन – गुण से; च – भी। (पुष्टिजीवानां – पुष्टिजीवन के); स्वरूपे: – स्वरूप और क्रिया में; तारतम्यं – भेद; न – नहीं (अस्ति – है)। तथापि – तो भी; यावता – जितना; कार्यं – कार्य; तावत् – उतना; तस्य – उसका; करोति – करता है; हि – ही।
भावार्थ
स्वरूप, देह, अथवा क्रियाओं में भगवान के स्वरूप, अवतार, चिह्न, और गुणों के साथ कोई भेद नहीं है। फिर भी, जितना तारतम्य रमणात्मक कार्यों को सिद्ध करने के लिए आवश्यक है, उतना ही भक्तों में भगवान द्वारा स्थापित किया जाता है।
टीका
भगवान जैसे आनंदरूप और रसघन हैं, वैसे ही उनके भक्त भी हैं। भगवान का अवतार जिस प्रकार शुद्ध सत्त्व में होता है, उसी प्रकार भक्तों का अवतार भी शुद्ध सत्त्व में ही होता है।
जैसे ध्वजा, वज्र, यव, अमुष, कमल आदि भगवान के चिह्न होते हैं, वैसे ही वे भक्तों के लिए भी होते हैं। जैसे भगवान के ऐश्वर्य और सौकुमार्य जैसे गुण होते हैं, वैसे ही ये गुण उनके भक्तों में भी पाए जाते हैं।
इस प्रकार, भगवान के स्वरूप, देह, और क्रियाओं में जो धर्म हैं, वे भक्तों के स्वरूप, देह, और क्रियाओं में भी समान रूप से पाए जाते हैं। अर्थात्, भक्त भी भगवान के समान ही होते हैं।
फिर भी, रमणात्मक लीलाओं की सिद्धि के लिए जो तारतम्य आवश्यक होता है, वह भगवान भक्तों में करते हैं।
स्वभाव भेद और अन्य संदेहों को दूर करते हुए यह स्पष्ट किया जाता है कि:
- कुछ लोग भगवान के कहने पर भक्तिमार्ग में प्रवृत्त होते हैं।
- कुछ लोग भगवान के कहने पर ज्ञानमार्ग में प्रवृत्त होते हैं।
- कुछ लोग भगवान के कहने पर कर्ममार्ग में प्रवृत्त और आसक्त होते हैं।
इनमें से कुछ लोग वे होते हैं, जिन्हें शास्त्रों में निर्दिष्ट कार्य करने चाहिए, और उनकी प्रवृत्ति शास्त्रविधि के बल से होती है।
दूसरी ओर, कुछ लोग स्नेह के प्रभाव से प्रवृत्त होते हैं।
इसीलिए, कुछ लोगों के स्वभाव के विरुद्ध देह और कर्म होते हैं, जबकि कुछ के स्वभाव के अनुकूल होते हैं।
ऐसे सभी संदेहों को दूर करने के लिए पुष्टिमार्गीय जीवों का विभाग समझाया गया है।
श्लोक १४.२ - १६.१
ते – वे; हि – अवश्य ही; शुद्ध-मिश्रभेदात् – शुद्ध और मिश्र के भेद से; द्विधा – दो प्रकार के; पुन: – और फिर; भगवत्कार्यसिद्धये – भगवत् कार्य की सिद्धि के लिए। मिश्रा: – मिश्र; प्रवाहादिविभेदेन – प्रवाह आदि के भेद से; त्रिधा – तीन प्रकार के (सन्ति – हैं)। पुष्ट्या – पुष्टि से; विमिश्रा: – विशेष रूप से मिश्र; सर्वज्ञा: – सब कुछ जानने वाले; (भवन्ति – होते हैं); प्रवाहेण – प्रवाह से; विमिश्रा: – विशेष रूप से मिश्र; क्रियारता: – क्रिया परायण; (भवन्ति – होते हैं)। मर्यादया – मर्यादा से; (विमिश्रा: – विशेष रूप से मिश्र); गुणज्ञा: – गुण को जानने वाले; (भवन्ति – होते हैं)। (किंच) – और; प्रेम्णा – प्रेम के द्वारा; शुद्धा: – शुद्ध; ते – वे; अतिदुर्लभा: – अत्यंत दुर्लभ; (भवन्ति – होते हैं)।
भावार्थ
पुष्टिजीव दो प्रकार के होते हैं: शुद्धपुष्ट और मिश्रपुष्ट। इनमें भगवान के कार्य की सिद्धि के लिए प्रवाहादिक भेद से मिश्रपुष्ट तीन प्रकार के होते हैं:
- पुष्टिकर मिश्र पुष्टजीव: ये सर्वज्ञ होते हैं, अर्थात् भगवान के अभिप्राय को जानने वाले।
- प्रवाहकर मिश्र पुष्टजीव: ये क्रिया में प्रेम रखने वाले होते हैं।
- मर्यादाकर मिश्र पुष्टजीव: ये भगवान के गुणों को जानने वाले और उनके गुणों में आसक्त होते हैं।
शुद्धपुष्टजीव केवल प्रेमरूप होते हैं। अर्थात्, भगवान में अत्यंत प्रेम रखने वाले शुद्धपुष्टजीव अतिदुर्लभ होते हैं।
टीका
मिश्रपुष्ट और शुद्धपुष्ट, ये दो प्रकार के पुष्टिजीव होते हैं। मिश्रपुष्टजीवों के मुख्य तीन भेद हैं:
- पुष्टिमिश्र पुष्टजीव: जिनके ऊपर अनुग्रह है, और फिर विशेष अनुग्रह प्राप्त होता है। ये भगवान के अभिप्राय को समझने वाले होते हैं।
- मर्यादामिश्र पुष्टजीव: ये शास्त्रों के अनुसार ज्ञान आदि मर्यादाओं में प्रीति रखने वाले होते हैं।
- प्रवाहमिश्र पुष्टजीव: ये पंचरात्र आदि में निर्दिष्ट पूजा क्रियाओं में प्रीति रखने वाले होते हैं।
प्रवाह के मिश्रित पुष्टजीव भगवान के भजन के अनुकूल क्रियाओं का अनुसरण करने वाले होते हैं। मर्यादा के मिश्रित पुष्टजीव भगवान के धर्म को जानकर तीर्थ यात्रा में प्रवृत्त होते हैं। प्रवाहिनी प्रवाहमिश्रित होते हैं, जो केवल लौकिक क्रियाओं में प्रीति रखते हैं; वे ही आसुरी जीव कहलाते हैं।
मर्यादा के मिश्रित पुष्टजीव भगवान के माहात्म्य को जानकर भगवान की प्रीति के लिए कर्म करते हैं। मर्यादा के मिश्रित मर्यादामार्गीय जीव स्वर्गादिक फलों के लिए कर्म करते हैं। मर्यादा के प्रवाह मिश्रित जीव लौकिक फलों के लिए कर्म करते हैं।
इस प्रकार मिश्रजीव के नौ भेद हैं। शुद्धपुष्टजीव भगवान को छोड़कर अन्य किसी में प्रवृत्ति नहीं रखते; ऐसे भक्त अतिदुर्लभ होते हैं।
भगवान के रमण का पात्र यह जगत है। इसलिए, रमणरूप भगवान के कार्य को सिद्ध करने के लिए विभिन्न प्रकार के जीवन की सृष्टि हुई है। रमण की सिद्धि विविधता के बिना संभव नहीं है। इसलिए, भगवान ने विविध प्रकार के जीवन की सृष्टि की है।
श्रीकल्याणरायजी की टीका के अनुसार, इन जीवन भेदों का वर्णन किया गया है।
श्लोक १६.२ - १७
जीवों में अलग-अलग भेद हैं। इनके देह और क्रियाओं में भी भिन्नता दिखती है। पुष्टिजीवों का फल काया (देह) से संबंधित है। कुछ भक्तों को भगवान की बाल्यावस्था का सुख मिलता है, कुछ को पौगंडावस्था का, और कुछ को किशोरावस्था का सुख प्राप्त होता है। शुद्धपुष्टि भक्तों को अलग-अलग फल क्यों मिलते हैं? इस शंका का समाधान किया गया है।
एवं – इस प्रकार से; तेषां – उनकी; सर्गः – सृष्टि; तु – तो (निरूपितं – निरूपित की गई); अत्र – यहां; तु – तो; फलं – फल को; निरूप्यते – निरूपण किया जाता है। हि – निश्चित ही; भगवान् एव – भगवान ही; फलं – फल; स – वह; भुवि – पृथ्वी पर। गुणस्वरूपभेदेन – गुण और स्वरूप के भेद से; यथा – जिस प्रकार से; आविर्भवेत् – प्रकट होते हैं; तथा – उसी प्रकार; तेषां – उनका; फलं – फल; भवेत् – होता है।
भावार्थ
जीवन की सृष्टि भिन्न-भिन्न प्रकार की है। पुष्टिमार्गीय जीवन के फलों का निरूपण करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि पुष्टिमार्ग में भगवान के गुण और स्वरूप के भेद के अनुसार, जिस रूप में भगवान प्रकट होते हैं, उसी रूप में पुष्टिजीवों को फल प्राप्त होता है।
टीका
भगवान के स्वरूप में ही आसक्ति रखने वाले पुष्टिमार्गीय जीव, उनके हृदय में, घर में, या वृन्दावन जैसे स्थानों में, भगवान को अपने स्वरूप का आनंद देने के लिए बाल्य, कैशोर आदि अवस्थाओं से युक्त स्वरूप में प्रकट होते देखते हैं। इस प्रकार, उन्हें सुख प्राप्त होता है।
हालांकि, सभी पुष्टिमार्गीय भक्तों को भगवान के स्वरूपानंद का ही फल प्राप्त होता है।
पुष्टिमार्ग के फलों को अन्य किसी मार्ग में प्राप्त नहीं किया जा सकता, यह सिद्ध किया गया है।
अब मिश्रपुष्ट जीवन में कहीं शाप के कारण पतन का प्रकरण देखने में आता है। गर्भस्तुति में कहा गया है, श्रीमद्भागवत महापुराण (१०.२.३३):
येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिनो
त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः।
आरुह्य कृत्षेण परं पदं ततः
पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रयः॥
हे अरविंदाक्ष (कमलनयन भगवान), जो व्यक्ति स्वयं को मुक्त मानते हैं और कठिन तपस्या से परम पद प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन जिनकी बुद्धि अशुद्ध है और जो आपके चरणकमलों की उपेक्षा करते हैं, वे वहां से नीचे गिर जाते हैं।
श्लोक १८
यदि पुष्टिमार्गीय जीवों के लिए शाप से गिरना संभव नहीं है, तो वे क्यों गिरते हैं? ऐसी शंका होने पर उसका समाधान इस प्रकार किया जाता है।
आसक्तौ – आसक्ति होने पर; अथवा – या; अहङ्कार – अभिमान होने पर; लोके – भूतल पर; तन्मार्गस्थापनाय – उस मार्ग की स्थापन के लिए। क्वचित – कभी-कभी; भगवान् – भगवान; एवं – इस प्रकार; शापं – शाप; दापयति – दिलाते हैं।
भावार्थ
मिश्रपुष्टजीव यदि अन्य वस्तुओं में आसक्त हो जाएं या अहंकार करें, तो भगवान स्वयं उन्हें शाप देते हैं। इसके अतिरिक्त, लोक में मर्यादा की स्थापना करने के लिए भी भगवान कभी-कभी शाप देते हैं।
टीका
जैसे नलकूबर और मणिग्रीव अप्सराओं में आसक्त हो गए, तो नारद मुनि ने उन्हें शाप दिया।
चित्रकेतु और परीक्षित को जब अहंकार हुआ, तब चित्रकेतु को पार्वतीजी द्वारा और परीक्षित को शमीक ऋषि के पुत्र श्रृंगी द्वारा शाप दिया गया।
इसी प्रकार, इन्द्रद्युम्न राजा ने अगस्त्य मुनि का उचित आदर-सत्कार नहीं किया। तब लोक में मर्यादा की स्थापना के लिए अगस्त्य मुनि ने उन्हें शाप दिया।
इस प्रकार, जहां भी मिश्रपुष्टजीव शाप आदि के दोष में पड़ते हैं, वहां भगवान स्वयं उन्हें दंड देकर पुनः पुष्टिमार्ग में स्थापित करते हैं। साथ ही, लोक में मर्यादा का उल्लंघन न हो, इसलिए भी भगवान शाप देते हैं।
श्लोक १९
भगवान मिश्रपुष्टजीवों को ही शाप क्यों देते हैं? इस शंका का समाधान किया जाता है।
ते – वे; पाषण्डतां – पाखण्ड पथ को; न यान्ति – प्राप्त नहीं होते; च – और; (तेषां) – उनका; रोगाद्युपद्रवा: – रोग आदि उपद्रव; न – नहीं; (भवन्ति) – होते हैं। प्रायेण – अधिकतर; महानुभावा: – महानुभाव; (भवन्ति) – होते हैं। शास्त्रं – शास्त्र को; शुद्धत्वहेतवे – शुद्धता के लिए; (भवति) – होता है।
भावार्थ
जिन भक्तों को भगवान शाप देते हैं, वे न तो लोक, वेद, या भक्तिमार्ग के विरुद्ध होते हैं, और न ही उन्हें कोई रोग या विपत्ति होती है। अधिकतर, वे भक्त महानुभाव हो जाते हैं। भगवान द्वारा दिए गए शाप को समझना चाहिए कि वह केवल उनके मिश्रभाव को समाप्त कर उन्हें शुद्ध प्रेमी बनाने के लिए है।
टीका
जिन भक्तों को शाप मिलता है, वे पाषंडी नहीं होते, बल्कि अत्यंत श्रेष्ठ भक्त होते हैं। इसलिए, यह स्वीकार करना चाहिए कि भगवान ही उन्हें दंड देते हैं। शाप के माध्यम से उन्हें कोई रोग या उपद्रव नहीं होता।
अधिकांशतः, वे महानुभाव हो जाते हैं। इसके अलावा, अन्य लोगों के लिए भगवान द्वारा भक्तों को दुःख देना भी कोई दोष नहीं है।
फिर भी, यदि कोई कहे कि कृपालु भगवान के लिए किसी छोटे कारण से इतना कठोर दंड देना उचित नहीं है, तो इसका उत्तर यह है कि भगवान द्वारा दिए गए शाप का उद्देश्य मिश्रभाव को समाप्त कर शुद्ध पुष्ट बनने में सहायता करना है।
यदि भगवान उन्हें शाप न दें, तो उनके मिश्रभाव की निवृत्ति संभव नहीं होती, और तब शुद्ध पुष्टत्व नहीं हो सकता। अतः, शुद्ध पुष्टत्व प्राप्त कराने के लिए ही भगवान उन्हें शाप देते हैं। इसमें भी भगवान की कृपा ही कारण है।
श्लोक २०.१
जिन मिश्रपुष्ट भक्तों को शुद्ध करने की भगवान की इच्छा है, उन्हें उत्तम कहना चाहिए। यदि यह स्वाभाविक भाव उनमें नहीं होता, तो ऐसा क्यों हुआ? इस शंका का समाधान आगे दिया गया है।
भगवत्तारतम्येन – प्रभु के स्वरूप के तारतम्य से; (ते – वे); हि – ही; तारतम्यं – तर-तम भाव को; भजन्ति – प्राप्त होते हैं।
भावार्थ
“यदेकमव्यक्तमनन्तरूपं” इस श्रुति से यह स्पष्ट होता है कि भगवान अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। जब भगवान विभिन्न स्वरूप भेद को स्वीकार करते हैं, उनके भक्त भी उसी भाव के तारतम्य को ग्रहण करते हैं।
टीका
भगवान अनन्तरूप हैं। जब भक्त मिश्रपुष्टजीव होते हैं, उनके भगवत्स्वरूप में जितना तारतम्य होता है, उतना ही तारतम्य वह जीव भोगता है। इसमें:
- व्यूह,
- कला,
- आवेश, और
- पूर्ण स्वरूप में,
जिनके साथ उनकी भक्ति होती है, उन सभी के तारतम्य से मिश्रपुष्ट भक्तों को भी तारतम्य प्राप्त होता है।
जैसे:
- संकर्षण के उपासक चित्रकेतु को पार्वती के शाप से वृत्रासुर के रूप में इंद्र से युद्ध करना पड़ा। उस समय उन्होंने संकर्षण के चरणों में मन को स्थापित किया था।
- इन्द्रद्युम्न राजा, जो निर्गुण स्वरूप के उपासक थे, अगस्त्य मुनि के शाप से गजेन्द्र बने। फिर भी उन्होंने अपनी स्तुति में निर्गुण स्वरूप का ही वर्णन किया।
इस प्रकार, भगवान के स्वरूप और भजन के प्रकार के तारतम्य से भक्तों को फलों में भी तारतम्य मिलता है।
जिस प्रकार भक्ति होती है, उसी प्रकार भगवान का स्वरूप प्रकट होता है और वही प्रमाणित फल होता है।
श्लोक २०.२ - २१.१
जब पुष्टभक्त केवल भगवत्परायण होते हैं, तब उन्हें श्रौतस्मार्त कर्माचरण करना चाहिए या नहीं? यदि वे श्रौतस्मार्त कर्म करते हैं, तो ऐसा क्यों करते हैं?
इस शंका की निवृत्ति के लिए अब पुष्टजीवों के स्वरूप को जानने का प्रयास किया जाता है। इसके साथ ही, उनके लक्षण बताए गए हैं। इतना ही नहीं, इसी प्रसंग से सभी के लक्षण समझाए जाते हैं।
तेषु – उनमें; वैदिकत्वं – वैदिकपन; च – और; लौकिकत्वं – लौकिकपन; कापट्यात् – कपट से (अस्ति – है); न – नहीं (अस्ति – है)। वैष्णवत्वं – वैष्णवपन; हि – ही; सहजं – सहज; अन्यत्र – अन्य सभी जगह; तत: – उसके कारण; विपर्यय: – विरुद्ध (अस्ति – है)।
भावार्थ
पुष्टभक्तों द्वारा की जाने वाली वैदिक और लौकिक क्रियाएँ कपट से प्रेरित होती हैं, न कि आसक्ति से। उनके वैष्णवपने का आधार उनका स्वभाव है। हालांकि, मर्यादामार्गीय और लौकिक जीवन में यह स्थिति इसके विपरीत होती है। यहाँ वैदिकपने का आधार स्वाभाव है, जबकि वैष्णवपने और लौकिकपने का आधार कपट या आसक्ति होता है।
टीका
भगवद् गीता (३.२५) में यह कहा गया है कि,
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥
जैसे अज्ञानी व्यक्ति आसक्त होकर कर्म करते हैं, वैसे ही विद्वान व्यक्ति को भी कर्म करना चाहिए, लेकिन बिना आसक्ति के। उन्हें यह सब लोकसंग्रह (लोक के कल्याण) के लिए करना चाहिए।
पुष्टभक्त अपने भक्तिपने को गुप्त रखने के लिए वैदिक और लौकिक कर्म करते हैं। इसके द्वारा वे अपना वैदिक और लौकिकपना प्रदर्शित करते हैं।
हालांकि, इनके लिए वैदिक और लौकिक कर्म करने का कोई निजी प्रयोजन नहीं होता। इसके बावजूद, वे ऐसा करते हैं ताकि अन्य लोग उन्हें देखकर वैदिक और लौकिक मर्यादाओं का पालन करें। परंतु, वे इन कर्मों को आसक्ति के बिना करते हैं। “कपट से करना” कहने का अभिप्राय यही है।
मर्यादामार्गीय जीवन में वैष्णवता और लौकिकता कपट से प्रेरित होती है, जबकि वैदिकता (मर्यादा का पालन करना) स्वभाविक होती है।
प्रवाह जीवन में वैष्णवता और वैदिकता कपट से प्रेरित होती है, जबकि लौकिकता स्वाभाविक होती है।
श्लोक २१.२ - २३.१
जब तीन प्रकार के जीव—पुष्टि, प्रवाह और मर्यादा—मौजूद हैं, तब उनमें समान दृष्टिकोण और सभी धर्मों में समर्पण क्यों दिखाई देता है? इस प्रश्न को समझने की इच्छा उत्पन्न होने पर इसका समाधान दिया जाता है।
ये – जो; सम्बन्धिन: – सम्बन्ध वाले; जीवा: – जीव; तथा – और; प्रवाहस्था: – प्रवाह मार्ग में रहने वाले; अपरा – दूसरे (जीव); (सन्ति – हैं)। ते – वे; सर्वे – सभी; सर्ववर्त्मसु – सभी प्रकार से बरतने वाले; क्षणात् – क्षण भर में; सर्वत्वं – सर्वता; आयान्ति – प्राप्त होते हैं। तेषां – उनकी; रुचि: – रुचि; कुत्रचित् – कहीं भी; न – नहीं (भवति – होती है)। सर्वत्र** – सभी जगह; तेषां – उनका; क्रियानुसारेण – क्रिया के अनुसार; सकलं – सम्पूर्ण; फलं – फल; (भवति – होता है)।
भावार्थ
पुष्टि, प्रवाह, और मर्यादा मार्गों से संबंधित जो जीव हैं, वे विशिष्ट होते हैं। इसके विपरीत, दूसरे प्रवाहिजीव, जो इन मार्गों से हीन हैं, वे सभी मार्गों में क्षण-क्षण में आते-जाते रहते हैं। परंतु किसी भी मार्ग में उनकी रुचि स्थिर नहीं होती। वे जिस प्रकार की क्रिया करते हैं, उसी के अनुरूप उन्हें संबंधित मार्ग में थोड़े-थोड़े फल की प्राप्ति होती है।
टीका
पञ्चरात्र में मध्यम और अधम जीवों को ‘चर्षणीजीव’ कहा गया है। इनकी गति यम के अधीन होती है।
तीनों मार्गों से संबंधित जीव बार-बार जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहते हैं।
जबकि प्रवाहिजीव, जिनकी गति नरक में होती है, वे प्रवाहमार्गीय जीवों के रूप में पहचाने जाते हैं।
श्लोक २३.२ - २५.१
इस प्रकार, प्रसंग से उत्पन्न सभी तथ्यों को कहने के बाद, प्रवाह का भेद क्रम से स्पष्ट किया गया है और उसका निरूपण किया गया है।
स्वरूपाङ्ग-क्रिया-युतान् – स्वरूप, अंग और क्रिया सहित; प्रवाहस्थान् – प्रवाह मार्गी; प्रवक्ष्यामि – अच्छी भांति कहता हूं। ते – वे; सर्वे – सभी; जीवाः – जीव; हि – निश्चित रूप से; आसुराः – आसुर (सन्ति – हैं)। प्रवृत्तिं च – प्रवृत्ति और; इति – इस प्रकार; वर्णिताः – वर्णित; (सन्ति – हैं)। च – और; अज्ञ-दुर्ज्ञविभेदत: – अज्ञ और दुर्ज्ञ भेद से। द्विधा – दो प्रकार के; प्रकीर्त्यन्ते – कहे जाते हैं; (ये – जो)। भगवत्प्रोक्ता: – भगवान द्वारा कहे गए हैं; ते – वे; दुर्ज्ञा: – दुर्ज्ञ। ये – जो; पुन: – फिर; तान् – उनको; अनु – अनुकरण करते हैं।
भावार्थ
स्वरूप, देह और क्रियाओं से युक्त प्रवाहमार्गीय जीवन को यहाँ पर स्पष्ट किया गया है। गीता में “प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः” जैसे श्लोकों में जिनका वर्णन किया गया है, वे सभी ‘आसुर’ (प्रवाही) जीव हैं। इन्हें दो भेदों में विभाजित किया गया है: अज्ञ और दुई। जो जीव आसुर प्रवृत्ति को अनुकरण करते हैं, वे ‘अज्ञ’ कहलाते हैं।
टीका
श्रीमद्भगवद्गीता (१६.७ - १६.२०) में भगवान ने यह कहा है कि
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥
….
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥
आसुरी प्रवृत्ति के लोग यह नहीं जानते कि उन्हें क्या करना चाहिए (प्रवृत्ति) और क्या नहीं करना चाहिए (निवृत्ति)। उनके जीवन में न शुद्धता है, न ही शिष्टाचार, और न ही सत्य का पालन। ऐसे अज्ञानी लोग, जो आसुरी प्रकृति में संलग्न रहते हैं, बार-बार जन्म लेते हैं और अधम गति को प्राप्त करते हैं। वे भगवान श्रीकृष्ण की शरण में नहीं आते, जिससे उनका उद्धार नहीं हो पाता।
इनमें सभी लक्षण यद्यपि सभी पर लागू नहीं होते, लेकिन जिनमें कुछ भी ऐसे लक्षण पाए जाते हैं, वे आसुर जीव कहे जाते हैं। इन जीवों को दो प्रकार में विभाजित किया गया है:
- दुर्ग: गीता में जिनका स्वरूप भगवान ने लिखा है।
- अज्ञ: जो इन जीवनों का अनुसरण करते हैं।
अज्ञ जीवन को दुर्जन के संग से भगवान और भक्तों के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है। जब यह द्वेष समाप्त हो जाता है, तो वे अपनी प्रकृति में लौट आते हैं।
अज्ञ जीव जब भगवान के संग द्वेष करते हैं, और यदि भगवान स्वयं उन्हें मार दें, तब ही वे मुक्त हो सकते हैं। जिन असुरों को भगवान ने मारा और वे मुक्त हो गए, वे सभी ‘अज्ञ’ माने जाते हैं।
श्लोक २५.२ - २५.३
ऊपर के निरूपण में प्रवाहीय सृष्टि को आसुर और हीन कहा गया है। तब यह प्रश्न उठता है कि आसुर सृष्टि में केवल आसुरी जीवों की उत्पत्ति होनी चाहिए। भगवान के अनुग्रह योग्य जीवों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है?
बलिराजा और प्रह्लाद जैसे पात्रों की उत्पत्ति आसुरी कुल में हुई, और उनके ऊपर भगवान का अनुग्रह भी देखा गया। यह कैसे संभव है? यदि इस प्रश्न का उत्तर जानने की इच्छा हो, तो इसका समाधान इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है।
पुष्टिस्थ: – पुष्टिमार्ग में रहने वाला; प्रवाहे – प्रवाह मार्ग में; समागत्य – आकर; अपि – भी; तै: – उनके (सह – साथ); न – नहीं; युज्यते – मिल पाता है। स: – वह; अपि – भी; तै: – उनसे; तत्कुले – उस कुल में; कर्मणा – कर्म से; जात: – जन्मा (अस्ति – है)।
भावार्थ
पुष्टिमार्गीय जीव यदि भगवान या भक्तों के प्रति अपराध करते हैं, तो उन्हें आसुर कुल में जन्म मिलता है। हालांकि, प्रवाह में आकर भी वे आसुर धर्म में आसक्त नहीं होते।
टीका
पुष्टिमार्गीय जीव, यदि किसी कारण से प्रवाह में आ जाएं, तो भी वे प्रवाही जीवन के आसुर धर्म से युक्त नहीं होते।
यदि उन्होंने भगवान या भक्तों के प्रति अपराध किया हो, तो इस कर्म के फलस्वरूप उन्हें आसुर कुल में जन्म मिलता है। फिर भी, उनके भीतर आसुर धर्म का भाव उत्पन्न नहीं होता।
जन्म का कारण भी केवल उनके कर्म ही होते हैं। निबंध के भक्तिप्रकरण में यह कहा गया है:
यदि कोई भक्त भक्तिमार्ग में वेद की निंदा या अधर्म करता है, तो वह नरक में नहीं जाता, परंतु हीन योनि में जन्म प्राप्त करता है।
इहां से आगे, प्रवाहमार्गीय जीवन के प्रयोजन, स्वरूप, साधन, अंग, क्रिया और फल तथा मर्यादामार्गीय जीवन के प्रयोजन, स्वरूप, अंग, क्रिया, साधन और फल के विषय में जितने भी ग्रंथों में जानकारी उपलब्ध हो, उन सभी ग्रंथों का होना आवश्यक है। परंतु आधुनिक जीवन के प्रारब्धवश, यहां से आगे के ग्रंथ प्राप्त नहीं हुए हैं। इसलिए, जितने भी ग्रंथ प्राप्त हुए हैं, उनका व्याख्यान लिखा गया है (ऐसा श्रीपुरुषोत्तमजी कहते हैं)।
अस्वीकरण और श्रेय
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संदर्भ सूची
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