पञ्चपद्यानि में वर्णित श्रोताओं के स्वरूप को श्रीमहाप्रभु ने गहनता से निरूपित किया है। वक्ता के अधिकार और स्वरूप, तथा उनके मुख से श्रवण-कीर्तन के फल के निरूपण के बाद, अब श्रोता के अधिकार और स्वरूप को श्रीमहाप्रभु ने पञ्चपद्यानि में स्पष्ट किया है।

भगवत्कथा का श्रवण, स्मरण और कीर्तन यदि भगवत्स्वरूप सेवा के साथ-साथ निरंतर चलता रहे, तो वह भगवत्स्नेह के दोनों प्रकार—संयोग और विप्रयोग—में भक्तिके पूर्ण आविर्भाव का माध्यम बनता है। परंतु कई व्यक्तियों के लिए भगवत्स्वरूप सेवा का अवसर पूरे जीवन में उपलब्ध नहीं हो पाता। ऐसी परिस्थिति में केवल भगवत्कथा के श्रवण, स्मरण और कीर्तन के माध्यम से प्रेम, आसक्ति, व्यसन, सर्वात्मभाव और अलौकिक सामर्थ्य के क्रमिक सोपानों पर भक्ति का आरोहण संभव हो सकता है।

सेवा के साथ-साथ जो व्यक्ति कथाओं के श्रवण, स्मरण और कीर्तन का निरंतर पालन करते हैं, वे उत्तम श्रेणी के श्रोता होते हैं। जो सेवा के विकल्प के रूप में भगवत्कथा का नियमित रूप से अनुसरण करते हैं, वे मध्यम श्रेणी के श्रोता माने जाते हैं। और जो केवल यदा-कदा कथा श्रवण करते हैं, वे निम्न श्रेणी के श्रोता होते हैं। इस दृष्टिकोण से श्रोताओं को उत्तम, मध्यम और निम्न श्रेणियों में विभाजित किया गया है।

दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार, श्रोताओं के अधिकारों के आधार पर उनकी श्रेणियाँ—शुद्धपुष्टि, पुष्टिपुष्टि, मर्यादापुष्टि और प्रवाहपुष्टि—निर्धारित की जाती हैं। इन अधिकारों की पहचान पुष्टिप्रवाहमर्यादा ग्रंथ के “पुष्ट्या विमिश्राः सर्वज्ञाः प्रवाहेण क्रिया रता:” जैसे सूत्रों से की जाती है।

तीसरी दृष्टि में वक्ताओं के ज्ञान, भक्ति और वैराग्य जैसे गुणों के आधार पर श्रोताओं के अधिकार को वर्गीकृत किया गया है। इसमें तीन प्रमुख गुण शामिल हैं: जिज्ञासुता और श्रवण के प्रति उत्सुकता, रुचि, तथा इतर साधनों के दुराग्रहपूर्ण अनुष्ठानों या अभिमान का अभाव। इन गुणों से तज्जन्य शुद्ध फलों में अनासक्ति भी प्रकट होती है। यदि कोई श्रोता इन तीनों गुणों से युक्त हो, तो वह उत्तम श्रेणी का है। यदि दो गुण विद्यमान हों, तो वह मध्यम श्रेणी का है। और यदि केवल एक गुण उपस्थित हो, तो वह निम्न श्रेणी का श्रोता माना जाता है।

चतुर्थ दृष्टिकोण में पुष्टिमार्गीय श्रोता को उत्तम, मर्यादामार्गीय को मध्यम और प्रवाहमार्गीय या चर्षणी को अधम मानने का उल्लेख किया गया है। परंतु यह दृष्टिकोण यहाँ अप्रासंगिक है, क्योंकि श्रीमहाप्रभु ने षोडशग्रन्थ केवल पुष्टिमार्गीय जीवों के लिए रचाया है। अतः अपुष्टिमार्गीय जीवों को पुष्टिमार्गीय सिद्धांत या भगवदलीला का उपदेश देना श्रीमहाप्रभु के अनुसार उचित नहीं है। जलभेद में भी मर्यादामार्गीय वक्ताओं के स्वरूप को इस उद्देश्य के लिए स्पष्ट किया गया है।

पाँचवे दृष्टिकोण के अनुसार, जैसे शास्त्रार्थ प्रकरण के अंतिम भाग में भगवत्सेवा करने वाले जीवों के विविध अधिकार दिखाए गए हैं, उन्हें भगवत्कथा के श्रवणाधिकार का भी संकेत माना जा सकता है। इस संदर्भ में, जिज्ञासुता और श्रवणोत्सुकता दो प्रकार की हो सकती हैं:

  • प्रमाण (शास्त्र) तथा प्रमेय (भगवान के स्वरूप, गुण, धर्म और लीला) दोनों के बारे में।
  • प्रमाण या प्रमेय में से किसी एक के बारे में। इसे ‘शब्दनिष्ठा’ और ‘अर्थनिष्ठा’ भी कहा जा सकता है।

इसी प्रकार कथा के प्रति रुचि (कथारति) के भी दो भेद हो सकते हैं:

  • सामान्य रुचि और
  • उत्कट रति।

इन दोनों के परस्पर संयोजन से अनेक प्रकार के विकल्प उत्पन्न हो सकते हैं।

  • जो श्रोता कथाश्रवण में उत्कट रति रखते हैं और कथा के दोनों पक्षों—शब्द (प्रमाण) तथा अर्थ (प्रमेय) पक्ष—में जिज्ञासा तथा श्रवण के प्रति उत्सुकता रखते हैं, उन्हें उत्तमाधिकारी माना जाता है। ऐसे श्रोताओं को जानी-भक्त की श्रेणी में रखना उचित है।

  • जो श्रोता कथाश्रवण में उत्कट रति नहीं रखते, लेकिन उसमें सामान्य रुचि रखते हैं और कथा के दोनों पक्षों में से केवल शब्द (प्रमाण) पक्ष को अधिक महत्व देते हैं, उन्हें शब्दनिष्ठ जिज्ञासु कहा जाता है। प्रेम के अभाव के कारण ऐसे श्रोताओं को मध्यमाधिकारी ज्ञानी के समान समझा जाना चाहिए।

  • जो श्रोता कथाश्रवण में रुचि रखते हैं, लेकिन शाब्दिक प्रमाण पक्ष के प्रति उत्सुकता नहीं रखते और केवल अर्थ (प्रमेय) पक्ष के प्रति तीव्र जिज्ञासा रखते हैं, उन्हें अर्थैकनिष्ठ श्रवणोत्सुक कहा जाता है। ज्ञान के अभाव के कारण ऐसे श्रोताओं को मध्यमाधिकारी भक्त माना जाना चाहिए।

  • जो श्रोता न तो उत्कट रति रखते हैं और न ही कथा के अर्थ (भगवान के स्वरूप, गुण, धर्म या लीला) के प्रति तीव्र उत्सुकता रखते हैं, ऐसे सामान्य रुचि वाले, ज्ञान और प्रेम दोनों से रहित श्रोता को कनिष्ठ, निम्न, या अधम कोटि का माना जाता है।

संदर्भ, कारिका संहिता (१०१-२):

शास्त्रनिष्ठा—एवं सर्व ततः सर्वं स इति ज्ञानयोगतः यः सेवते हरिं प्रेम्णा श्रवणादिभिस्तमः प्रेमाभावे मध्यमः स्यात् ज्ञानाभावे तथादिमः उभयोरप्यभावे

शास्त्रनिष्ठा— जो व्यक्ति ज्ञानयोग के माध्यम से हरि की इस भावना से सेवा करता है कि ‘सब कुछ उन्हीं से है और सब कुछ उन्हीं में है’, वह व्यक्ति प्रेमपूर्वक श्रवण आदि के द्वारा उत्तम भक्त कहलाता है। यदि प्रेम का अभाव हो, तो वह मध्यम भक्त माना जाएगा, और यदि ज्ञान का अभाव हो, तो वह अधम भक्त कहलाएगा। लेकिन यदि दोनों का ही अभाव हो, तो वह व्यक्ति भक्त की श्रेणी में नहीं आता।

छठी दृष्टि में यह भी संभावित है कि आरंभिक मुख्य, मध्यम और अधम श्रवणाधिकार क्रमशः ‘रसविक्षिप्तमानस,’ ‘रसविक्लिन्नमानस,’ तथा कभी-कभी रसावेश से उत्पन्न ‘रसावेशविकलमानस’ विशेषणों के माध्यम से भक्तिमार्गीय श्रवणाधिकार के रूप में अभिव्यक्त किए गए हैं। इसके साथ ही पञ्चपद्यानि के पाँचवें और अंतिम श्लोक में वर्णित ‘अनन्यमानस’ विशेषण द्वारा अन्याश्रयरहित प्रपत्तिमार्गीय श्रवणाधिकार का निरूपण किया गया है।

पुष्टिभक्त को इस भूतल पर परम फल की अनुभूति, जैसे अलौकिक सामर्थ्य या तनुनवत्व का लाभ प्राप्त होता है, जो प्रपत्तिमार्गीय अधिकारी को नहीं मिलता। किंतु विद्यमान देह के पात के पश्चात उन्हें सायुज्य मोक्ष की प्राप्ति संभव है। अतः देश, काल, द्रव्य, कर्ता, मंत्र और कर्मादिक के अन्याश्रय का त्याग करने के कारण, ये अधिकारी उत्तम होने पर भी, विद्यमान देह से भूतल पर परम फल की अनुभूति से वंचित होने के कारण ‘मर्त्य’ कहे गए हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि श्रीकृष्ण सायुज्य का लाभ उन्हें केवल मृत्यु के पश्चात ही प्राप्त होता है।

पञ्चपद्यानि के प्रथम चार श्लोकों में वर्णित अधिकारियों को ‘मर्त्य’ नहीं कहा गया है। इससे उनके भक्तिमार्गीय होने की अभिव्यक्ति होती है।

सर्वनिर्णय निबंध में

सर्वत्यागेऽनन्यभावे कृष्णमात्रैकमानसे सायुज्यं कृष्णदेवेन शीघ्रमेव ध्रुवम् फलम्

इस कारिका के प्रकाश में यह दर्शाया गया है कि

एवं देहपातनपर्यन्तं कृष्णैकमानसस्य सायुज्यं शीघ्रमेव भवति, काय, वाक् और स्वस्नेह के अभाव में भी मनोमात्रस्थितौ फलमेतद्

इस प्रकार प्रपत्तिमार्गीय जीव के ‘अनन्यमानस’ होने पर उसे उत्तमाधिकारी माना गया है।

इन विभिन्न दृष्टिकोणों से श्रवणाधिकार का विचार करने पर, पञ्चपद्यानि के पाँच पद्य भिन्न-भिन्न श्रेणी के पाँच अधिकारियों की चर्चा करते हैं। इनमें मुख्याधिकारी एकविध हैं और अमुख्याधिकारी त्रिविध, इस प्रकार कुल चार प्रकार के अधिकारियों का वर्णन मिलता है। ‘मुख्य’ और ‘उत्तम’ को समानार्थक शब्द मानते हुए, और उपक्रम एवं उपसंहार में एक ही अधिकारी को विवक्षित समझते हुए, त्रिविध अधिकारियों की चर्चा की गई है। इनमें किसी एक व्याख्यारीति का समर्थन करना थोड़ा कठिन प्रतीत होता है। फिर भी, मुख्य और अमुख्य, तथा भक्ति और प्रपत्ति के भेद को ध्यान में रखते हुए, यह विचार किया जा सकता है कि प्रथम श्लोक में मुख्य भक्तिमार्गीय श्रोता का निरूपण है, जबकि शेष चार श्लोकों में भक्तिमार्गीय द्विविध अमुख्य श्रोता और एक प्रपत्तिमार्गीय श्रोता का वर्णन किया गया है। इसमें कोई असंगति प्रतीत नहीं होती।

पाँच श्लोकों में श्रीमहाप्रभु जो कह रहे हैं, वह इस प्रकार है:

मुख्य श्रवणाधिकारी

दशम स्कंध के सातवें अध्याय की कारिका की सुबोधिनी में श्रीमहाप्रभु ने भगवत्कथा के पाँच परिणाम गिनाए हैं:

राछृण्वतोपेत्यरतिबितृण्णा सत्त्वं च शुद्धत्यचि रेण पुंसः भक्तिर्हरौ तत्पुरुषे च सख्यं तदेव हारं वद मन्यसे चेत्

  • भगवंत-चरित्र में अरति की निवृत्ति।
  • भक्ति का प्राकट्य।
  • सांसारिक तृष्णा की निवृत्ति।
  • सत्त्व (अंतःकरण) की शुद्धि।
  • भगवदीयों के सत्संग रूप सख्य की वृद्धि।

ये पाँच परिणाम जिस श्रोता में प्रकट होने जा रहे हों, उसे भगवत्कथा के श्रवण का मुख्याधिकारी मानना चाहिए।

श्रीमहाप्रभु आज्ञा करते हैं कि भक्तिरस के आलंबन विभाव स्वरूप श्रीकृष्ण के नामात्मक स्वरूप की कथा के श्रवण काल में, बाह्य अनुभव और भक्तिरस के स्थायिभाव स्वरूप (माहात्म्यज्ञानपूर्वक सुदृढ़, सर्वतोधिक स्नेह) रस की आंतर अनुभूति के तीव्र चक्र के कारण, जिनका चित्त विक्षिप्त सा हो जाता है, उनके लिए भगवत्कथा दुस्त्यज हो जाती है। इसका अर्थ है कि वे चाहें या न चाहें, उनकी वाणी और कर्णेंद्रिय निरंतर भगवत्कथा कहने और सुनने की व्यस्तता में मग्न रहती हैं। ऐसे कृष्णरसविक्षिप्तमानस श्रोताओं की भगवच्चरित्र में अरति निवृत्त हो जाती है। अतः इन्हें ‘अरतिवर्जिता’ कहा जाता है।

इनका चित्त न तो लौकिक विषयों की ओर आकर्षित होता है और न ही वैदिक मोक्षादि फलों की ओर। सांसारिक विषयों में तृष्णा के बंधन के टूट जाने के कारण, इन्हें इन विषयों में निर्वृत्ति यानी सुख और संतोष की अनुभूति नहीं होती है।

भगवत्कथा की प्रणाली से इनके सत्त्व अर्थात् अंतःकरण की शुद्धि हो जाने के कारण, ये केवल ज्ञानी या विरक्तों की भांति वैदिक फल, जैसे स्वर्ग, मोक्ष या अपवर्ग की कामना भी नहीं करते। अतः इन्हें वेद में भी अनिर्वृत्ति अर्थात् वैदिक फलों के प्रति भी विरक्ति हो जाती है।

ऐसे श्रोता भगवत् लीलाओं के श्रवण की तीव्र उत्सुकता रखते हैं और इसी कारण वे निरंतर भगवदीय भक्तों का सख्य या सत्संग खोजते रहते हैं। उनके इस स्वभाव को निरोध की सिद्धि के कारण समझा जाना चाहिए, और इन्हें भक्तिमार्गीय मुख्य श्रवणाधिकारी के रूप में मान्यता देनी चाहिए।

मध्यम श्रवणाधिकारी

कुछ श्रोताओं का मन श्रीकृष्णभक्ति के रस से इतना आर्द्र और क्लिन्न हो जाता है कि वे कथाश्रवण के समय भगवत्स्मृति से बिव्हल हो उठते हैं। ऐसे श्रोताओं की भगवत्कथा के शाब्दिक प्रमाण पक्ष में रुचि तीव्र नहीं होती, परंतु उनकी अर्थनिष्ठा, अर्थात् भगवत्स्वरूप, गुण, धर्म और लीलाओं के श्रवण में उनकी निष्ठा अत्यंत प्रबल होती है।

इसी प्रबल अर्थनिष्ठा के कारण, भले ही इनमें ज्ञान की लालसा कम हो, लेकिन प्रेम की स्पष्ट विद्यमानता उन्हें विशिष्ट बनाती है। इस प्रेमयुक्त अर्थनिष्ठा के आधार पर, इन्हें भक्तिमार्गीय मध्यम श्रेणी के श्रवणाधिकारी माना जाना चाहिए। उनके प्रेम और भक्ति का यह स्वरूप उनके अधिकार को परिभाषित करने में मुख्य भूमिका निभाता है।

निम्न श्रवणाधिकारी

कुछ अन्य श्रोताओं में ऐसी अर्थनिष्ठा नहीं होती, परंतु उनकी शब्दनिष्ठा अत्यंत तीव्र होती है। परिणामस्वरूप, प्रमाण विवेचन की प्रक्रिया के माध्यम से उन्हें निःसंदिग्ध ज्ञान की प्राप्ति की तीव्र लालसा होती है। ऐसे श्रोताओं की आस्था स्पष्ट रूप से दिखती है कि केवल श्रीकृष्ण ही सर्वभाव से भजनीय हैं, परंतु उनका भाव निरंतर उद्बुद्ध नहीं होता।

कभी-कभी कथारस के आवेश के कारण, अथवा प्रपञ्च विस्मृति के प्रभाव में भगवदासक्ति की तात्कालिक अभिव्यक्ति के कारण, ये स्नेहविकल हो पाते हैं। अन्यथा, इनका स्वभाव ज्ञानियों के लिए उपयुक्त स्थिरता बनाए रखता है। तात्कालिक पूर्ण भावोदय के कारण इनकी पूर्ण अर्थनिष्ठा भी तात्कालिक ही होती है।

कथाश्रवण के समय की तन्मयता के पश्चात, ये पुनः अन्यासक्ति में प्रवृत्त हो जाते हैं। इन श्रोताओं को भक्तिमार्ग के अंतर्गत कनिष्ठ श्रेणी के श्रवणाधिकारी माना जाता है। इनकी यह स्थिति उन्हें निम्नाधिकारियों की श्रेणी में सम्मिलित करती है।

प्रपत्तिमार्गीय श्रवणाधिकारी

प्रपत्तिमार्गीय जीव अन्य मार्गीय श्रोताओं की अपेक्षा उत्तम अधिकारी माने जा सकते हैं, परंतु यह शर्त आवश्यक है कि वे देश, काल, द्रव्य, कर्ता, मंत्र और कर्म आदि विभिन्न धार्मिक साधनों के अभिमान को त्याग दें और श्रीकृष्ण के स्वरूप, गुण, धर्म एवं लीलाओं के श्रवण, स्मरण और कीर्तन में अपना मन पूरी तरह से अनन्यरुचि के साथ समर्पित कर दें। इस प्रकार का प्रपत्तिमार्गीय श्रवणाधिकार अन्य मर्यादामार्गीय कर्म, ज्ञान, और उपासना के अधिकारों से श्रेष्ठ होता है।