निरोधलक्षणम् - परिचय
निरोधलक्षणम् ग्रंथ के इस अंश को संपादित करके प्रस्तुत किया गया है। इस प्रक्रिया में हिंदी व्याकरण को सुधारते हुए, उर्दू शब्दों को हिंदी या संस्कृत समकक्षों से स्थानापन्न किया गया और अनुच्छेदों को संरचित किया गया है, बिना सामग्री को घटाए या कमी किए:
निरोधलक्षण ग्रंथ श्रीमहाप्रभु ने गुजरात के अपने शिष्य राजा दुबे और माधव दुबे के लिए लिखा था। किंवदंती के अनुसार इसका रचनाकाल विक्रम संवत १५६६ है। चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अंतर्गत इन दोनों भाइयों की कथा भावप्रकाश में मिलती है। राजा दुबे और माधव दुबे के माता-पिता दुर्बल हो गए थे। उन्होंने दोनों पुत्रों से कहा, “अब हमें श्रीरणछोड़जी के दर्शन कराओ, यह सबसे उत्तम होगा।” तब वे दोनों पालकी किराए पर लेकर माता-पिता को बैठाकर श्रीठाकुरजी को साथ लेकर चल पड़े।
श्रीरणछोड़जी के दर्शन माता-पिता को कराए गए। उसी समय श्रीआचार्यजी द्वारका में थे। राजा दुबे और माधव दुबे ने लोगों से पूछा कि क्या यहाँ कहीं कथा-वार्ता या भगवद चर्चा होती है। तब एक व्यक्ति ने कहा, “श्रीवल्लभाचार्यजी पृथ्वी परिक्रमा कर यहाँ पधारे हैं। वे बहुत उत्तम कथा कहते हैं।” यह सुनकर दोनों भाई प्रसन्न हुए और आगे आकर बैठ गए। श्रीआचार्यजी ने नंदमहोत्सव का वर्णन श्रीभागवत दशम स्कंध के पाँचवें अध्याय का वर्णन किया। इस प्रकार, नंदालय की लीलाओं का सजीव अनुभव दोनों भाइयों को कराया।
इसके पश्चात् दोनों भाई प्रातःकाल श्रीआचार्यजी के पास गए और निवेदन किया, “महाराज, हमें शरण लीजिए।” तब श्रीआचार्यजी ने उन्हें स्नान कराकर नाम सुनाया और ब्रह्मसम्बन्ध कराया। फिर श्रीआचार्यजी ने कहा, “अब तुम भगवद्सेवा करो।” उन्होंने श्रीठाकुरजी को पंचामृत स्नान कराकर राजा दुबे और माधव दुबे को अपने साथ सेवा में लगाया और आदेश दिया, “सब ओर से मन हटाकर भगवत्सेवा करो।”
राजा दुबे और माधव दुबे ने निवेदन किया, “महाराज, निरोध का स्वरूप क्या है?” उनकी दीनता और सरल स्वभाव को देखकर श्रीआचार्यजी ने दशम स्कंध, जिसे ‘निरोधस्कंध’ कहा जाता है, से ‘निरोधलक्षण ग्रंथ’ की रचना की। उन्होंने दोनों भाइयों को इसे पाठ कराया और कहा, “तुम दोनों को निरोध सिद्ध हो जाएगा।” तत्काल ही दोनों भाइयों का मन अलौकिक हो गया और लीलारस का अनुभव होने लगा। तब श्रीआचार्यजी ने कहा, “अब अपने घर जाकर भगवद्सेवा करो। दैवी जीव आएँगे तो उन्हें नाम सुनाओ। तुम्हें निरोध सिद्ध हो गया है और जो तुम्हारे साथ मन लगाकर सेवा करेगा, उसे भी निरोध सिद्ध होगा।”
पुनः गाँव मणुंद में लौटकर दोनों भाई भगवद्सेवा करने लगे। उनके घर में कुछ धन-संपत्ति थी जिससे वे अपना निर्वाह करते थे। वे अधिक बोलते नहीं थे। जो भी उनके पास आता, वे उस पर दया दिखाते, भोजन का समाधान करते और भगवद्सेवा की चर्चा करते। दोनों भाई श्रीठाकुरजी की लीलाओं के रस में तल्लीन रहते थे।
यह कथा भागवत के दशम स्कंध में निरोधलीला के रूप में वर्णित हुई है। भगवान की इस निरोधलीला के परिणामस्वरूप कहा गया है कि भक्तों की ऐसी स्थिति हो जाती है कि वे सोते-जागते, चलते-फिरते, वार्तालाप करते, क्रीड़ा, स्नान और भोजन करते हुए अपनी सारी सुध-बुध खोकर केवल श्रीकृष्ण के ध्यान में तल्लीन रहते हैं। श्रीमद्भागवत (१०.९०.४६):
शय्यासनाटनालापक्रीडास्नानादिकर्मसु ।
न विदु: सन्तमात्मानं वृष्णय: कृष्णचेतस: ॥
यह निरोध का परिनिष्पन्न स्वरूप है।
योग का लक्षण केवल चित्तवृत्तियों का निरोध माना गया है। “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” का अर्थ केवल चित्तवृत्ति का निरोध है, किंतु भक्तिमार्ग में यह अपर्याप्त माना गया है। पुष्टिभक्ति रूप निरोध का अर्थ श्रीकृष्ण के संयोग एवं वियोग को गहराई से अनुभव करना है। यह केवल चित्तवृत्तियों तक सीमित नहीं है, अपितु देह, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त, आत्मा, तथा अन्य आत्मीय वस्तुओं और परिजनों का कृष्णभजन में विनियोग या तत्पर हो जाना है। यही पुष्टिमार्गीय निरोध का सार है।
प्रथम दृष्टिकोण
इस भक्तियोग के निरोध की व्याख्या चार आधारों पर की जा सकती है:
- कारणलक्षण
- स्वरूपलक्षण
- कार्यलक्षण
- प्रयोजनलक्षण
कारणलक्षण
भागवत के द्वितीय स्कंध के दसवें अध्याय की छठी कारिका “निरोधोस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः” में निरोध के कारणलक्षण का निरूपण किया गया है। श्रीमहाप्रभु ने भी भागवतार्थ निबंध (१०:११४-१७) में इसका विस्तृत विवेचन किया है। वहाँ यह समझाया गया है कि श्रीकृष्ण अपनी दुर्विभाव्य शक्तियों के साथ इस धरातल पर क्रीड़ार्थ प्रकट होते हैं, यही निरोध है। निरोध के इस प्रकार के लक्षण में ‘निरोध’ शब्द का रूढ़ार्थ नहीं, बल्कि उसका यौगिक अर्थ विवक्षित होता है।
नवम स्कंध का वर्ण्य-विषय भक्ति और दशम स्कंध का वर्ण्य-विषय निरोध माना गया है। इनके पूर्वापर होने की क्रम-संगति इस प्रकार मानी गई है कि नवम स्कंध में निर्दिष्ट भक्ति, जिनमें प्रकट होती है, ऐसे भक्तों को विमुक्त करने के लिए भगवान द्वारा जो रोध किया जाता है, उसे ‘निरोध’ कहा जाता है।
स्वरूपलक्षण
निरोध के कारण लक्षण की पहचान के पश्चात स्वरूपलक्षण को समझना अधिक सहज हो जाता है। प्रपंच को सर्वथा विस्मृत कर भगवान में ही अनन्य रूप से आसक्त हो जाना निरोध का स्वरूपलक्षण है। “प्रपञ्चविस्मृतिः तस्मात् कृष्णासक्तिः” को विशेष रूप से वर्णित किया गया है।
भागवत के नवम स्कंध में भक्तियों का वर्णन अभिप्रेत है। ऐसी भक्ति वाले जीव, प्रपंच को विस्मृत कर अनन्य रूप से भगवान में आसक्त कैसे हो पाते हैं, इसका विश्लेषण दशम स्कंध में अभिलषित है। तदनुसार षोडश ग्रंथों में भी भक्तिवर्धिनी में सबसे पहले भक्ति के विविध प्रकारों का वर्णन किया गया है। इसके बाद निरोधलक्षण ग्रंथ में ऐसी भक्ति वाले जीवों को भगवान में अनन्य रूप से निरुद्ध होने के उपाय समझाए गए हैं।
निरोधलक्षण ग्रंथ में प्रस्तुत विचार के अनुसार, जो भक्त राजादुबे और माधौदुबे की भांति अपने गृहस्थ जीवन में रहते हुए भगवद्सेवा और भगवत्कथा दोनों का निर्वाह कर सकते हैं, उनके लिए गृहत्याग अनावश्यक सिद्ध होता है। क्योंकि, लगातार सेवा और कथा के अभ्यास से वे प्रपंच की विस्मृति और भगवान में दृढ़ आसक्ति प्राप्त कर लेते हैं। यही मुख्य कल्प है।
यदि अपने घर में भगवद्सेवा संभव न हो, तो दूसरे के घर में रहकर उस गृहस्वामी की भगवद्सेवा में सहयोग देना और उनके द्वारा की जा रही भगवत्कथा में श्रोता के रूप में भाग लेना भक्तिमार्गीय अजातव्यसन जीव के लिए आवश्यक माना गया है। निरोध सिद्धि के लिए इसे गृहत्याग के विकल्प के रूप में एक गौण कल्प स्वीकारा गया है।
भक्तिवर्धिनी में इन दोनों कल्पों को लक्ष्य में रखते हुए कहा गया है, “सेवायां वा कथायां वा यस्यासक्तिर्दृढा भवेत् यावज्जीवं तस्य नाशो न क्वापीति मतिर्मम।” इस कथन के माध्यम से श्रीमहाप्रभु निरोध सिद्धि की बात समझा रहे हैं। क्योंकि निरोध के अभाव में, हरिणा विनिर्मुक्त भक्त भवसागर में मग्न हो जाते हैं। जैसा कि निरोधलक्षण ग्रंथ में वर्णित है, अतः दूसरे घर में रहकर भी भगवद्सेवा और भगवत्कथा में सम्मिलित होकर निरोध सिद्धि स्वीकार करनी आवश्यक है।
कार्यलक्षण
कारण और स्वरूप के विमर्श के बाद, अब निरोध के कार्य, अर्थात इसके कारण उत्पन्न होने वाले प्रभावों का विचार आवश्यक हो जाता है।
जो भक्त प्रपंच को विस्मृत करके भगवान में अपनी आसक्ति जोड़ता है, वह भगवान के संयोग और वियोग की अनुभूति तीव्रता से करने लगता है। जैसे कि ब्रजभक्तों के बारे में उल्लेख मिलता है, भागवत, (१०.१९.१६):
गोपीनां परमानन्दः आसीद गोविन्ददर्शने, क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत्।
भक्तिवर्धिनी में इस अवस्था को ‘व्यसनदशा’ कहा गया है। निरोध का स्वरूप सिद्ध होते ही निरोध का प्रभाव, अर्थात व्यसनदशा, प्रकट होने लगती है। भगवत्संयोग में परमानंद की अनुभूति और एक क्षण भी भगवद्वियोग को सहन न कर पाना, यही निरोध का कार्य माना गया है, निर्णयार्णव:
भगवद्विरहसामयिक परमदुःखकारणत्वे सति भगवत्संयोगसामयिकपरमानंदसाधकत्वं निरोधत्वम्
भगवद-अवतारकाल में भगवत्सेवा का अवसर भगवत्संयोगानुभूति है, तथा अवसर न होने पर भगवत्वियोगानुभूति है। अतः कार्यलक्षण अवतारकाल और अनवातारकाल दोनों परिस्थितियों में व्याख्यायित हो जाता है।
प्रयोजनलक्षण
भागवत और भागवतार्थनिबंध दोनों में निरोध का प्रयोजन मुक्ति और आश्रयभावापत्ति स्वीकारा गया है। श्रीमद्भागवत (२.१०.६–७):
निरोधोऽस्यानुशयनमात्मन: सह शक्तिभि: ।
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति: ॥
आभासश्च निरोधश्च यतोऽस्त्यध्यवसीयते ।
स आश्रय: परं ब्रह्म परमात्मेति शब्द्यते ॥
इसी प्रकार भागवतार्थ-निबंध में भी उल्लेख है, भागवत निबंध, (१०.१५–१६ & १२.१७):
भक्ताः पूर्वत्र निर्दिष्टाः ते रोद्धव्या विमुक्तये
कृष्णे निरुद्धकरणात् भक्ताः मुक्ताः भवन्ति हि
और
हरिराश्रय इत्युक्तो मुक्तानामिति वर्णितम्
षोडशग्रंथ की निरूपण शैली से इसमें थोड़ा अंतर यह है कि यहाँ निरोधोत्तर दो अवस्थाएँ स्वीकार की गई हैं:
- मुक्ति
- आश्रयभावापत्ति
षोडशग्रंथों में निरोधलक्षण ग्रंथ के पश्चात सेवाफल ग्रंथ में सेवा के तीन फल स्वीकारे गए हैं:
- अलौकिक सामर्थ्य
- सायुज्य
- वैकुण्ठादिषु सेवोपयोगी देह
स्पष्ट है कि इनमें ‘सायुज्य’ और ‘मुक्ति’ समानार्थी पद हैं। इसी प्रकार ‘वैकुण्ठादिषु सेवोपयोगी देह’ और ‘आश्रयभावापत्ति’ भी अंततः एक ही अवस्था के द्योतक हैं।
जहाँ तक ‘अलौकिक सामर्थ्य’ के अलग होने का प्रश्न है, उसमें यह ज्ञातव्य है कि भागवत के दशम स्कंध में तामस, राजस और सात्त्विक प्रकार के भक्तों की भक्तिपूर्ण प्रेम आसक्ति और व्यसनदशा का वर्णन क्रमशः प्रमाण, प्रमेय और साधन के रूप में हुआ है। साधन के पश्चात तीनों प्रकार के भक्तों की फलावस्था का भी वर्णन किया गया है। निरोध की यही फलावस्था सेवाफल में अलौकिक सामर्थ्य के रूप में वर्णित है। इसे ‘व्यसनोत्तर-कृतार्थता’, ‘सर्वात्मभाव’, ‘मानसी सेवा’ या ‘फलनिरोध’ कहा जाता है; इनके विभिन्न नामों के बावजूद संदर्भ एक ही है।
षोडशग्रंथ श्रीमहाप्रभु ने पुष्टिमार्गीय भक्तों के लिए प्रकट किए हैं। पुष्टिप्रवाहमर्यादा ग्रंथ (कारिका 17) में
भगवानेव हि फलं स यथाविर्भवेद् भुवि गुणस्वरूपभेदेन तथा तेषां फलं भवेत्
में यह समझाया गया है कि पुष्टिमार्ग में फल स्वयं भगवान हैं। वे गुण या स्वरूप के भेद से जैसे भी इस भूतल पर प्रकट होते हैं, तदनुसार उन्हें फल माना जाता है।
स्वरूपात्मना इस भूतल पर भगवान का भक्तों के मध्य प्रकट होना पुष्टिमार्गीय फल है। गुणगान की प्रक्रिया द्वारा भक्त के हृदय में भगवान का प्रकट होना भी फल ही है। दोनों ही प्रकार के भगवत्प्राकट्य से भक्त प्रपंच को विस्मृत कर भगवदासक्त हो पाता है। हर परिस्थिति में यदि इस भूतल पर भगवदनुभव नहीं होता, तो देह के छूटने के पश्चात भगवान में सायुज्य रूप मोक्ष मिलता है अथवा वैकुण्ठ आदि लोकों में सेवोपयोगी देह।
ये दोनों ही फल भूतल पर घटित होने वाली अनुभूति नहीं हैं। अतः पुष्टिप्रवाहमर्यादा ग्रंथ में परिभाषित पुष्टिमार्गीय फलानुभूति की तुलना में ये गौण अनुभूतियाँ हैं। इसलिए इन अनुभवों के सामर्थ्य को ‘अलौकिक’ नहीं कहा गया है, क्योंकि इनके लौकिक अनुभव होने की संभावना ही नहीं उठती। फलनिरोध, जो भूतल पर घटित होती अनुभूति है, मानसी सेवा की तरह होती है। अतः इसके अनुभव को ‘अलौकिक सामर्थ्य’ कहा गया है। अन्यथा भूतल पर घटित अनुभवों को कोई लौकिक समझ सकता है। वास्तविकता यह है कि वे इस लोक में घटित होने पर भी अलौकिक घटनाएँ ही हैं।
निरोध अपने दोनों रूप, अर्थात साधननिरोध एवं फलनिरोध, इस लोक में घटित होने वाली अलौकिक घटनाएँ हैं। “प्रपञ्चे क्रीडनं हरेः” के वचन में श्रीमहाप्रभु विशेष रूप से प्रपंच, अर्थात इस लोक का उल्लेख करते हैं। इस भूतल पर भक्तों के बीच भगवत्क्रीड़ा साधननिरोध है, और ऐसी लीलाओं के कारण, जब भक्त जगत को भूलकर जगदीश में अनन्य रूप से आसक्त हो जाता है, तो वह फलनिरोध है। इस स्पष्टता के बाद, निरोध का प्रयोजनलक्षण सहजता से समझा जा सकता है।
भगवदवतारकाल में भूतल पर प्रकट होने वाले भगवद्रूप की वह लीला, जिसका उद्देश्य जीवात्मा को सर्वात्मभाव का दान करना हो, उसे ‘निरोध’ कहा जाता है। अवतारकाल में सायुज्यमुक्ति या आश्रयभावापत्ति प्रदान करने के लिए जो वियोगानुभव भगवान कराते हैं, तथा ऐसे तीव्र वियोग में भक्त का निरंतर भगवान के गुणगान में तल्लीन हो जाना भी निरोध ही है। ये दोनों लक्षण भगवदवतारकाल से संबंधित हैं।
अनवतारकाल में लीला का स्थान तनु-बितजा सेवा ले लेती है, और गुणगान का स्थान भगवत्कथा के श्रवण, स्मरण, और कीर्तन ले लेते हैं। तदनुसार, निरोध का प्रयोजन सेवाफल में वर्णित अलौकिक सामर्थ्य, सायुज्य, और वैकुण्ठादि लोकों में सेवोपयोगी देह के लाभ को माना जाता है।
चाहे अवतारकाल हो या अनवतारकाल, सच्चे पुष्टिभक्त की भक्ति निरुपाधिक, निष्कारण और निष्प्रयोजन ही होती है। भक्त केवल भगवान को चाहता है, मुक्ति को नहीं। परंतु भक्ति अवांछित फल प्रदान करती ही है, जैसा कि तृतीय स्कंध में कहा गया है। अतः प्रयोजनलक्षण भक्त के भाव और अभिप्राय को दृष्टिगत करके नहीं, बल्कि भक्तिके स्वभाव को ध्यान में रखकर प्रदान किया गया है।
द्वितीय दृष्टिकोण
निरोध के लक्षण को एक और दृष्टि से व्याख्यायित किया जा सकता है, जिसमें तीन प्रकार उल्लेखनीय हैं:
- करण-निरोध
- व्यापार-निरोध
- फल-निरोध
करण-निरोध
सुबोधिनी और भागवतार्थनिबंध के तामस प्रकरण के प्रारंभ में इस विषय की विवेचना की गई है कि जीव के स्वभाव को बदलना स्वयं जीव के लिए सर्वथा असंभव है। इसलिए, जब भगवान जीव के सात्त्विक, राजस या तामस स्वभाव के अनुरूप स्वरूप धारण कर इस भूतल पर प्रकट होते हैं और भक्तों के बीच लीला करते हैं, तो अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप जीव भगवान के स्वरूप और लीलाओं में आसक्त हो जाते हैं। इस लीलाविहारी श्रीकृष्ण में आसक्ति के कारण प्रपंचिक विषयों में आसक्ति सहज रूप से समाप्त हो जाती है या स्वार्थबुद्धिरहित केवल भगवदुपयोगिता की भावना में परिवर्तित हो जाती है। जिस लीला के कारण यह असाधारण परिवर्तन संभव होता है, उस भगवदलीला को करणात्मक निरोध कहा जाता है।
‘करण’ अर्थात असाधारण कारण। दशम स्कंध में वर्णित भक्त, विशेष रूप से ब्रजभक्तों, को जो प्रपंचविस्मृति और कृष्णासक्ति की सिद्धि प्राप्त हुई, उसका असाधारण कारण भक्तस्वभावानुरूप भगवद्रूप और भगवदलीला ही थे। अतः कहा गया है, भागवत, (११:१२:७-९):
ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमा: ।
अव्रतातप्ततपस: मत्सङ्गान्मामुपागता: ॥
केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगा: ।
येऽन्ये मूढधियो नागा: सिद्धा मामीयुरञ्जसा ॥
यं न योगेन साङ्ख्येन दानव्रततपोऽध्वरै: ।
व्याख्यास्वाध्यायसन्न्यासै: प्राप्नुयाद् यत्नवानपि ॥
संयुक्त अर्थ: जो व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन नहीं करते, महान संतों की उपासना नहीं करते, व्रत और तपस्या से दूर रहते हैं, वे भी यदि मेरी संगति करते हैं, तो मुझ तक पहुँच जाते हैं। केवल शुद्ध भाव के कारण गोपियाँ, गाएँ, पर्वत, पशु और यहाँ तक कि सामान्य या मूर्खतापूर्ण चित्त वाले लोग भी मुझ तक सरलता से पहुँचे हैं। योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, व्याख्या, स्वाध्याय या सन्यास जैसे उपायों से भी यदि कोई अत्यधिक प्रयास करे, तो भी वह मुझे प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक वह भक्ति और प्रेममय भाव से मुझे प्राप्त करने का प्रयास न करे।
यहाँ जिस सत्संग और भाव को भगवान ने स्वयं अपनी प्राप्ति का साधन माना है, वह उनका लीलात्मक संग और लीलासक्ति रूप भाव ही है। अन्य सभी साधन, जैसे योग, सांख्य, दान, व्रत, तप, यज्ञ, व्याख्यान, स्वाध्याय, और संन्यास की अकिंचित्करता स्वयं भगवान ने वर्णित की है। इसे ‘साधननिरोध’ या ‘भगवान का भक्तों में निरोध’ कहा जाता है।
इससे यह सिद्ध होता है कि भक्तों के स्वभावानुसार भगवान की लीला, भक्तों के निरोध, अर्थात प्रपंचविस्मृति और भगवदासक्ति, का असाधारण कारण है।
व्यापार निरोध
कारण दो प्रकार के होते हैं:
- उपादान कारण: जैसे मिट्टी घड़े का उपादान कारण होती है।
- निमित्त कारण: चक्का, दंडा आदि उपकरण निमित्त कारण माने जाते हैं।
जब निमित्त कारण निष्क्रिय हो जाता है तो कार्य उत्पन्न नहीं होता। अतः सक्रिय रूप से क्रियाव्यापार करने वाले कारण को ‘करण’ या ‘उपकरण’ कहा जाता है।
भगवदलीला को निरोध की उत्पत्ति में करण माना गया है। तदनुसार, निरोध के लिए कुछ व्यापार भी आवश्यक है। इस प्रकार, प्रपंच की विस्मृति के साथ भगवदासक्ति, भगवदलीला का व्यापार है। उदाहरणस्वरूप, चक्के का घूमना या दंडे से उसे घुमाना—इन व्यापारों के कारण ही चक्का-दंडा आदि उपकरणों को ‘करण’ कहा जाता है।
फल-निरोध:
भक्त के स्वभावानुसार, करण-भगवदलीला और उसके व्यापार, अर्थात प्रपंचविस्मृति के साथ भगवदासक्ति के परिणामस्वरूप, भक्त के प्रपंचिक विषयों के सारे बंधन समाप्त हो जाते हैं। इनका अभाव हो जाता है। यह दो प्रकार से होता है:
- भक्त से संबंधित सभी लौकिक पदार्थों और भावों में भगवदावेश, यानी अलौकिकता या सच्चिदानंदात्मकता प्रकट होती है।
- लौकिक पदार्थों और भावों से मुक्त होकर जीव सायुज्य या वैकुण्ठ आदि लोकों में सेवोपयोगी देह प्राप्त करता है।
श्रीमहाप्रभु कहते हैं, सुबोधिनी (10.5.1):
लौकिकेषु तु भावेषु यत्रैव हरिवेशनं निवर्तते तदेवात्र वन्हेर्दारुमयं यथा।
जिन लौकिक भावों या पदार्थों में भगवदासक्ति के कारण भगवदावेश होता है, उनमें तिरोहित चिदंश और आनंदांश पुनः प्रकट हो जाते हैं। सच्चिदानंदांश के पूर्ण प्राकट्य के कारण वे ब्रह्मात्मक हो जाते हैं। जैसे काष्ठ में तिरोहित अग्नि एक बार प्रकट हो जाती है, तो काष्ठ स्वयं अग्निरूप हो जाता है। इसी प्रकार जिस भक्त में प्रपंचविस्मृति के साथ भगवदासक्ति प्रकट होती है, उसके सभी पदार्थ और भाव अंततः सच्चिदानंद ब्रह्म का रूप धारण कर लेते हैं।
जगत की प्रत्येक वस्तु का वास्तविक या आंतरिक स्वरूप ब्रह्मात्मक ही होता है। परंतु अज्ञानवश विपरीत भान होता है, जो निवृत्त हो जाता है।
यह अद्वैतियों के मिथ्या-मायिक प्रपंच की तरह प्रपंच का बाधज्ञान नहीं है, न नैयायिकों के अनित्य प्रपंच की तरह प्रपंच का नाश है। साइख्य के प्राकृत प्रपंच की तरह इसे विकृति का प्रकृति में पुनः लीन होना भी नहीं माना जा सकता। प्रपंच के ब्रह्मात्मक हो जाने का तात्पर्य यह है कि दृष्टा जीव को वह ब्रह्मात्मक होने पर भी वैसा दिखाई नहीं देता। निरुद्ध भक्त की दृष्टि में अपने प्रियतम परमात्मा के अलावा अन्य कुछ आता ही नहीं। फलस्वरूप जड़जगत के विभिन्न पदार्थ भी उसे सच्चिदानंदात्मक दिखने लगते हैं। इसी प्रकार, जीवजगत के सभी रूपों में ब्रह्मात्मकता का भान होने लगता है। जड़ और जीवात्मक जगत की जड़रूपता तथा दुःखरूपता तिरोहित हो जाती है।
इस अर्थ में इस अवस्था को कभी ‘प्रपंचप्रलय’ या ‘प्रपंचनाश’ कहा जाता है। यह फलनिरोध है, अर्थात भक्त का भगवान में निरोध है। इसका प्रयोजनलक्षण के अंतर्गत विचार किया गया है। दशम स्कंध में भगवान की लीलाओं का वर्णन चतुर्धा हुआ है।
प्रमाण-निरोध
भगवान की प्रमाणरूपा निरोधलीलाओं के कारण भक्त अपने स्वभाव के अनुरूप धारण किए गए भगवद्रूप को पहचान पाता है। इसे ‘प्रमाणनिरोध’ कहा जाता है। प्रमाणलीला के करण बनने पर व्यापार, भक्त के हृदय में प्रेम के रूप में प्रकट होता है। इसका फल भक्त के हृदय में प्रमेय की स्थिरता के रूप में होता है।प्रमेय-निरोध
भगवान की प्रमेयरूपा निरोधलीलाओं के कारण भक्त-स्वभावानुसार धारण किया गया भगवद्रूप प्रमेय भक्त के हृदय में आरूढ़ हो जाता है। इसे ‘प्रमेयनिरोध’ कहा जाता है। प्रमेयलीला के करण बनने पर व्यापार, भक्त के हृदय में भगवदासक्ति और अन्य विषयों में अरुचि के रूप में प्रकट होता है। इसके फलस्वरूप भक्त अपने मनोरथ के अनुरूप भगवान के स्वरूप की प्राप्ति के साधनों में प्रवृत्त हो जाता है।साधन-निरोध
भगवान की साधनरूपा निरोधलीलाओं के कारण भक्त-स्वभावानुसार धारित भगवद्रूप के प्राप्ति के साधनों में भक्त तत्पर हो पाता है। इसे ‘साधननिरोध’ कहते हैं। साधनलीला के करण बनने पर व्यापार, भक्त के हृदय में भगवद्व्यसन के रूप में प्रकट हो जाता है। इस अवस्था में भक्त भगवान के बिना रह नहीं पाता। इसके फलस्वरूप अपने मनोरथ के अनुरूप भगवद्रूप और भगवदलीला की अनुभूति उसे होने लगती है।फल-निरोध
भगवान की फलरूपा निरोधलीलाओं के कारण भक्त-स्वभावानुसार धारित भगवद्रूप की लीलाओं में भक्त सम्मिलित हो पाता है। इसे ‘फलनिरोध’ कहा जाता है। फलात्मिका लीला के करण बनने पर व्यापार, भक्त के हृदय में मानसी सेवा, सर्वात्मभाव आदि के रूप में प्रकट होता है। इसके परिणामस्वरूप भगवान के बाह्य और आभ्यंतर अनुभव का चक्र भक्त के हृदय में निरंतर चलता रहता है। भक्त भगवान में तन्मनस्क, तदालाप, तद्विचेष्ट, तदात्मक, और तद्गुणगान परायण हो जाता है। वह अपने देह-गेह की सुध-बुध खो देता है। भजनानंद की इस पराकाष्ठा की तुलना में भक्त को ब्रह्मानंद कभी भाता नहीं है।
सायुज्यरूप मोक्ष या ब्रह्मभावार्पण के अंतर्गत वैकुण्ठादि लोकों में जो सेवोपयोगी देह मिलती है, वह इस अलौकिक सामर्थ्य की तुलना में मन को अत्यधिक लुभाने वाली नहीं लगती। भगवत्संयोग सेवा और भगवद्वियोग कथा के अंतहीन चक्र से बढ़कर विप्रयोग को केवल एक साधारण स्थिति नहीं माना जा सकता। यही कारण है कि मुक्ति या आश्रयभावापत्ति की ओर ले जाने वाले भ्रमरगीत में वर्णित वियोग का स्थान फलप्रकरण में न होकर प्रमेयप्रकरण में रखा गया है।
श्रीमद्भागवत (१०.१४.३६)
मय्यावेश्य मन: कृत्स्नं विमुक्ताशेषवृत्ति यत् ।
अनुस्मरन्त्यो मां नित्यमचिरान्मामुपैष्यथ ॥
की सुबोधिनी में इस अवस्था की व्याख्या करते हुए श्रीमहाप्रभु कहते हैं-
अहं हि कृत्स्नः प्रसादेनापि प्राप्तः कृत्स्नेनैव साधनेन प्राप्तुं योग्यः साच कृत्स्नता अस्यामेवावस्थायां भवति नान्यथा।
अर्थात् तामस-फलप्रकरण में भगवान के रसात्मक रूप का अनुभव यद्यपि पूर्ण रूप से हुआ था, किन्तु वह साधनावस्था के बाद फलावस्था के क्रम में न होकर भगवान के अनुग्रह से साधन-पूर्णता से पहले ही फल का अनुभव करा देने वाली लीला थी।
अब राजस-प्रमेय प्रकरण में, जो राजस भक्तों के लिए प्रमेय रूपी निरोधलीला का प्रकरण है, वहां तामस भक्तों को फलानुभूति नहीं, बल्कि साधनानुभूति का ही स्तर प्राप्त है।
“आन्तरं तु परं फलम् (सुबोधिनी १०.२६.१) अथवा युगलगीत में वर्णित ‘दद्वत्रिंशेऽन्तगपिकानां स्वानन्दं भगवान् हृदि पूरयामास तेनैव पूर्णानन्द इतीर्यते” वाला परमफलात्मक वियोग भ्रमरगीत में वर्णित वियोग नहीं है।
श्रीप्रभुचरण ने इस वियोग अनुभूति का वास्तविक स्वरूप इन शब्दों में प्रस्तुत किया है, टिप्प. (१०.४४.२९):
एतासां तु अधुनैव बहिस्सङ्गमो अभिलषितः तदभावादस्मदनभिप्रेतामपि अस्मदधिकारविरुद्धामपि ईश्वरभावेनाज्ञापितवान्, अनभिप्रेतमपि बलाद् ग्राहयितुम् इति अनाकर्णनीम् इदं भवति यद्यपि, तथापि प्रियतम सम्बन्धित्वेनैव श्रुतत्वात् तथैव फलिष्यति, न तु उपदेशत्वेनेति ज्ञापनायाग्रे सन्देशपदम्।
प्रमेयस्वभाव के विवश ब्रजभक्तों ने वियोग स्वीकारा, लेकिन यह निज भाव या अभिलाषा के वश में नहीं था। भगवत्कथा के श्रवण या कीर्तन का फल, भगवत्स्वरूप और भगवदलीला का पहले आन्तरिक और फिर बाह्य अनुभव स्वीकारा गया है। बाह्य अनुभव के अभाव में केवल आन्तरिक अनुभव व्यर्थ हो जाता है, सुबोधिनी (१.६.१):
बाह्याभावे तु आन्तरिकस्य व्यर्थता।
इस आन्तर अनुभव और बाह्य अनुभव के सूक्ष्म रहस्य को समझने के लिए निरोध के दो अन्य रूपों को समझना आवश्यक हो जाता है।
- स्वरूप-गुण-उभयकृत निरोध
- केवल गुणकृत निरोध
स्वरूप-गुण-उभयकृत निरोध: तामसफलप्रकरण के विवेचन में श्रीमहाप्रभु ने यह स्पष्ट किया है कि यहाँ सात अध्यायों में अर्थात् २६वें अध्याय से लेकर ३२वें अध्याय तक क्रमशः
- ऐश्वर्य,
- वीर्य,
- यश,
- श्री,
- धर्मी,
- वैराग्य,
- ज्ञान
जैसे छह भगवद्गुणों और सातवें में स्वयं धर्मी भगवान के स्वरूप का वर्णन अभिप्रेत है।
इस फलरूपा निरोधलीला के स्वरूप का गहन अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सातों अध्यायों में फलरूप लीला का ही वर्णन अभिप्रेत होने पर भी धर्मी-निरूपक पाँचवें अध्याय तथा ज्ञान-निरूपक सातवें अध्याय का कुछ विशिष्ट महत्व है। अतः प्रारम्भ में रूपलीला के ‘बाह्याभ्यन्तरभेटेन’ जो दो प्रकार दर्शाए गए हैं, वे इन दो अध्यायों में चरम उत्कर्ष के रूप में वर्णित हुए हैं। धर्मी-प्रकरण में बाह्य संयोग-सुख का तथा ज्ञान-प्रकरण में आन्तर संयोग का वर्णन किया गया है।
इस फलरूप निरोधलीला के स्वरूप का भली-भांति विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सातों अध्यायों में फलरूप लीला का ही वर्णन अभिप्रेत है। धर्मिनिरूपक पांचवे अध्याय और ज्ञाननिरूपक सातवें अध्याय का विशिष्ट महत्व है। प्रारंभ में रूपलीला के ‘बाह्याभ्यन्तरभेटेन’ जो दो प्रकार दर्शाए गए हैं, वे इन दो अध्यायों में चरमोत्कर्ष के रूप में वर्णित हैं। धर्मि-प्रकरण में बाह्य संयोग-सुख और ज्ञान-प्रकरण में आंतरिक संयोग का वर्णन हुआ है।
“ज्ञानं भक्तिश्च सततं चक्रवत् परिवर्तते” की उक्ति के अनुसार, यहां परोक्ष और प्रत्यक्ष दोनों में संयोग-सुख का ही वर्णन अभिप्रेत है। अतः इसे फल-प्रकरण माना गया है।
केवल गुणकृत निरोध: इसके विपरीत राजसप्रमेय प्रकरण में ब्रजभक्तों की अनुभूति का स्वरूप श्रीमहाप्रभु ने इन शब्दों में दिया है, सुबोधिनी (१०.४४.४८)
अन्तर्निष्ठा वा विरहो वा, द्वयमेव, नतु तासामन्या लोकिकी अवस्था
यहां पूर्वोदधृत ‘आन्तरं तु परं फलम्” वचन के आधार पर अन्तर्निष्ठा को तो परम फलरूप मानना ही पड़ेगा। परन्तु द्वितीयांश विरह को फलरूप मानने का कोई भी आधार नहीं मिलता। यह विरह अतः फलरूप न होकर पूर्ववर्णित साधनकृत्स्नता ही है। इसीलिए श्रीमहाप्रभु इसे ‘फलरूप’ न कहकर ‘फलसाधक’ कहते हैं- “फलसाधकत्वाद् भक्तिमार्गे विरह एव पुरुषार्थ।”
विरह अवस्था में किये जाते गुणगान के सुख और भगवत्स्वरूपानुभव के सुख का परस्पर तारतम्य समझाते हुए श्रीमहाप्रभु कहते हैं:
परं विरलममृतम् केवल मरणोपस्थितौ तन्निवर्तकमेवेति, नतु सम्भूयैकत्र रसजनकम्। रसपिण्डयोरिव तव कथायाश्च विशेषः, अन्यथा कथार्थमेव यत्नः कृतः स्यात। परं विरहे मरणनिवर्तकत्वेन तदुपयोग इति भगवत्त्वेन स्तूयते।
भगवत्कथा के श्रवण, स्मरण और कीर्तन के कारण भक्त के प्राण तीव्र विरह वेदना में भी निकल नहीं जाते, टिके रहते हैं। इस प्रकार भगवान की तरह भगवद्गुणगान की भी प्रशंसा की जाती है। वास्तविकता यह है कि भगवत्स्वरूप की रसानुभूति में सुख घनीभूत होता है और भगवत्कथा में वह तरल हो जाता है।
इससे सिद्ध होता है कि केवल गुणकृत निरोध में बाह्य एवं आन्तर संयोग सुख की फलानुभूति का चक्र सतत नहीं चलता। वहां विरह दुःख और अन्तर्निष्ठा के संयोग सुख का चक्रवत् आवर्तन चलता है। अतः इसके अर्धांश में साधनरूपता और अर्धांश में फलरूपता है। जबकि रसात्मक होने के कारण द्विदलात्मक और द्विदलात्मक होने के कारण संयोग-वियोगात्मक, या ‘नटवर बघु रूप भगवान’ का फलरूप होना वियोग में अन्तर्निष्ठा के कारण मिलने वाले आन्तर संयोग सुख और संयोग में स्वरूपानुभूति के कारण मिलने वाले बाह्य संयोग सुख को लक्ष्य में रखकर स्वीकारा गया है।
आन्तर सुख-दान रसनाटन है तथा बाह्य सुखदान रसरूप प्रत्यय भोग है। यह ‘बर्हापीडं’ श्लोक की सुबोधिनी से सिद्ध होता है। अतः उत्तरदल में अन्तर्निष्ठा के अंश में फलरूपता तथा विरहांश या धर्मिविप्रयोग के अंश में साधनरूपता है। केवल विरह के फलरूप होने का उल्लेख श्रीमहाप्रभु अथवा श्रीप्रभुचरण के किसी भी वचन में नहीं मिलता।
आन्तर संयोग सुख प्रदान करने वाला विप्रयोग स्वतन्त्र अङ्गीरूप निरोध है। जबकि केवल विरह आन्तर संयोग सुख के अभाव के कारण मुक्ति या आश्रयभावापति का अंगरूप निरोध माना जाता है। इसे ‘केवलगुण-कृत निरोध’, ‘धर्मिविप्रयोग’, ‘केवल विरह’, ‘मुक्त्यङ्ग निरोध’ या “आश्रयभावापत्यग निरोध’ कुछ भी कहें, अर्थ एक ही होता है।
इस तरह निरोध के कारण-स्वरूप, कार्य-प्रयोजन रूप चतुर्विध लक्षण; त्रिविध स्वरूप-कारण-व्यापार-फल रूप; तथा स्वरूप-गुण-उभयकृत और केवल गुणकृत निरोध के रूप में अनेक भेद-उपभेदों के विस्तृत विवेचन के पश्चात निरोधलक्षण ग्रंथ को समझना सरल हो जाता है। फिर भी ग्रंथ के अनुवाद से पूर्व एक और स्पष्टीकरण अत्यन्त आवश्यक है। उसे देखने के बाद ही ग्रंथानुवाद किया जाएगा।
वैसे तो देखा गया है कि निरोधलक्षण भक्तिवर्धिनी ग्रंथ में वर्णित पाँचों प्रकार के अधिकारियों को लक्ष्य में रखकर उपदेशित हुआ है, फिर भी इसे सोपपदिक समझ लेना अत्यावश्यक है। सन्यास निर्णय ग्रंथ के:
कौण्डिन्यो गोपिकाः प्रोक्ताः गुरवः साधनं च तद्भावों भावनया सिद्धः
व्रजभक्तों के भाव
वचन में व्रजभक्तों के भाव का भावनात्मक अनुसरण विरहानुभव के लिए गृहत्याग करने वालों के लिए आवश्यक माना गया था।
व्रजभक्तों के भाव की भावना केवल गृहत्यागियों के लिए ही है, ऐसा समझना उचित नहीं है। क्योंकि ‘भजनीयो ब्रजाधिपः’ कहकर व्रजभावना की उपयोगिता सभी पुष्टिभक्तों के लिए चतुश्लोकी में सर्वदा ही आवश्यक मानी गई है। इसी प्रकार पुष्टिप्रवाहमर्यादा ग्रंथ में पुष्टिजीव के फलानुभव के प्रकार में गुण-स्वरूप का भेद मान्य हुआ है। “स्मरणं भजनं चापि न त्याज्यम्” वचन द्वारा भगवत्सेवा कथा की आवश्यकता चतुश्लोकी में प्रतिपादित हुई है। अतः सेवा और कथा दोनों में ही व्रजभावना आवश्यक है।
निरोधकार्य - संयोगसुख-वियोगदुःखकी भावना
जिन भक्तों से सेवा और कथा दोनों निभ पाती हैं, उन्हें अपने भाव के अनुरूप सेवा करते समय गोकुल की भावना और कथा के समय वृंदावन की भावना करनी चाहिए। गोचारण के लिए प्रतिदिन भगवान वृंदावन पधारते हैं। उस समय गोकुल में वात्सल्य भाव वाले नंद-यशोदा आदि भक्तों और शृंगार भाव वाली गोपिकाओं को जैसे विप्रयोग दुःख की अनुभूति होती है, वैसी दुःखानुभूति विरह वेदना हमें कथा काल में कब होगी?
सायंकाल भगवान गोचारण कर गोकुल लौटते हैं। तब गोकुल में गोपिकाओं और अन्य व्रजवासियों को अनेक प्रकार से भगवत सेवा द्वारा जैसा संयोग सुख मिलता है, वैसा सुख सेवा के समय भगवान मुझे कब प्रदान करेंगे?
इस तरह तामस फल प्रकरण के “ज्ञानं भक्तिश्चः सततं चक्रवत् परिवर्तते” वचन में वर्णित संयोग-वियोग रूप अवस्थाओं में निरोध के कार्य सुख-दुःख की भावना करनी चाहिए।
जिन भक्तों से सेवा और कथा एक साथ नहीं निभ पातीं, ऐसे मध्यम अधिकारियों को पहले राजस-प्रमेय-प्रकरण में वर्णित तीव्र विप्रयोग वेदना की भावना करनी चाहिए। बाद में कथा श्रवण काल में अंतर्निष्ठा के साथ आंतर संयोग सुख की भावना करनी चाहिए।
जब उद्धव ब्रज आए और भगवत कथा के श्रवण-स्मरण-कीर्तन के साथ जैसा महोत्सव प्रकट हुआ, वैसे उत्सव की अनुभूति कथा श्रवण के समय हमारे मन में कब होगी? गोकुल में साख्य-वात्सल्य-भाव वाले व्रज भक्तों और वृंदावन में सख्य-माधुर्य-भाव वाले व्रज भक्तों को उद्धव के साथ भगवद्गुणगान करते समय जैसा आनंद अनुभूत हुआ, वह मेरे हृदय में कब प्रकट होगा?
केवल कथा का समाश्रयण करने वाले भक्तों को ऐसी भावना करनी चाहिए। इस तरह, यहाँ निरोध का कार्य लक्षण श्रीमहाप्रभु ने सूचित किया है।
निरोधकारण - गुणगानकी आवश्यकता
कार्यलक्षण को सूचित करने के पश्चात श्रीमहाप्रभु निरोध के कारण लक्षण को स्पष्ट करना चाहते हैं। पूर्वोक्त भावनाओं को निरंतर करते रहने पर भी हृदय में भावों का उदय सहजता से नहीं हो पाता है। महान् भक्तों की कृपा से ही भगवान ऐसी दया करते हैं कि हमारे हृदय में भाव अमुरित हो पाते हैं। इस बीच, आनंदसंदोह और सुखसिन्धु भगवान श्रीब्रजाधिप के रूप, गुण, लीला एवं नामों का समीर्तन करना आवश्यक है। इससे भक्तिमार्ग पर हमारी यात्रा सुखद एवं सुगम हो जाती है।
श्रीप्रभुचरण ने आज्ञा दी है कि
तादृशी भावना कार्या यया भावामुरोदयः। श्रीमदाचार्यकृपया भवेद् भावो न चान्यथा… भावो भावनया सिद्ध इति वाक्यात्प्रतीयते। तद्वाक्यपरिनिष्ठानां हृदि भावामुरो भवेत्।
अतः श्रीमदाचार्यचरण, श्रीयमुना तथा पुष्टिपथ के आद्यपथिक-गुरु श्रीव्रजभक्तों की कृपा से ही भगवत्कृपाभाजन बनने का अधिकार प्राप्त होता है।
घी चुपड़ी गरम रोटी और रूखी, बासी रोटी के स्वाद में बहुत अंतर होता है। इसी प्रकार, स्नेहभाव की ऊष्मा वाले पूर्ण भगवदीयों के मुख से उनकी कृपादृष्टि की स्निग्धता के साथ भगवत्कीर्तन का श्रवण जितना सुखद होता है, उतना ही लौकिक प्रयोजन की पूर्ति के लिए ठंडे दिमाग से सुनने वाली कथा सुखद नहीं होती। वह तो रूक्ष कीर्तन मालूम पड़ता है। भगवान गोविंद के गुणगान में जैसा आनंद श्रीशुकमुनि जैसे निर्बंध आत्माराम मुनियों को प्राप्त होता है, वैसा उनकी ब्रह्मात्मैक्य की अनुभूति में भी संभव नहीं होता।
श्रीमहाप्रभु ने “आत्मलाभ से उत्कृष्ट कुछ भी नहीं” यह कहते हुए शास्त्रीय वचनों के अनुसार समझाया है कि आत्मपर्यवसायी गुणातीत समाधि में स्थित होने पर भी भागवत के रस की अप्राकृत दिव्यता के अनुभव से श्रीशुक ने समझा कि ब्रह्म में लीन होने वाले को जब समाधि अवस्थाकी जरूरत नहीं होती, तब ब्रह्मानंद से भी अधिक रस प्रद भागवत कथा रस को त्यागकर कौन समाधि के चक्कर में पड़े।
इस भगवत्गुणगान से भक्त के हृदय में भगवदासक्ति रूप स्थायी आव जब भगवद्विरह क्लेश के कारण तापयुक्त होता है, तब हृदय में छिपे भावात्मा भगवान सदानंद श्रीकृष्ण कृपायुक्त होकर बाहर प्रकट होते हैं—आलम्बन विभाव के रूप में।
भावात्मना हृदय में बिराजें अथवा भाव के आलम्बनात्मना बाहर प्रकट हों, भगवान सर्वथा आनंदमय होते हैं। यह आनन्दमय परमात्मा का सर्वात्मभाव के रूप में प्राकट्य उनकी परमकृपा मयी आनन्दानुभूति है, जो सुदुर्लभ होती है। भक्त के हृदय में भाव के रूप में भरा हुआ सेतु भगवत्गुणगान के श्रवण और कीर्तन के प्रवाह से निरंतर भरे जाने पर एक दिन छलक पड़ता है। इस प्रक्रिया में भक्त का देह, इन्द्रिय, प्राण, अंतःकरण, आत्मा और अन्य आत्मीय वस्तुएं अलौकिक रस अनुभूति से प्लावित हो जाती हैं।
अतः सदानन्द श्रीकृष्ण के द्वारा निरुद्ध अर्थात् पुष्टिमार्ग में अंगीकृत जीवों को चाहिए कि वे समस्त लौकिक आसक्तियों को त्याग कर केवल भगवान के गुणगान में प्रवृत्त हों। भगवान के गुणगान के परिणामस्वरूप अंततः भक्त को अपने देह, इंद्रिय, अंतःकरण तथा आत्मा से सर्वत्र ब्रह्मरूपता की अनुभूति होने लगती है।
प्रपञ्च की अनुभूति समाप्त हो जाने पर स्मृति का भी कोई स्थान नहीं रह जाता। फलस्वरूप, प्रपञ्च-विस्मृति और भगवदासक्ति रूप निरोध का विधान सिद्ध हो जाता है।
निरोधस्वरूप
मुक्ति और आश्रयभावापत्ति (जैसे सायुज्य और वैकुण्ठादि लोक में सेवोपयोगी देह) की तुलना में, निरोध की महत्ता इस बात में है कि यह भूतल पर जीवन्मुक्ति के रूप में भगवदअनुभूति को प्राप्त करने का मार्ग है।
सायुज्य मुक्ति में जीवात्मा परमात्मा में लीन हो जाती है। परन्तु भक्त के हृदय में ऐसे मनोरथ नहीं हो सकते। भगवान स्वयं कहते हैं, “अनिच्छतो गतिमवी प्रयुक्ते” (भाग. ३.२५.३६)। इसी कारण, वेणुगीत की सुबोधिनी में श्रीमहाप्रभु ने निरोध और मुक्ति की तुलना ऐसे नेत्रवान् व्यक्ति से की है जिसे एक सुरम्य दर्शनीय स्थल दिखाया जाए और फिर उसे गहरे अंधकार वाले कुएं में बंद कर दिया जाए:
इदमेव इन्द्रियवतां फलं मोक्षोपि नान्यथा यथान्धकारे नियता स्थितिः नाक्ष्णोः फलं भवेत् एवं मोक्षोपि इन्द्रियादियुक्तानां सर्वधा नहि।
इसी प्रकार आश्रयभावापत्ति के भी कई प्रकार वर्णित किए गए हैं। वैकुण्ठादि लोकों में नूतन सच्चिदानन्दात्मक दिव्य देह प्राप्त होने की स्थिति में, ऐसे दिव्य देहेन्द्रियों से भगवदासक्ति संभव हो सकती है। अतः इसे भक्त स्वीकार कर सकता है। परन्तु तात्कालिक आवश्यकता भक्त को इस भूतल पर अपनी देहेन्द्रियों के माध्यम से अपने प्रियतम परमात्मा की अनुभूति प्राप्त करने की होती है।
प्रपञ्चविस्मृति के साथ भगवदासक्ति से परिपूर्ण होने पर यह अनुभूति संभव होती है। अन्यथा, जिन्हें श्रीहरि विनिर्मुक्त करते हैं, यानी जिन्हें निरुद्ध नहीं करते, वे संसारसागर में मग्न होकर डूब जाते हैं। इस भूतल पर भगवदजीवन की आंतरिक एवं बाह्य संयोग अनुभूति, अथवा सेवा और कथा के माध्यम से अहर्निश आनंद का अनुभव केवल भगवान के द्वारा निरुद्ध जीव ही कर पाते हैं।
लौकिक रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द आदि में आसक्त हमारी इंद्रियां, जो संसार के प्रभाव से दूषित होती हैं, उनके दर्शनरति, आस्वादनरति, आघाणरति, स्पर्शनरति, श्रवणरति, या अन्य किसी भी कर्मेंद्रिय और अंतःकरण की गतिविधियों में रतियों का अहित दो प्रकार से हो सकता है—या तो इन्हें किसी भी प्रकार के निग्रह के बिना लौकिक सुख की खोज में भटकने दिया जाए, या फिर इनका पूर्णतया निग्रह कर इनका अंत कर दिया जाए। विषयव्यामुख करना तो समझ में आता है, लेकिन नेत्रों को दर्शनरति से वंचित करने में नेत्रवान को क्या लाभ हो सकता है? इंद्रिय वृत्तियों का ऐसा दमन या निरोध ‘कूयोग’ कहलाता है।
श्रीमहाप्रभु कहते हैं, सुबोधिनी (२.४.१७):
सर्वेषामेव निरोधने ततदधिष्ठातृ देवद्रोहो भवत्येव। भगवत्समर्पणे तु तद्वचनेन तदुक्तमेव कृतमिति न कोऽपि दोषः सम्भवति।
इसका तात्पर्य है कि इंद्रियों की रत्यात्मक वृत्तियों का दमन उचित नहीं है। इसी तरह, लौकिक विषयों में इनका दुरुपयोग भी अनुचित है। अतः इनके दुरुपयोग या अनुपयोग के बजाय भगवदुपयोग खोज लेने पर इनका सदुपयोग हो जाता है।
सुबोधिनी (३.१४.४६) में श्रीमहाप्रभु ने इस विषय का विस्तृत निरूपण किया है—
प्राणियों में सत्रह प्रकार की वृत्तियां होती हैं: दस कर्मजन्य इंद्रियों की वृत्तियां, चार अंतःकरण की वृत्तियां, एक देह संबंधी वृत्ति, एक प्राण संबंधी वृत्ति और एक आत्म संबंधी वृत्ति। इन सभी वृत्तियों को भगवद्संबंधी अथवा भगवद्विषयक बना देने से सर्वभवनसमर्थ और सर्वभावापन्न भगवान प्रसन्न होते हैं।
यह अवस्था ‘भूमासुख’ या ‘सर्वात्मभाव’ कहलाती है। “भूमासम्प्रदादध्युपदेशात्” (१.३.८) ब्रह्मसूत्र में इसका वर्णन किया गया है कि सभी वृत्तियों से भगवद्भावना ही भूमासुख है, छांदोग्य (७.२३.१ और ७.२४.१):
यो वै भूमा तत्सुखं, नाल्पे सुखमस्ति।
यत्र नान्यत्पश्यति, नान्यच्छृणोति, नान्यद्विजानाति स भूमा।
अतः इंद्रियादि की वृत्तियों का सर्वथा अनुपयोग या लौकिक विषयों में दुरुपयोग उनका अहित और अल्पसुख है। भूमा पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण में इनका समर्पण उनका वास्तविक सदुपयोग और परम हित है। इसे ही “प्रपञ्चविस्मृतिपूर्वक भगवदासक्ति” कहते हैं। यह भक्त का भगवान में निरोध है।
भगवत्स्वरूप में निरोध जिनके लिए संभव न हो, उन्हें भगवान के गुणों के श्रवण, स्मरण और कीर्तन में चित्त लगाना चाहिए। भगवान मुरवैरी के गुणों में आसक्ति और प्रपञ्चविस्मृति सिद्ध हो जाने पर न तो सांसारिक कष्टों का अनुभव होता है और न ही भगवद्विरह के क्लेश का। भगवद्गुणानुवाद में भी साक्षात् भगवान की तरह सुखदायक सामर्थ्य होता है।
केवल गुणकृत निरोध
इस केवलगुणकृत निरोध द्वारा, यदि भगवान सुखदान न करें तो उन्हें दयालु के बजाय क्रूर मानना पड़ेगा। क्योंकि प्रपञ्च-विस्मरण के कारण लौकिक सुखों का त्याग हो जाता है, और यदि भगवान भक्त को भगवत्स्मरण की प्रक्रिया में सुखदान न करें तो भक्ति केवल दुःख-निवारक मानी जाएगी, सुखप्रद नहीं।
हालांकि, गुणकृत निरोध में इतनी सामर्थ्य है कि भक्त सांसारिक क्लेश और भगवद-विरहजन्य क्लेश दोनों से उबर सकता है। भागवत में कहा गया है:
भगवान अपने दुर्ज्ञेय आत्मस्वरूप को भक्तों को सुखानुभव कराने के लिए अनेक रूप धारण करते हैं। इन रूपों में भगवान अनेकविध लीलाएँ भूतल पर प्रकट करते हैं। ऐसे भगवच्चरित्र के सुखसागर में तैरने वाले भक्त भगवान के चरणसरोजों के बीच निवास करने वाले परमहंसों के कुल में प्रवेश करने की कामना से निजकुल और परिवार को छोड़ने पर भी अपवर्ग या सायुज्य मुक्ति की कामना नहीं करते।
सुबोधिनी में कहा गया है कि कृष्ण के चरित्रमात्र श्रवण से ही आनंद उत्पन्न होता है, जिसके कारण भक्त अपवर्ग, जो परमानंदप्रापक होता है, की इच्छा नहीं करता। इस अवस्था में गृहे महत्सुख विद्यमान होने पर भी वह भगवतसंबंधी आनंद के प्रति अद्वितीय अनुभव से प्रेरित होकर उसे त्याग देता है। मोक्ष से अधिक भगवत्कथा श्रवण के रस को श्रेष्ठ निरूपित किया गया है। अतः गुणकृत निरोध की अवस्था में भी प्रपञ्च-विस्मृति के कारण न तो सांसारिक क्लेश की अनुभूति होती है, और न ही भगवद-विरहजन्य क्लेश की।
गुणकृत निरोध की प्रारम्भिक अवस्था में केवल मन, वाणी और श्रवण इन्द्रियों का भगवान में विनियोग होता है, जबकि अन्य इन्द्रियां लौकिक विषयों में आसक्ति के कारण कभी-कभी बाधा उत्पन्न कर सकती हैं। ऐसी अवस्था में भी गुणकृत निरोध के सिद्ध होने पर सभी इन्द्रियों से आसक्ति-भ्रम न्याय से भगवान का अध्यास, यानी भगवान के गुणों का अध्यास, लौकिक विषयों, व्यक्तियों और गुणों में बना रहता है। अतः लौकिक विषय इस अध्यास के कारण निरोध में बाधा नहीं उत्पन्न कर सकते।
अतएव छांदोग्य उपनिषद् इस सर्वात्मभाव की अनुभूति में आसक्ति-भ्रम-न्याय से उत्पन्न विभिन्न संचारी भावों का वर्णन तदादेश, अहमारादेश और आत्मादेश के रूप में करता है, छांदोग्य उपनिषद् (७.२५.१-२):
स एवाधस्तात् स एवोपरिष्टात् स पश्चात् स पुरस्तात्… एवेदं सर्वमिति अथातो अहमारादेश एवाहमधस्तादहमुपरिष्टादहम्… अहमेवेदं सर्वमिति, अथात् आत्मादेश एवात्मैवाधस्तादात्मैवोपरिष्टादात्मा पश्चादात्मा पुरस्ताद्… आत्मैवेदं सर्वमिति। स एष एवं पश्यन्, एवं मन्वान, एवं विजानन् आत्मरतिरात्मक्रीड आत्ममिथुन आत्मानन्दः स स्वराट् भवति तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति।
निरुद्ध भक्त को कभी अपने से भिन्न परमात्मा की अनुभूति सर्वत्र होती है, कभी स्वयं की ही अनुभूति सर्वत्र होने लगती है, और कभी अपने से अभिन्न परमात्मा की अनुभूति सर्वत्र होने लगती है। रासपंचाध्यायी में भगवान के तिरोहित होने पर “कृष्णोहं पश्यत गतिं ललितामिति तन्मना” (१०.३०.१९) वचनों में गोपिकाओं के इसी प्रकार के अध्यास का उदाहरण मिलता है।
सर्व विषयों में भगवान के अध्यास के कारण लौकिक विषयासक्ति में मन के भटकने की आशंका नहीं करनी चाहिए। उन लौकिक विषयों में, लौकिक-विषयत्व के कारण, विराग स्थिर ही रहता है। ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य जैसे भगवद्धर्मों के कारण भी भक्त में स्थाई भाव रूप भगवद्रति के द्वारा लौकिक विषयों में विराग स्थिर बना रहता है।
सर्वात्मभाव को भी भगवद्धर्म रूप माना गया है। अतः सर्वात्मभाव रूप भगवद्धर्म के कारण भी लौकिक विषयों में विराग स्थिर रहता है।
इस विषय वैराग्य के साथ भगवान के गुणों के अहर्निश श्रवण, स्मरण और कीर्तन के कारण, गुणों के माध्यम से सर्वदुःखहारी श्रीहरि का आंतर सुखस्पर्श बना रहता है। अतः दुःखी होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
सर्वात्मभाव की अनुभूति ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग दोनों में होती है। ज्ञानमार्गीय सर्वात्मभाव शांतरसात्मक होता है, जबकि भक्तिमार्गीय सर्वात्मभाव शृंगार, सख्य, वात्सल्य या दास्य भावात्मक होता है। ज्ञानमार्गीय सर्वात्मभाव में केवल आत्मा द्वारा ब्रह्मानंद की अनुभूति होती है, वहीं भक्तिमार्गीय सर्वात्मभाव में सभी इंद्रियों, अंतःकरण और आत्मा द्वारा भजनानंद की अनुभूति होती है।
भ्रमरगीत की सुबोधिनी में कहा गया है कि सकल इंद्रियों से परे अधोक्षज भगवान को सकल इंद्रियों का विषय बनाना मुनियों के लिए भी दुर्लभ अनुभव है, जो गोपिकाओं को सर्वात्मभाव के कारण सुलभ हुआ। (सुबो. १०.४४.२५-२७)। हरिकथा के श्रवण, स्मरण और कीर्तन के कारण उत्पन्न इस सरस निरोध की श्रेष्ठता को ज्ञानमार्गीय रूक्ष नीरस चित्तवृत्ति के निरोध की तुलना में स्वीकार करना ही पड़ता है।
हरिकथा के श्रवण और कीर्तन में दो सावधानियों की विशेष आवश्यकता है। पहली, हरिकथा को स्पर्धा, ईर्ष्या और द्वेष जैसी तुच्छ मनोवृत्तियों की पूर्ति का माध्यम न बनाया जाए। दूसरी, हरिकथा को उदरपूर्ति, यश, कीर्ति या चंदा एकत्रित करने के लोभवश न किया जाए। अन्यथा, यह हरिकथा भक्तिमार्गीय उत्कृष्ट निरोध को सिद्ध करने में विफल हो जाती है।
“अमत्सरै: अलुब्धैश्च वर्णनीयाः सदा गुणाः”— अर्थात् हरिकथा और गुणानुवाद को अमत्सर और अलुब्ध होकर, निष्कपटता से किया जाना चाहिए।
स्वरूप-गुण-उभयकृत निरोध
अवतारकाल में भगवान का स्वेच्छा से स्वरूप का प्राकट्य होता है। अनवतारकाल में, जब स्वरूप का प्रकट न होना होता है, तब स्वरूपकृत निरोध संभव है कि नहीं, यह विचारणीय प्रश्न है।
तामसफलप्रकरण (१०.२६.१३) में इस प्रश्न का उत्तर इन शब्दों में दिया गया है—
भगवदार्विभाव के लिए ज्ञान या भक्ति की आवश्यकता होती है। अवतारकाल में भगवान स्वतः स्वेच्छा से सभी के समक्ष प्रकट होते हैं। उस समय ज्ञान-भक्ति अनावश्यक हो जाते हैं। लेकिन अनवतारकाल में इन्हें अनुपयोगी नहीं माना जा सकता। वर्षाकाल में जल सर्वत्र उपलब्ध होता है, लेकिन कुओं और नदियों का उपयोग समाप्त नहीं होता।
सर्वनिर्णय-निबंध में भगवान के भक्तिमार्गीय आविर्भाव की प्रक्रिया इस प्रकार समझाई गई है:
- साकारब्रह्मवाद के सिद्धांत के अनुसार वस्तुमात्र के ब्रह्मात्मक होने से भगवन्मूर्ति के भगवदात्मक होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता।
- भक्त का बीज भगवदनुग्रह होता है। यदि भक्त के हृदय में किसी विशेष भगवन्मूर्ति के प्रति लगाव उत्पन्न होता है तो उसका बीज उस मूर्ति के रूप द्वारा भक्त उद्धार में भगवान के समर्पण में निहित होता है।
- भक्त भक्तिमार्गीय भावनामय समर्पण के कारण, अपने सेव्य स्वरूप को “भगवान के एक विशेष व्यक्तिगत अवतार” के रूप में मान्य करता है।
वल्लभ सिद्धांत के अनुसार, ब्रह्म व्यापक और साकार दोनों है। अतः भगवन्मूर्ति को मायिक या चित्त को एकाग्र करने का उपकरण मानना वल्लभ सिद्धांत के विपरीत है। “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तान् तथैव भजाम्यहम्” (गीता) के अनुसार मूर्ति में सच्चे हृदय से व्रजाधिप की भावना करने पर व्रजाधिप का उस रूप में प्राकट्य होता है।
भगवान के कृपामय समर्पण और भक्त के भावनामय समर्पण के बल से प्रकट हरिमूर्ति का ध्यान भक्त को अन्य सभी रूपों को भुलाकर अपने हृदय में सदा स्थायी रखना चाहिए। यह भगवान के स्वरूप में अंतःकरण का निरोध है। इसी प्रकार, इस स्वरूप को नेत्रों से देखने, स्पर्शेंद्रिय से स्पर्श करने, और हृदय से सेवा करने की आतुरता होनी चाहिए। हाथ इस स्वरूप की सेवा के लिए, और पैर इस स्वरूप के दर्शन या भजन के लिए तत्पर होने चाहिए। कानों से भगवद्गुणगान सुनते समय यह भावना होनी चाहिए कि वे गुण इसी भगवत्स्वरूप के हैं। वाणी से कीर्तन के समय स्वरूप की रूप-सौंदर्य, गुण-माधुर्य और लीला-लावण्य का वर्णन करना चाहिए।
असमर्पित अन्न, वस्त्र, पुष्प, गंध आदि का त्याग पहले ही सिद्धान्तरहस्य में “असमर्पितवस्तूनां तस्माद् वर्जनमाचरेत्” वचन द्वारा स्पष्ट किया गया है, अतः इसकी पुनरुक्ति अनावश्यक है।
यहां यह ध्यान देने योग्य है कि इंद्रियां तीन प्रकार की होती हैं:
- जिनका साक्षात् भगवद्विनियोग संभव है: जैसे नेत्र, त्वचा, कर्ण, वाणी, हस्त, चरण और अंतःकरण। इन इंद्रियों का उपयोग सीधे भगवान के स्वरूप में किया जा सकता है।
- जिनका साक्षात् उपयोग भगवत्स्वरूप के लिए संभव नहीं है: जैसे रसना (जिव्हा) और नासिका। इन्हें भगवत्प्रसाद स्वरूप अन्न और गंध के ग्रहण के व्रत में दीक्षित करना चाहिए।
- विसर्जनात्मक इंद्रियां: पायु और उपस्थ इंद्रियां ग्रहणात्मक न होकर विसर्जनात्मक होती हैं। इनका साक्षात् उपयोग भगवत्स्वरूप या उसके संबंधित पदार्थों के लिए संभव नहीं है।
फिर भी, पायु से मलांश त्याग करके शुद्ध शरीर को भगवत्सेवा के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है। इसी प्रकार, कृष्णसेवा में सहयोगी संतान के जन्म के लिए उपस्थ का भी उपयोग किया जा सकता है—“पुत्रे कृष्णप्रिये रतिः”।
जिस इंद्रिय का साक्षात या परम्परागत उपयोग भगवत्स्वरूप में या भगवत्कार्यार्थ में संभव नहीं हो, उसका उचित निग्रह करना चाहिए। इस नियम का पालन करने से, अनवतारकाल में भी स्वरूप-गुण-उभयकृत निरोध को सिद्ध करना संभव हो जाता है।
भक्त, भगवत्सेवा और भगवत्कथा के माध्यम से प्रपञ्चविस्मृति और भगवदासक्ति प्राप्त करता है। निरोध की सिद्धि साधनावस्था की अंतिम अवस्था है। कोई भी साधन, जैसा कि षोडश ग्रंथ में वर्णित अष्टाक्षरपञ्चाक्षरमंत्र द्वारा, उत्कृष्ट साधन नहीं माना जा सकता, जो उभयकृत निरोध से परे हो। इसी प्रकार, यमुनाष्टक और कृष्णाश्रय जैसे स्तव भी इस निरोध से श्रेष्ठ नहीं हैं।
भाष्य, निबंध, ब्रह्मविद्याओं, या तीर्थाटन जैसे साधन, जो सर्वनिर्णय आदि ग्रंथों में प्रशंसित हैं, भी स्वरूप-गुण-उभयकृत निरोध से उच्च नहीं हैं।
इस निरोध से परे, यदि कुछ है, तो वह सेवाफल में वर्णित अलौकिक सामर्थ्य रूप फल है। यही इस निरोध का प्रयोजन है। परन्तु उसे ‘फलनिरोध’ ही पुनः कहा जाता है।
अस्वीकरण और श्रेय
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