एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार, ‘नवरत्न’ ग्रंथ की रचना श्रीमहाप्रभु ने विक्रम संवत १५५८ में अडेल में की थी। यह ग्रंथ खेरालुग्राम के गोविन्द दूबे सांचोर के लिए लिखा गया था। प्रारंभ से ही गोविन्द दूबे का स्वभाव वैराग्यपूर्ण था। छोटी आयु में ही वे अपने माता-पिता को छोड़कर तीर्थ यात्रा पर द्वारका चले गए और बाद में वहीं रहने लगे।

भावप्रकाश के अनुसार, गोविन्द दूबे मर्यादा-पुष्टि के जीव थे और उनकी द्वारका लीला तथा श्रीरणछोड़जी के स्वरूप में गहरी आसक्ति थी। उनके माता-पिता के देहांत के बाद वे श्राद्ध कर्म करने गए। लौटते समय, उनकी मुलाकात मनिकर्णिका घाट पर श्रीमहाप्रभु से हुई। दर्शन के दौरान, उनके मन में श्रीमहाप्रभु के पास रहकर विद्या अर्जन करने की इच्छा हुई। श्रीमहाप्रभु की अनुमति मिलने के बाद, वे व्याकरण की पुस्तक लेकर आए, लेकिन श्रीमहाप्रभु ने उन्हें मूल गीता के अध्ययन के माध्यम से संस्कृत, व्याकरण, और सिद्धांत का ज्ञान प्रदान किया।

इससे प्रभावित होकर, गोविन्द दूबे पुष्टिमार्ग में दीक्षित हो गए और श्रीमहाप्रभु की आज्ञा अनुसार घर लौटकर भगवत्सेवा में प्रवृत्त हुए।

८४ वैष्णवों की वार्ता के अनुसार, गोविन्द दूबे ने घर में सेवा तो की, परंतु उनके मन में व्यग्रता बनी रही जिससे भगवत्सेवा में चित्त नहीं लगता था। उन्होंने श्रीआचार्यजी को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अपनी मनःस्थिति व्यक्त की और समाधान की प्रार्थना की। श्रीआचार्यजी ने उनका पत्र पढ़कर ‘नवरत्न’ ग्रंथ लिखकर भेजा और कहा कि इस ग्रंथ का पाठ करने से उनकी व्यग्रता दूर हो जाएगी। गोविन्द दूबे ने नवरत्न ग्रंथ का पाठ किया और श्रीआचार्यजी की कृपा से उनकी व्यग्रता और चिंताएं समाप्त हो गईं। इसके बाद उनका चित्त भगवत्सेवा में लगने लगा और वे उसमें तत्पर हो गए।

श्रीहरिरायचरण ने इस प्रसंग में गोविन्द दूबे की स्थिति का गहराई से वर्णन किया है। गोविन्द दूबे, जिनका जीव द्वारिकालीला से जुड़ा था, सेवाभावना व्रजलीला की ओर ले जाने का प्रयास करते थे, लेकिन उनका मन न तो राजलीला में स्थिर हुआ और न ही व्रजलीला में। उनका मन तीर्थ, व्रत, जप आदि में भटकता रहा।

श्रीआचार्य महाप्रभु ने उनकी स्थिति को समझकर ‘नवरत्न’ ग्रंथ लिखकर उन्हें संदेश दिया,

तू चिंता मत कर। चित्त की उद्वेगता प्रभु की लीला को जानने और उसे भगवदिच्छा मानकर स्वीकारने से समाप्त हो जाएगी। जितनी सेवा कर सकता है, उतनी सेवा कर।

इस निर्देश से गोविन्द दूबे का मन स्थिर हो गया।

जब उनका मन लौकिक या वैदिक विचारों में भटकता था, तो उन्होंने इसे प्रभु की इच्छा मान लिया। उनकी द्वारिकालीला और श्रीरणछोडजी की भक्ति में गहरी रुचि बनी रही।

भगवान की शरणागति स्वीकारने के बाद हर ऐहिक और पारलौकिक वस्तु भगवान को समर्पित कर देनी चाहिए। भगवान सर्वज्ञ, सर्वसमर्थ, सर्वहितैषी, और अचिन्त्य लीला-विहारी हैं। इस भावभूमि पर संशय, चिंता, और प्रार्थना के विषैले अंकों का कोई स्थान नहीं है। जो कुछ भी घटित हो रहा है, उसे लीलाबोध के साथ स्वीकार करना ही सच्चा विवेक है।

भगवान की कृपा से भगवत्सेवा या भगवत्कथा में जितना भी चित्त तन्मय होता है, उसमें आनंद लेने की मनोवृत्ति एक स्वस्थ स्वीकृति की मनोवृत्ति है। जबकि अप्राप्त आदर्श तन्मयता की चिंता या उस पर उद्वेग की मनोवृत्ति अस्वस्थ अस्वीकृति का लक्षण है।

प्राप्त से अधिक की इच्छा स्वाभाविक है, परंतु अप्राप्त की चिंता या उससे उत्पन्न उद्वेग अस्वाभाविक है। इसी प्रकार लौकिक या वैदिक योगक्षेम की निरंतर चिंता भी भक्तिविरोधी मनोभाव है।

अतः भगवत्सेवा में लगे पुष्टिजीवों को श्रीमहाप्रभु ‘नवरत्न’ ग्रंथ के माध्यम से हर प्रकार की चिंता से मुक्त करना चाहते हैं।

वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अधिकार जैसे गायत्री मंत्र के उपदेश ग्रहण करने से प्राप्त होता है, उसी प्रकार पुष्टिमार्ग में भगवत्सेवा का अधिकार ब्रह्मसम्बन्ध की दीक्षा से मिलता है। आत्मनिवेदन तभी सार्थक होता है जब भगवत्सेवा का निर्वाह किया जाता है। इसी कारण, अपने लौकिक व्यवहार को भी यथासंभव भगवान की सेवा में उपयोग किए गए पदार्थों से चलाना चाहिए।

भगवान को दान के रूप में दी गई वस्तु को पुनः अपने उपयोग में लाना वर्जित है, परंतु निवेदित समर्पण की प्रक्रिया में वस्तु को पुनः अपने उपयोग में लाने की अनुमति है। यही अनुसरणीय तरीका है। अन्यथा, भगवान को निवेदित अन्न आदि का प्रसाद के रूप में ग्रहण करना भी वर्जित माना जाएगा। सिद्धान्तरहस्य में असमर्पित वस्तु का त्याग ही उचित बताया गया है।

इसलिए, आत्मनिवेदी के लिए यह उचित है कि प्रभु को समर्पित सभी वस्तुओं को कम से कम एक बार भगवान की सेवा में उपयोग करने के बाद ही अपने उपभोग के लिए ग्रहण करें। इस नियम के पालन से आत्मशुद्धि होती है।

परंतु प्रश्न उठता है कि अन्न, वस्त्र आदि वस्तुओं को एक बार भगवान की सेवा में उपयोग करने के बाद, उन्हें पुनः जुटाने का प्रयास करना चाहिए या नहीं? यदि प्रयास नहीं करते तो आगे सेवा का स्वरूप नहीं निभ पाएगा। और यदि प्रयास करते हैं तो वह लौकिक/सांसारिक रीति के अनुसार ही करना होगा। इस प्रक्रिया में पुनः संसार में उलझना पड़ेगा, जिससे सेवा में बाधा आ सकती है।

इस तरह की चिंता भगवद्भक्त के मन में उत्पन्न हो सकती है। हालांकि, यह चिंता स्वार्थ प्रेरित नहीं होती, बल्कि भगवत्सेवार्थ होती है। लेकिन श्रीमहाप्रभु यह आदेश देते हैं कि भक्त को न तो स्वार्थ पूर्ति के लिए और न ही भगवत्सेवार्थ चिंता करनी चाहिए।

आत्मनिवेदी के लिए आवश्यक है कि जीवन में सुख-दुःख, जो भी आयें, उन्हें भगवदिच्छा मानकर सहजता से स्वीकार किया जाए। किसी भी स्थिति में चिंता नहीं करनी चाहिए। लौकिक व्यवहार निभाने के लिए जब लौकिक प्रयासों में संलग्न होना पड़े, तो यह संभव है कि मर्यादामार्गीय वैराग्य सिद्ध न हो। लेकिन भगवान ने हमें पुष्टिमार्ग में अंगीकार किया है। अतः प्रवाहमार्गीय लौकिक गति को पुष्टिमार्गीय जीव का हिस्सा बनने नहीं दिया जाएगा, यह दृढ़ आस्था हमें रखनी चाहिए।

भगवत्सेवा करते समय व्यापार या नौकरी आदि के कारण होने वाली बहिर्मुखता से बचने का उपाय है कि अपने आत्मनिवेदन की स्मृति बनाए रखें। यह स्मृति होनी चाहिए: “मैं कृष्ण का हूं, कृष्ण का दास हूं।

जब विषम स्थिति के कारण सेवा न निभा पाएं, तब भी अन्य आत्मनिवेदी भगवदीयों के सत्संग से अपनी आत्मनिवेदन की स्मृति बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि इस स्मृति का मानस पटल से मिट जाना असुरावेश की संभावना को बढ़ा सकता है।

चाहे आत्मनिवेदन करने वाले पुष्टिजीव उच्च कक्षा के हों या निम्न कक्षा के, उनका संबंध भगवान से दास के रूप में जुड़ा हुआ है। ऐसे में चिंता का कोई कारण नहीं है। भगवान हमारे स्वामी हैं और जो कुछ भी वे अपनी इच्छा से करते हैं, वह हमें स्वीकार करना चाहिए।

भगवान भक्तों के वश में हैं और भक्तों की विकाररहित मनोकामनाओं को बिना किसी प्रार्थना की अपेक्षा के ही पूर्ण करते हैं। यह आस्था हमें रखनी चाहिए और चिंताओं से मुक्त रहना चाहिए।

आत्मनिवेदन के बावजूद, हमें अपने स्त्री-पुत्र और परिवार की सेवा भी करनी होती है। लेकिन इसको लेकर आत्मनिवेदी को चिंता नहीं करनी चाहिए। ब्रह्मसम्बन्ध दीक्षा के समय ही हम न केवल स्वयं को बल्कि पूरे परिवार को भगवान को समर्पित कर देते हैं। अतः उनसे संबंधित सभी कुछ ब्रह्म से संबंधित हो जाता है, और उनका पालन-पोषण भक्तिविरोधी नहीं माना जाता।

अगर परिवार के सदस्य, जैसे पति-पत्नी, माता-पिता, या संतान आदि, भगवत्सेवा में सहायक न होकर सांसारिक कार्यों में व्यस्त रहते हों, तो भी चिंता नहीं करनी चाहिए। हमारा कर्तव्य केवल उन्हें प्रभु को समर्पित करना है। एक बार समर्पित कर देने के बाद यह भगवदिच्छा पर निर्भर करता है कि वे उन्हें अपनी सेवा में कब लगाएं।

अगर प्रेरणा के माध्यम से उन्हें भगवत्सेवा में प्रवृत्त कर पाना संभव हो, तो यह अच्छी बात है। अन्यथा उनकी रुचि न होने पर चिंता, कलह या क्लेश उत्पन्न करना भक्तिविरोधी है।

यह भी संभव है कि हमें ऐसे लोगों के कार्यों में सहायक होना पड़े, जिन्हें ब्रह्मसम्बन्ध के समय प्रभु को समर्पित करने का भाव हमारे मन में न हो। लेकिन इससे चिंतित होने की जरूरत नहीं है। एक बार जब हम अपने आप को पूर्ण रूप से प्रभु को समर्पित कर देते हैं, तो चिंता का कोई कारण नहीं रह जाता।

कभी-कभी हमें यह संदेह होता है कि हमारे आत्मनिवेदन को प्रभु ने स्वीकार किया है या नहीं। लेकिन यह चिंता भी निरर्थक है। क्योंकि श्रीकृष्ण पुष्टिपुरुषोत्तम हैं और जैसे वे व्रजभक्तों को अन्याश्रय से छुड़ाकर अपने भजन में प्रवृत्त करते हैं, उसी प्रकार जब भी वे अपनी सेवा में हमें लगाना चाहेंगे, तो हमारे और हमारे संबंधित सभी वस्त्र और व्यक्तियों का उनकी सेवा में स्वतः विनियोग हो जाएगा।

भगवदिच्छा यदि हमारे पुष्टिमार्गीय अंगीकार के लिए न हो, तो हम आत्मनिवेदन कर ही नहीं पाएंगे। प्रभु हमारी सारी अयोग्यताओं को दूर कर बिना किसी साधन के हमें योग्य बना सकते हैं। अतः हम निवेदन या समर्पण के योग्य हैं या नहीं, इसकी चिंता पुष्टिभक्त को नहीं करनी चाहिए।

जब लौकिक व्यापार या वैदिक वर्णाश्रम धर्म के पालन में कठिनाई आए, तब भी चिंता नहीं करनी चाहिए। इसे इस रूप में देखना चाहिए कि भगवान हमारे सामने अधिकाधिक भक्तिमार्ग पर बढ़ने का अवसर प्रस्तुत कर रहे हैं। इन विषम परिस्थितियों में भी अपनी पुष्टिभक्ति को निभाने का प्रयास करो। लौकिक या वैदिक व्यवहारों का क्या मूल्य यदि पुष्टिभक्ति का स्वास्थ्य ही ना रहे? यदि भगवान लौकिक दृष्टि या वैदिक दृष्टि से हमारे सामने कोई कठिन परिस्थिति लाते हैं, तो उसे निश्चिंत होकर सहन करना चाहिए। संभवतः भगवान इसी प्रकार से हमें पुष्टिमार्ग में आगे बढ़ाना चाहते हैं।

भक्ति की प्रारंभिक अवस्था में गुरु की आज्ञा के अनुसार ही भगवत्सेवा करनी चाहिए। लेकिन भगवदिच्छा या भगवदाज्ञा के तहत यदि सेवा के प्रकार में कोई भिन्नता आ जाए, तो चिंता नहीं करनी चाहिए। चाहे गुरु की आज्ञा से हो या भगवान की आज्ञा से, जैसे भी कृष्णसेवा में उत्साह और तत्परता बढ़े, वही जीवन की सुखद प्रणाली है।

निश्चिंतता के इन सिद्धांतों को जानने के बावजूद भी, कभी-कभी पारिवारिक कष्ट व्यक्ति को विचलित कर देते हैं। उदाहरणस्वरूप, पुत्र, पति या पत्नी के वियोग पर मानसिक कष्ट होना स्वाभाविक है। लेकिन जो भी घटित होता है, उसे भगवान की लीला मानकर सहजता से स्वीकार करना चाहिए। चिंता, उद्वेग और मानसिक कष्ट से जल्द से जल्द छुटकारा पाने का प्रयास करना चाहिए।

भक्ति के नौ सोपान हैं—

  • श्रवण,
  • कीर्तन,
  • स्मरण,
  • पादसेवन,
  • अर्चन,
  • वंदन,
  • दास्य,
  • सख्य और
  • आत्मनिवेदन।

इनमें प्राथमिक सोपानों जैसे श्रवण और कीर्तन पर भी चढ़ना कठिन है, तो अंतिम सोपान आत्मनिवेदन और उसके बाद मिलने वाली निश्चिंतता की अवस्था प्राप्त करना तो अत्यधिक कठिन प्रतीत होता है। लेकिन इस कठिनाई के विचार से चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि संपूर्ण शरणागति के भाव को बनाए रखना चाहिए।

व्यर्थ चिंताओं में जितना समय और ऊर्जा व्यय होती है, उतने ही मनोयोग से यदि “श्रीकृष्णः शरणं मम” का निरंतर स्मरण किया जाए, तो मार्ग सरल हो सकता है।

भगवद्-विप्रयोग की स्नेहात्मक अनुभूति में पुष्टिजीव का कृश (दुर्बल, पतला या कमज़ोर) होना वास्तव में परमपुष्टि का द्योतक (अभिव्यक्ति करने वाला) है -

तिहारे सेवक ऐसे कृश क्यों? बरजे हते पर मारग में आये ताको फल पाय रहे है!

महाप्रभुजी ने उत्तर दिया: “तो अब वे उसके फल (अलौकिक चिंता/विप्रयोग) को भोग रहे हैं”। यह कृशता पुष्टिभक्ति के स्थायी भाव का एक रोचक संचारी भाव है और रस को बढ़ाने वाला है।

हालांकि, भक्ति के स्थायी भाव के विपरीत, चिंता या उद्वेग रसाभास उत्पन्न करते हैं। रसाभास उत्पन्न करने वाले चिंताओं के इन्हीं विभिन्न प्रकारों को यहाँ इंगित किया गया है। श्रीमहाप्रभु पुष्टिभक्त के मन को इनसे दूषित होने से बचाना चाहते हैं ताकि कृष्णसेवा तनु-वित्तजा से मानसी सेवा के रूप में विकसित हो सके। आत्मनिवेदन का बीजभाव भगवत्प्रेम में अंकुरित हो, भगवदासक्ति में पल्लवित हो और अंततः भगवद्-व्यसन में फलित हो।