जलभेद और पञ्चपद्यानि के रचनाकाल, स्थान और उद्देश्य का स्पष्ट विवरण उपलब्ध नहीं है। इन दोनों ग्रंथों में क्रमशः भगवत्कथा के वक्ताओं और श्रोताओं के उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ स्वरूपों का विवेचन किया गया है।

हालांकि श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध में भी वक्ता और श्रोता के अधिकारों का निरूपण किया गया है, लेकिन यह कहना उचित नहीं होगा कि जलभेद और पञ्चपद्यानि संपूर्णतः उसी का अनुसरण करते हैं। भागवत के प्रथम स्कंध में स्वयं श्रीमद्भागवत के प्रवचन और श्रवण के संदर्भ में वक्ता और श्रोता के अधिकारों का वर्णन है। जबकि जलभेद और पञ्चपद्यानि में निर्गुणा भक्ति के अंगभूत भगवद्स्वरूप, गुण, और लीलाओं के श्रवण-स्मरण-कीर्तन हेतु अपेक्षित वक्ताओं और श्रोताओं के अधिकारों पर विस्तार से चर्चा की गई है।

यहाँ, श्रीमहाप्रभुजी ने इन ग्रंथों में भागवतपुराण के प्रवचन और श्रवण को एक व्यापक संदर्भ में प्रस्तुत किया है। उनका उद्देश्य भगवद्स्वरूप, गुण, और लीलाओं की अनुभूति के माध्यम से भक्ति का विस्तार करना है। श्रीमहाप्रभु ने भागवत अध्ययन का अधिकार भी स्पष्ट किया है, (भागवत निं. ३.१७८):

यदौपनिषदं ज्ञानं श्रीभागवतमेव वा।
वर्णिनामेव तद्धि स्यात् स्त्रीशूद्राणां ततोन्यथा।

अर्थात, औपनिषदिक और श्रीभागवत का ज्ञान केवल उपनयन संस्कार संपन्न द्विजों के लिए है—अनुपनीत स्त्रियों और शूद्रों के लिए नहीं।

वर्तमान समय में भागवत सप्ताह के आयोजन की हास्यास्पद रीति के विपरीत, श्रीमहाप्रभु ने भागवत के प्रवचन और श्रवण के लिए गंभीर नियमों का पालन करने पर बल दिया। उनकी आज्ञा है (भागवत निं. १.२२-२५) :

भागवत प्रसङ्गो न यथाकथञ्चिद् यत्रकुत्रचिद् कर्तव्यः।
किन्तु महान्तश्चेद् वहवः शुद्धास्तीर्थनिरता: प्रार्थयेयुस्तदैव प्रसङ्गः कर्तव्यः।
एतादृशेपि श्रोतर न सहसा भागवतं वक्तव्यं।
किन्तु तद्हृदयमवगाह्यैव… रीतिरियं सदा।

अर्थ: श्रीमद्भागवत का प्रसंग जैसे मन में आए वैसे और जहां मन में आए वहीं आरंभ नहीं कर देना चाहिए। बल्कि, ऐसे प्रसंग को तभी आरंभ करना चाहिए जब तीर्थवास में निरत शुद्ध हृदय महापुरुष इसे प्रार्थना करें। और, तब भी इसे सहसा आरंभ नहीं करना चाहिए। बल्कि, श्रोताओं की हार्दिक उत्कंठा और जिज्ञासा को भलीभांति पहचानने के बाद ही यह प्रसंग छेड़ा जाना चाहिए। यही आदिकाल के प्रवचनकर्ताओं की रीति थी, और यही आज भी और भविष्य में निभाई जाने योग्य रीति है।

श्रीपुरुषोत्तमजी बताते हैं कि जब अनधिकारी लोग यश, धन, या प्रतिस्पर्धा की लालसा से प्रेरित होकर स्वयं को भागवत प्रवचन के योग्य मानने लगते हैं और इसे यत्र-तत्र आरंभ कर देते हैं, तो वे न केवल भागवत प्रवचन और पाठ के अधिकार से वंचित हो जाते हैं, बल्कि भागवत धर्म का पालन करने के भी अधिकारी नहीं रहते। भाष्यप्रकाश (१.३.३८):

पुनरेतानि वाक्यान्याश्रित्य स्वस्यापि पाठाधिकारमापादयन्ति। तेषां मात्सर्यादिदोषग्रासेन श्रीभागवतधर्मेष्वपि अनधिकारः किं पुनः पाठे…. नतु श्रावणीयं वा विक्ध्यभावात्।

जहां तक जलभेद और पञ्चपद्यानि का प्रश्न है, इन ग्रंथों में आदर्श वक्ता और श्रोता के उपनीत (संस्कारित) या द्विज (द्विजातीय) होने को अनिवार्य नहीं माना गया है। इनके लिए वेदादि शास्त्रों का प्रवचनकर्ता होना भी आवश्यक नहीं है। बल्कि, वेदादि शास्त्रों से अविरुद्ध भगवत्स्वरूप, गुण, और लीलाओं का निर्व्याज अहर्निश चिंतन में सप्रेम तत्पर होना ही पर्याप्त है।

भागवत में कहा गया है, श्रीमद्भागवतम् (१.५.११):

तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो यस्मिन्प्रतिश्लोकमवद्धवत्यपि।
नामान्यनन्तस्य यशकितानि यच्छ्रण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः।

अर्थ: जिसमें भगवान अनंत (परमात्मा) के नाम, गुण और कीर्तियों का वर्णन होता है, वह वाणी (रचना) जगत के पापों का नाश करने वाली होती है। भले ही उसमें प्रत्येक श्लोक में थोड़ी अपूर्णता हो, लेकिन साधुजन उसे सुनते हैं, गाते हैं और गुणगान करते हैं।

भक्तों के मुख से निःसृत वाणी, चाहे वह लौकिक भाषा में गाए गए गीत हों या संस्कृत में रचित गीतगोविंद जैसे काव्य, प्राणिमात्र के सभी पापों को नष्ट कर देती है। भले ही इनमें छंद, व्याकरण, या तानों में त्रुटि हो, भगवान के अनंत यश और नाम जब भक्तिमान वक्ताओं के मुख से सुनाए जाते हैं, या भक्तिमान श्रोताओं के सम्मुख गाए जाते हैं, अथवा स्वयम् लिए जाते हैं, तो सारे कल्मष दूर हो जाते हैं।

भागवत में वक्ता और श्रोता के उन्नीस भेद माने गए हैं, जिन्हें निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया गया है:

अधिकारी वक्ता या श्रोता:

  • निर्गुण
  • सगुण

सगुण अधिकारी के दो प्रकार:

  • असाधारण
  • साधारण

असाधारण अधिकारी के नौ भेद:

  • सात्त्विक-सात्त्विक
  • सात्त्विक-राजस
  • सात्त्विक-तामस
  • राजस-सात्त्विक
  • राजस-राजस
  • राजस-तामस
  • तामस-सात्त्विक
  • तामस-राजस
  • तामस-तामस

इन नौ भेदों को मध्यम अधिकारी माना गया है। साधारण अधिकारी के भी इन्हीं प्रकार के नौ भेद हैं, जो कनिष्ठ अधिकारी की श्रेणी में आते हैं। निर्गुण अधिकारी को इस वर्गीकरण में सर्वोत्तम माना गया है।

उत्तम, मध्यम, और कनिष्ठ वर्ग की कसौटी: यह वर्गीकरण भक्ति, वैराग्य और द्विविध ज्ञान की कसौटी पर आधारित है।

  • उत्तम अधिकारी: भक्ति, वैराग्य और अनुभवपर्यवसायी अर्थज्ञान में संपूर्णता रखते हैं।
  • मध्यम अधिकारी: अनुभवपर्यवसायी अर्थज्ञान और भक्ति के होते हुए भी, यदि वैराग्य का अभाव हो, तो इन्हें मध्यम श्रेणी में रखा जाता है।
  • कनिष्ठ अधिकारी: केवल शाब्दिक ज्ञान और भक्ति में रुचि रखते हैं, लेकिन वैराग्यहीन होते हैं।

तदनुसार, सुबोधिनी में जल के भी उन्नीस भेद माने गए हैं। यहां श्रीमहाप्रभु विवेचन करते हैं कि “भले ही उन्नीस भेद हों, परंतु बहता हुआ जल और स्थिर जल—ये दो मुख्य भेद हैं” (सुबोधिनी १०.३.३)। जबकि अन्यत्र यहां जल और वक्तृभाव के बीस भेद स्वीकार किए गए हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रथम स्कंध में निर्धारित अधिकारभेद केवल भागवत के संदर्भ तक ही सीमित है।

इस संदर्भ में, भगवत्स्वरूप, भगवद्गुण, और भगवद्लीलाओं का भागवत के अनुरूप या भागवत विरोध रहित होना अनिवार्य है। साथ ही, वक्ता का भी भागवतानुसारी या भागवत अविरोधी होना अनिवार्य है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक वक्ता को भागवतपुराण का प्रवचनकर्ता होना आवश्यक है। वास्तव में, इस विषय का उद्देश्य यह है कि पुष्टिमार्गीय श्रोता भगवत्कथा का श्रवण, स्मरण और कीर्तन किस प्रकार योग्य वक्ता के सत्संग के माध्यम से करें।

इसलिए, श्रोता के उन्नीस भेद नहीं दिखाए गए हैं, बल्कि केवल तीन या चार भेदों का उल्लेख किया गया है। उन्नीस और बीस के भेदों को विवेचन की आवश्यकता और संदर्भ के अनुसार समझा जाना चाहिए।

जैसा कि भागवत निं. (१.२३) में कहा गया है:

वक्ताधिकारी सर्वजः सम्प्रदायेन सन्मुखात् श्रुतभागवतो भक्तो।

श्रीमहाप्रभु के अनुसार, जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि चित्त का श्रीकृष्ण में तन्मय हो जाना है। इसके लिए दो साधन बताए गए हैं:

  • तदाश्रय (प्रपत्ति)

    इसमें विवेक, धैर्य, और अनन्याश्रय का निरूपण विवेकधैर्याश्रय ग्रंथ में किया गया है।

  • तदीयता (भक्ति)

    आत्मनिवेदन, सर्वसमर्पण, सर्वभाव से तनु-वित्त-जा सेवा, और भगवत्कथा का श्रवण-स्मरण-कीर्तन के माध्यम से इसे प्राप्त किया जाता है। इसका सिद्धांत नवरत्न, चतु:श्लोकी, सिद्धांतमुक्तावली, और भक्तिवर्धिनी जैसे ग्रंथों में निरूपित किया गया है।

भक्तिवर्धिनी में भक्ति के बीजभाव को दृढ़ करने का उपाय, यदि व्यक्ति अव्यावृत्त हो, तो स्वगृह में रहते हुए अपने वर्णाश्रम के अनुसार आचार का पालन करते हुए भगवत्सेवा और कथामय जीवनयापन को बताया गया है। यदि किसी व्यक्ति के व्यावृत्त होने के कारण भगवत्सेवा का निर्वहन संभव न हो, तो उसे भगवत्कथा के श्रवण, स्मरण, और कीर्तन में तत्पर रहना चाहिए। बीजभाव को दृढ़ करने के लिए, बीजभाव के दृढ़ होने पर गृहत्याग की प्रेरणा भी दी गई है।

गृहत्याग की संभावना न हो तो ऐसे व्यक्ति को भगवत्सेवा और कथा-परायण भगवदीयों द्वारा की जाने वाली भगवत्सेवा में सहायक बनना चाहिए। यह परिचारक रूप में सेवा हो सकती है, अथवा जब वे भगवत्कथा करते हों, तो उसमें श्रवणार्थ सम्मिलित होने का भी विधान बताया गया है। इस प्रकार, भक्तिवर्धिनी में अनेकविध उपायों से बीजभाव से लेकर प्रेम, आसक्ति, व्यसन, सर्वात्मभाव, या अलौकिक सामर्थ्य तक के विकास की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है।

इन सभी विकल्पों और अनुकल्पों के माध्यम से भक्तिमार्ग में भगवत्कथा की असाधारण महत्ता और उपादेयता स्पष्ट होती है। भगवत्कथा में श्रोताओं की अपेक्षा श्रवण के लिए रहती है और वक्ता की आवश्यकता कीर्तन के लिए होती है। स्मरण तो स्वयम् भी किया जा सकता है, परंतु समानशील भगवदीयों की सत्संगति में भगवत्स्मरण का एक अलग ही रूप निखरता है। इस संदर्भ में यह कहना उचित है कि सत्संग में भगवत्स्मरण की एक विशिष्ट गरिमा और प्रभाव होता है। इसमें कोई संदेह नहीं।

कुल मिलाकर, श्रोता और वक्ता दोनों ही भगवत्कथा के श्रवण और कीर्तन के लिए परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। ऐसी स्थिति में, यदि योग्य वक्ता और श्रोता उपलब्ध न हों, तो न केवल भगवत्कथा में रसाभास उत्पन्न हो सकता है, बल्कि बीजभाव के दृढ़ होने के बजाय उसके खंडित होने की भी संभावना रहती है।

इसीलिए, जलभेद में योग्य वक्ता का स्वरूप श्रोता के श्रवण अंग के रूप में समझाया गया है, और पञ्चपद्यानि में योग्य श्रोता का स्वरूप वक्ता के कीर्तन अंग के रूप में निरूपित किया गया है।

नित्य वंदनीय श्रीहरि के सर्वतापहारी और सर्वसुखकारी गुण, वक्ताओं के हृदय के भावपात्र में समाहित होने पर, उनकी भावनाओं के अनुरूप भिन्न-भिन्न स्वरूप धारण कर लेते हैं। जैसे जल, जो स्वभाव से शीतल, स्वच्छ, अव्यक्त मधुर, सर्वशोधक, और तापशामक होता है, लेकिन जिस आधारभूमि (जैसे कुआं, तालाब, नदी, समुद्र, झरना, नाला, गड्ढा आदि) में वह भरा होता है, वहां के गुणधर्मों को आत्मसात कर लेता है।

तैत्तिरीय संहिता के सातवें कांड में जल के बीस रूपों का वर्णन किया गया है:
१. कुआं
२. नहर
३. खेत की नाली
४. नदी के जल से बना गड्ढा
५. गंदे नाले या मोरी के जल से बना गड्ढा
६. नदी के जल से बने बड़े तालाब
७. पीने योग्य पानी वाले बड़े तालाब
८. सुंदर कमलादि पुष्पों से युक्त बड़े सरोवर
९. छोटे तालाब
१०. पंक-बहुल तालाब
११. वर्षा का जल
१२. स्वेदजल (पसीना)
१३. झरने का जल
१४. ओस के जल बिंदु
१५. बरसाती नदी-नालों जैसा अस्थिर प्रवाह वाला जल
१६. बारहमासी नदियों का स्थिर और सदैव समान रूप में बहने वाला जल
१७. निरंतर प्रवाह वाली वे नदियां, जिनका जल वर्षा या ग्रीष्म में बढ़ता या घटता हो
१८. समुद्र में मिलने वाली महानदियां
१९. समुद्र
२०. अन्य जल जो इनमें से किसी स्थान पर संग्रहित हो या गिरा हो।

यह उदाहरण दर्शाता है कि जैसे जल अपने परिवेश के गुणों से प्रभावित होता है, वैसे ही भगवत्कथा का प्रभाव भी वक्ता और श्रोता की भावनाओं, गुणों और पात्रता पर निर्भर करता है। इसीलिए, जलभेद और पञ्चपद्यानि ग्रंथों में वक्ता और श्रोता की योग्यता पर इतना अधिक बल दिया गया है। यह दृष्टिकोण भक्ति की शुद्धता और परिपूर्णता के लिए आवश्यक है।

स्वभावतः जल जो एकरूप होता है, वह अपने आधार की गुणधर्मों के अनुसार अनेकरूपता प्रकट करता है। इसी तरह, भगवान के एकरूप गुण भी भगवत्कथा के वक्ता की योग्यता और भावों के अनुरूप विविध रूप धारण कर लेते हैं।

१. कुआं

भगवद्गुणों के स्वर, ताल और लय के आधार पर गान करने वाले गायक विश्रुत गंधर्व के समान होते हैं और इन्हें कुओं की तरह विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

कुओं की भिन्नता:
कुछ कुएं मीठे जल वाले होते हैं, कुछ खारे जल वाले, और कुछ पवित्र शास्त्रीय माहात्म्य से युक्त होते हैं, जैसे न्यग्रोध वृक्ष के उत्तर दिशा में स्थित कूप, द्वारका का दामोदरकूप, या ब्रज का गोपकूप। वहीं, कुछ कुएं अपवित्र और मलिन जल वाले भी होते हैं।

गायकों की भिन्नता:
गायकों में भी इसी प्रकार की विविधता होती है।

  • कुछ गायक स्वर और ताल को भगवद्वर्णनात्मक शब्दों का अंग मानकर उनका संयोजन करते हैं।
  • कुछ गायक भगवद्वर्णनात्मक शब्दों को स्वर और ताल का अंग मानकर उनका संयोजन करते हैं।

प्रथम प्रकार के गायकों को खारे जल वाले कुओं की तरह समझा जाना चाहिए, जबकि दूसरे प्रकार के गायकों को मीठे जल वाले कुओं की तरह। इसके अतिरिक्त, गहरे कुओं का जल ठंड में गर्म और गर्मी में ठंडा महसूस होता है। इसी प्रकार, भावगांभीर्य वाले गायकों का भगवद्गुणगान सांसारिक ताप से तप्त श्रोताओं को आध्यात्मिक और आधिदैविक शीतलता प्रदान करता है। साथ ही, सांसारिक मोह से जड़ होकर ठिठुरे हुए हृदयों को भगवद्भाव की ऊष्मा भी इन गायकों के गान से प्राप्त हो सकती है।

यह तुलना दर्शाती है कि जैसे जल अपने परिवेश के गुण-धर्मों को आत्मसात कर लेता है, वैसे ही भगवद्गुणगान भी वक्ता के भाव और गुणों से प्रभावित होता है। इसका प्रभाव श्रोताओं को मानसिक, आध्यात्मिक और भावात्मक राहत प्रदान करता है।

२. नहर

पौराणिक कथा सुनाने वाले वक्ता नहर के समान होते हैं। नहर का जल स्वयम् का नहीं होता, बल्कि किसी नदी या सरोवर से जुड़ा होता है। इसी प्रकार, पुराणकथा सुनाने वाले वक्ता का भाव स्वयम् का नहीं होता, बल्कि वह केवल पुराणकथा करते समय कथावेश में प्रयुक्त होता है।

इस वजह से, अश्रुपात, कंठावरोध, या उल्लास जैसे भाव केवल कथाकाल के दौरान ही प्रकट होते हैं। ये भाव वक्ता के सामान्य जीवन में स्थायी रूप से विद्यमान नहीं रहते। इस प्रकार, वक्ता की भूमिका केवल पुराणकथा के समय उभरे भावों और उनके संप्रेषण तक सीमित होती है।

यह तुलना दर्शाती है कि जैसे नहर का जल किसी अन्य स्रोत से आता है, वैसे ही वक्ता के भाव भी स्वयम् के बजाय पुराणकथा की सामग्री और परिवेश से जुड़े होते हैं। इससे पुराणकथा के समय व्यक्त भावों की वास्तविकता और स्थायित्व को समझने में सहायता मिलती है।

३. खेत की नाली

अपने कुटुंब पोषण, धन, या यश की कामना से जो व्यक्ति भगवत्कथा करते हैं, उनकी तुलना खेत को जल पहुंचाने वाली नालियों से की जा सकती है। खेत की नाली का जल स्वयं का नहीं होता; उसका मुख्य उद्देश्य केवल धान्य उत्पादन करना होता है।

उसी प्रकार, इन प्रकार के वक्ताओं की भगवत्कथा का भी मुख्य प्रयोजन सांसारिक वृद्धि और निजी लाभ प्राप्त करना होता है। इनका भाव भगवत्कथा के गहन आध्यात्मिक उद्देश्य को साधने के बजाय भौतिक लाभ और प्रतिष्ठा प्राप्त करने तक सीमित रहता है।

इस प्रकार के वक्ता अपने श्रोताओं को भी वही फल प्रदान करते हैं, जो स्वयं उनके उद्देश्यों के अनुरूप होता है। इन वक्ताओं के माध्यम से भगवत्कथा का वास्तविक आध्यात्मिक प्रभाव श्रोताओं तक पहुंचने में बाधित हो जाता है। यही कारण है कि शुद्ध हृदय और निष्काम भाव वाले वक्ता भगवत्कथा के लिए आवश्यक माने गए हैं।

४. नदी के जल से बना गड्ढा

वेश्या या स्वैरिणी स्त्रियों से घिरे हुए, द्यूत (जुआ) और मद्यपान जैसे व्यसनों में लिप्त वक्ताओं की तुलना नदी के जल से बने गंदे जल के गड्ढे से की जा सकती है। ऐसे गड्ढों का जल अशुद्ध और मलिन होता है।

वेदों में इस प्रकार के जल को ‘प्रदर’ कहा गया है, और इसका आचमन भी निषिद्ध माना गया है। इसी प्रकार, ऐसे वक्ता, जिनका आचरण और संगति दूषित हो, वे भगवत्कथा के लिए उपयुक्त नहीं माने जाते। उनके द्वारा किया गया प्रवचन श्रोताओं के लिए आध्यात्मिक लाभ के बजाय हानिकारक हो सकता है।

यह तुलना दर्शाती है कि वक्ता का शुद्ध आचरण और पवित्र संगति भगवत्कथा की प्रभावशीलता के लिए अत्यंत आवश्यक है। दूषित आचरण वाले वक्ता न केवल कथा के उद्देश्य को विकृत करते हैं, बल्कि श्रोताओं के भाव और भक्ति पर भी नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

५. गंदे नाले या मोरी के जल से बना गड्ढा

भगवान के गुणगान को आजीविका बनाकर, केवल अपने उदर या कुटुंब के पोषण के लिए गान या प्रवचन करने वाले गायक और पौराणिकों के भाव की तुलना घर की गंदी मोरियों से निकलने वाले मलिन जल से की जा सकती है। ऐसे जल के चारों ओर फैलने से बचाने के लिए जो गड्ढे खोदे जाते हैं, उसमें भरे जल जैसा यह भाव अपवित्र होता है।

जैसे उस गंदे जल का स्पर्श अशुचिकर और अशुद्ध होता है, वैसे ही उन गायकों या वक्ताओं का प्रवचन भी, जो भगवद्गुणगान को केवल आजीविका और अपने स्वार्थ का साधन बना लेते हैं, अशुद्ध और अशोभनीय होता है। यह प्रवचन न तो श्रोताओं के हृदय को शुद्ध कर पाता है और न ही उन्हें आध्यात्मिक रूप से लाभान्वित कर पाता है।

इस प्रकार के वक्ता न केवल अपने उद्देश्य को विकृत करते हैं, बल्कि भगवद्गुणगान के पवित्र उद्देश्य को भी अपवित्र करते हैं। ऐसे में, केवल निष्काम और शुद्ध हृदय वाले वक्ता ही भगवत्कथा और गुणगान के लिए आदर्श माने जाते हैं।

६. नदी के जल से बने बड़े तालाब

नदियों के जल से जैसे किसी स्थान पर जलाशय बनाया जाता है या स्वाभाविक रूप से वह स्वयं ही निर्मित हो जाता है, उसी प्रकार गीता, भागवत, पाञ्चरात्र आदि भगवद्शास्त्रों के निरंतर अभ्यास से व्यक्ति के हृदय और बुद्धि में भगवद्भाव का एक विशाल जलाशय भर जाता है।

बड़े जलाशयों का जल न तो धूप के कारण सूखता है और न ही भैंस जैसे पशुओं द्वारा मलिन किया जा सकता है। इसी प्रकार, इन शास्त्राभ्यासियों का भगवद्भाव न तो सांसारिक तापों से शुष्क होता है और न ही कुतर्क या असंभावना जैसी विपरीत भावनाओं से मलिन हो सकता है।

यह तुलना यह दिखाने का प्रयास करती है कि नियमित शास्त्र अभ्यास से साधक का हृदय और बुद्धि इतनी दृढ़ और पवित्र हो जाती है कि सांसारिक समस्याएं और विरोधाभासी विचार उसके भगवद्भाव को प्रभावित नहीं कर सकते। इन शास्त्रों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान और भक्ति स्थायित्व और अडिगता का प्रतीक बन जाते हैं।

७. पीने योग्य पानी वाले बड़े तालाब

स्वयं निरंतर शास्त्राभ्यास करना एक महत्त्वपूर्ण गुण है, लेकिन श्रोताओं के संदेहों को निवारण करने की क्षमता होना उससे अलग और विशिष्ट गुण है। ऐसे वक्ता, जो श्रोताओं के संदेहों को निवारण करने में सक्षम होते हैं, उन्हें पीने योग्य पानी वाले बड़े जलाशय के समान समझा जाना चाहिए।

इस प्रकार के जलाशयों का जल स्वच्छ और निर्मल होता है, जिसमें न तो पंक (कीचड़) होता है और न ही शैवाल उत्पन्न होते हैं। इसी तरह, ऐसे वक्ताओं का ज्ञान और विचार स्वच्छ, स्पष्ट और कलुष रहित होता है। उनकी वाणी श्रोताओं की जिज्ञासा को शांत करने में पूरी तरह सक्षम होती है, और वे भगवत्कथा को श्रोताओं के लिए सार्थक और उपयोगी बना पाते हैं।

यह तुलना दर्शाती है कि ज्ञान के साथ-साथ संदेह निवारण की क्षमता वक्ता के व्यक्तित्व को और अधिक प्रभावशाली बनाती है। यह गुण श्रोताओं के मन में स्थायित्व और विश्वास उत्पन्न करता है, जो भगवत्कथा के उद्देश्य को पूर्ण करता है।

८. सुंदर कमलादि पुष्पों से युक्त बड़े सरोवर

स्वयं भगवद्शास्त्रों का निरंतर अभ्यास करने और दूसरों के संदेहों को निवारण करने की क्षमता होना, वक्ता के महत्वपूर्ण गुण हैं। लेकिन, कभी-कभी ऐसे वक्ता में स्वयं भक्तिभाव नहीं होता।

परंतु यदि वक्ता में यह भक्तिभाव भी प्रकट हो जाए, तो ऐसे वक्ता को सुंदर सरोज (कमल) से युक्त रमणीय सरोवर की तरह समझा जाना चाहिए। जिस प्रकार सरोजवाले सरोवर का सौंदर्य और उसका निर्मल जल मन को सुख और शांति प्रदान करता है, उसी प्रकार ऐसे वक्ता का प्रवचन न केवल ज्ञानवर्धक होता है, बल्कि उसमें भक्ति का मधुर रस भी प्रवाहित होता है।

यह तुलना दर्शाती है कि ज्ञान और सन्देहनिवारण की योग्यता के साथ-साथ भक्तिभाव का होना वक्ता को पूर्ण और प्रभावशाली बनाता है। ऐसे वक्ता श्रोताओं के हृदय में गहन भक्ति और आनंद की अनुभूति कराते हैं।

९. छोटे तालाब

कुछ वक्ताओं में भगवत्प्रेम होता है, लेकिन वे स्वयं अल्पश्रुत (शास्त्रों का सीमित ज्ञान रखने वाले) होते हैं। ऐसे वक्ताओं की तुलना छोटे तालाबों से की जा सकती है, जो स्वच्छ जल से भरे हुए होते हैं, परंतु अल्प जलराशि के कारण भैंस जैसे पशुओं द्वारा आसानी से मलिन बनाए जा सकते हैं।

इसी प्रकार, इन वक्ताओं में भगवत्प्रेम होने के बावजूद उनके सीमित ज्ञान के कारण उनके भाव, विपरीत प्रभावों या दोषपूर्ण विचारों से दूषित हो सकते हैं। यह उनके श्रोताओं तक पहुँचाने वाले संदेश की शुद्धता और गहराई को भी प्रभावित कर सकता है।

यह तुलना यह दर्शाती है कि केवल भगवत्प्रेम पर्याप्त नहीं है; गहन अध्ययन और समझ भी आवश्यक हैं, ताकि वक्ता की भावनाएँ और कथन स्थिर और दूषित होने से मुक्त बने रहें। इससे श्रोताओं को उचित और प्रभावशाली संदेश प्राप्त होता है।

१०. पंक-बहुल तालाब

जिन वक्ताओं ने स्वयं शास्त्रीय विषयों का भलीभांति श्रवण किसी सद्गुरु के मुख से नहीं किया हो, और जिनमें भगवद्भक्ति भी पर्याप्त मात्रा में न हो, लेकिन जिनकी निष्काम धर्माचरण और कर्मानुष्ठान में निष्ठा दृढ़ हो—यदि ऐसे वक्ताओं में भगवत्कथा प्रवचन करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो, तो उनके भाव को छोटे तालाब के समान समझा जाना चाहिए।

छोटे तालाब का जल स्वच्छ होने के बावजूद शीघ्र सूख भी सकता है और शीघ्र मलिन भी हो सकता है। इसी प्रकार, ऐसे वक्ता अपनी सीमित तैयारी और अनुभव के कारण श्रोताओं तक गहरी और स्थायी भक्ति का संदेश पहुंचाने में सफल नहीं हो सकते।

यह तुलना यह दर्शाती है कि केवल निष्काम कर्म और निष्ठा पर्याप्त नहीं है; शास्त्रों का गहन अध्ययन, गुरु के सान्निध्य में श्रवण, और भगवद्भक्ति की प्रचुरता, एक वक्ता के लिए अत्यावश्यक गुण हैं। ये गुण ही उनकी वाणी को स्थायित्व और शुद्धता प्रदान करते हैं, जिससे वे श्रोताओं को प्रभावी ढंग से लाभान्वित कर पाते हैं।

११. वर्षा का जल

जिन व्यक्तियों का मन योगध्यान जैसी प्रक्रियाओं में लगा हुआ हो, उनके भाव स्वाभाविक रूप से निर्मल और शुद्ध हो सकते हैं। परंतु जब वे श्रोताओं से घिर जाते हैं, तो उनके भावों में परिवर्तन आने लगता है। यौगिक साधना का वास्तविक निखार और प्रभाव एकांत में ही प्रकट होता है।

इसलिए, जो योगी जनसमूह में घिरे रहने की प्रवृत्ति रखते हैं, उनकी योगसाधना की समग्रता निष्फल हो जाती है। ऐसे व्यक्तियों के भाव की तुलना वर्षा जल से की जा सकती है, जो स्वयं स्वच्छ होने के बावजूद जहां गिरता है, वहां के गुणधर्मों को शीघ्र ही अपना लेता है।

यह तुलना यह दर्शाती है कि योग और ध्यान की गहनता के लिए एकांत और ध्यानस्थ वातावरण आवश्यक है। अन्यथा, श्रोताओं या बाहरी वातावरण के प्रभाव से योगी के भाव अस्थिर और परिवर्तनीय हो सकते हैं, जिससे उनकी साधना का वास्तविक उद्देश्य प्रभावित हो सकता है।

१२. स्वेदजल (पसीना)

केवल तपो-ज्ञान और वैराग्य की साधना में निरत व्यक्ति जब भगवत्कथा का प्रवचन करते हैं, तो उनके भाव को स्वेदजल (पसीना) के समान समझा जाना चाहिए। स्वेदजल, जिसके उत्पन्न होने का कारण व्यक्ति का परिश्रम होता है, उसकी केवल व्यक्तिगत उपयोगिता होती है और दूसरों की कामना का प्रतिपादन नहीं करता।

इसी प्रकार, ऐसे व्यक्तियों की तपश्चर्या या भगवद्भक्ति-विहीन शुष्क ज्ञान और वैराग्य की साधना स्वयम् उनके द्वारा लिए गए आध्यात्मिक परिश्रम का संकेत तो हो सकती है, परंतु अन्य श्रोताओं के लिए वह प्रभावी या उपयोगी नहीं हो पाती।

यह तुलना यह स्पष्ट करती है कि तप, ज्ञान और वैराग्य के साथ-साथ, भगवत्कथा प्रवचन के लिए भगवद्भक्ति और भावपूर्ण साधना का होना आवश्यक है। श्रोताओं के लिए प्रेरणादायक और उनके हृदय को छूने वाला प्रवचन तभी संभव हो सकता है जब वक्ता स्वयं भक्तिभाव से ओत-प्रोत हो। अन्यथा, उनका परिश्रम केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही सीमित रह जाता है।

१३. झरने का जल

पर्वत से गिरते जलप्रताप—झरने का जल निर्मल, शीतल, मधुर, सतत प्रवाहित, तथा श्रवण, दर्शन, स्पर्शन, स्नान, आचमन, और पान में सुखदायक, तापहारी और मनोहारी अनुभव होता है। इसी प्रकार, भगवत्कृपा या महान भगवदीयों की कृपा से, जिन व्यक्तियों को स्वयं श्रीहरि के दिव्य और मधुर गुणों का अलौकिक ज्ञान प्राप्त हुआ हो, उनके मुख से भगवद्गुणगान सुनना किसी मनोरम झरने के सामने पहुंचने के अनुभव जैसा होता है। यह एक दुर्लभ और अत्यंत सुखद प्रसंग होता है।

जैसे झरने के पास पहुंचने से पहले ही उसकी धारा की ध्वनि से उसके अस्तित्व का आभास होने लगता है, वैसे ही इन भगवदीयों के पदग्रंथ आदि के शब्दों को सुनते ही उनकी अलौकिक अनुभूति का बोध हो जाता है।

यह तुलना दर्शाती है कि ऐसे वक्ता न केवल अपने अलौकिक ज्ञान और अनुभव से श्रोताओं को आनंदित करते हैं, बल्कि उनकी उपस्थिति और वाणी से श्रोताओं को दिव्य अनुभव की झलक भी मिलती है। ऐसे वक्ता आत्मिक सुख और भक्ति के अनमोल स्रोत के समान हैं।

१४. ओस के जल बिंदु

सकाम उपासना के अंतर्गत, श्रौत या पौराणिक उपासक जैसे वरुण, इंद्र, दुर्गा, गणपति, भैरव, नवग्रह आदि देवताओं की उपासना करने वाले यदि श्रीकृष्ण की कथा करते हों, तो उनके भावों को ओस के बिंदुओं के समान समझा जाना चाहिए।

ओस के जलबिंदुओं की विशेषता:
ओस के जलबिंदु जहां गिरते हैं, वहां उभरे हुए दिखाई पड़ते हैं, लेकिन वह स्थायी वास्तविकता नहीं होती। इसी प्रकार, अन्य देवताओं की उपासना करने वाले वक्ताओं के मुख से श्रीकृष्ण कथा, उन देवताओं की उपासनाभूमि पर श्रीकृष्ण द्वारा गिराए गए ओस के क्षुद्र बिंदुओं के समान होती है।

ओस के जलबिंदु केवल देखने भर में सुंदर होते हैं, लेकिन स्नान, आचमन, या पान के लिए उपयोगी नहीं होते। साथ ही, थोड़ी सी धूप निकलने पर ये बिंदु ओझल हो जाते हैं। उसी प्रकार, इन वक्ताओं के भाव भी श्रोताओं के लिए उपयोगी नहीं होते। वे केवल कथाकाल के दौरान प्रकट होते हैं और पश्चात् ओझल हो जाते हैं।

यह तुलना दर्शाती है कि भगवत्कथा की वास्तविक प्रभावशीलता और स्थायित्व तभी संभव है, जब वक्ता का श्रीकृष्ण के प्रति निष्काम भक्तिभाव हो। सकाम उपासना वाले वक्ताओं की कथाएँ केवल सतही शोभा प्रदान करती हैं, परंतु उनमें गहराई और स्थायित्व का अभाव होता है। इसलिए, योग्य वक्ता का चयन भगवत्कथा के गहन उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए अत्यावश्यक है।

१५. बरसाती नदी-नालों जैसा अस्थिर प्रवाह वाला जल

वर्णाश्रमधर्म का पालन करते हुए श्रीकृष्ण की नवधा भक्ति में संलग्न वक्ताओं में, जब-तब प्रेमावेश के कारण भगवदीय धर्मों का स्फुरण होता रहता है। ऐसे वक्ताओं के भाव की तुलना बरसाती नदी के प्रवाह से की जा सकती है।

बरसाती नदी का प्रवाह तेज और उत्साही होता है, लेकिन उसका प्रवाह स्थायी नहीं होता। इसी प्रकार, ऐसे वक्ताओं का भगवदीय प्रेम और भावना भी कथाकाल में प्रबल रूप से प्रकट होता है, परंतु वह लंबे समय तक स्थायित्व बनाए रखने में सक्षम नहीं होता।

यह तुलना यह स्पष्ट करती है कि भगवदीय धर्मों का स्फुरण जितना गहन और प्रभावी होता है, उतना ही आवश्यक है कि वह स्थायित्व और निरंतरता के साथ श्रोताओं के जीवन में प्रेरणा और परिवर्तन लाए। स्थायी और गहरे प्रवाह वाले वक्ता श्रोताओं के लिए अधिक लाभकारी और प्रभावशाली होते हैं।

१६. बारहमासी नदियों का स्थिर और सदैव समान रूप में बहने वाला जल

कुछ नदियां बारहमासी होती हैं, जिनमें न तो बाढ़ आती है और न ही उनका जल घटता है। उनका प्रवाह हमेशा स्थिर और सतत रहता है। इसी तरह, भगवत्कथा में ऐसे मर्यादामार्गीय वक्ताओं के भाव भी स्थिर प्रवाह वाली नदी के समान होते हैं, जिनमें न तो प्रेमावेश का अतिशय उत्साह उत्पन्न होता है और न ही उनकी कथा के प्रति रुचि कभी क्षीण होती है।

इस प्रकार के वक्ता स्थिर, संतुलित और सतत रूप से अपनी कथा में प्रेरणा और सार्थकता प्रदान करते रहते हैं। उनका प्रवचन न केवल श्रोताओं को भावनात्मक स्थायित्व देता है, बल्कि उनकी भक्ति और ज्ञान की साधना को भी सुदृढ़ करता है। यह तुलना यह दिखाती है कि मर्यादामार्गीय वक्ता अपनी स्थिरता और अडिगता के माध्यम से श्रोताओं के लिए एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

१७. निरंतर प्रवाह वाली वे नदियां, जिनका जल वर्षा या ग्रीष्म में बढ़ता या घटता हो

कुछ नदियों के उद्गमस्थल पर निरंतर पानी उभरता रहता है, जिससे उनका प्रवाह कभी रुकता नहीं। हालांकि, वर्षा और तपिश के कारण उनके जलस्तर में कभी वृद्धि होती है और कभी ह्रास। इसी प्रकार, ऐसे वक्ताओं का भाव, जिनके आसपास के व्यक्तियों की संगति के कारण कभी बढ़ता है और कभी घटता है, परंतु जिनका भावप्रवाह कभी अवरुद्ध नहीं होता, अनेक जन्मों से चली आ रही उनकी भावसाधना के कारण निरंतर उद्गमवाली नदी के समान होता है।

इस प्रकार के वक्ता अपने गहरे आध्यात्मिक अनुभवों और सतत साधना के आधार पर स्थायी और अनवरत भगवद्भाव बनाए रखते हैं। उनकी कथा और प्रवचन में भावों की निरंतरता का यह अद्भुत प्रवाह, श्रोताओं को आनंदित और प्रेरित करता है, भले ही बाह्य परिस्थितियों से उसमें हल्का उतार-चढ़ाव आ जाए। यह उन्हें स्थायित्व और गहराई प्रदान करता है, जो उनकी आध्यात्मिक यात्रा का प्रमाण है।

१८. समुद्र में मिलने वाली महानदियां

कुछ महानदियां, जो समुद्रगामिनी होती हैं, ऋतुचक्र से अप्रभावित रहती हैं। इनमें बाढ़ आती है, लेकिन उनका जल कभी कम नहीं होता। उनका प्रवाह हमेशा स्थायी और प्रचुर मात्रा में रहता है। इसी प्रकार, उन वक्ताओं के भाव, जो संगदोष और बाहरी परिस्थितियों से अप्रभावित रहते हैं, समुद्रगामिनी महानदियों के समान समझे जा सकते हैं।

ऐसे वक्ता अपने स्थिर और अनवरत प्रवचन में, श्रोताओं को गहन भक्ति और स्थायी प्रेरणा प्रदान करते हैं। उनका भाव किसी भी बाहरी बाधा, विरोधाभास, या दोष से विचलित नहीं होता और वह निरंतर अपनी भक्ति और ज्ञान के प्रवाह को बनाए रखते हैं।

यह तुलना दिखाती है कि ऐसे वक्ताओं की कथाएँ न केवल प्रभावशाली होती हैं, बल्कि श्रोताओं को आत्मिक स्थायित्व और शांति प्रदान करने में भी सफल होती हैं। उनके भाव और विचार, किसी महानदी की प्रचुरता और स्थिरता के प्रतीक बन जाते हैं।

१९. समुद्र

समुद्रों के विभिन्न भेदों के साथ वक्ताओं के भावों की तुलना गहराई और स्थिरता के विभिन्न स्तरों को दर्शाती है:

  • क्षारोद समुद्र:
    श्रीराम या श्रीकृष्ण को साक्षात् परमेश्वर मानने के बजाय केवल महापुरुष मानने वाले वक्ताओं के भाव खारे जल की तरह होते हैं। इनसे भक्त की तृषा नहीं मिटती। उनके दृष्टिकोण और व्याख्या भक्तिमार्गीय दृष्टि से अरुचिकर तथा तृषा को शांत करने में असमर्थ होती है।

  • इक्षुरसोद समुद्र:
    जो वक्ता परमात्मा को अप्राकृत मानते हैं, लेकिन अवतारों को प्राकृत गुण-धर्मयुक्त मानते हैं, उनके भाव इक्षुरसोद के समान होते हैं। जैसे गन्ना चूसने पर प्रारंभ में मधुर लगता है, लेकिन अंत में विरस हो जाता है, वैसे ही इन वक्ताओं की भगवद्कथा प्रारंभ में आकर्षक, परंतु अंत में असंतोषजनक हो सकती है।

  • सुरोद समुद्र:
    जो भगवान के गुणों को मायिक मानते हैं और ब्रह्म को निर्गुण निराकार मानते हैं, उनकी कथा सुरोद के समान होती है। सुरा की तरह, यह स्वरूप विस्मृति और मोह उत्पन्न करती है। ऐसे वक्ताओं के उपदेश भक्तिमार्ग विरोधी हो सकते हैं, जैसे श्रीमहादेव ने भगवदाज्ञा से मायावाद का प्रवर्तन किया।

  • घृतोद समुद्र:
    जो भगवान की दयालुता जैसे गुणों पर भार देकर कथा करते हैं, उनका भगवद्गुणगान घृतोद के समान होता है। यह भक्तिबल को बढ़ाने वाला और सुखदायक है।

  • क्षीरोद समुद्र:
    जो श्रीहरि के सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमानता, और दुःखहर्ता जैसे गुणों पर भार देते हैं, उनका भगवद्गुणगान क्षीरोद के समान होता है। यह स्वादिष्ट, शक्तिवर्धक और पवित्र है।

  • दधिमण्डोद समुद्र:
    केवल वैदिक मर्यादाओं की स्थापनाएँ करने वाले वक्ताओं के भाव दधिमण्डोद के समान हैं। यह सुपाच्य और स्वादिष्ट होता है, लेकिन इसके मुख्य सार का अभाव रहता है।

  • शुद्धोद या अमृतोद समुद्र:
    शुद्धोद समुद्र को श्रीमहाप्रभु ‘अमृतोद’ भी कहते हैं। यह सबसे पवित्र और दिव्य होता है। ये वक्ता भगवत्कथा के माध्यम से श्रोताओं को दिव्य आनंद का अनुभव कराते हैं।

सनत्कुमारों के उपदेश देने वाले समर्षण शेष, भगवद्ज्ञानावतार महर्षि बादरायण व्यास, अग्निपुराण के वक्ता अग्नि, वायुपुराण के वक्ता मारुत या हनुमान, रहूगण राजाको ज्ञानोपदेश देने वाले अवधूत जड़भरत, अनेकधा भक्तिशास्त्रों के उपदेशक नारद, सनत्कुमार के शिष्य और विदुर के गुरु मैत्रेय जैसे पूर्ण भगवदीय वक्ताओं के उपदेश को अमृतोद के पान के तुल्य माना जाता है।

इसी तरह, अकस्मात् इन वक्ताओं के वचनों का श्रवण अमृत के बिंदुपान जैसा सुखद अनुभव प्रदान करता है। सतत श्रवण के माध्यम से जब राग, अज्ञान, काम, क्रोध आदि मनोविकार दूर हो जाते हैं, तो यह केवल बिंदुपान नहीं, बल्कि अमृत का लेहन बन जाता है। इस लेहन के माध्यम से परमानंद की अभिव्यक्ति होती है, और श्रोता कृतार्थ हो जाता है। ऐसे वक्ताओं का ज्ञान और भक्ति श्रोताओं को आत्मिक आनंद और मुक्ति प्रदान करते हैं।