चतुःश्लोकी का प्रणयन श्रीमहाप्रभु ने विक्रम संवत् १५८० या १५८२ के बीच कभी किया था, ऐसा वर्णन प्राप्त होता है। यह ग्रंथ किस भाग्यशाली भगवदीय के लिए लिखा गया, यह तो ज्ञात नहीं होता, किन्तु चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार, राना व्यास और भगवानदास साञ्चोरा ने श्रीमहाप्रभु के मुखारविंद से इस ग्रंथ का अध्ययन किया था।

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी पुरुषार्थों का एक विशिष्ट स्वरूप और स्थान होता है। यह बात भिन्न हो सकती है कि तत्तत मार्ग के बीजभाव, रुचि, संगति या देशकाल आदि की स्थिति के अनुसार, मार्ग विशेष के जीवों में पुरुषार्थ-संबंधी धारणाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। पुष्टिमार्गीय जीवों की धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष संबंधी आदर्श धारणाओं का विस्तार और विचार इस चतुःश्लोकी में किया गया है।

स्वमार्गीय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भिन्न प्रकार के पुरुषार्थों के आकर्षण में जब कोई जीव पड़ जाता है, तो वह विफलता, निराशा, कुण्ठा, क्षोभ और आत्मघाती भावनाओं की ओर अग्रसर हो जाता है। इस संसार में विविध प्रकार के जीव हैं, और सभी को अलग-अलग प्रकार की संगति प्राप्त होती है। इन आकस्मिक संगतियों के कारण, कभी-कभी हमारे भीतर एक अस्वाभाविक अहंकार और ममता उत्पन्न हो जाती है, जो हमें स्वमार्ग से विमुख कर अस्वमार्गीय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की ओर खींच लेती है।

गोधरा के राना व्यास का उदाहरण लेते हैं। प्रारंभ में, उन्हें एक वैरागी बाबा की संगति प्राप्त हुई। वैरागी बाबा से तीर्थयात्रा की बातें सुनकर, राना व्यास को लगा कि जीवन का वास्तविक सुख तीर्थों की यात्रा करने में है। इस विचार से प्रेरित होकर, उन्होंने अपने माता-पिता को बिना कुछ कहे-सुने घर छोड़ दिया।

परंतु तीर्थयात्रा के दौरान उनके मन को किसी भी तीर्थ के दर्शन से संतोष प्राप्त नहीं हुआ। प्रारंभ से ही उन्हें अपनी विद्या और जितेंद्रिय होने का अभिमान था। माता-पिता के देहांत के बाद उन्हें पंच-दस हजार रुपये और उत्तराधिकार में मिली संपत्ति का अधिकार भी प्राप्त हुआ, जिससे उन्हें धन का अभिमान भी हो गया। इन सबके कारण, वे स्वयं को सिद्ध पुरुष और उच्च कोटि का विद्वान मानने लगे। शनैः-शनैः अपने गाँव के लोग उन्हें गंवारु लगने लगे, और उनके मन में काशी के विद्वानों से शास्त्रार्थ करने की लालसा जागृत हुई।

आखिरकार, एक दिन वे काशी पहुँचे। लेकिन काशी में पहुंचने पर, परिस्थितियाँ उनके विरुद्ध हो गईं। जिन-जिन पंडितों से वे शास्त्रार्थ में भिड़े, उन सभी से उन्हें पराजित होना पड़ा। इससे वे अत्यधिक लज्जित होकर गंगा में कूदकर प्राण त्याग करने का निश्चय करने लगे। आत्मघात का यह कार्य दिन के उजाले में करने में उन्हें संकोच हो रहा था, इसलिए वे गंगातट पर बैठे रात्री के एकांत और अंधकार की प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी श्रीमहाप्रभु का वहां आगमन हुआ। संयोगवश, किसी वैष्णव ने श्रीमहाप्रभु से प्रश्न किया कि गंगा में डूबकर प्राण त्याग करने वाले की क्या गति होती है। इस पर श्रीमहाप्रभु ने उत्तर दिया कि अहंकारवश लड़ाई-झगड़े के बाद आत्महत्या करने वाले को सर्पयोनि प्राप्त होती है और आत्महत्या का पाप भी लगता है। परंतु जो दीनभाव से संकल्प लेकर और अपने मन को भगवान में एकाग्र करके गंगा में प्राण त्याग करते हैं, उनकी दुर्गति नहीं होती।

श्रीमहाप्रभु की इन बातों ने राना व्यास के हृदय को छू लिया। वे तुरंत दौड़कर श्रीमहाप्रभु के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने अपनी आत्मकथा सुनाई और श्रीमहाप्रभु से शरण ग्रहण करने की याचना की। श्रीमहाप्रभु ने उन्हें गंगास्नान करने का आदेश दिया और बाद में ब्रह्मसम्बन्ध की दीक्षा दी। उसी समय श्रीमहाप्रभु ने उन्हें चतुःश्लोकी का उपदेश भी दिया। राना व्यास सम्प्रदाय के अच्छे विद्वान बने। श्रीमहाप्रभु विरचित अन्य ग्रंथ, जैसे अणुभाष्य, सुबोधिनी आदि, की इनके द्वारा हस्तलिखित प्रतियां आज भी उपलब्ध हैं।

चतुःश्लोकी के अध्ययन से राना व्यास को अपने वास्तविक धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी पुरुषार्थों का ज्ञान हुआ। वे मिथ्या वैराग्य, धन और विद्वत्ता के अहंकार से मुक्त हुए। साथ ही, अहंकार की विफलता से उत्पन्न कुण्ठा और आत्मघात की क्षुद्र भावनाओं पर भी नियंत्रण प्राप्त कर सके। वे एक आदर्श भगवदीय के समान भगवत्सेवा और भगवत्स्मरण में समर्पित पुष्टिमार्गीय जीवन जीने के लिए सक्षम बने।

पुष्टिमार्गीय भक्ति सर्वथा निष्काम और निरुपाधिक होती है। स्वयं भगवदनुग्रह ही पुष्टिजीव के हृदय में भक्ति का रूप धारण कर लेता है। यह भगवदनुग्रह किसी भी प्रकार के जीवकृत साधनों पर निर्भर नहीं होता, बल्कि यह स्वतःस्फूर्त और निर्हेतुक रूप से प्रकट होता है। जिस जीव के भीतर यह बीजभाव के रूप में विद्यमान होता है, उसी जीव में यह प्रेम, आसक्ति, व्यसन और अलौकिक सामर्थ्य के रूप में अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होने की विभिन्न अवस्थाओं में विकसित होता है, जिसे “पुष्टिभक्ति” कहा जाता है।

भगवदनुग्रह को ही दिशाभेद के आधार पर ‘पुष्टि’ और ‘पुष्टिभक्ति’ कहा जाता है। जब अनुग्रह भगवान से भक्त की दिशा में प्रवाहित होता है, तो उसे ‘पुष्टि’ कहते हैं। और जब वही अनुग्रह जीव के हृदय से पुनः भगवान की दिशा में प्रवाहित होता है, तो उसे ‘पुष्टिभक्ति’ कहते हैं। जब भगवान किसी जीव पर बिना किसी कारण अपनी कृपा या पुष्टि की वर्षा करते हैं, और वह कृपावृष्टि जीव के हृदय के छोटे से प्रदेश में समा नहीं पाती, तब वह उच्छलित होकर पुष्टिभक्ति की सरिता के रूप में बहने लगती है। यह प्रवाह उसी कृपासागर परमात्मा की ओर अग्रसर होता है, जहां से उठकर कृपा के मेघ जीव पर बरसे थे।

अतः, जैसे अनुग्रह के पूर्व कोई कारण नहीं है और अनुग्रह के पश्चात भी कोई प्रयोजन नहीं होता, वैसे ही पुष्टिभक्ति के पूर्व भी कोई कारण नहीं होता और पुष्टिभक्ति के पश्चात भी कोई प्रयोजन नहीं होता। केवल अनुग्रह ही ऐसा तत्व है, जो भक्त के हृदय से परावृत्त होकर पुष्टिभक्ति का रूप धारण कर लेता है।

सुबोधिनी (१-१९-१६):

अतः स्नेहः पदार्थान्तरम्… स भगवन्निष्ठ एव भगवद्विषयको ज्ञानवदैश्वर्यवद्वा भगवत्सम्बन्धातन्नैकट्‌यादन्यत्रापि भासते. उष्णस्पर्शवत् यथा-यथा भगवन्नैकट्यं तथा तथा स्नेहातिशयः

इसलिए, स्नेह एक अलग तत्व है… यह भगवान में निष्ठा (आस्था) ही है जो भगवान से संबंधित ज्ञान और ऐश्वर्य के कारण या भगवान के साथ संबंध और उनके निकटता से, अन्यत्र भी प्रकट होता है। जैसे गर्म वस्तु का स्पर्श होता है, वैसे ही जैसे-जैसे भगवान की निकटता बढ़ती है, वैसे-वैसे स्नेह भी अत्यधिक हो जाता है।

स्वभावतः, प्रवाहमार्गीय ऐहिक पुरुषार्थ—अर्थ और काम की सिद्धि की कामना अथवा मर्यादामार्गीय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थों की सिद्धि की कामना पुष्टिमार्गीय जीव के हृदय में स्थायी नहीं रह सकती। ऐसे पुष्टिभक्तों के पुरुषार्थ—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का स्वरूप अन्य मार्गीय पुरुषार्थों से स्वाभाविक रूप से विलक्षण होता है। श्रीमहाप्रभु ने चतुःश्लोकी में पुष्टिभक्तिमार्गीय पुरुषार्थी के इस विलक्षण स्वरूप को विस्तृत रूप से समझाया है।

चतुःश्लोकी ग्रंथ के चारों श्लोक भागवत की वृत्रासुरचतुःश्लोकी के साथ गहरा साम्य रखते हैं। वृत्रासुरचतुःश्लोकी के भी चार श्लोकों में इन्हीं पुष्टिमार्गीय चार पुरुषार्थों का स्वरूप श्रीप्रभुचरण की विवृति के माध्यम से उपलब्ध होता है। इन चारों श्लोकों में विचारों की अभिव्यक्ति हुई है। प्रारंभ के तीन श्लोकों पर विवृति उपलब्ध है, जबकि अंतिम श्लोक पर श्रीमहाप्रभु द्वारा रचित विवृति उपलब्ध नहीं होती। इस अंतिम श्लोक की विवृति के प्रारंभ में श्रीमहाप्रभु ने एक संग्रहश्लोक दिया है।

इस प्रकार, चतुःश्लोकी ग्रंथ में पुष्टिमार्गीय भक्ति और पुरुषार्थों की सिद्धांतात्मकता को स्पष्ट करते हुए अन्य मार्गों से इसे अलग किया गया है।

पुष्टिमार्गे हरेर्दास्यं धर्मोर्थो हरिरेव हि ।
कामो हरिदिदृक्षैव मोक्षो कृष्णस्य चेद् ध्रुवम्॥

अर्थ: श्रीहरि का दास होना ही पुष्टिमार्गीय धर्म है। पुष्टिभक्तों का वास्तविक अर्थ स्वयं श्रीहरि ही हैं। श्रीहरि के दर्शन की अभिलाषा ही पुष्टिमार्गीय काम है, और सम्पूर्ण रूप से श्रीकृष्ण के अर्पित हो जाना ही पुष्टिभक्त का मोक्ष है।

इसी सिद्धांत का भाष्य वृत्रासुरचतुःश्लोकी में तथा श्रीमहाप्रभु द्वारा रचित चतुःश्लोकी में भी मिलता है। पुष्टिमार्ग में भगवान के साथ जीव का संबंध रसात्मक होता है। रसमीमांसा में रति-स्नेह को संयोग और वियोग के दो पक्षों में विभाजित किया गया है। अतः, भक्तिमार्ग में जब भगवान की अनुभूति केवल संयोग या केवल वियोग में से किसी एक रूप में होती है, तो वह अपूर्ण अनुभूति मानी जाती है। इसे भक्त की साधनावस्था भी माना जाता है।

रस का स्वरूप द्विदलात्मक है; अर्थात, संयोग और वियोग दोनों में जब भगवान की अनुभूति होने लगती है, तो उसे फलावस्था मानी जाती है। इसी आधार पर, धर्म और काम की सिद्धि साधनावस्था के परिपक्व रूप मानी जाती है, जबकि अर्थ और मोक्ष की सिद्धि फलावस्था है।

ब्रजाधिप के भजन में केवल संयोग का अनुभव होता है, जो धर्म का पक्ष है। हरिदर्शन की कामना में केवल वियोग का अनुभव होता है, जो काम का पक्ष है। जबकि अर्थ—भगवान का रसात्मक स्वरूप—द्विदलात्मक है। मोक्ष में, भगवद्भजन के माध्यम से संयोग की अनुभूति और भगवत्स्मरण के माध्यम से वियोग की अनुभूति, जब निरंतर या क्रमशः होने लगती है, तो भगवान की रसात्मक अनुभूति अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेती है, और पुष्टिभक्त को मोक्ष प्राप्त हो जाता है।

पुष्टिभक्तका धर्म

पुष्टिमार्ग में ब्रजाधिप ही अजनीय माने गए हैं, क्योंकि गीता और भागवत के अनुसार, श्रीकृष्ण ही पूर्ण पुरुषोत्तम परब्रह्म और परमानंद स्वरूप हैं। वे अव्यय, अप्रमेय, निर्गुण और गुणात्मा परब्रह्म हैं। जब वे अपनी पूर्णता को लिए हुए व्रज में अपनी नित्यलीला प्रकट करते हैं, तब उन्हें ‘श्रीकृष्ण’ कहा जाता है। श्रीकृष्ण जीवों के साधनबल की परवाह किए बिना अपने स्वरूप और स्वरूपानंद के बल पर सभी जीवों के उद्धारक बनते हैं, चाहे वे सुसाधन, निःसाधन या दुष्टसाधन हों। यही उनके प्राकट्य का परम उद्देश्य है। इसी कारण श्रीकृष्ण को ‘सर्वोद्धारप्रयत्नात्मा’ कहा जाता है।

श्रीकृष्ण सभी जीवात्माओं के अंशी होने के कारण सहज स्वामी हैं। शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद की दृष्टि से, आध्यात्मिक रूप में सभी जीवात्माएँ उनके अंश होने के कारण स्वाभाविक रूप से उनकी दास हैं। परंतु जब श्रीकृष्ण अपनी सहज कृपा को लीलार्थ किसी जीव पर प्रकट करते हैं, तो वे आधिभौतिक रूप में इस भूतल पर और आधिदैविक रूप में व्यापिवैकुण्ठ में उन जीवों को अपनी स्वरूपसेवा का अवसर प्रदान करते हैं। ऐसे जीवों को ‘पुष्टिजीव’ कहा जाता है। यह सेवासंपत्ति जीवात्मा और परमात्मा के बीच अनेक रसात्मक संबंधों द्वारा स्थापित होती है। जैसे सेवक, पुत्र, माता-पिता, सखा या प्रियतमा आदि। जब जीवात्मा और परमात्मा के बीच इन संबंधों का सुदृढ़ भाव आधिभौतिक जगत या आधिदैविक नित्य लीला में स्थापित हो जाता है, तो भगवान का वह स्वरूप और वह लीला पुष्टिस्वरूप और पुष्टिलीला कहलाती है। अखिल ब्रह्माण्ड के नाथ का गोकुलनाथ बनना पुष्टिलीला का प्रतीक है।

श्रीकृष्ण कभी ऐसा प्रकट होते हैं कि सभी जीव उनका दर्शन कर सकें, और कभी ऐसा कि केवल कोई भक्त विशेष ही उनका दर्शन कर सके। अपने इन दोनों प्रकार के प्राकट्य रूपों में, श्रीकृष्ण भक्तों के अधिकार और मनोरथों के अनुरूप व्यापिवैकुण्ठ या ब्रज की लीलाओं को प्रकट कर सकते हैं। भक्तों के भावों के अनुरूप अपने को ढालने की क्षमता के आधार पर, ब्रजलीलाविहारी ब्रजाधिप श्रीकृष्ण व्रजभक्तों के लिए पूर्णतम परमानंद स्वरूप सिद्ध होते हैं। मथुरा या द्वारका के श्रीकृष्ण का स्वरूप भले ही पूर्णतर या पूर्ण परमानंद स्वरूप हो, फिर भी व्रजभक्तों के लिए और व्रजभक्तों की भावना के अनुसार भक्ति करने वाले भक्तों के लिए, ब्रजाधिप श्रीकृष्ण ही समग्र पुष्टिफल के दाता और पुष्टिफल स्वरूप भी हैं।

अनन्यगोकुलस्वामी फलदाता फलात्मक:

व्रजाधिप का भजन किस प्रकार और किस भाव से करना चाहिए? श्रीमहाप्रभु इसका उत्तर देते हैं—“सर्वभावसे”। “त्वमेव सर्व मम देवदेव!” अर्थात्, मेरे माता-पिता, बंधु, मित्र, पुत्र, धन, विद्या—सभी कुछ आप ही हैं। इस प्रकार के भाव के साथ भजन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त, केवल मधुरभाव से भी भजन किया जा सकता है।

जब श्रीकृष्ण परमात्मा, स्वामी, पुत्र, सखा या प्रियतम के रूप में हमारे भावों के आलम्बन (विभाव) बनते हैं, तो उनके प्रति हमारे स्थायी भाव भगवदात्मक ही होते हैं। श्रीकृष्ण के जिस रूप से हम स्नेह करते हैं, वह उनका बाह्य रूप और हमारे हृदय में स्थित स्नेह दोनों ही आधिदैविक और अलौकिक परमानन्द रूप होते हैं। ये न तो लौकिक होते हैं और न ही आधिभौतिक या मायिक। भक्तों के भाव और उनके भावों के आलम्बन दोनों ही श्रीकृष्ण हैं। भाव के आलम्बन के रूप में भगवान् रसभोक्ता हैं और रसभाव के रूप में भगवान् भोग्य भी माने जाते हैं।

कभी-कभी भक्त परवश होकर भगवान् को आलम्बन के रूप में भोग्यभाव प्रकट करते हुए देखते हैं। इसे “गूढ़ स्त्रीभाव” कहा जाता है। जब भोक्तृभाव, ‘पुम्भाव’ कहलाता है और भोग्यभाव, ‘स्त्रीभाव’। जब भोक्ता में रसावेश के कारण भोग्यभाव प्रकट हो जाता है, तो उसे ‘गूढ़ स्त्रीभाव’ कहते हैं। और जब भोग्य में भोक्तृभाव प्रकट होता है, तो उसे ‘गूढ़ पुम्भाव’ कहते हैं।

उदाहरण के लिए, प्रत्येक गुरु में एक छिपा हुआ विद्यार्थी होता है, और प्रत्येक विद्यार्थी में एक छिपा हुआ गुरु। अध्ययन-अध्यापन की दुर्लभ तन्मयता में, गुरु का गूढ़ विद्यार्थीभाव प्रकट हो सकता है। इसी प्रकार, विद्यार्थी का गूढ़ गुरुभाव भी सामने आ सकता है। इन गूढ़ भावों का प्राकट्य पुष्टिमार्ग की पराकाष्ठा है। ये सभी प्रकार के स्वामी-सेवक, पुत्र-माता-पिता, सखा-सखा, या प्रिया-प्रियतम के संबंधों में विद्यमान होते हैं। भक्त और भगवान् के बीच इन गूढ़ भावों को प्रकट करने की इच्छा से भी भगवान् भजनीय हैं।

जिन भक्तों में ऐसा गूढ़ भाव प्रकट हुआ है, अथवा जिन भक्तों के लिए भगवान ने स्वयं अपने भीतर ऐसे गूढ़ भाव प्रकट किए हैं, उन भक्तों के प्रति दैन्यभाव रखते हुए भजन करना चाहिए। जैसा कि कहा गया है, “अहं हरेस्तव पादैकमूलदासानुदासो भवितास्मि”। जब तक हमारे हृदय में कोई एक निश्चित भाव स्थिर नहीं हो जाता, तब तक विभिन्न भावों की भावना करना ही एकमात्र उपाय है।

प्रारंभ में, भगवत्सेवा व्रजभक्तों की भावनाओं के अनुसरण पर आधारित होनी चाहिए। व्रजभक्तों को अपना गुरु मानकर सेवा करनी चाहिए। साधनावस्था में, हमारी भक्ति को भावनाओं के माध्यम से व्रजभक्तों के भावों तक पहुँचाना होगा। भावना को एक दिशा में बहने वाली नदी के समान माना गया है, जो अंततः सागर का रूप ले लेती है। सागर बहता नहीं, केवल लहराता है! अतः व्रजभक्तों की भावनाओं का अनुसरण, माहात्म्यज्ञान-जनित दैन्यभाव और आत्मा-अंश एवं परमात्मा-अंश के सहज निरुपाधिक स्नेह के साथ, प्रारंभ में कृष्ण सेवा करनी चाहिए। इसी प्रकार की भावदीक्षा ब्रह्मसम्बन्ध के समय दी जाती है।

आत्मनिवेदन के समय, हमें अहंता और ममता से जुड़े सभी पदार्थों और संबंधों को भगवान को समर्पित करना होता है। इस सर्वसमर्पण के भाव से भगवद्भजन में प्रवृत्त होना चाहिए। “यः सर्वभावेन” में समस्त भावों का समावेश है।

भजन को किसी कालविशेष में केवल एक कर्मकाण्ड के रूप में अनुष्ठान करके सीमित नहीं करना चाहिए। इसे एक जीवनप्रणाली के रूप में अपनाना चाहिए। सर्वदा और निरंतर, किसी कालविशेष की सीमाओं के बिना भगवत्सेवा में तत्पर रहना चाहिए। भगवद्भक्त की सभी क्रियाएँ—सोना, जागना, कमाना, खाना, या स्नेह और उपेक्षा करना आदि—भगवत्सेवा का ही अंग बन जानी चाहिए। यही सेवा का आदर्श रूप है, जिसमें हर कर्म भगवान की सेवा के रूप में प्रस्तुत होता है।

पुष्टिभक्त के लिए व्रजाधिप श्रीकृष्ण ही भजनीय हैं। यह कथन भजन करने की कोई आदेशात्मक विधि नहीं है। क्योंकि यदि आदेश की अवहेलना के कारण जो दंड मिल सकता है उसका भय न हो, तो आदेश पालन आवश्यक नहीं रह जाता। श्रीमहाप्रभु, अतः आदेश नहीं देते, बल्कि भगवान के भजन की आवश्यकता हमें समझाते हैं।

पुष्टिप्रभु की सेवा न करने वाला पुष्टिजीव अपनी सहज आवश्यकताओं से वंचित रह जाता है। जैसे कोई शिशु अपनी मां के दूध के बिना दुर्बल हो जाए, जैसे कोई प्राणी प्राणवायु के न मिलने पर बेचैन हो जाए, जैसे कोई बीमार औषधि के बिना स्वस्थ न हो पाए, या जैसे कोई खड़ी फसल बरसात न पड़ने के कारण सूख जाए। ठीक इसी प्रकार, जिस पुष्टिजीव से जिस समय या जिस जन्म में कृष्ण सेवा नहीं हो पाती, उसका वह समय और जीवन व्यर्थ चला जाता है। उसके स्वरूप का कोई प्रयोजन या अस्तित्व का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। पुष्टिजीव से ब्रजाधिप की सेवा न निभना नैतिक अपराध नहीं है, बल्कि यह उसके अस्तित्व की निरर्थकता को दर्शाता है। इस अर्थ में, व्रजाधिप का भजन पुष्टिजीवों का प्रथम और चरम सनातन धर्म है—उनके अस्तित्व का गूढ़ तात्पर्य।

उदाहरण के लिए, स्त्री या पुरुष, ब्राह्मण या शूद्र, अथवा गृहस्थ या संन्यासी आदि के धर्म तत्तत देह, वर्ण या आश्रम के अभिमान के कारण हमारे लिए अनिवार्य धर्म बन जाते हैं। मैं स्त्री हूं या पुरुष हूं, मैं ब्राह्मण हूं या शूद्र हूं, मैं गृहस्थ हूं या संन्यासी हूं, इस प्रकार हमारी आरोपित अहंता के कारण तन, देह, वर्ण या आश्रम के कर्तव्य हमारे लिए धर्म बन जाते हैं। इसी तरह, माता-पिता और सन्तान, भाई-बहन, गुरु-शिष्य, मालिक-नौकर, समाज-व्यक्ति, राष्ट्र-नागरिक अथवा प्राणी-मनुष्य के ममताजन्य संबंधों के कारण उनके प्रति तत्तत कर्तव्य का निर्वाह हमारा नैतिक उत्तरदायित्व बन जाता है। इस प्रकार के धर्म, पुष्टिजीव का स्वाभाविक धर्म न होकर केवल औपाधिक धर्म होते हैं।

हम देख सकते हैं कि अहंता और ममता के द्वारा आरोपित सभी कर्तव्य देहाभिमान पर आधारित होते हैं, जबकि भगवत्सेवा का कर्तव्य आत्मा के वास्तविक स्वरूप-बोध पर अवलंबित है। इसलिए अन्य सभी कर्तव्य देश, काल, द्रव्य, मंत्र, कर्म और कर्ता की शुद्धि की अपेक्षा करते हैं, जबकि भगवत्सेवा केवल आवास और संकल्प की अपेक्षा करती है। पुष्टिमार्गीय जीवों के लिए धर्मस्वरूप स्वयं भगवान अथवा उनकी सेवा ही धर्म है। भावात्मक रूप से भगवान को जानने का एकमात्र साधन या प्रमाण भावात्मिका सेवा ही है।

इसीलिए भक्तरत्न वृत्रासुर प्रार्थना करता है:

अहं हरे तव पादैकमूल-
दासानुदासो भवितास्मि भूय: ।
मन: स्मरेतासुपतेर्गुणांस्ते
गृणीत वाक् कर्म करोतु काय: ॥ ६.११.२४ ॥

हे हरि! मुझे मोक्ष की आवश्यकता नहीं है, बल्कि मुझे अपना दास बना लो। मोक्ष में तो त्रिविध दुःखों का निवारण हो जाता है, परंतु मेरे दुःख तो तब ही दूर होंगे, जब आप स्वयं उन्हें हरेंगे। लौकिक अहम के बंधनों से मुक्त होकर ‘सोहम्’ वाला अहं मुझे स्वीकार्य नहीं है। मेरे भीतर ‘दासोहम्’ का भक्तिमय अहं सदा स्थायी रहे, ऐसा वरदान दीजिए। यदि मैं आपके दास बनने योग्य नहीं हूँ, तो मुझे आपके दास का भी दास बना दीजिए। मेरा मन, हे मेरे प्राणनाथ, आपके गुणों का गायन करता रहे। मेरी वाणी आपके गुणों को गाती रहे और मेरा शरीर सदा आपकी सेवा में लीन रहे। मुझे इस प्रकार का आशीर्वाद दीजिए।

इस प्रकार, वृत्रासुर की प्रार्थना भगवत्सेवा के महत्व को रेखांकित करती है और यह दर्शाती है कि भगवद्भक्ति का शुद्ध स्वरूप ‘दासोहम्’ की भावना में निहित है। यह भक्ति जीवात्मा की अहंता और ममता से परे जाकर आत्मसमर्पण और अनन्यता की पराकाष्ठा को व्यक्त करती है।

पुष्टिभक्तका अर्थ

पुष्टिभक्त का अर्थ पुरुषार्थस्वरूप स्वयं भगवान ही हैं। श्रीमहाप्रभु यह आज्ञा देते हैं कि पुष्टिजीवों के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने स्वधर्म, अर्थात भगवत्सेवा को सदा निभाते रहें (एवं सदा स्म कर्तव्यम्)। इस कृष्णसेवा के लिए न तो ऐहिक अर्थोपार्जन के आधिभौतिक व्यापार में उलझने की आवश्यकता है, और न ही पारलौकिक अर्थोपार्जन के लिए अन्याश्रय वाली आधिदैविक वृत्तियों में उलझने की आवश्यकता है। भगवान किसी अन्याश्रय या प्रार्थना की अपेक्षा किए बिना ही भक्तों के हित में आवश्यक ऐहिक और पारलौकिक योगक्षेम तथा स्वयं अपने स्वरूपानंद का दान स्वेच्छा से करते हैं। इसीलिए उनके लिए किसी लौकिक या पारलौकिक साधनों या धन-संपत्ति की अपेक्षा नहीं रहती।

भगवान भावात्मक हैं। वे छोला और छप्पनभोग जैसे पदार्थ, जो भी भावपूर्वक निवेदित किए जाएं, समान रुचि से स्वेच्छा से अंगीकार करते हैं। अतः लौकिक अर्थ और धन-संपत्ति पर यह भगवत्सेवा निर्भर नहीं है।

श्रुति - मुण्डक उपनिषद् (३.२.३) में कहा गया है—

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।

इसका अर्थ यह है कि परमात्मा प्रवचन, मेधा या बहुश्रुतता से प्राप्त नहीं होता। बल्कि, अपनी प्राप्ति के लिए यह जिस जीवात्मा को चुन लेता है, उसे ही मिलता है। उसके समक्ष ही यह परमात्मा अपना स्वरूप प्रकट करता है। अतः इस परमात्मस्वरूप अर्थ का उपार्जन हमारे साधन या व्यापार से संभव नहीं है। जिस जीवात्मा का चयन सर्वसमर्थ परमात्मा करता है, उस जीवात्मा के साधनों की वह परवाह नहीं करता।

भगवत्सेवा के अधिकारी वही जीव होते हैं, जिन्हें भगवान अपनी सेवा के लिए चुनते हैं। भगवान उन जीवों के समक्ष अपने भोग्यस्वरूप गूढ़ स्त्रीभाव को प्रकट करते हैं। जिन जीवों के लिए भगवान स्वयं को समर्पित करने का संकल्प लेते हैं, वे ही जीव भगवान के लिए अपने आप को समर्पित करने में सक्षम होते हैं। इस परस्पर समर्पण के बाद, जीवात्मा और परमात्मा के बीच कोई परदा नहीं रहता। अतः पुष्टिप्रभु का गूढ़ स्त्रीभाव और पुष्टिजीव का गूढ़ पुम्भाव प्रकट हो जाता है। इस गूढ़ संबंध में ही जीवात्मा और परमात्मा का सच्चा मिलन होता है, जो पुष्टिमार्ग का आदर्श है।

व्रतचर्या के प्रकरण में ऋषिरूपा कुमारिकाओं को भगवान ने वरदान दिया था। वे भगवान को अपना पति और भोक्ता बनाना चाहती थीं। भगवान ने उनके चीर हर लिए। यह चीरहरण भगवान में प्रकट हुए गूढ़ स्त्रीभाव का ही परिचय था और जो चीर पुनः कुमारिकाओं को लौटाए गए, वह गूढ़ पुम्भाव का वितरण था। कुमारिकाएँ श्रीकृष्ण के लिए आत्मार्पण का व्रत कर रही थीं, क्योंकि श्रीकृष्ण ने आत्मार्पण हेतु उन्हें वृत कर लिया था, अर्थात् उन्हें चुन लिया था। चीरहरण केवल प्रकट पुम्भाव और स्त्रीभावों का विनिमय था।

इसके पश्चात जो कुमारिकाओं में भोक्तृभाव प्रकट हुआ, वह उनके कात्यायनी व्रत का प्रभाव नहीं था। न ही छह वर्ष की कुमारिकाओं के शरीर, जिनमें न तो तारुण्य और न ही किसी विशेष लावण्य की संभावना थी, का कोई प्रभाव स्वीकार किया जा सकता है। ऋषि-मुनियों के तप और व्रत का भंग तो कामदेव कर सकते हैं, परंतु इन छह वर्ष की कुमारिकाओं में श्रीकृष्ण के प्रति जो मधुरभाव जाग्रत हुआ, उसे जगाने का सामर्थ्य कामदेव का नहीं था। यह केवल स्वयं सर्वसमर्थ श्रीकृष्ण के कामादपि कमनीय रूप का प्रभाव था।

प्रमेय-प्रकरण में श्रुतिरूपा गोपिकाओं के श्रीकृष्ण के प्रति निरुपाधिक स्नेह को शृंगारोपाधिक गूढ़ पुम्भाव के रूप में उसी शृंगाररसमूर्ति श्रीकृष्ण ने रूपांतरित किया था। निरुपाधिक और निराकार स्नेह को शृंगाररस के स्थायिभाव के आकार में वेणुकूजन की छेनी से गढ़ा गया था। अतः श्रीमहाप्रभु कहते हैं, “केवलं शृङ्गारार्थमेव कूजनम्” (सुबोधिनी - वेणुगीत)।

यह वही भगवान हैं, जो अखिल ब्रह्माण्ड के आधार होते हुए भी मां यशोदा की गोद में गुपचुप आकर बैठ सकते हैं। वे सर्वसमर्थ हैं, फिर भी पुष्टिभक्त की सेवा के बिना रह नहीं सकते—इतने असमर्थ भी बन जाते हैं। वे काल, कर्म, स्वभाव, प्रकृति या पुरुष किसी के भी अधीन नहीं हैं, वे पूर्णतः सर्वतंत्रस्वतंत्र हैं। हम परतंत्र हैं, लेकिन वे स्वतन्त्र-परतन्त्र हैं।

इसलिए वे कहते हैं, “अहं भक्तपराधीन हयस्वतन्त्र इव।” अर्थात्, “मैं ‘अस्वतंत्र’ हूँ और भक्तों के अधीन प्रतीत होता हूँ।” हालांकि, यह उनकी कृपा है, जो उन्हें ‘अस्वतंत्र इव’ बना देती है।

वे सर्वसमर्थ और सर्वभोक्ता होते हुए भी भक्तभोग्य बनने में समर्थ हैं। उनके ‘अर्थ’ का महत्व भावात्मक है। यह भावात्मक अर्थ, यदि हृदय की तिजोरी में गुप्त रखा जाए, तो सुरक्षित रहता है। यदि इसका प्रदर्शन किया जाए, तो वह भावाभास बनकर चुराया जा सकता है। इसी कारण, ‘अर्थ’ कहने के बजाय, श्रीमहाप्रभु ने ‘सर्वसमर्थ’ शब्द का उपयोग किया है और अपने अर्थ को गुप्त रखा है।

पुष्टिभाव से भावित प्रभु, जब गुप्त रहते हैं, तो हमें निश्चिंत रहना चाहिए। अन्यथा, यदि बुद्धि और हृदय के द्वार बाहर की ओर खुलें, तो यह गुप्त ‘अर्थ’ चुरा लिया जाता है।

चतुःश्लोकी के द्वितीय श्लोक का यह अर्थ—प्रमेय आलम्बन विभाव के रूप में—अपने रसभोक्ता के पद को छोड़कर हमारे हृदय के स्थायी भाव बनने के लिए उद्यत है, अर्थात् भोग्य रस के रूप में विकसित होने की ओर अग्रसर है। अतः, लोकार्थिताओं के भावों को हमारे हृदय से इस सिद्धांत स्मरण की सूक्ष्मता से हटाना होगा। अन्यथा, हृदय के बाहर इस द्वितीय श्लोक के अर्थ की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, जो केवल हृदय के पूर्ण रूप से स्वच्छ होने पर ही संभव होगी। इन प्रतीक्षा की घड़ियों में बाहर खड़े पुष्टिप्रभु के विषय में हमारे मनोरथ, जो गांव में प्रकट हो गए, तब सब कुछ रसाभास हो जाएगा।

क्योंकि पुष्टिमार्गीय मनोरथ की केवल एक ही दिशा है: “प्रभुः सर्वसमर्थो हि ततो निश्चिन्ततां व्रजेत।” यहां तक कि वृत्र असुर होने के बावजूद इस पुष्टिमार्गीय अर्थ का अन्य किसी ऐहिक या पारलौकिक अर्थ के साथ विनिमय करने का मनोरथ नहीं करता।

वृत्रासुर अपनी प्रार्थना में स्पष्ट करता है:

न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठ्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
समञ्जस त्वा विरहय्य काङ्‌क्षे ॥ ६.११.२५ ॥

मुझे न तो लौकिक सात्विक अर्थ के रूप में स्वर्ग का इन्द्रासन चाहिए, न ही वैदिक राजस अर्थ के रूप में ब्रह्मा की पदवी। मुझे न तो लौकिक राजस अर्थ के रूप में पृथ्वी के समस्त धन का स्वामित्व चाहिए और न ही लौकिक तामस अर्थ के रूप में पाताल आदि लोकों का आधिपत्य। न तो मुझे वैदिक तामस अर्थ, यानी विभिन्न योगसिद्धियों की कामना है, और न ही वैदिक सात्विक अर्थ, अर्थात् पुनर्भव-मोक्ष प्राप्ति की।

मेरे सर्वार्थ स्वयं भगवान हरि हैं, और उनके अलावा मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। “प्रभुः सर्वसमर्थो हि ततो निश्चिन्ततां व्रजेत।”

इस प्रकार, वृत्रासुर अपनी प्रार्थना में भगवत्सेवा के परम और निश्चल अर्थ को स्पष्ट करता है। यह भक्ति न तो लौकिक स्वार्थों पर निर्भर है और न ही वैदिक सिद्धियों पर; यह केवल भगवान के प्रति अटूट समर्पण और अनन्य निष्ठा का द्योतक है। यही पुष्टिमार्गीय भक्ति का सार है।

पुष्टिभक्तका काम

श्रीकृष्ण-दर्शन की कामना ही पुष्टिभक्त का काम पुरुषार्थ है। नेत्रों से श्रीकृष्ण के केवल दर्शन मात्र करने की सीमित अभिलाषा को इसके अर्थ में समाहित नहीं करना चाहिए। श्रीप्रभुचरण यह स्पष्ट करते हैं कि पुष्टिभक्त की कामना मात्र नेत्रों से भगवान का दर्शन कर लेने से पूरी नहीं होती; वह तो अपनी समस्त इन्द्रियों से भगवान की अनुभूति करना चाहता है। अतः नेत्रों से साक्षात्कार होना ही अंतिम फल नहीं है।

इष्टेपि भगवति यावत्सर्वेन्द्रियैः साक्षान्नानुभूयते न तावत्स्वास्थ्यमिति न साक्षात्कारमात्रं फलम्।

श्रीमहाप्रभु आगे निरोधलक्षण ग्रन्थ में आदेश देते हैं कि संसार के अवेश से दूषित इन्द्रियों का वास्तविक हित इसी में निहित है कि उन्हें भूमा-परमानंद स्वरूप श्रीकृष्ण के साथ जोड़ दिया जाए। दर्शन, स्पर्शन, श्रवण, कीर्तन, ध्यान आदि क्रियाओं के माध्यम से अंतर्बाह्य समस्त इन्द्रियों को भगवदभिमुख बनाना चाहिए। जिन इन्द्रियों का भगवत्कर्म में विनियोग संभव न हो, उनके विनिग्रह का प्रयास करना चाहिए।

श्रुति-बृहदारण्यक उपनिषद् (४.४.५) में जीव के बारे में कहा गया है—

काममय एवायं पुरुषः।

यह काम क्या है? हर जीव, चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक, पुष्टिमार्गीय, मर्यादामार्गीय, या प्रवाहमार्गीय हो, सभी अपनी इन्द्रियों के माध्यम से परमानंद की कामना करते हैं।

न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवति आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति

नेत्र, जिह्वा, नासिका, त्वचा या कर्ण के माध्यम से हम केवल रूप, रस, गंध, स्पर्श या शब्द को नहीं, बल्कि परमानंद स्वरूप श्रीकृष्ण को खोज रहे हैं।

इस परमानंद की खोज यात्रा में, शीघ्रता से इसे प्राप्त करने के लिए, जीवात्मा शरीर के रथ पर सवार हो जाती है। वह अपनी बुद्धि को सारथी बनाती है और मन की लगाम से बंधे इन्द्रियों के घोड़ों को तीव्र गति से दौड़ाती है। परंतु ये इन्द्रियों के घोड़े अत्यंत उद्धत और अनियंत्रित होते हैं। वे दौड़ते-दौड़ते मन और बुद्धि के नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं और बेचारे जीव को लौकिक विषयों की वासना के गर्त में गिरा देते हैं।

शरीर का यह रथ भी काल के प्रभाव से जर्जरित होकर टूट जाता है और अंततः नष्ट हो जाता है। इस प्रकार, इन्द्रियों का भगवत्कर्म में विनियोग और भगवत्प्रेम की दिशा में उनका नियंत्रण ही जीवात्मा के लिए सच्चा परमानंद प्राप्ति का मार्ग है। यह मार्ग ही पुष्टिमार्गीय भक्ति का मूल और समग्र स्वरूप है।

प्रवाहमार्ग पर तो यह दुर्घटना प्रतिदिन की वास्तविकता बन चुकी है। मर्यादामार्ग या पुष्टिमार्ग के मोड़ पर, जो जीव अपने रथ की दिशा बदलने में असमर्थ रहते हैं, वे विषय-वासना के गर्त में गिरने से नहीं बच पाते। ऐसे जीवों को “प्रवाहिजीव” कहा जाता है। मर्यादामार्ग की ओर परमानंद की खोज में रथों की दिशा बदलने वाले मर्यादिक जीवों पर इन दुर्घटनाओं का अत्यधिक गहरा प्रभाव पड़ता है। वे मनोनिग्रह का प्रयास करते हुए रथ को किसी प्रकार रोकने का प्रयास करते हैं। कभी-कभी, वे रथ से उतरकर पैदल चलने का प्रयास करने लगते हैं। कभी स्वर्गादि लोकों या आत्मसुख के पड़ावों पर अपनी यात्रा समाप्त कर लेते हैं। कभी असीम और दिशाहीन अव्यक्त उपासना की कठिन यात्रा पर निकल पड़ते हैं, जो कई जन्मों तक पूरी नहीं हो पाती।

ब्रह्मानन्दे प्रविष्टानामात्मनैव सुखप्रमा सङ्घातस्य विलीनत्वात्, भक्तानां तु विशेषत: सर्वेन्द्रियैस्तथाचान्तः करणैरात्मनापि ब्रह्मभावात्… विशिष्यते

इन दुर्दांत घोड़ों के वेग के साथ, ऐसे जीव अपने मन और बुद्धि का सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते और थक-हार कर पैदल चलना ही उचित समझते हैं। (ब्रह्मानंद में प्रविष्ट जीवों की आत्मसुख की प्राप्ति के कारण, उनके सारे लौकिक संबंध विलुप्त हो जाते हैं; परंतु भक्त के लिए यह स्थिति विशेष होती है, क्योंकि वह अपने समस्त इंद्रियों और अंतःकरण के साथ भगवत्स्वरूप का अनुभव करता है।)

श्रीमहाप्रभु कहते हैं—

वैराग्यं च भगवतो ज्ञानं सर्वतापनिवर्तकम्। यत्संस्कारयोग्यं तज्ज्ञानेन नश्यति नश्यति यदयोग्यं तत्परित्यागेन। अतएव स्मार्ते: संस्काराशक्लै परित्याग एवं बोध्यते

अर्थ: ज्ञान और वैराग्य से सारे ताप दूर हो जाते हैं। यदि हम परमानंद स्वरूप श्रीकृष्ण को भलीभांति जान लें, तो सभी लौकिक विषयों को भगवत्समर्पण के संस्कार द्वारा शुद्ध कर सकते हैं। अन्यथा, जो विषय भगवत्समर्पण के संस्कार द्वारा शुद्ध नहीं किए जा सकते, उनका तो त्याग ही करना चाहिए। यही कारण है कि स्मार्त जन, जो संस्कार द्वारा शुद्ध करने में असमर्थ हैं, सभी वस्तुओं के परित्याग का ही उपदेश देते हैं। परंतु व्यर्थ त्याग के स्थान पर, वस्तु को भगवान को समर्पित कर देना अधिक उत्तम है।

यदि किसी वस्तु या व्यक्ति को सुधारना हो, तो सबसे पहले उसे भलीभांति समझना आवश्यक होता है। जब हम स्वयं किसी को समझ ही नहीं पाते, तो उसे सुधारने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। ऐसी स्थिति में परित्याग ही एकमात्र उपाय बचता है।

यह समग्र जगत एक परमात्मा की आत्मक्रीड़ा की अनेक नामरूपों में अभिव्यक्ति है। हम भी ब्रह्म के चैतन्य की आंशिक अभिव्यक्तियाँ हैं। जब हम मूल अंशी के व्यापक प्रयोजन के विपरीत, अज्ञानजन्य अहंता और ममता के वशीभूत होकर किसी तुच्छ प्रयोजन का निर्माण करते हैं, तब से सारी समस्याएँ प्रारंभ हो जाती हैं।

तेज दौड़ने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों के रथ में सवार होकर हम अपनी दिशा भूल जाते हैं। अतः, शरणागति हमारी अहंता का शुद्धि संस्कार है और ब्रह्मसम्बन्ध हमारी ममता का शुद्धि संस्कार। जब अहंता और ममता की शुद्धि हो जाती है, तो हमें अपनी दिशा का बोध होने लगता है। उबड़-खाबड़ विषय वासना के क्षेत्र में रथ दौड़ाने के बजाय, हम पुष्टिमार्ग के सरल और सीधा पथ पर पुनः आरूढ़ हो जाते हैं। विषयों के सेवन से परमानंद प्राप्त नहीं किया जा सकता, परंतु परमानंद के सेवन से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है!

श्रीमहाप्रभु कहते हैं कि चित्त में भगवत्प्रेम का विकास होना अत्यंत आवश्यक है। प्रेम से सम्वलित चित्त सर्वत्र विद्यमान परमात्मा को स्वयमेव खोज लेता है। छांदोग्य उपनिषद्(३.१४.४):

सर्वकर्मा, सर्वकामः, सर्वगन्धः, सर्वरसः, सर्वमिदम्

  • सर्वकर्मा - वह जो सभी कार्य करता है।
  • सर्वकामः - वह जो सभी इच्छाओं को पूर्ण करता है।
  • सर्वगन्धः - वह जो सभी प्रकार की सुगंधों का स्रोत है।
  • सर्वरसः - वह जो सभी रसों (सुखद अनुभूतियों) का मूल है।
  • सर्वमिदम् - यह सब कुछ; समस्त सृष्टि।

श्रीगोकुलाधीश को सर्वात्मना हृदय में धारण करना, सभी इन्द्रियों से उन्हें चाहने की पहली शर्त है। यदि एक बार परमात्मा को हृदय में धारण कर लिया जाए, तो उन्हें नेत्रों से देखा, कानों से सुना, हाथों से पकड़ा और चरणों से उनके निकट पहुंचा जा सकता है। परंतु इसकी प्राथमिक आवश्यकता है, सर्वप्रथम परमात्मा को हृदय में धारण करना।

श्रीमहाप्रभु इस संबंध में कहते हैं - वेणुगीत सुबोधिनी:

भगवता सह संलापो दर्शनं मिलितस्य च।
आश्लेषः सेवनं चापि स्पर्शश्चापि तथाविधः॥
अधरामृतपानं च भोगो रोमोद्गमस्तथा।
तत्कूजितानां श्रवणमाघाणं चापि सर्वतः॥
तदन्तिकगतिर्नित्यमेवं तदद्भावनं सदा।
इदमेवेन्द्रियवतां फलं मोक्षोपि नान्यथा॥
यथान्धकारे नियता स्थितिर्नाणो फलं भवेत्।
एवं मोक्षेपीन्द्रियादियुक्तानां सर्वथा नहि॥

एक कीर्तन का एक श्लोक सुंदरता से कहता है:

गिरधर देखे ही सुख होया नयनवन्त को यही परमफल, यही विधि मोय त्रिलोय।

श्रीमहाप्रभु के अनुसार, श्रीगोकुलाधीश के वियोग की तीव्रता के कारण, हृदय में उत्पन्न होने वाली भगवान की स्वरूपानुभूति और लीलानुभूति ही ‘परमफल’ है। एक बार जब हृदय में भगवान विराजमान हो जाते हैं, तो सभी इन्द्रियों द्वारा उनकी रसात्मक अनुभूति की कामना जागृत हो जाती है। इस कामना के जागते ही अन्य लौकिक और वैदिक विषयों की कामनाओं का आकर्षण स्वतः समाप्त हो जाता है।

भगवान स्वयं कहते हैं, भागवतम् (१०.२२.२६):

न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते
भर्जिताः क्वथिता धाना भूयो बीजाय नेशते।

अर्थ: जिनकी बुद्धि भगवान में लग चुकी हो, उनका काम कामार्थ नहीं रह जाता। जैसे भूजे हुए या उबले हुए धान बीज नहीं बन सकते।

सभी इन्द्रियों से प्राप्त होने वाली भगवदनुभूति को वेणुगीत और भ्रमरगीत की सुबोधिनी में ‘सर्वात्मभाव’, यमुनाष्टक में ‘तनुनवत्व’ और सेवा के फल में ‘अलौकिक सामर्थ्य’ कहा गया है। यह स्थिति ‘निरोध’ की फलावस्था है, जिसे चतुःश्लोकी में ‘मोक्ष’ कहा जाता है। परंतु, इस सर्वेन्द्रियद्वारा भगवदनुभूति को प्राप्त करने से पहले, सभी इन्द्रियों में भगवदनुभूति की कामना का जागृत होना अत्यावश्यक है।

यह कामना जब जागृत हो जाए, तो समझ लेना चाहिए कि पुष्टिमार्गीय काम पुरुषार्थ की सिद्धि हो गई है। यही पुष्टिमार्गीय भक्ति की विशेषता है कि यह अनन्यता, प्रेम और आत्मसमर्पण के साथ भगवान की सर्वात्मा अनुभूति को अपने जीवन का सर्वोच्च ध्येय मानती है।

भागवतम् (१६.११.२६):

अजातपक्षा इव मातरं खगा:
स्तन्यं यथा वत्सतरा: क्षुधार्ता: ।
प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा
मनोऽरविन्दाक्ष दिद‍ृक्षते त्वाम् ॥ २६ ॥

अतएव वृत्रासुर प्रार्थना करते हुए कहते हैं: “हे अरविन्दाक्ष! मेरा हृदय तुम्हारे दर्शन के लिए व्याकुल है।” जब मेरा मन तुम्हारे दर्शन की चाह रखता है, तो वह सभी इन्द्रियों के माध्यम से तुम्हें अपने भीतर प्रवेश कराना चाहता है।

यह इच्छा उसी प्रकार है, जैसे पंख रहित पक्षी के बच्चे अपनी माता की प्रतीक्षा करते हैं, चुग्गे के लिए अनवरत तड़पते हैं। जैसे गाय का बछड़ा अपने लिए गाय के थन से दूध की आकांक्षा करता है। संभवतः, चुग्गा या दूध कहीं और से मिल भी जाए, तो वे संतुष्ट हो सकते हैं। परंतु, मेरा मन इस प्रकार का नहीं है। मेरा मन तो एक विरहिणी प्रेमिका की तरह, जो परदेश गए अपने प्रियतम के लौटने की प्रतीक्षा में निरंतर तड़पती है, पूरी तरह तुम्हारे ध्यान और मनोरथ में तन्मय है। मेरा मन सिर्फ तुम्हें देखना चाहता है। केवल और केवल तुम्हारे दर्शन से ही यह संतोष और परमानंद पा सकता है।

यह वृत्रासुर की श्रीकृष्ण के प्रति उत्कट प्रेम और अनन्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। उनके मन की यह अवस्था हरि के प्रति आत्मसमर्पण और भगवत्स्नेह की उत्कृष्टता को दर्शाती है।

पुष्टिभक्तका मोक्ष

सर्वात्मना श्रीकृष्ण का बन जाना पुष्टिभक्त का मोक्ष है। इसका अर्थ है प्रपञ्च की विस्मृति और श्रीकृष्ण में दृढ़ आसक्ति। जब भक्त को कृष्णानुभूति का व्यसन हो जाए और निरंतर कृष्णानुभूति की तीव्र कामना जागृत हो, तो उसे या तो संयोग में बाह्य आलम्बन से सभी इन्द्रियों द्वारा कृष्ण का अनुभव होता है, अथवा वियोग में, आसक्ति-भ्रम न्याय के अनुसार, पूर्वानुभूत श्रीकृष्ण के स्वरूप और लीला का रोमन्थ इस तरह तीव्र हो जाए कि अंतःस्थित रति ही सभी रूप—आलम्बन, उद्दीपन, तथा सञ्चारी भाव—प्रकट करने लगे।

संयोग में भजन, धर्म और वियोग में स्मरण और स्मर-काम निरंतर चलते रहें, तो भक्त को मुक्त समझना चाहिए। यदि यह अनुभूति इस भूतल पर होने लगे, तो इसे जीवन्मुक्ति कहा जाता है, जिसे ‘तनुनवत्व’ या ‘अलौकिक सामर्थ्य’ भी कहा गया है। जब यह अनुभूति नित्यलीला या व्यापि वैकुण्ठ में होती है, तो इसे विदेहमुक्ति कहा जाता है, जिसे ‘नवतनुत्व’ या ‘सेवोपयोगी देह’ कहा गया है।

संक्षेप में, धर्म और काम के निरंतर चक्र के रूप में चल पड़ना पुष्टिभक्ति में मोक्ष माना जाता है। पुष्टिभक्ति का अर्थ—ब्रजाधिप श्रीकृष्ण, जो स्वयं नटवरवपु हैं, प्रेम और प्रियतम दोनों ही रूप हैं। श्रीकृष्ण ही स्थायिभाव और आलम्बन विभाव का स्वरूप हैं। इसलिए, वियोग और संयोग दोनों में श्रीकृष्ण अनुभूत हो सकते हैं। यही श्रीगोकुलाधीश का स्मरण और भजन है।

श्रीमहाप्रभु कहते हैं, भागवत निबन्ध:

ज्ञानं तु गुणगानं हि परोक्षे तत्प्रतिष्ठितम्।
प्रत्यक्षे भजनं श्रेष्ठम्।
एवं चेद् रोधनं स्थिरं पुरुषाणां तथा स्त्रीणां।
रात्रौ च दिवसे तथा।
जानं भक्तिश्च सततं चक्रवत् परिवर्तते।

अर्थ: भगवान के वियोग में उनके गुणों का गान ज्ञानरूप है और संयोग में प्रत्यक्ष भजन श्रेष्ठ है। इन दोनों के संतुलन से जीव भगवान में स्थिर हो जाता है। व्रज की स्त्रियों और पुरुषों को रात में और दिन में इन्हीं ज्ञान और भक्ति का अनुभव होता था। उनके जीवन में परमानंद स्वरूप श्रीकृष्ण का पूर्ण अनुभव उपलब्ध था।

पुष्टिभक्ति अपने आप में मार्ग भी है और गन्तव्य भी। यह साधन भी है और फल भी। इसीलिए संयोग-वियोग में भजन-स्मरण के चढ़ाव-उतारों में निरंतर चलते रहना ही यहाँ मोक्ष है। पुष्टिमार्ग पर चलकर कहीं और पहुंचना नहीं है। बल्कि इसी मधुर मार्ग पर निरंतर चलते रहना है — चरैवेति! चरैवेति!! चरैवेति!!!

अतः, पुष्टिपथ का पथिक वृत्रासुर भी इस मार्ग की यात्रा में अपने सहयात्री का साथ चाहता है। वह प्रार्थना करता है कि कभी अकेले चलते हुए अन्य मार्गों पर भटक न जाए। वह कहता है: “हे नाथ! मुझे सर्वदा तुम्हारे भक्तों का ही संग-साथ मिले। मैं तुम्हारे भक्तिमार्ग पर चलता रहूं। संसारासक्त व्यक्तियों का सख्य मेरे भीतर कभी न पनपे। यदि यह देह, पुत्र, स्त्री, गृह आदि विषय में मेरी आसक्ति भी हो, तो वह केवल तुम्हारी सेवा में उपयोगिता भर के लिए हो और किसी अन्य उद्देश्य से नहीं।”

इस तरह वृत्रासुर की प्रार्थना पुष्टिमार्गीय भक्ति की गहराई और समर्पण को उजागर करती है। यही पुष्टिमार्ग का दर्शन और उसकी उत्कृष्टता है।