भक्तिवर्धिनी - परिचय
चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार, भक्तिवर्धिनी ग्रंथ श्रीमहाप्रभु ने सांचोरा के पुरुषोत्तम जोशी के लिए लिखा था। एक किवदंती के अनुसार, इस ग्रंथ का प्रणयन वि. सं. १५५२ में हुआ और इसका स्थान प्रयाग माना गया। हालांकि, भावप्रकाश के अध्ययन के अनुसार, ऐसा प्रतीत होता है कि इस ग्रंथ की रचना गुजरात के किसी गाँव में हुई होगी।
उस समय की घटना के अनुसार, श्रीआचार्यजी गुजरात यात्रा पर थे। पुरुषोत्तम जोशी मध्यान्ह के समय एक तालाब पर संध्या-वंदन कर रहे थे। श्रीआचार्यजी भी वहाँ पहुँचे और संध्या-वंदन में शामिल हुए। श्रीआचार्यजी ने पुरुषोत्तम जोशी की ओर कृपा दृष्टि से देखा और उनकी दिव्यता को पहचाना। तब पुरुषोत्तम जोशी ने श्रीआचार्यजी को नमस्कार कर यह प्रश्न किया,
महाराज! यह कर्ममार्ग बड़ा है या ज्ञानमार्ग?
श्रीआचार्यजी ने उत्तर दिया,
जिस मार्ग पर मन में दृढ़ विश्वास हो, वही मार्ग बड़ा है। परंतु सबसे बड़ा मार्ग भक्तिमार्ग है, जिसमें जीव कृतार्थ होता है। ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग अत्यंत कठिन होते हैं और उनका निर्वाह सहज नहीं है। इस युग में शरीर को कष्ट देना संभव नहीं है। अतः भक्तिमार्ग ही ऐसा मार्ग है, जिसमें जीव सरलता से कृतार्थ हो सकता है और आश्रय नहीं खोजता।
इसके पश्चात, पुरुषोत्तम जोशी ने श्रीआचार्यजी से पूछा,
महाराज! भक्ति का स्वरूप क्या है, कृपा कर बताइए।
इस पर श्रीआचार्यजी ने कहा,
भक्ति के स्वरूप का पूर्ण वर्णन करना कठिन है, परंतु मैं तुम्हें थोड़ा समझाता हूँ।
तत्पश्चात, श्रीआचार्यजी ने भक्तिवर्धिनी ग्रंथ के ग्यारह श्लोक रचे और पुरुषोत्तम जोशी को सुनाए। पुरुषोत्तम जोशी ने इस शिक्षा को ग्रहण किया और अपने जीवन में पूरी तरह उतार लिया।
गुजरात के उनके गाँव में इस उपदेश के पश्चात, पुरुषोत्तम जोशी और उनकी पत्नी श्रीमहाप्रभु के अनुयायी बन गए। उन्होंने निष्ठापूर्वक अपने घर में कृष्णसेवा की। वे भगवद्भाव में मग्न होकर अव्यावृत्त जीवन जीने लगे और अपने हृदय के भावों को किसी अन्य के समक्ष प्रकट नहीं किया। यह घटना स्पष्ट करती है कि भक्तिवर्धिनी ग्रंथ का उद्देश्य भक्ति की वृद्धि करना था और इसने पुरुषोत्तम जोशी के हृदय में भक्ति को दृढ़ता से स्थापित किया। यह ग्रंथ पुष्टिमार्गीय भक्ति और उसके आदर्शों का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में अर्जुन का भगवान से प्रश्न ज्ञानयोग और कर्मयोग के बीच की श्रेष्ठता पर था। अर्जुन ने पूछा कि यदि ज्ञानयोग श्रेष्ठ है, तो कर्म की आवश्यकता क्यों है, और यदि कर्म आवश्यक है, तो ज्ञानयोग किस अर्थ में श्रेष्ठ है। भगवान ने स्पष्ट किया कि केवल कर्म का त्याग करने से ज्ञानयोग श्रेष्ठ नहीं हो जाता।
कर्म और ज्ञान का परस्पर संबंध:
भगवान ने बताया कि फलासक्ति-रहित कर्म, जिसे निष्काम कर्म कहा जाता है, ज्ञानयोग के समान लाभ प्रदान करने में सक्षम है। यदि कर्म के फलों में आसक्ति बनी रहे, तो ज्ञानमार्गीय साधक का नैष्कर्म्य भी अपने आप में अर्थहीन हो जाता है। कर्म का त्याग यदि केवल दिखावा हो, तो वह पाखंड कहलाता है।
भगवान का दृष्टिकोण:
भगवान स्वयं, आत्माराम और आप्तकाम होने के बावजूद, कर्मत्याग नहीं करते। लोकसंग्रह की दृष्टि से ही सही, लेकिन उन्हें कर्म अधिक प्रिय है। भगवान कहते हैं कि कोई भी ज्ञानी स्वयं परमात्मा से अधिक निष्काम या आप्तकाम नहीं हो सकता, फिर केवल ज्ञानयोग के नाम पर कर्मत्याग की आवश्यकता क्यों हो?
स्वधर्म का पालन:
भगवान ने यह भी कहा कि चाहे कोई ज्ञानयोगी हो या कर्मयोगी, दोनों को अपने स्वधर्म और स्वकर्म का अनुष्ठान फलासक्ति के बिना करना चाहिए। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि परधर्म का भलीभांति अनुष्ठान भी स्वधर्म के बिना भलीभांति किए गए अनुष्ठान से श्रेष्ठ नहीं है।
अर्जुन ने इस संदर्भ में एक और महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा:
यदि स्वधर्म पालन इतना महत्त्वपूर्ण है, तो क्यों लोग कभी स्वधर्म का त्याग करके या परधर्म का पालन करके पापाचार में प्रवृत्त होते हैं?
काम और क्रोध का प्रभाव:
भगवान ने इसका उत्तर देते हुए कहा कि काम और क्रोध मनुष्य को अपने वशीभूत करते हैं। इनका प्रभाव इतना तीव्र होता है कि ज्ञानियों की ज्ञानाग्नि भी काम के धुएं में घिर जाती है। भगवान ने कहा, भगवद् गीता (३.३७):
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।
यह काम है, यह क्रोध है, जो रजोगुण से उत्पन्न होते हैं। ये महान भक्षी और महान पापी हैं। इन्हें इस संसार में अपना शत्रु जानो।
यहां भगवान ने बताया कि हमारी अहंता और ममता के रजोगुण के साथ संयोग के कारण क्रमशः क्रोध और काम का जन्म होता है। यही काम और क्रोध ज्ञानियों के चिरशत्रु होते हैं।
साधना की सुरक्षा:
काम और क्रोध के रूप में हमारी ममता और अहंता का राजस विस्फोट, साधकों की साधना को भंग कर सकता है। इसे रोकने के लिए विभिन्न मार्गों का प्रवर्तन हुआ है। इन मार्गों के माध्यम से साधकों को उनकी साधना में स्थिरता और सुरक्षा प्रदान की जाती है।
इस प्रकार, भगवान ने अर्जुन को कर्म, ज्ञान, और भक्ति के महत्व को समझाया और इन तीनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का मार्ग दिखाया। भगवान के उपदेश केवल अर्जुन के लिए नहीं, बल्कि समस्त मानव जाति के लिए जीवन और धर्म का एक अद्भुत मार्गदर्शन हैं।
चार मार्ग
बुद्ध का दृष्टिकोण
बुद्ध ने आत्मचेतना को काम और क्रोध के आवेगों से बचाने के लिए इनके मूल—अहंता और ममता—को तोड़ने का उपाय सुझाया। उन्होंने अनात्मवाद पर आधारित ‘नाहम्’ (मैं नहीं) और विज्ञानवाद पर आधारित ‘न मम’ (मेरा नहीं) की भावनाओं को जगाने पर जोर दिया। यह मानों चेतना में जड़ जमाए अहंता और ममता की ग्रंथियों में यदि क्रोध और काम के विष भरे व्रण हो गए हों, तो उन्हें शांत करने के बजाय इन ग्रंथियों की ही शल्यचिकित्सा करना हो।
हालांकि, वैदिक शास्त्रों में यह कठोर शल्यकर्म हर स्थिति में स्वीकार्य नहीं था। इसके विपरीत, वैदिक परंपरा में कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग की प्रणालियों के माध्यम से अधिक सरल और अहिंसक उपचार का मार्ग अपनाया गया।
ये प्रणालियाँ, साधकों की अहंता और ममता को नियंत्रित करने और उसे भगवत्सेवा, आत्मज्ञान, और भक्ति की ओर मोड़ने में सहायक बनीं। इस दृष्टि से, वैदिक मार्ग का उद्देश्य कठोरता नहीं, बल्कि सहजता और सादगी से आत्मा का शुद्धिकरण करना था।
कर्मयोग का दृष्टिकोण
कर्मयोग की प्रणाली, अहंता को तोड़ने पर विशेष बल न देते हुए, ममता को देवताओं से जोड़ने के माध्यम से उपचार प्रदान करती है।
अग्नये स्वाहा अग्नये इदं न मम - सूर्याय स्वाहा सूर्याय इदं न मम
जैसे यज्ञमंत्र इसके उदाहरण हैं।
सकाम कर्म-वृत्ति, जिसमें व्यक्ति
वित्तं च मे, पुत्रं च मे, पशुंश्च मे
“धन मेरा है, पुत्र मेरा है, और पशु भी मेरे हैं” की मानसिकता में डूबा रहता है, उस ममता को
देवतायै इदं न मम
“यह देवता का है, मेरा नहीं” की प्रणाली द्वारा निष्काम कर्म की ओर अग्रसर करना ही कर्मयोग का उद्देश्य है। इस प्रणाली में अपने उपभोग से पूर्व देवताओं के यजन को आवश्यक माना गया है।
गीता का कर्मयोग संबंधी उपदेश:
भगवद्गीता के अनुसार, कर्म किए बिना कोई भी रह नहीं सकता। प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुरूप कुछ न कुछ करने के लिए विवश है। इस स्थिति में, केवल बाहरी कर्मेन्द्रियों को संयमित कर लेना और मन को अनियंत्रित छोड़ देना पाखंड है। वास्तविक योग तो यह है कि मन से इन्द्रियों को नियंत्रित करके कर्मेन्द्रियों से आसक्ति रहित कर्म करना।
गीता सिखाती है:
- नियत कर्म करना त्यागने से श्रेष्ठ है।
- संपूर्ण कर्मत्याग से शरीरयात्रा भी संभव नहीं हो सकती।
- केवल वे ही कर्म बंधनकारी हैं, जो यज्ञार्थ नहीं किए जाते।
- यज्ञार्थ किए गए कर्म, असंगभाव से करते रहना चाहिए।
यज्ञ, प्रजापति द्वारा प्रजाओं के निर्माण के समय से जुड़ा हुआ है। यह हमारे समस्त इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम है। हमें यज्ञ के माध्यम से देवताओं को उनका अंश अर्पित करना चाहिए। यज्ञभावित देवगण हमें हमारी आवश्यकताओं को प्रदान करेंगे। यह आदान-प्रदान ही परम श्रेय का मार्ग है।
यज्ञ का महत्व:
यदि जो हमें देवताओं से प्राप्त हुआ है, उसमें से उन्हें अर्पण किए बिना उपभोग करते हैं, तो हम “चोर” बन जाते हैं। यज्ञ के बाद बचा हुआ अन्न और अन्य वस्तुओं का उपभोग पाप रहित होता है। जो केवल अपने लिए पकाते और खाते हैं, वे वस्तुतः अन्न नहीं, बल्कि पाप का भक्षण करते हैं।
कर्मयोग और ममता का परिष्करण:
इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि कर्मयोग, अहंता को समाप्त करने की अपेक्षा ममता को मार्गदर्शन देकर परिष्कृत करना चाहता है। यदि ममतामय साधक अपने उपभोग से पहले, धैर्य रखकर देवताओं के लिए “इदं न मम” कहना सीख लेता है, तो वह निष्कामता के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है।
हालांकि, प्रारंभिक साधनावस्था में, अहंता और रजोगुण के साथ जुड़ी क्रोध की संभावना कर्मयोग के मार्ग में बार-बार उभरती है। फिर भी, यह मार्ग ममता को स्वस्थ और सकारात्मक रूप में परिवर्तित करता है, जिससे अंततः आत्मसुख या शाश्वत स्वर्ग का सुख प्राप्त हो सकता है।
कर्मयोग की यह प्रणाली लौकिक और वैदिक, दोनों दृष्टियों से एक अत्यंत महत्वपूर्ण साधना का मार्ग है।
ज्ञानमार्ग का दृष्टिकोण
ज्ञानयोग अहंता की चिकित्सा है—उसे स्वस्थ और दिव्य बनाने का प्रयास। जैसे कर्मयोग ममता को देवताओं से जोड़ने की प्रणाली अपनाता है, वैसे ही ज्ञानयोग अहंता को ब्रह्म के साथ जोड़ने का प्रयास करता है। इसे वाक्य रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है:
योहमस्मि ब्रह्माहमस्मि। अहमस्मि ब्रह्माहमस्मि। अहमेवाहं मां जुहोमि स्वाहा।
अर्थात, “मैं जो हूं—ब्रह्म हूं। मैं हूं—मैं ब्रह्म हूं। मैं ही मैं अपने आपको ब्रह्म में होम करता हूं।”
यह प्रणाली व्यक्ति की अहंता को यज्ञ रूपी ब्रह्माग्नि में समर्पित करना सिखाती है, ठीक वैसे ही जैसे कर्मयोग ममता को यज्ञाग्नि में समर्पित करना सिखाता है। लेकिन ध्यान देना होगा कि ब्रह्म को अहंता में होम करना ज्ञानयोग नहीं है; बल्कि, अहंता को ब्रह्माग्नि में होम करना ही ज्ञानयोग है।
वाक्य उद्देश्य और विधेय:
वाक्य में “अहं ब्रह्मास्मि” का उद्देश्य ‘अहं’ है और विधेय ‘ब्रह्म’। इसका वास्तविक अर्थ यह है कि जीवात्मा (जो अहं है) को ब्रह्म मानना ही वास्तविक ब्रह्मबोध है। लेकिन यदि ब्रह्म को अहं मान लिया जाए, तो यह वैसी ही त्रुटि होगी जैसे सभी प्राणियों को केवल गाय मानना।
श्रीशंकराचार्य इस तथ्य को इस प्रकार समझाते हैं:
लहरों को “समुद्र की लहरें” कहा जा सकता है, लेकिन समुद्र को “लहरों वाला समुद्र” नहीं कहा जा सकता। लहरें समुद्र में अपनी आहुति दे सकती हैं, लेकिन समुद्र कभी लहरों में आहुति नहीं दे सकता।
ज्ञानयोग की सीमाएँ:
ज्ञानयोग अहंता की चिकित्सा पर केंद्रित है और इसे ब्रह्म के साथ जोड़ने का प्रयास करता है। लेकिन, यह प्रणाली ममता की उपेक्षा करती है। ममता के विकृत होने पर ज्ञानयोगी के ज्ञान में काम और क्रोध जैसे दोष उत्पन्न हो जाते हैं।
“अहं ब्रह्मास्मि” का जप, यदि असफल रहा, तो इसका ध्यान ब्रह्म से हटकर केवल ‘अहं’ पर केन्द्रित हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप, यह महावाक्य अपने उद्देश्य से भटक सकता है। विफल ज्ञानयोगी की उपेक्षित ममता, उसे रजोगुण के प्रभाव में शिष्येषणा (अनुयायी पाने की इच्छा) जैसी आकांक्षाओं की ओर खींच लेती है।
इसलिए भगवान कहते हैं:
सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति?
अर्थ: ज्ञानी भी अपनी स्वाभाविक प्रकृति के अनुसार कार्य करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति में बंधे होते हैं। यह समझना आवश्यक है कि केवल निग्रह (संयम) पर्याप्त नहीं है।
कर्मयोग और ज्ञानयोग, दोनों ही मुक्तितक पहुंचाने वाले मार्ग हो सकते हैं, लेकिन ये दोनों ही केवल एक—अहंता या ममता—की चिकित्सा करते हैं। इसलिए ये मार्ग अपूर्ण हैं और हमारी काम और क्रोध की समस्याओं का पूर्ण समाधान नहीं कर सकते।
भक्तियोग का दृष्टिकोण
भक्ति का स्वरूप और इसका अर्थ
‘भक्ति’ शब्द भज+क्तिन् से निर्मित है। ‘भज’ धातु का अर्थ है सेवा, और ‘क्तिन्’ प्रत्यय का अर्थ प्रेम। अतः ‘भक्ति’ का समग्र अर्थ होता है, “प्रेम के साथ की जाने वाली सेवा।”
भक्ति, हमारी अहंता और ममता की पूर्ण चिकित्सा है। यह शरणागत पुष्टिजीव को भगवत्सेवा में लगाकर उसकी अहंता को भगवान से जोड़ देती है, लेकिन यह ‘सोहम्’ (मैं वही हूं) की प्रक्रिया से नहीं, बल्कि ‘दासोहम्’ (मैं आपका दास हूं) की प्रक्रिया से होती है। सेवा केवल उसी की सचाई से की जा सकती है, जिसके समक्ष हमारा अहंकार झुक जाए।
पुष्टिमार्गीय भक्ति का मर्म:
पुष्टिभक्त, व्रजाधिप श्रीकृष्ण के सामने अपने अहंकार को “श्रीकृष्णः शरणं मम” या “दासोहम् कृष्णस्तव” कहकर समर्पित करता है। अहंकार के झुकते ही तन को भी झुकना पड़ता है। अतः, सिद्धांतमुक्तावली में तन से की जाने वाली सेवा (तनुवितजा सेवा) और सिद्धांत रहस्य में सर्वसमर्पण की महत्ता को समझाया गया है। इसी भावना से चतुःश्लोकी में व्रजाधिप के भजन को स्वधर्म बताया गया है।
भक्ति में प्रेम और ममता का महत्व:
संस्कृत भाषा का नियम है कि किसी शब्द के घटक (प्रकृति और प्रत्यय) अपने-अपने अर्थ का बोध साथ-साथ कराते हैं। ‘क्तिन्’ प्रत्यय, भक्ति में प्रेम का बोध कराता है, जो ‘भज’ धातु के सेवा के अर्थ से भी प्रधान है। प्रेम मन के झुकने पर प्रकट होता है, और जहां मन झुकता है, ममता भी उसी ओर मुड़ जाती है।
चतुःश्लोकी और पुष्टिमार्ग:
चतुःश्लोकी में श्रीकृष्ण के प्रति ममता को मोड़ने की प्रक्रिया को पुष्टिमार्गीय काम (आध्यात्मिक इच्छा) कहा गया है। भजन और स्मरण का निरंतर चक्र, मोक्ष की अनुभूति माना गया है।
- भजन (अपरोक्ष या प्रत्यक्ष सेवा): यह हमारी अहंता के श्रीकृष्ण से जुड़ने का चिन्ह है।
- स्मरण (परोक्ष या मानसिक तन्मयता): यह हमारी ममता के श्रीकृष्ण से जुड़ने का चिन्ह है।
पुष्टिभक्ति, अहंता और ममता को न तो तोड़ती है और न मुक्त छोड़ती है। इसके स्थान पर, वह इन्हें व्रजाधिप श्रीकृष्ण से जोड़ देती है। जिस क्षण यह दोनों श्रीकृष्ण से भलीभांति जुड़ जाती हैं, वही क्षण पुष्टिजीव के लिए मोक्ष का है।
भक्ति हमारी अहंता और ममता को स्वस्थ, सुखद और क्लेशरहित बनाती है। इसी कारण से, श्रीमहाप्रभु ने पुरुषोत्तम जोशी को यह समझाया था कि:
ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग कृतार्थ होने में कठिन हैं। अतः भक्ति मार्ग ही ऐसा है, जिसमें जीव कृतार्थ हो सकता है और उसे किसी अन्य आश्रय की आवश्यकता नहीं होती।
भक्ति ही हमारी संसार-रोग की पूर्ण चिकित्सा है, और इस कारण भक्ति-रसायन के अनुपान को बढ़ाया जाना आवश्यक है। वस्तुतः भक्ति को औषधि मानना भी इसकी पूर्ण महत्ता का वर्णन नहीं करता, क्योंकि भक्ति पुष्टिजीव के लिए औषधि से अधिक, स्वयं स्वास्थ्य का स्वरूप है। परमात्मा के प्रति जीवात्मा की भक्ति का अभाव, जीवात्मा के अस्वास्थ्य का लक्षण है। इसी प्रकार, पुष्टिप्रभु व्रजाधिप श्रीकृष्ण के प्रति पुष्टिजीव का पुष्टिभक्ति भाव से रहित होना भी उसकी अवस्वस्थता का परिचायक है। भगवद्गीता के छठे अध्याय की समाप्ति पर भगवान कहते हैं कि
कर्ममार्गीय और ज्ञानमार्गीय तपस्वी साधकों में, जो योगी हैं, वे श्रेष्ठ हैं। परंतु योगियों में भी श्रद्धा से जो अपनी अंतःकरण को मेरे साथ जोड़कर मेरा भजन करते हैं, वे मुझे सबसे प्रिय लगते हैं।
इस संसार में, आहार-विहार की उन अनियमितताओं के कारण, जिनसे हम अपनी अहंता और ममता को अस्वस्थ बना लेते हैं, श्रीमहाप्रभु का स्वास्थ्यवर्धक उपदेश ‘भक्तिवर्धिनी’ को समझना और उसे हृदय में धारण करना अत्यंत आवश्यक है। भगवान ने अपनी अनुकंपा के कल्पतरु से जुड़े भक्ति-कल्पलता की वृद्धि के उपाय बताए हैं, जिन्हें जानना आवश्यक है।
भक्ति उन जीवात्माओं में प्रकट होती है, जिन्हें भगवान ने भक्ति के लिए वरण किया है। परमात्मा द्वारा भक्ति के लिए चयन किया गया जीवात्मा में यह बीजभाव सदैव विद्यमान रहता है। सत्संग, गुरुकृपा, अथवा शास्त्र के तात्पर्य-निर्णय के अनुकूल वातावरण में यह अंकुरित हो सकता है। श्रीप्रभुचरण बताते हैं कि स्वयं परमात्मा इस एकांतभक्ति अथवा व्रजभक्ति के बीज को बोते हैं। वे इसे सत्संग और गुरुकृपा के जल से सींचते हैं। अपने अनुग्रह-कल्पतरु का सहारा देकर इसे ऊपर उठाते हैं। भक्ति-कल्पलता के पुष्पों और फलों की रक्षा भी एक सावधान माली की तरह स्वयं करते हैं। ऐसे में, भक्ति-कल्पलता का नष्ट होना या मुरझा जाना उन्हें कैसे स्वीकार्य हो सकता है? अतः पुष्टिभक्ति का बीजभाव अनश्वर होता है। यह जन्म-जन्मांतरों तक नष्ट नहीं होता। जैसे ऋतु-चक्र के अनुसार किसी ऋतु में वृक्ष पर फूल खिलते हैं और किसी में नहीं, वैसे ही भक्तिभाव भी किसी जन्म में प्रेम का स्वरूप ले लेता है और किसी में नहीं।
श्रीमहाप्रभु यह दिखाना चाहते हैं कि भक्ति की कल्पलता इतनी सघन हो जाए कि वह पुष्टिप्रभु के कृपा-कल्पतरु के इर्द-गिर्द इस प्रकार फैल जाए कि उनके पल्लवों को अलग करना कठिन हो जाए। जब लता दृढ़ता से वृक्ष के साथ लिपट जाती है, तब उसके नष्ट होने या मुरझा जाने का भय समाप्त हो जाता है। इसे ही “बीजभाव की दृढ़ता” कहा गया है।
भक्ति की पूर्णता को बढ़ावा देने के साधन
जिन जीवों में भक्ति का बीजभाव दृढ़ हो जाता है, वे निःसंकोच श्रवण-कीर्तन की प्रणाली से भगवान की मानसी सेवा में संलग्न रह सकते हैं। ऐसे भक्त गृहत्याग भी कर सकते हैं। परंतु, जिनका बीजभाव दृढ़ नहीं है, उन्हें गृहत्याग नहीं करना चाहिए। अपने घर में रहते हुए ही उन्हें भगवत्सेवा और भगवद्कथा में संलग्न रहना चाहिए। ऐसा करने से उनका बीजभाव धीरे-धीरे दृढ़ होगा।
बाह्याभ्यन्तरभेदेन रूपे भेदद्वयं मतम्।
नाम्नि चैकं ततस्त्रेधा भक्तिमार्गो निरूपितः।
भक्ति के तीन भेद होते हैं:
- भगवत्स्वरूप का बाह्य भजन
- भगवत्स्वरूप का आन्तरिक भजन
- भगवन्नामात्मक भागवत का श्रवण-चिन्तन-कीर्तन
जिस भक्त का बीजभाव दृढ़ हो गया हो, अर्थात पुष्टिभक्ति भगवत्प्रेम के रूप में अंकुरित, भगवदासक्ति के रूप में पल्लवित और भगवद्व्यसन के रूप में फलित हो गई हो, ऐसे भक्त के लिए भगवद्व्यसन के स्वाभाविक गुण के कारण ही भगवान के विरह की तीव्र अनुभूति होती है। यह अनुभूति उसे सिद्धान्तमुक्तावली में वर्णित मानसी सेवा, अर्थात भगवत्स्वरूप का आन्तरिक भजन, सिद्ध करा देती है। जब भक्त का सर्वात्मभाव सिद्ध हो जाता है, तो आसक्ति-भ्रम न्याय के अनुसार उसकी सभी इन्द्रियों का भगवान में विनियोग भी स्वतः सिद्ध हो जाता है। ऐसे भक्तों के लिए भगवान की उपस्थिति सर्वत्र अनुभव होती है। उनके जीवन में घर और बाहरी संसार का भेद समाप्त हो जाता है। चाहे वे घर में बैठे हों या बाहर, उनके मन और इन्द्रियों से निरंतर भगवान की अनुभूति होती रहती है।
ऐसे भक्त, जैसे आसकरणदासजी, के लिए घर में रहना अनिवार्य नहीं रह जाता। वे गृहत्याग कर सकते हैं, और भगवल्लीलाओं का श्रवण, भगवान के स्वरूप, गुण और लीलाओं का चिंतन, तथा उनके कीर्तन के आनंद में डूबे रह सकते हैं। कभी-कभी भगवद्विरह की तीव्र तड़प में, ऐसे भक्त कब घर छोड़कर बाहर निकल जाते हैं, यह उन्हें स्वयं भी ज्ञात नहीं होता।
विरहानुभवार्थं तु परित्यागः प्रशस्यते।
सर्वनिर्णय-निबन्ध में श्रीमहाप्रभु कहते हैं कि जो केवल श्रीकृष्ण को ही अपना स्वामी मानकर, आन्तरिक और बाह्य रूप से सभी भौतिक बंधनों का त्याग कर, श्रीकृष्ण की विभूतिरूप सभी देवताओं का सम्मान करते हुए, देहपात तक अपने मन को श्रीकृष्ण में एकाग्र करते हैं, उनकी वाणी और काया का श्रीकृष्ण में विनियोग हो पाए या नहीं, उनके मन की स्नेहमयी एकाग्रता उन्हें श्रीकृष्ण में सायुज्य का लाभ प्रदान कराती है।
परंतु, भगवत्प्रेम के प्रबल प्रवाह के कारण, दारा, आगार, पुत्र, आत्मीयजन और वित्त आदि में जिनकी ममता की दीवार ढह जाती है और जो उस प्रवाह की तीव्र धारा से घर के बाहर बहा दिए जाते हैं, ऐसे भक्त व्यसनदशा के परम भावों की भंवर में बार-बार डूबते और उभरते रहते हैं। करोड़ों भक्तों में कभी-कभी ही कोई ऐसा भाग्यशाली कृष्णव्यसनी बन पाता है, जो इस दशा को प्राप्त करता है।
बीजभाव की ऐसी दृढ़ता के अभाव में गृहत्याग करना श्रेयस्कर नहीं होता। अतः पहले बीजभाव को दृढ़ होने तक धैर्य रखना चाहिए।
त्याग और वैराग्य यदि भगवदनुराग की तीव्रता के कारण प्रकट हो रहे हों, तो उन्हें स्वस्थ और सरस मानना चाहिए। परंतु संसार में केवल दोषदृष्टि के कारण जो वैराग्य उत्पन्न होता है, वह नीरस, शुष्क और अस्वस्थ होता है। ऐसे अस्वस्थ वैराग्य के प्रभाव में व्यर्थ किसी भी वस्तु का त्याग करने के बजाय उसे भगवान को समर्पित करना चाहिए। हमारी अहंता और ममता के विषयों का त्याग किए बिना उन्हें श्रीकृष्ण को समर्पित कर, उनकी सेवा में उपयोग लाने से बीजभाव दृढ़ हो सकता है।
श्रीमहाप्रभु कहते हैं कि अव्यावृत्त होकर स्वगृह में रहते हुए स्वधर्म-भगवत्सेवा और भगवत्कथा से युक्त जीवन जीने से बीजभाव दृढ़ होता है:
बीजदायप्रकारस्तु गृहे स्थित्वा स्वधर्मतः अव्यावृत्तो भजेत् कृष्णं पूजया श्रवणादिभिः।
स्वगृह में रहते हुए स्वधर्म-भगवत्सेवा के विषय में श्रीमहाप्रभु ने शास्त्रार्थ प्रकरण में एक अद्भुत बात बताई है। ब्रह्मानंद प्राप्ति के लिए मोक्ष की चाह रखने वाले भक्तों को यह समझना चाहिए कि साध्य मोक्ष के बजाय साधन भक्ति अधिक श्रेष्ठ है। जो जीव मुक्त होते हैं, वे देह, इंद्रिय और अंतःकरण के संयोग को छोड़कर ही मुक्त हो पाते हैं—उनकी केवल आत्मा ही परमात्मा में लीन होती है। जबकि भक्त के लिए तो उसका देह, इंद्रिय, प्राण, गृह, परिवार आदि सभी कुछ भगवान की सेवा में उपयोगी हो जाते हैं। भक्त का संसार भी ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।
अतः जीवन्मुक्ति के बजाय भगवद्कृपा के साथ गृहस्थ जीवन ही श्रेष्ठतर होता है। बीजभाव को दृढ़ करने के लिए यह आवश्यक है कि स्वगृह में रहते हुए स्वधर्म का पालन करते हुए भगवद्भजन में तत्पर रहें।
घर में रहते हुए स्वधर्माचरण का त्याग संभव नहीं, परंतु स्वधर्म की व्याख्या करना सरल नहीं है। ‘स्वधर्म’ का प्राथमिक अर्थ होता है, स्वयं के वर्ण और आश्रम के अनुकूल शास्त्रविहित आचरण करना। जब तक यह देह है और इसके साथ हमारी अहंता और ममता जुड़ी हुई है, तब तक वर्णाश्रम धर्म ही स्वधर्म है। परंतु जब देहाभिमान शिथिल होने लगे, तभी भगवद्भक्ति या भगवत्सेवा आत्मदृष्टि से स्वधर्म बन जाती है। तब वर्णाश्रम धर्म भी परधर्म के समान हो जाता है।
श्रीमहाप्रभु कहते हैं कि इस देहाभिमान और आत्माभिमान के जटिल विवेक के साथ वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए कृष्णभजन में तत्पर रहना चाहिए। कृष्णभक्ति में, जैसा कि पूर्व में कहा गया है, अहंता को स्वस्थ करने का उपाय कायिक सेवा है, और ममता को स्वस्थ करने का उपाय चित्त को कृष्णप्रेमप्रवण बनाना है। तदनुसार, अपरोक्ष में पूजा से काया को भजन में संलग्न करना होता है, और परोक्ष में श्रवण, चिंतन, और कीर्तन से मन को भजन में प्रवाहित करना होता है।
स्नेह की दृढ़ता के अभाव में, काया के माध्यम से प्रेमसेवा का निभाना कठिन हो सकता है। परंतु भगवान के माहात्म्यज्ञान के आधार पर पूजा अवश्य निभाई जा सकती है। पुष्टिप्रवाहमर्यादाग्रंथ में इस प्रकार की पूजा को “प्रवाहेण क्रियारताः” कहकर व्यक्त किया गया है। सर्वनिर्णय में २२७वीं से २४६वीं कारिका तक भजन के इसी क्रियापक्ष का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है। इसमें गृहस्थ जीवन में इसकी महत्ता को “एतत्सर्वं प्रयत्नेन गृहस्थस्य प्रकीर्तितम्” कहकर विशेष रूप से बताया गया है।
२४०वीं कारिका में श्रीमहाप्रभु यह स्पष्ट करते हैं कि श्रवण और कीर्तन के माध्यम से जब भगवान हरि हृदय में प्रविष्ट हो जाते हैं, तभी पूजा का निर्वहन निर्व्यग्र होकर संभव होता है। अतः यदि पूजा को मात्र एक क्रिया रूप में सीमित न रखना हो, तो श्रीमद्भागवत में वर्णित भगवान के स्वरूप, गुण, और लीलाओं के श्रवण, चिंतन और कीर्तन की प्रक्रिया द्वारा उसे प्रेममय बनाना आवश्यक है।
प्रेम्णो अन्यत् साधनं लोके नास्ति मुख्यं परं महत् श्रीभागवतमेवात्र परं तस्य हि साधनम्। (सर्वनिर्णय)
प्रेमरहित क्रिया से अक्सर व्यग्रता उत्पन्न होती है। इसी कारण श्रीमहाप्रभु कहते हैं: “सप्रेम इत्यनुद्वेगार्थम्” (सर्वनिर्णय २३०)। पूजा करते समय यदि अनन्यभाव उत्पन्न न हो, तो व्यक्ति अव्यावृत्त होकर भजन नहीं कर सकेगा, और भक्ति के स्थान पर मानसिक व्यग्रता बढ़ जाएगी।
भक्तिमार्गीय जीवों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है—
- अव्यावृत्त और
- व्यावृत्त।
इन दोनों प्रकार के जीवों की भक्ति के बीजभाव को दृढ़ करने के उपायों को भी श्रीमहाप्रभु ने दर्शाया है।
अव्यावृत्त और व्यावृत्त अधिकारियों की भक्ति के बीजभाव को दृढ़ करने के उपाय:
सभी इन्द्रियों और मन की उतावली (जैसे “पहले मैं” की भावना) को छोड़कर भगवान के कार्यों में संलग्न होने की वृत्ति, अर्थात सेवा में तत्परता, हमारी अहंता का भगवान में विनियोग है। इस प्रकार का विनियोग करने के लिए अनन्यभाव का होना आवश्यक है। ‘भाव’ का अर्थ है—हमारे अंतःकरण में निहित रुचि या अभिप्राय। जब यह रुचि केवल भगवान के प्रति हो, तो इसे ‘अनन्यभाव’ कहते हैं।
यदि रुचि या अभिप्राय निम्नलिखित में हो:
- किसी अन्य देवता के प्रति,
- अन्य लौकिक वस्तु या व्यक्ति के प्रति, अथवा
- पुष्टिमार्गीय फल से भिन्न किसी अन्य फल के प्रति,
तो हमारी कृष्णभक्ति अनन्यभावात्मक नहीं बन पाएगी।
इसलिए, भक्ति को अनन्यभावात्मक बनाने के लिए श्रीमहाप्रभु के उपदेशों का पालन आवश्यक है। यह भक्ति ही हमारे मन और हृदय को भगवान के प्रति समर्पित और स्थिर बनाती है।
‘अनन्यभाव’ वाले भक्त ही अव्यावृत्त हो पाते हैं। जिनकी भक्ति अनन्यभावात्मक नहीं होती, वे अव्यावृत्त नहीं हो सकते। अन्य भाव हमारे देह और अंतःकरण को व्यावृत्त बनाए रखते हैं। वे अपनी पूर्ति की कामना के भावों को हमारे भीतर उत्पन्न करके हमें व्यावृत्त कर देते हैं। इससे हमारे लिए अव्यावृत्त भजन संभव नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में पुष्टिभक्ति मार्ग पर चलने के निर्णय के बावजूद भी हृदय पूर्वोक्त अन्य भावों की पूर्ति के प्रयास में इधर-उधर भटकता रहता है—व्यावृत्त रहता है।
इस प्रकार, यदि भक्त श्रीकृष्ण की पूजा या कायिक सेवा करते भी रहें, तो वह सेवा फल में वर्णित भोग, उद्वेग और प्रतिबंधों से रहित सेवा नहीं हो पाती। फलस्वरूप, चित्त में व्यग्रता बढ़ने का कारण बनती है।
श्रीमहाप्रभु आज्ञा देते हैं कि देवताओं, पदार्थों, अन्य मार्गों, या अन्य फलों के कारण जिनके देह और अंतःकरण बाह्य और आंतरिक रूप से व्यावृत्त न हों, ऐसे जीवों को भगवत्पूजा और भगवत्कथा दोनों में ही तत्पर रहना चाहिए। लेकिन, जिनके देह या अंतःकरण किसी न किसी प्रकार से व्यावृत्त हैं, उन्हें कृष्णसेवा का अनुष्ठान सहसा प्रारंभ नहीं करना चाहिए।
प्रारंभ में, केवल भगवत्कथा के श्रवण, चिंतन, और कीर्तन की प्रक्रिया द्वारा चित्त को अनन्यभावयुक्त अव्यावृत्त बनाना चाहिए। सुबोधिनी (३.२५.२२):
… भावान्तरसहितो वा। स हि देवतान्तरविषयः पदार्थान्तरविषयः मार्गान्तरविषयो वा। तत्सहभावोत्र निषिध्यते फलभावश्च।
इस सुबोधिनी की भागवतकारिका में भक्तिका स्वरूप इस प्रकार दिखाया गया है। श्रीमहाप्रभु के मार्गदर्शन के अनुसार, भावों की शुद्धि और अनन्यता ही भक्ति को सार्थक बनाती है। इससे भक्त का हृदय भगवान में संलग्न रहता है और वह व्यावृत्तता से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार की भक्ति ही वास्तव में पुष्टिमार्ग का सच्चा स्वरूप है। भागवत (३.२५.२२–२४):
मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढाम्।
मत्कृते त्यक्तकर्माणस्त्यक्तस्वजनबान्धवाः॥
मदाश्रयाः कथामृष्टा: शृण्वन्ति कथयन्ति च।
त एते साधवः साध्वि! सर्वसङ्गविवर्जिताः।
सङ्गस्तेष्वथ ते प्रार्थ्य: सङ्गदोषहरा हि ते ॥
व्याख्या: जो भगवान में अनन्यभाव रखते हुए दृढ़ भक्ति करते हैं और जिन्होंने आलस्यवश नहीं, अपितु भगवदर्थ वेदादि शास्त्रों में वर्णित अलौकिक कर्मों तथा लौकिक स्वजन-बांधवों का त्याग किया हो, ऐसे भक्तों की संगति करनी चाहिए। निरंतर भगवत्सेवा अथवा भगवत्स्मरण के मार्ग में सभी कर्म और सम्बन्ध किसी न किसी रूप में बाधक होते हैं और अनन्यभाव में व्याघात उत्पन्न करते हैं। अतः इन बाधाओं से स्वयं को व्यावृत्त किए बिना पूजा, श्रवण आदि में तत्पर होना संभव नहीं है।
सभी अधिकारियों में इस प्रकार की स्वरूपासक्ति संभव नहीं होती। इसलिए, जिनकी भगवान के स्वरूप, गुण, और लीलाओं के श्रवण और कथन में गहरी आसक्ति हो, ऐसे भक्तों का सत्संग करना चाहिए। ऐसे भगवद्भक्तों के सत्संग से उनके मुख से कथा श्रवण करने और स्वयं चिंतन एवं कीर्तन करने से, लौकिक विषयों से ममता हटकर भगवान से जुड़ने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।
अतः श्रीमहाप्रभु यह शिक्षा देते हैं कि जो भक्त व्यावृत्त हैं, उन्हें स्वरूपभजन के स्थान पर नामभजन में प्रवृत्त होना चाहिए। श्रवण, चिंतन और कीर्तन की प्रणाली के माध्यम से उनका बीजभाव प्रेम, आसक्ति और व्यसन की अवस्थाओं में विकसित हो सकेगा। इस प्रकार, नामभजन की प्रक्रिया भक्ति के बीजभाव को धीरे-धीरे दृढ़ बनाती है और अनन्यभाव की ओर अग्रसर होने में सहायता करती है। यही मार्ग व्यावृत्त अधिकारियों को भक्ति के उच्चतम स्तर तक पहुँचने में समर्थ बनाता है।
बीजभाव तभी दृढ़ हुआ समझना चाहिए जब हमारे देह और अंतःकरण की व्यावृत्ति देवता-आंतर, पदार्थ-आंतर, मार्ग-आंतर और फल-आंतर के संदर्भ में न्यून से न्यूनतर होती हुई पूरी तरह समाप्त हो जाए। जिनके लिए घर में भगवत्सेवा संभव नहीं होती, लेकिन जो भगवत्कथा के श्रवण, भावना और कीर्तन की प्रणाली के माध्यम से अपनी भक्ति के बीजभाव को दृढ़ करने का प्रयास करते हैं, उन्हें इस यात्रा में निम्नलिखित क्रोशस्तंभ अपनी भक्ति के मार्ग में मिलते हैं:
भगवत्स्नेह का अंकुरण
जब बीजभाव भगवत्स्नेह के रूप में अंकुरित होता है, तो गृहस्थ अपने घर-परिवार के प्रति अनुराग से मुक्त हो जाता है। यह अवस्था अत्यंत विलक्षण होती है। जैसे ही भगवान के प्रति अनुराग बढ़ता है, वैसे ही भगवद्भक्ति में अनुपयोगी हर वस्तु, जैसे घर-परिवार आदि में, अनुराग घटने लगता है।
परंतु जो अव्यावृत्त होकर अपने घर में भगवत्सेवा के लिए निवास करते हैं, उनका अनुराग समाप्त होना आवश्यक नहीं है। क्योंकि उनका घर उनकी अहंता-ममता को संतुष्ट करने के लिए नहीं होता, बल्कि भगवत्सेवा का स्थल—भगवन्मंदिर—होता है। उनका परिवार भी सांसारिक ममता के बंधन से बंधा हुआ नहीं होता, बल्कि यह भक्तिके बंधन में बंधा हुआ परिवार होता है जो भगवत्सेवा में तत्पर रहता है। अतः प्रेमात्मा बीजभाव अंकुरित होता है, लेकिन उनके घर-परिवार के प्रति अनुराग का विनाश नहीं होता।
भगवदासक्ति का प्रकट होना
भगवत्कथा मार्ग से बीजभाव को दृढ़ करने की दिशा में आगे बढ़ने वाले यात्री को द्वितीय क्रोशस्तंभ भगवदासक्ति के रूप में मिलता है। जैसे ही भगवदासक्ति प्रकट होती है, अपने घर-परिवार में जो अनुराग खंडित हुआ था, वह अब घर-परिवार के प्रति अरुचि का रूप धारण करने लगता है। भगवदासक्त भक्त को यह प्रतीत होने लगता है कि उसका घर और परिवार न केवल उसकी कृष्णभक्ति में अनुपयोगी है, बल्कि वे उसकी कृष्णासक्ति में किसी न किसी प्रकार बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। यही मनोभाव उसके भीतर घर-परिवार के प्रति अरुचि उत्पन्न करता है।
जो व्यक्ति अभी तक अपने घर और उसमें रहने वाले माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री या बंधु-बांधवों को अपना मानता था, उसे अब यह लगने लगता है कि ये मेरे सगे नहीं हैं। क्योंकि ये मेरी श्रीकृष्ण के प्रति हृदय की आसक्ति में अपना हिस्सा बांटना चाहते हैं। हर परिवार का सदस्य स्वाभाविक रूप से चाहता है कि दूसरा सदस्य उसके प्रति आसक्त रहे। यही मांग भगवदासक्त भक्त को अरुचिकर लगने लगती है।
परंतु, जो अपने घर में रहते हुए श्रीकृष्ण की सेवा करते हैं, उनके भीतर भगवदासक्ति तो प्रकट होती है, लेकिन घर-परिवार के प्रति अरुचि प्रकट होने का कोई कारण नहीं होता। उनका घर और परिवार भगवान की सेवा का माध्यम बनता है। यही संतुलित भक्ति का स्वरूप है।
व्यसनदशा का क्रोशस्तम्भ
भगवत्कथा-प्रणाली से भक्तिमार्ग पर आगे बढ़ने वाले यात्री को तीसरे क्रोशस्तम्भ पर व्यसनदशा की अनुभूति होती है। इस अवस्था में पहुँचने वाला भक्त अत्यंत विकल और बेचैन हो जाता है। अब वह भगवान के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। भगवान के स्वरूप का चिंतन, उनके गुणों का स्मरण, और उनकी विविध लीलाओं की भावना में तल्लीन भक्त का मन अब अपनी भक्ति के मार्ग में कोई भी रुकावट या व्यवधान सहन नहीं कर पाता। वह असहिष्णु हो जाता है और उसे श्रीकृष्ण का व्यसन हो गया समझा जाता है।
यही वह अवस्था है, जहाँ भक्त यह समझने लगता है, सुबोधिनी (३.१.२):
गृहस्थितेरुत्कृष्टत्वं न भगवदीयत्वमात्रेण किन्तु भगवता सह स्थित्या भगवत्कार्यार्थं वा अन्यथा न स्थातव्यम्।
अर्थात, अपने आपको भगवदीय मान लेना ही घर में रहने का उचित कारण नहीं है। भगवान के साथ रहना या भगवत्सेवा के लिए रहना ही श्रेष्ठ उद्देश्य है। अन्यथा, गृहत्याग ही उचित होता है।
इस अवस्था में, एक दिन अचानक भक्त के अंतःकरण से ऐसी आवाज उठने लगती है कि उसे स्वयं भी पता नहीं चलता, वह कब घर के बाहर निकल गया। यदि भक्त इस आंतरिक आवाज को अनसुना कर दे, तो समझ लेना चाहिए कि वह भक्ति पथ पर अटक गया या कहीं भटक गया है। अतः श्रीमहाप्रभु कहते हैं:
तादृशस्यापि सततं गेहस्थानं विनाशकं।
त्यागं कृत्वा यतेद् यस्तु तदर्थार्थैकमानसः।
लभते सुदृढां भक्ति सर्वतोभ्यधिकां पराम्।
कथाप्रणाली से व्यसनभाव सिद्ध होते ही घर से बाहर निकल जाना श्रेयस्कर होता है। अन्यथा, व्यसनदशा में परिपक्व होने वाला बीजभाव भी सर्वात्मभाव या अलौकिक सामर्थ्य में परिपक्व नहीं हो पाएगा। ऐसे घर में रहकर क्या लाभ, जो कृष्णभक्ति का अंग न हो?
यह गृहत्याग, श्रीकृष्ण के विरह के कारण कृष्णव्यसन के आवेश में किया गया त्याग है। यह न तो संसार में दोष देखने के कारण उत्पन्न अस्वस्थ, नीरस, और शुष्क त्याग है, और न ही यह अश्रद्धालु वैराग्य है। यह तो श्रीकृष्ण में बढ़े हुए प्रेम के वशीभूत होकर किया गया सरस, प्रेमपूर्ण, और स्वस्थ त्याग है।
सर्वनिर्णय में श्रीमहाप्रभु ने इस गृहत्याग के बाद तीर्थाटन का मार्ग सुझाया है। यह तीर्थाटन, पुण्य या मोक्ष की खोज में नहीं, अपितु श्रीकृष्ण की खोज में किया जाना चाहिए।
कृष्ण एवं तात्पर्यं न तु तीर्थादौ। देहपातपर्यन्तं च पर्यटनम्।
जो भक्त प्रेम के इस कठिन त्यागमार्ग पर चलने का साहस नहीं जुटा पाते, परंतु घर से निकलने की तैयारी रखते हैं, उन्हें श्रीमहाप्रभु सहसा दु:साहस न करने की सलाह देते हैं।
त्यागमार्ग पर चूक का जोखिम:
इस त्यागमार्ग पर थोड़ी भी चूक हो जाए, तो भक्त, भक्ति से शून्य गृहस्थ से भी अधिक नीचे गिर सकता है। गृहस्थ में पुत्रैषणा, वित्तैषणा, या लोकैषणा के दोष रह सकते हैं। लेकिन त्यागी भक्त में, यदि संसारी जीवों के संसर्ग से शिष्यैषणा उत्पन्न हो गई, तो उसका सारा त्याग व्यर्थ हो जाएगा। शिष्यसंग्रह की वासना में पुत्र, वित्त, और लोक की वासनाएँ सूक्ष्म रूप से त्रिगुणित हो जाती हैं।
घर से बाहर निकलने के बाद भी त्यागी भक्त का संपर्क संसार और भगवद्विमुख लोक से पूरी तरह टूट नहीं सकता। यदि भगवान को अनिवेदित अन्न ग्रहण कर लिया, या पंचमहायज्ञ न किया गया, तो अन्नदोष के कारण अधःपात की संभावना बढ़ जाती है। अतः, जब तक व्यसनदशा प्राप्त न हो, तब तक त्याग श्रेयस्कर नहीं होता।
स्वगृहत्याग और हरिगृहवास
कथाप्रणाली द्वारा प्रेम, आसक्ति और व्यसन की क्रमिक अवस्थाओं में जब बीजभाव दृढ़ हो रहा हो और घर में भगवत्सेवा का निर्वहन संभव न हो, तब ऐसे घर में रह पाना भगवदीय के लिए अशक्य हो जाता है। परंतु, यदि भक्त स्वयं को भक्तिमार्गीय संन्यास को अपनाने में समर्थ न पाता हो, तो उसे क्या करना चाहिए?
श्रीमहाप्रभु कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति को हरि-स्थानों पर जाकर वास करना चाहिए, जहाँ भगवत्सेवापरायण भक्तगण निवास करते हों। उदाहरण के लिए व्रज, चौरासी बैठक, नाथद्वारा, जगदीश, श्रीरंग, पंढरपुर, द्वारका, तिरुपति आदि स्थान।
विवेकपूर्ण दूरी की आवश्यकता:
इसके साथ ही सावधानी अपेक्षित है कि न तो इतने अधिक समीप जाएँ कि एक को दूसरे के दोष दिखने लगें, और न ही इतने दूर कि एक भगवदीय द्वारा की जाने वाली भगवत्सेवा या भगवत्कथा का लाभ दूसरा भगवदीय पूर्णतः वंचित रह जाए।
अदूरे विप्रकर्षे वा यथा चित्तं न दुष्यति।
अपने घर को छोड़कर निकल जाने वाला भक्त भी इस प्रकार भगवत्सेवापरायण भगवदीयों के हरिगृह में वास करते हुए यदि भगवत्सेवा और भगवत्कथा को निभा पाता है, तो उसका भक्तिमार्ग से पतन नहीं होगा।
यदि एक भगवदीय की दूसरे भगवदीय के साथ इतनी घनिष्ठता न भी हो कि वे साथ मिलकर भगवत्सेवा कर सकें, तो भी वे भगवत्कथा कर सकते हैं। इस प्रकार, यदि घर छोड़ दिया हो और दुःसंग से बचना हो, तो पुष्टिमार्गीय अन्य भगवदीयों के सत्संग और भगवत्कथा का आश्रय प्राप्त करते हुए उनका अधःपतन नहीं होगा।
सेवायां कथायां वा यस्यासक्तिर्दृढ़ा भवेद् यावज्जीवं तस्य नाशो न क्वापीति मतिर्मम।
इस तरह अन्यत्र जाकर सत्संग करने के बजाय घर छोड़कर कहीं एकांत में बसने में क्या बाधा है? इस संदर्भ में श्रीमहाप्रभु का उत्तर बहुत स्पष्ट है। वे कहते हैं कि जब घर छोड़ने में भय नहीं है, तो भगवदीय सत्संग में भी कोई भय नहीं होना चाहिए। और यदि सत्संग करते हुए मार्ग से भटकने का डर हो, तो एकांतवास से अधिक भयभीत होना चाहिए, क्योंकि एकांत में भटकने की संभावना और बढ़ जाती है।
कुछ मिलाकर बात इतनी ही है कि अदृढ़ बीजभाव वाले भक्त के लिए, बीजभाव को दृढ़ करने का उत्तम उपाय है, अपने ही घर में अव्यावृत्त होकर भगवत्सेवा और भगवत्कथा में संलग्न हो जाना। यदि यह संभव न हो, तो केवल भगवत्कथा में परायण होकर बीजभाव को दृढ़ करने का प्रयास करना चाहिए। जब संसारासक्ति कम हो जाए, तब या तो भक्तिमार्गीय सक्क्यास ग्रहण करना चाहिए (यदि व्यसनदशा सिद्ध हो चुकी हो), अन्यथा, अन्य भगवदीयों द्वारा की जाने वाली भगवत्सेवा में परिचारक बनना चाहिए।
यदि यह भी संभव न हो, तो सेवा और कथा-परायण भगवदीयों के सत्संग का लाभ लेना चाहिए। इस सत्संग में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि न तो उनसे बहुत अधिक दूर रहें और न ही उनके बहुत समीप। इससे न तो भगवदीयों के दोषों का परिदर्शन होगा और न ही भगवत्सेवा या भगवत्कथा का लाभ पाने से वंचित रहेंगे।
एकांतवास ऐसी स्थिति में अत्यधिक लाभदायक नहीं होता। परंतु इस कठिन स्थिति में भी भगवद्विश्वास दृढ़ रखना चाहिए कि हर कल्प में भगवान अपने भक्तों की रक्षा अवश्य करेंगे।
हरिस्तु सर्वतो रक्षां करिष्यति न संशयः।
यह समग्र भगवतशास्त्रों का गूढ़तम रहस्य है। इसे अच्छी तरह पढ़कर, समझकर, और हृदय में धारण करने वाला व्यक्ति भगवान में दृढ़ रति प्राप्त करता है। यही मार्ग भक्त को स्थायित्व और आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है।
अस्वीकरण और श्रेय
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