पुष्टिमार्ग में स्वीकार किए गए और भक्ति की वृद्धि के प्रकार को न समझने वाले जीवन पर कृपा करने के लिए, श्रीआचार्यजी (महाप्रभु) स्वप्रकटित मार्ग में प्रवर्तित भक्ति और उसकी वृद्धि के प्रकारों का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हैं।

यह प्रतिज्ञा उस अनंत कृपा का प्रतीक है, जिसके द्वारा श्रीआचार्यजी अपने अनुयायियों और जीवों को पुष्टिमार्गीय भक्ति के रहस्यों और उसकी गहराइयों से परिचित कराते हैं। भक्ति की यह यात्रा, न केवल आध्यात्मिक उन्नति का पथ है, बल्कि भगवान से आत्मा के संबंध को सशक्त बनाने का साधन भी है।

यह शिक्षा, जिसे भक्ति-वर्धिनी (भक्ति कैसे बढ़ाएं) के नाम से जाना जाता है, श्री वल्लभाचार्य जी ने लगभग वि. सं. १५५२ में पुरुषोत्तम जोशी को प्रदान की थी। यह भक्ति को बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शिका के रूप में कार्य करती है और साधक के जीवन में उत्पन्न होने वाली विभिन्न परिस्थितियों के समाधान प्रस्तुत करती है। इस ग्रंथ में यह बताया गया है कि कैसे श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम विकसित किया जाए, उनके साथ दिव्य संबंध को पोषित किया जाए, और अंततः एक अटूट भक्ति बंधन प्राप्त किया जाए।


भक्ति को प्रगाढ़ करने के लिए (यथा भक्ति: प्रवृद्धा स्यात्), उपाय का वर्णन किया गया है (तथा उपायः निरूप्यते)। जब भक्ति का बीजभाव दृढ़ हो (बीज भावे दृढे तु स्यात्), तब त्याग, श्रवण और कीर्तन के माध्यम से इसे बढ़ाया जा सकता है (त्यागात् श्रवण कीर्तनात्)।

भक्ति के बीज को दृढ़ करने का उपाय यह है कि (बीज-दार्ढ्य-प्रकारः तु), अपने गृहस्थ जीवन में रहते हुए और अपने स्वधर्म का पालन करते हुए (गृहे स्थित्वा स्व-धर्मतः), अनवरत श्रीकृष्ण का भजन करें (अव्यावृत्तः भजेत् कृष्णं), जो पूजा, श्रवण, और अन्य साधनों द्वारा किया जा सकता है (पूजया श्रवण-आदिभिः)।

व्यावृत्ति होने पर भी (व्यावृत्तः अपि), हरि में चित्त को सदा लगाना चाहिए (हरौ चित्तं श्रवण-आदौ न्यसेत् सदा)। इसके परिणामस्वरूप (ततः), प्रेम, गहरी आसक्ति (प्रेम तथा आसक्तिः), और हरि के प्रति विशिष्ट लगाव विकसित होता है (व्यसनं च यदा भवेत्)। यह भक्ति की गहनता को दर्शाता है।

शास्त्रों में उस बीज को दृढ़ कहा गया है (बीजं तत् उच्यते शास्त्रे दृढं), जो कभी नष्ट नहीं होता (यत् न अपि नश्यति)। स्नेह से राग का विनाश होता है (स्नेहात् राग-विनाशः स्यात्), और आसक्ति से गृहस्थ जीवन के प्रति अरुचि उत्पन्न होती है (आसक्त्या स्यात् गृह-अरुचिः)। यह भक्ति की उन्नति का एक रूप है।

गृहस्थ जीवन की बाधक प्रकृति (गृहस्थानां बाधकत्वम्) और उसका आत्मा से असंबंधित होना (अनात्मत्वं च भासते) तब प्रकट होता है, जब श्रीकृष्ण में गहन आसक्ति (यदा स्यात् व्यसनं कृष्णे) उत्पन्न हो। उसी समय व्यक्ति कृतार्थता को प्राप्त करता है (कृतार्थः स्यात् तदैव हि), जो उसकी आध्यात्मिक सिद्धि को दर्शाता है।

ऐसे व्यक्ति के लिए भी (तादृशस्य अपि), गृहस्थ जीवन निरंतर विनाशकारी होता है (सततं गृह-स्थानं विनाशकम्)। जो व्यक्ति हरि के उद्देश्य के लिए पूर्णतः एकाग्रचित्त हो (तद्-अर्थ-एक-मानसः), उसे गृहस्थ जीवन का त्याग कर (त्यागं कृत्वा) प्रयास करना चाहिए (यतेत यः)।

त्याग से व्यक्ति अत्यंत दृढ़ भक्ति प्राप्त करता है (लभते सु-दृढां भक्तिं), जो सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठ और अत्यधिक उत्तम होती है (सर्वतः अपि अधिकां पराम्)। लेकिन त्याग में बाधा उत्पन्न होती है (त्यागे बाधक-भूयस्त्वं), जो दुःसंगति (दुः-संसर्गात्) और अन्न के अनुचित प्रभाव से होती है (तथा अन्न-तः)। यह भक्ति पथ पर सावधानी की आवश्यकता को दर्शाता है।

इसलिए हरि के स्थान में निवास करना चाहिए (अतः स्थेयं हरि-स्थाने), उनके भक्तों और तत्पर आत्माओं के संग में (तदीयैः सह तत्-परैः)। यह हरि से बहुत दूर न हो, न ही अत्यधिक निकट हो (अदूरे विप्र-कर्षे वा), ताकि चित्त दूषित न हो (यथा चित्तं न दुष्यति)। यह भक्ति में स्थिरता और संगति का महत्व दर्शाता है।

जिस व्यक्ति की हरि की सेवा में या उनकी कथाओं में दृढ़ आसक्ति हो (सेवायां वा कथायां वा यस्य आसक्तिः दृढा भवेत्), उसके जीवनभर (यावत् जीवं) यह भक्ति कभी भी नष्ट नहीं होती (तस्य नाशः न क्व अपि)। यही मेरा विश्वास है (इति मतिर् मम)। यह हरि भक्ति की अमरता और गहनता को दर्शाता है।

जहां बाधा की संभावना हो (बाध-संभावनायां तु), वहां एकांत में निवास करना उचित नहीं माना जाता (न एकान्ते वासः इष्यते)। हरि निश्चित रूप से हर ओर से रक्षा करेंगे (हरिः तु सर्वतः रक्षां करिष्यति), इसमें कोई संदेह नहीं है (न संशयः)। यह हरि पर पूर्ण विश्वास और निर्भरता को व्यक्त करता है।

इस प्रकार भगवत्-शास्त्र का गूढ़ तत्त्व (इति एवम् भगवत्-शास्त्रं गूढ-तत्त्वं) स्पष्ट किया गया है (निरूपितम्)। जो व्यक्ति इसे पूरी तरह से अध्ययन करता है (यः एतत् समधीीयीत), उसे भी दृढ़ भक्ति और हरि के प्रति गहरी आसक्ति प्राप्त होती है (तस्य अपि स्यात् दृढा रतिः)। यह हरि भक्ति की महिमा को दर्शाता है।


॥इति श्रीवल्लभाचार्यविरचिता भक्तिवर्धकी सम्पूर्णा॥