एक किंवदंती के अनुसार ‘बालबोध’ ग्रंथ का प्रणयन श्री महाप्रभु ने विक्रम संवत 1550 में पुष्करराज में किया। 84 वैष्णवन की वार्ता के भावप्रकाश के अनुसार अम्बाला नारायणदास कायस्थ को यह बालबोध स्वयं श्री महाप्रभु ने द्वारका में पढ़ाया था।

नारायणदास के पिता सरकारी दफ्तर में नौकरी करते थे। बीस वर्ष की आयु में नारायणदास को जुआ खेलने की लत लग गई, और इसके कारण घर छोड़कर भागना पड़ा। भटकते हुए दक्षिण में कहीं जाकर कुछ विद्यार्जन किया और बाजार में बच्चों को पढ़ाने की एक दुकान खोल ली। पढ़ाने के दौरान वे बालकों का प्रताड़न और प्रबोधन कठोरता से करते थे। श्री महाप्रभु के सेवक कृष्णदास के टोकने पर भी, एक बार किसी विद्यार्थी की पिटाई के बाद जब वह बेहोश हो गया, तभी नारायणदास को अपनी कठोरता का एहसास हुआ। भागकर कृष्णदास के पास आए और उनके द्वारा श्री महाप्रभु के सम्मुख प्रस्तुत हुए। श्री महाप्रभु के प्रताप से तब वह बालक और नारायणदास दोनों स्वस्थ हो गए।

दीक्षित होने के बाद दक्षिण से द्वारका तक की यात्रा में नारायणदास, श्री महाप्रभु के साथ रहे। द्वारका में उन्हें घर लौटने की अनुमति दी गई। तब उनकी स्वधर्म निर्वाहक चिंता का समाधान श्री महाप्रभु ने किया। उन्होंने कहा, “तुम्हारे स्वरूप सेवा का निर्वाह नहीं होगा। नौकरी करनी पड़ेगी। घर में कोई सेवक नहीं है। सामग्री जो बने, उसे भोग धरकर महाप्रसाद ग्रहण करो।”

गद्य मंत्र तथा अष्टाक्षर सेवार्थ लिखकर उन्हें दिया गया। नारायणदास ने श्री महाप्रभु से निवेदन किया,

महाराज, इतने दिन आपके पास रहा, परंतु मेरे अंतःकरण में बोध नहीं हुआ। कृपा करें ताकि संसार के दुःख-सुख मुझे बाधा न दें और चित्त श्री ठाकुरजी के चरणारविंद में स्थिर रहे।

इसके बाद श्री महाप्रभु ने उन्हें चरणामृत दिया और बालबोध ग्रंथ पढ़ाया।

बालबोध में सर्व सिद्धांतों का संहारा रूप में निरूपण किया गया है, किंतु स्वसिद्धांत का नहीं। अन्य सिद्धांतों के साधन और फल का सही ज्ञान प्राप्त हो जाने पर पुष्टिजीव के अन्य मार्गों पर भटकने का भय नहीं रहता। सभी मोक्ष शास्त्र या तो सांसारिक दुःख दूर करने या पारलौकिक सुख की प्राप्ति के रूप में मोक्ष का प्रतिपादन करते हैं। इस संसार में रहते हुए भगवत सेवा या भगवत कथा के माध्यम से भजन आनंद की प्राप्ति ही पुष्टिजीव के लिए मोक्ष है। इसका निरूपण चतुश्लोकी में किया जाएगा। यहां वह विवक्षित नहीं है।

मनुष्य के मन में अगणित कामनाएं और महत्वाकांक्षाएं होती हैं। विद्वानों ने इन्हें चार पुरुषार्थों के रूप में वर्गीकृत किया है: धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष। इन्हें क्रमशः कर्तव्य, संपदा, प्रेयस, और श्रेयस् कहा जा सकता है। जीवन की हर कामना का इन चार पुरुषार्थों में अंतर्भाव हो जाता है। इनके वास्तविक सहज और शुभ स्वरूप का समाधान अलौकिक वेदादि शास्त्रों और आर्ष शास्त्रों में मिलता है।

प्रस्तुत बालबोध ग्रंथ में वैदिक धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थों का निरूपण अभिप्रेत नहीं है। यह सर्वनिर्णय में ही विस्तृत रूप से वर्णित हो चुका है। लौकिक शास्त्र, जिनमें त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ या काम) पुरुषार्थ का निरूपण किया गया है, उनका विवेचन भी इस ग्रंथ का उद्देश्य नहीं है। इस ग्रंथ में केवल विभिन्न ऋषियों द्वारा प्रणीत मोक्षशास्त्र और उनमें प्रतिपाद्य मोक्षस्वरूप के संबंध में श्रीमहाप्रभु अपना अभिमत प्रकट करना चाहते हैं।

मोक्ष का निरूपण करने वाले ऋषियों द्वारा प्रणीत प्रमुख शास्त्र चार हैं। अन्य शास्त्रों को या तो इन्हीं में समाहित समझना चाहिए, अथवा सिद्धांततः उपेक्षित।

मोक्षप्रतिपादक ऋषिप्रोक्त चार शास्त्र:

  • त्याग से स्वतोमोक्ष का प्रतिपादक - सांख्य शास्त्र
  • अत्याग से स्वतोमोक्ष का प्रतिपादक - योग शास्त्र
  • शिव की भक्ति या प्रपत्ति से परतोमोक्ष का प्रतिपादक - शैव तंत्र
  • विष्णु की भक्ति या प्रपत्ति से परतोमोक्ष का प्रतिपादक - वैष्णव तंत्र

त्याग से स्वतोमोक्ष का प्रतिपादक - सांख्य शास्त्र

बाह्यात्याग द्वारा स्वतोमोक्ष का प्रतिपादन करने वाले सांख्य शास्त्र के अनुसार अहंता-ममता के सर्वथा नष्ट होने पर जीवात्मा का अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाना ही मोक्ष माना गया है। तत्तत् काल में विभिन्न ऋषियों ने सांख्य शास्त्र का वर्णन अनेकविध प्रक्रियाओं के आधार पर किया है, पर मोक्ष प्राप्ति के उपाय और स्वरूप के बारे में प्रायः एक वाक्यता है।

श्रीमहाप्रभु के अनुसार सांख्यशास्त्रीय प्रणाली का जो रूप मान्य वेदादि शास्त्रों में वर्णित हुआ है, तदनुसार साधनाचरण करने पर ही उल्लिखित प्रकार का मोक्ष लाभ सांख्य से मिल सकता है, अन्यथा नहीं।

अत्याग से स्वतोमोक्ष का प्रतिपादक - योग शास्त्र

चित्तवृत्ति-निरोध की यौगिक प्रणाली से स्वतोमोक्ष का प्रतिपादन करने वाले योग शास्त्र के अनुसार विषयों के बाह्यत्याग की उतनी अपेक्षा नहीं है जितनी कि यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-ध्यान-धारणा-समाधि के बाह्य तथा आंतरिक समुचित उपाय से अनात्मरूप विषयों में भटकती चित्तवृत्ति के निरोध की आवश्यकता है। चित्तवृत्ति के निरुद्ध होने पर ही आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित या मुक्त हो सकती है।

श्रीमहाप्रभु के अनुसार इन योगशास्त्रीय उपायों का निरूपण मान्य वेदादि शास्त्रों में भी उपलब्ध होता है। अतः तदनुसार अनुष्ठान करने पर ही मोक्ष प्राप्ति की संभावना है। वैदिक प्रणाली से विपरीतता बरतने पर आत्मा की स्वरूप में अवस्थिति संभव नहीं।

शिव की भक्ति या प्रपत्ति से परतोमोक्ष का प्रतिपादक - शैव तंत्र

परतोमोक्षवादी पाशुपतादि शैवतंत्रों के अनुसार साधना करने पर शिव के द्वारा भी मुक्ति मिल सकती है।
श्रीमहाप्रभु के अनुसार, क्योंकि सर्वात्मक निर्दोष पूर्णगुण ब्रह्म ही अथर्वशिखा आदि उपनिषदों के अनुसार जगत्संहारक शिव का रूप धारण करता है, अतः शिव के मुक्तिदाता होने में किसी संदेह का अवसर नहीं है। फिर भी, शिव के रूप में भगवान स्वयं मुक्ति के आनंद के उपभोग की लीला करते हैं। अतः शिव से उनकी स्वोपभोग्य मुक्ति के बजाय भोग की प्राप्ति सुलभ मानी जाती है। किसी अतिप्रिय जीव को ही शिव मुक्तिदान करते हैं। यह असाधारण प्रेमभाजन से ही बन सकते हैं, जो पूर्णतया शिव के प्रति समर्पित होते हैं। अतः शिव की भक्ति या शरणागति के साथ जो वर्णाश्रमोचित स्वधर्म की उपेक्षा नहीं करते, उन्हें शिव से मोक्ष मिलता है।

विष्णु की भक्ति या प्रपत्ति से परतोमोक्ष का प्रतिपादक - वैष्णव तंत्र

परतोमोक्षवादी पाञ्चरात्र वैष्णव तंत्र के अनुसार साधना करने पर विष्णु द्वारा भी मुक्ति मिल सकती है।
श्रीमहाप्रभु के अनुसार, क्योंकि सर्वात्म निर्दोष पूर्णगुण ब्रह्म ही महानारायण आदि उपनिषदों के अनुसार जगत्पालक विष्णु का रूप धारण करता है, अतः विष्णु के रूप में भगवान स्वयं अलौकिक दिव्य भोगों के उपभोग की लीला करते हैं। अतः विष्णु से उनके स्वोपभोग्य भोग के बजाय मोक्ष की प्राप्ति सुलभ मानी जाती है। विष्णु अपने किसी अतिप्रिय भक्त को ही भोग का दान करते हैं। यह असाधारण प्रेमभाजन बन पाना पूर्णतया विष्णु के प्रति समर्पित होने पर ही संभव है। अतः विष्णु की भक्ति या शरणागति के साथ जो वर्णाश्रमोचित स्वधर्म की उपेक्षा नहीं करते, उन्हें विष्णु से मुक्ति मिल सकती है।

स्वतोमोक्ष के प्रकार में सांसारिक दुःख तो दूर होते हैं, किन्तु पारलौकिक सुख की संभावना नहीं रहती। जबकि परतोमोक्ष के प्रकार में पारलौकिक सुख की संभावना उपलब्ध होती है।

ब्रह्मा-विष्णु-शिव की त्रिपुटी में, शिव और विष्णु भोग तथा मोक्ष दोनों प्रदान करने में समर्थ हैं, लेकिन प्रायः शिव भोग के दाता बनते हैं और विष्णु मोक्ष के। ब्रह्मा केवल भोग के दाता हैं, परंतु मोक्षशास्त्र के उपदेशक और गुरु के रूप में ब्रह्मा को भी मोक्षदाता माना गया है।

यह सभी मोक्षशास्त्रों के सिद्धांतों का संक्षेप में निरूपण है। इन्हें जानने से पुष्टिजीव को पूर्णतया पुष्टिमार्गीय बनने में या बने रहने में सहायता मिलती है। स्वसिद्धांत का निरूपण तो आगे सिद्धांतमुक्तावली में किया जाएगा। नारायणदास अम्बालावाले को श्रीमहाप्रभु ने यही सर्वसिद्धांत संग्रह पढ़ाया ताकि उनका चित्त पुष्टिमार्ग के प्रशस्त पथ को छोड़कर अन्यत्र कहीं न भटक जाए।

श्रीमहाप्रभु ने बालप्रबोधन द्वारा नारायणदास को कितना स्वकीय और कितना पुष्टिमार्गीय बना लिया होगा! इस कारण श्रीमहाप्रभु ने ‘बीज’ रूप में पुष्टिमार्ग के रहस्यों को यहां अवतारी कृष्ण के संदर्भ में न देकर उनके गुणावतार शिव और विष्णु के संदर्भ में विवेचित किया है।

बालबोध (१८-१९):

समर्पणेनात्मनो ही तदीयत्वं भवेद् ध्रुवम्। अतदीयतया चापि केवलश्चेत्समाश्रितः तदाश्रयतदीयत्वबुद्ध्यै किञ्चित्समाचरेत् स्वधर्ममनुतिष्ठन्वै भारद्वैगुण्यमन्यथा। इत्येवं कथितं सर्वं नैतज्ज्ञाने भ्रमः पुनः

नारायणदास को स्वरूपसेवा की आज्ञा नहीं मिली। अतः स्वरूपसेवा के अनुकल्प श्रीहस्ताक्षर की सेवा का उल्लेख मिलता है, और न ही स्वसिद्धांत का उपदेश प्राप्त हुआ। इस कारण बालबोध द्वारा सर्वसिद्धांत संग्रह उपदिष्ट हुआ। फिर भी, स्वकीयता, सार, सर्वस्व, चिर उत्कण्ठा और तापभाव का उन्हें वरदान मिला। बालबोध वस्तुतः श्रीमहाप्रभु, उनके सिद्धांत और मार्ग की ओर प्रयाण करने की तीव्र उत्कंठा जगाता है।