अन्तःकरणप्रबोधः - परिचय
अन्तकरणप्रबोध ग्रन्थ, श्रीमहाप्रभुजी की सन्यास ग्रहण करने से पूर्व की अंतिम कृति है, जो षोडश ग्रन्थों में योजित है।
श्रीयदुनाथजी-विरचित वल्लभदिग्विजय के अनुसार, सन्यास ग्रहण करने के बाद श्रीमहाप्रभुजी भूतल पर ३९ दिन तक बिराजे। यह सन्यास, इस ग्रन्थ में वर्णित तृतीय भगवदाज्ञा के पालन हेतु लिया गया था। अतः आषाढ़ शुक्ल द्वितीय से ३९ दिन पूर्व, अर्थात वैशाख (व्रज ज्येष्ठ) कृष्ण सप्तमी के आसपास किसी दिन वि.सं. १५८७ में इस ग्रन्थ की रचना मानी जाती है।
भारतवर्ष की तत्कालीन अत्यंत विषम परिस्थितियों में, अदम्य उत्साह, निष्ठा और समर्पण के साथ श्रीमहाप्रभुजी ने वैष्णव धर्म और संस्कृति की मशाल अपने सुदृढ़ हाथों में धारण की थी। उन्होंने देश के कोने-कोने को उस प्रकाश से प्रकाशित करने का प्रयास किया। वर्ण, आश्रम, जाति, लिंग, निम्नवर्ग, उच्चवर्ग, देशी-विदेशी के भेद को त्याग कर, उन्होंने सभी व्यक्तियों के हृदय को पुष्टिभक्ति के उपदेश से भावपूर्ण बना दिया। श्रीमहाप्रभुजी ने अपने दृढ़ संकल्प के साथ बीहड़ जंगलों में वर्षा, शीत और आतप की परवाह किए बिना निरंतर परिभ्रमण किया। विदेशी आक्रमणों से त्रस्त नगर और जनपदों में रहने वाली जनता में उन्होंने निरंतर आस्था का संचार किया।
श्रीगोकुलनाथजी ने इस ग्रंथ के संदर्भ में गहन और महत्वपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि द्वादश स्कंधात्मक श्रीभागवत का स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण का नामात्मक रूप है। भागवत के अर्थ को प्रकट करने के लिए श्रीमहाप्रभु ने वाणी के पति और भगवन्मुखरूप अग्नि के रूप में प्रकट होकर, अपने अवतार का प्रमुखतम प्रयोजन भागवत पर सुबोधिनी टीका की रचना के माध्यम से पूरा किया। विशेष रूप से दशम स्कंध को भागवत का हृदय मानते हुए, उन्होंने तृतीय स्कंध तक पहुंचने के बाद शीघ्र दशम स्कंध पर व्याख्या का कार्य संपन्न किया। इसमें यह भगवदाज्ञा उनके अवतार के प्रयोजन को पूरा करने का मुख्य माध्यम बनी।
दशम स्कंध की व्याख्या समाप्त होने पर, श्रीमहाप्रभु ने अपनी पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार अवशिष्ट स्कंधों की व्याख्या करने की प्रवृत्ति शुरू की। उन्होंने भागवत के सातों अर्थों को एकवाक्यता में स्थापित करने का संकल्प लिया। भागवतार्थ निबंध में शास्त्रार्थ, स्कंधार्थ, प्रकरणार्थ और अध्यायार्थ की व्याख्या लिखी जा चुकी थी। साथ ही वाक्यार्थ, पदार्थ, और अक्षरार्थ की व्याख्या भी सूक्ष्म टीका में पहले से ही पूरी हो चुकी थी। इसके बाद गूढ़तम रहस्यों को प्रकट करने के लिए द्वितीय टीका, सुबोधिनी की रचना की गई।
सुबोधिनी टीका अत्यंत गहराई और विस्तृत लेखन शैली का उदाहरण है, जिसे सुदीर्घ काल में पूरा किया जा सकता था। परंतु भूतल पर श्रीमहाप्रभु का इतने लंबे समय तक विराजना भगवान को अभिप्रेत नहीं था। इसलिए दशम स्कंध पर सुबोधिनी लेखन की आज्ञा शीघ्र हुई, जो परिपूर्ण भी हुई। अब अवशिष्ट स्कंधों पर इसी शैली में व्याख्या भगवान की इच्छा के अनुसार नहीं थी।
पुरुषोत्तमजी ने पाँचवे और छठे श्लोक की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया कि भगवदाज्ञा के पालन में ऐसी आवश्यकताएँ थीं, जो समर्पित भक्ति के माध्यम से भगवान की गहनता को प्रकट करती हैं। यह व्याख्या भक्ति, सेवा, और समर्पण के महत्व को दर्शाती है, जो श्रीमहाप्रभु के अद्वितीय और दिव्य व्यक्तित्व को दर्शाने में सहायक है। उनकी रचनाएँ और उपदेश, भक्ति मार्ग की गहनता और मानवता के प्रति उनका अनन्य समर्पण उजागर करते हैं।
नच पूर्वाज्ञप्तासम्पूर्तिदोषः यावदुक्तमेतावत्कृत्यैव साज्ञा कृतास्तु, अधिकं न कार्यम्…. इदञ्च सूक्ष्मटीकातिरोधान-स्कन्धक्रमव्याख्यात्याजन दशमस्कन्धव्याख्यानान्तरमसामयिकमाधवभट्टकाश्मीर शरीरशराहतिप्रभृतिभिः कार्येरनुमीयते।
पहले दिए गए आदेशों को पूरी तरह पूरा न करना दोष नहीं माना जाता, जब तक कि जो कहा गया है उसे आवश्यकतानुसार पूरा किया गया हो। इसके अलावा, और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। यह बात सूक्ष्म टीकाओं, स्कंधों के क्रम की व्याख्या, और माधव भट्ट की कश्मीरी परंपराओं जैसी शिक्षाओं से प्रमाणित होती है। यह पूरक ग्रंथों और विद्वानों के कार्यों के माध्यम से भी समर्थित है।
गङ्गासागर और मधुवन में जब श्रीमहाप्रभु को सुबोधिनी लेखन को रोकने की भगवदाज्ञा प्राप्त हुई, तो वे रासपञ्चाध्यायी की गोपिकाओं के समान इस आज्ञा का उल्लंघन करना चाहते थे। वेणुनाद सुनकर गोपिकाएँ भगवान के समीप पहुँच गईं थीं, परंतु जब भगवान ने उन्हें पुनः लौट जाने का आदेश दिया, तो वे नहीं लौटीं। इसी प्रकार, श्रीमहाप्रभु ने भी लेखन कार्य बंद नहीं किया। गोपिकाओं ने भगवत्स्वरूप सुख की प्राप्ति के लिए भगवद्वाणी का उल्लंघन किया, जबकि श्रीमहाप्रभु को भगवद्वाणी का उल्लंघन नामसेवा के लिए और भगवद-विप्रयोग सहते हुए करना पड़ा।
इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप सूक्ष्मटीका का तिरोधान हुआ। चतुर्थ से नवमतक की व्याख्या छोड़कर दशम स्कंध की व्याख्या का भगवदादेश हुआ। लेकिन जब श्रीमहाप्रभु अवशिष्ट स्कंधों की व्याख्या लिखने लगे, तब उनके लिपिकार श्रीमाधव भट्ट काश्मीरी एक पारधी के तीर से आहत हो गए। ये सभी घटनाएँ केवल यह संकेत देती थीं कि भगवदीच्छा इस रूप में प्रकट हो रही थी।
तभी उन्हें तृतीय भगवदाज्ञा मिली, जिसमें देह-देश-परित्याग का स्पष्ट निर्देश दिया गया। इस तृतीय भगवदाज्ञा ने भगवान के आग्रह को पूर्ण स्पष्टता के साथ प्रकट किया। ऐसे में, श्रीमहाप्रभु अपने मन को समझा रहे थे कि इसे भगवदाग्रह के अधीन होना चाहिए।
श्रीमहाप्रभु का मानना था कि भागवत की व्याख्या का उद्देश्य अन्य पुष्टिजीवों की समस्याओं का समाधान था, न कि उनकी स्वयं की। भागवत के वास्तविक अर्थ का प्रकटन पुष्टिजीवों को उपकृत करता है, जिससे वे श्रीकृष्ण की पुष्टिलीलाओं के गूढ़ रहस्यों को समझकर उनमें आसक्त हो सकते हैं। हालांकि, श्रीमहाप्रभु को केवल भगवल्लीलाओं के प्रवचन तक सीमित नहीं रहना था; उन्हें भागवत की लौकिकी भाषा और परमत भाषा दोनों पर चिंतन और व्याख्यान करना था।
अब तक जितना व्याख्यान हुआ, वह पुष्टिजीवों को पुष्टिमार्ग पर अग्रसर करने के लिए पर्याप्त है। इसके आगे परोपकार की आवश्यकता नहीं है। श्रीमहाप्रभु ने स्वयं सर्वनिर्णय-निबंध में निर्णय दिया है कि भगवत्सेवा के अवसर में बाधक बनने वाले धर्मों को त्याग देना चाहिए। यहाँ तक कि परोपकार भी यदि भगवत्सेवा में बाधक हो, तो उसे भी छोड़ देना उचित है। यह विचार श्रीमहाप्रभु के गहन आध्यात्मिक दृष्टिकोण और भगवद्भक्ति के प्रति उनके अनन्य समर्पण को दर्शाता है।
एतद्विरोधि यत्किञ्चित् तत्तु शीघ्रं परित्यजेत्। धर्मादीनां तथा चास्य तारतम्यं विचारयन्॥
विरोधी सामान्यवचनं धर्मादीनामुपलक्षणं।
परोपकारादि सर्वधर्माणामपि क्षयिष्ण्वेव फलम्।
अतः उभयोरन्तरं ज्ञात्वा परोपकारादिधर्माः न कर्तव्याः, यदि पूजाविरोधिनो भवन्ति।
श्रीमहाप्रभुजी के विचारों के अनुसार, ऐसा कोई धर्म या कर्तव्य जो भगवत्सेवा में सहायक हो, उसे अवश्य अनुष्ठान के रूप में स्वीकार करना चाहिए। परंतु यदि वह धर्म भगवत्सेवा में बाधक बने, तो परोपकार जैसे धर्म भी त्यागने योग्य समझे जाने चाहिए। आत्मसमर्पण के पश्चात् भगवत्सेवा से अधिक कोई कर्तव्य पुष्टिजीव का नहीं हो सकता।
श्रीमहाप्रभुजी यह भी कहते हैं कि आत्मसमर्पण से पूर्व, सभी पुष्टिजीवों की स्थिति उस सुन्दर स्त्री के समान है, जो अस्पृश्य कुल में जन्मी है। परंतु आत्मसमर्पण के बाद, वही स्थिति उस स्त्री के समान हो जाती है, जो किसी राजा के मन को भा जाती है और रानी के रूप में सम्मान प्राप्त करती है। इस उच्च सम्मान के कारण कभी-कभी अभिमान उत्पन्न हो सकता है, और अभिमान के कारण अपमान का अवसर भी मिल सकता है। परंतु यदि इस सम्मानित स्थिति से पहले की निम्न अवस्था का विचार किया जाए, तो सम्मानित अवस्था में मिला थोड़ा-बहुत अपमान भी पश्चात्ताप का विषय प्रतीत नहीं होगा। जैसे कि राजा द्वारा अपमानित की गई रानी भी समाज में सम्मानीय बनी रहती है।
इसी प्रकार, यदि कोई प्रौढ़ीभाव (स्वयं की मान्यता) के कारण भगवदाज्ञा का उल्लंघन करे और अपमानित हो, तो उसे अपनी असमर्पित अवस्था पर विचार करना चाहिए। जिसने सर्वस्व समर्पण कर दिया है, उसे मान-अपमान से कोई अंतर नहीं पड़ता। उसका एकमात्र कर्तव्य भगवदाज्ञा का पालन करना है।
पुष्टिसृष्टि की उत्पत्ति ही प्रभु ने अपनी स्वरूप-सेवा के लिए की है। भगवान तो सत्य के प्रति समर्पित हैं। इसलिए उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करना पुष्टिजीव का सर्वोपरि कर्तव्य है। यदि ऐसा न हो, तो यह स्वामि-द्रोह के समान होगा। विलंब हो या शीघ्रता, जो फल भगवान देना चाहते हैं, वह अपनी इच्छा से देंगे। इसलिए फलविलंब की चिंता किए बिना, सेवक का कार्य स्वामी की आज्ञा का पालन करना है।
पहले गङ्गासागर के संगम पर और बाद में मधुवन में, दो भगवदाज्ञाओं का पालन नहीं हो सका। अब, तृतीय भगवदाज्ञा लोकगोचर देह-देश-परित्याग की है। प्राचीन व्याख्याओं के अनुसार, यह आज्ञा क्रमशः देहत्याग, देशत्याग और लोकत्याग से संबंधित है। इस तृतीय आज्ञा का पालन करना अनिवार्य है।
फिर भी, इसमें पश्चात्ताप का कोई विषय नहीं होना चाहिए। जब हमारा सबकुछ पहले ही स्वामी को समर्पित है, और हम केवल सेवक हैं, तो लोकगोचर देह-देश के परित्याग की आज्ञा पर पश्चात्ताप का कोई स्थान ही नहीं है। यह आत्मसमर्पण का सर्वोच्च सिद्धांत है।
श्रीकृष्ण, हमारे स्वामी, कभी भी लौकिक स्वामी की तरह निर्दयी नहीं बन सकते। उनकी हर आज्ञा में हमारा परम हित और चरम सुख समाहित होता है। जब हम पहले ही सब कुछ उनके चरणों में भक्तिपूर्वक समर्पित कर चुके हैं, तो और कुछ शेष नहीं रह जाता। उनके निर्देशों का पालन ही हमारा वास्तविक कर्तव्य है, और यही हमें सुख का अनुभव देता है।
श्रीमहाप्रभु इस विचार को एक उदहारण द्वारा स्पष्ट करते हैं। जैसे किसी पिता का अपनी विवाहिता पुत्री को उसके ससुराल भेजने का मन नहीं करता, वह वात्सल्य या मोहवश उसे रोकता है। लेकिन क्या यह उसकी पुत्री के हित में है? यदि बेटी को उसके पति के पास न भेजा जाए, तो कन्यादान का महत्व और उसका अर्थ समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार, यदि हम अपने शरीर को उसके असली स्वामी, श्रीकृष्ण, को समर्पित नहीं करते, तो यह मोहजनित व्यवहार हमारे समर्पण को अपूर्ण कर देता है। स्वामी श्रीकृष्ण को यह कभी स्वीकार्य नहीं होगा।
देह के हठात् त्याग को कठिन समझने वाले के लिए, श्रीहरि के स्वरूप और उनकी नित्यलीला के संयोग-सुख का विचार करना चाहिए। जब वे स्वयं हमें इस दिव्य अवस्था में ले जाना चाहते हैं, तो दुःख का कोई कारण नहीं बचता। यहाँ किसी भी प्रकार के मोह की आवश्यकता नहीं है, न ही यह चिंता करनी चाहिए कि श्रीकृष्ण रुष्ट होंगे, अथवा उनका फलदान विलंबित होगा।
श्रीमहाप्रभु ने इन विचारों को स्पष्ट करने के लिए अन्तःकरण प्रबोध ग्रन्थ लिखा। इसमें उन्होंने उन पुष्टिजीवों को संबोधित किया, जिनका ध्यान भगवत्सेवा से हटकर अन्य आध्यात्मिक या लौकिक प्रयोजनों की ओर जा सकता है। उनकी व्याख्या में यह विचार सामने आता है कि “तव कथामृतं तप्तजीवनम्” केवल तब अमृत होता है जब मृत्यु का भय उपस्थित हो। अन्यथा, इस अमृत की आवश्यकता कोई नहीं समझता।
श्रीमहाप्रभु ने यह भी विवेचन किया कि भगवान की कथा और सेवा में मुख्य कल्प और गौण कल्प का अंतर है। सेवा और कथा भगवान की प्रसन्नता के मुख्य माध्यम हैं। यह निश्चय करना सभी पुष्टिजीवों का कर्तव्य है कि:
भगवद्रूपसेवार्थ तत्सृष्टिर्नान्यथा भवेत्
यह ग्रन्थ, श्रीमहाप्रभुजी ने सेवाभाव की शुद्धता और भगवान की सेवा में अनन्य रुचि के उद्देश्य से लिखा। इसमें बताया गया है कि सेवा ही परम धर्म है, और भगवान की कथाएँ भी तभी सार्थक होती हैं, जब वे भगवत्सेवा का अंग बनें। इस प्रकार, अन्तःकरण के प्रबोधन के माध्यम से श्रीमहाप्रभु पुष्टिजीवों को भगवान की सेवा में प्रेरित करते हैं।
अस्वीकरण और श्रेय
हमने संरचना और भाषाई गुणों (जैसे व्याकरण, वाक्यशुद्धि आदि) में संपादकीय और भाषाई संशोधन लागू किए हैं, हालांकि हमने मूल शिक्षाओं और सिद्धांतों से भटकने से बचने का हर संभव प्रयास किया है। किसी भी प्रकार की चूक या त्रुटियाँ अनजाने में हुई हैं, और सुधार के लिए सुझावों का स्वागत है।
संदर्भ सूची
हम उन सभी लेखकों और योगदानकर्ताओं का धन्यवाद करते हैं जिनके कार्यों का इस दस्तावेज़ में संदर्भ दिया गया है। आपके अमूल्य प्रयास और विचार इस सामग्री को आकार देने में महत्वपूर्ण रहे हैं। हम आपके योगदानों का गहरा सम्मान करते हैं और ज्ञान के प्रसार और समझ को बढ़ावा देने में आपके कार्यों की भूमिका को स्वीकार करते हैं।