अन्तःकरणप्रबोधः - गोस्वामी श्रीनृसिंहलालजी महाराज द्वारा टीका
श्रीआचार्य महाप्रभुजी ने सेवा के निर्दोष स्वरूप को स्थापित करने के लिए सिद्धांत रहस्य ग्रंथ लिखा। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि ब्रह्मसम्बन्ध से सेवा करने वाले सभी दोषों से मुक्त हो जाते हैं और आगे किसी दोष का संसर्ग नहीं होता। यह भगवान की आज्ञा से ही निर्धारित किया गया है। इसके अतिरिक्त, सेवा के आधिदैविक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए नवरत्न ग्रंथ में चिंताओं की निवृत्ति के उपाय बताए गए हैं। इसमें उद्वेग के कारण प्रतिबंधों और उनसे निवृत्ति के उपायों को निरूपित किया गया है।
ऐसी परिस्थितियों में, जब भक्त प्रतिबंधों से मुक्त होकर सेवा करता है, तब भगवान का सानुभाव स्वाभाविक रूप से होता है। और जब यह सानुभाव हो, तब प्रारब्ध आदि के प्रभाव से पहले के कुछ दोष शेष हो सकते हैं। जैसे छोटे पात्र में अधिक जल नहीं ठहरता, उसी प्रकार कोई भक्त बड़ी कृपा को धारण नहीं कर पाता। इस स्थिति में, भक्त में अपनी बड़ाई की भावना उत्पन्न हो सकती है। इस भाव में भगवत्सानुभाव के दौरान भगवान की आज्ञा का भंग या अन्य अपराध होने की संभावना होती है।
यदि भगवान की आज्ञा का भंग होता है, तो उनकी अप्रसन्नता संभव है, किंतु जो भक्त भगवद्धर्मरूप सेवा में लगे रहते हैं, उनकी सेवा नष्ट नहीं होती। तथापि, यदि कोई अपराध हो और पश्चाताप हो, तो चिंता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। ऐसी चिंता के साथ की गई सेवा अथवा भविष्य में चिन्तित मन से की जाने वाली सेवा अधिदैविक स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाती। इस दोष से मुक्त होने के लिए इस ग्रंथ में विचारशील साधनों का उपदेश दिया गया है।
इन विचारों में प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए लेखक अपनी आख्यायिका प्रस्तुत करते हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि मन में दुष्ट प्रवृत्ति उत्पन्न न हो, लेखक अपने अन्तःकरण का जागरण करते हैं और भक्तों के अन्तःकरण को सावधान करते हुए यह कहते हैं:
(श्रीगोकुलनाथजी ने श्रीआचार्यजी की आख्यायिका में प्रमाण स्वरूप लिखा है) कि श्रीठाकुरजी ने श्रीआचार्य महाप्रभुजी को अपनी वाणी का अधिपति बनाकर, श्रीभागवत का यथार्थ अर्थ प्रकट करने का आदेश दिया। श्रीआचार्यजी ने इस आदेश का पालन करते हुए श्रीसुबोधिनी टीका की रचना की। इसमें तृतीय स्कंध तक टीका पूर्ण हुई, किंतु भगवान श्रीआचार्यजी के वियोग को सहन नहीं कर सके। इस कारण उन्होंने स्कंधक्रम छोड़कर दशम स्कंध के विवरण को लिखने का आदेश दिया।
दशम स्कंध के विवरण के बाद, यदि श्रीआचार्यजी सम्पूर्ण श्रीभागवत का विवरण लिखते, तो अत्यधिक विलंब होता। इसे असह्य मानकर भगवान ने उन्हें दो बार स्वधाम जाने का आदेश दिया। लेकिन सम्पूर्ण श्रीभागवत का विवरण अधूरा रहने से श्रीआचार्यजी ने भगवान की आज्ञा का पालन नहीं किया। तीसरी बार, भगवान ने अत्यधिक कृपा और रोष के साथ उन्हें अपने पास बुलाने का आदेश दिया।
श्रीआचार्यजी ने भगवान के इस आग्रह को देखकर, पहली दो आज्ञाओं के उल्लंघन का कारण यह माना कि श्रीभागवत की टीका करने की पहली आज्ञा में दृढ़ता अंतःकरण में बनी हुई थी। तीसरी बार की आज्ञा को स्वीकार कर उन्होंने अंतःकरण में दृढ़ता को स्थान देकर, भगवान के आग्रह को समझा और अपने अंतःकरण को जागृत करने का उपदेश दिया। इस प्रकार, भगवान की आज्ञा और भक्त का समर्पण दोनों का महत्व इस विवृति में स्पष्ट किया गया है।
श्लोक १
अन्त:करण – हे अन्तःकरण; मद्वाक्यं – मेरे वाक्य को; सावधानतया – सावधानी से; शृणु – सुन। कृष्णात् – श्रीकृष्ण से; परं – अन्य; नास्ति – नहीं है; दैवं – देवता; वस्तुत: – वस्तुत:; दोषवर्जितम् – दोष रहित।
भावार्थ
हे अन्तःकरण! मेरे वाक्य को सावधान होकर सुन, क्योंकि श्रीकृष्ण के समान शुद्ध, दोषरहित और अद्वितीय देवता कोई अन्य नहीं है।
टीका
“अन्तःकरण” शब्द का उपयोग यहाँ आत्मा और मन दोनों के लिए किया गया है, जो सुनने और समझने की प्रक्रिया का मूल है। श्रीमहाप्रभु अपने ही अन्तःकरण को संबोधित करते हुए उन भक्तों को प्रेरित कर रहे हैं, जो उनकी शिक्षा से सीख सकते हैं।
यहाँ, व्रजभक्तों के उदाहरण से, भगवान की आज्ञा के महत्व को समझने के लिए अंतःकरण को जागरूक किया गया है। रासलीला के समय व्रजभक्तों ने श्रीकृष्ण के वेणुनाद को सुनकर वन में जाने का साहस किया, लेकिन जब भगवान ने उन्हें लौटने की आज्ञा दी, तब उन्होंने उसे पालन नहीं किया। इस संदर्भ में, श्रीमहाप्रभु अपने वैष्णव अनुयायियों को चेतावनी दे रहे हैं कि भगवदाज्ञा या आचार्यजी की आज्ञा का पालन न करना कितना हानिकारक हो सकता है।
उन्होंने यह भी बताया है कि जैसे मन सभी इन्द्रियों का राजा होता है और उसके नियंत्रण में अन्य इन्द्रियाँ स्वतः आ जाती हैं, वैसे ही अन्तःकरण को नियंत्रित करना भक्ति के मार्ग में आवश्यक है।
अंत में, श्रीकृष्ण की महिमा को पुनः स्थापित करते हुए इस बात पर जोर दिया गया है कि उनकी आज्ञाओं का पालन करना ही भक्त की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। इससे न केवल दैन्यता का अनुभव होता है, बल्कि आत्मा के शुद्धिकरण का मार्ग भी प्रशस्त होता है। यही भाव इस टीका में व्यक्त किया गया है।
श्लोक २
चाण्डाली – चण्डाल स्त्री; चेत् – यदि; राजपत्नी – राजा की पत्नी; जाता – हो; च – और; राज्ञा – राजा द्वारा; मानिता – अधिक सम्मानित। कदाचित् – कभी; अपमाने – अपमान हो; अपि – तो भी; मूलत: – मूल रूप से; का – क्या; क्षति: – हानि; भवेत् – हो सकती है।
भावार्थ
यदि कोई चाण्डाली राजपत्नी बन जाए, और राजा उसे अन्य रानियों से अधिक सम्मानित करे, फिर भी कभी किसी अपराध के कारण उसका अपमान हो जाए, तो उसके राजपत्नी होने के सम्मान में कोई हानि नहीं होती। इसी प्रकार, हे अन्तःकरण, यदि प्रभु फल प्रदान करने में विलम्ब करें, तो भी उनके अङ्गीकार में कोई कमी नहीं होती। अतः चिंता का कोई कारण नहीं है।
टीका
चाण्डाली, जो कुछ गुणों के कारण राजा की पत्नी बनी हो और अन्य पत्नियों की अपेक्षा राजा का अधिक मान प्राप्त किया हो, किसी अपराध के कारण यदि उसे राजा द्वारा अपमानित किया जाए, तो उसके मूल स्वरूप, यानी राजपत्नी होने में कोई क्षति नहीं होती। यह तथ्य इस बात को दर्शाता है कि राजपत्नी का पद, उसकी जाति या अपमान के कारण कम नहीं होता।
राजपत्नी होने के कारण, उसे कोई अन्य देख नहीं सकता, स्पर्श नहीं कर सकता और न ही वह किसी और के विनियोग में जा सकती है। उसका राजपत्नी होने का धर्म और महत्व यथावत् बना रहता है। भले ही वह चाण्डाल जाति की हो, परंतु इस पद के कारण उसकी योग्यता और महत्व में कमी नहीं आती। यज्ञ में पति के साथ बैठने का अधिकार प्राप्त होना ही पत्नी होने का संकेत है। इसलिए, भले ही वह चाण्डाली हो, लेकिन राजपत्नी होने के कारण वह त्याग योग्य नहीं होती। इसे दर्शाने के लिए ‘पत्नी’ शब्द का उल्लेख किया गया है।
इस दृष्टान्त से यह सिद्ध होता है कि भगवदाज्ञा और अङ्गीकार के प्रति वैष्णवों को विश्वास बनाए रखना चाहिए। प्रभु के अङ्गीकार में कोई कमी नहीं होती, चाहे परिस्थितियाँ कुछ भी हों। इससे यह स्पष्ट किया गया है कि भक्ति और समर्पण के मार्ग में चिंताओं को स्थान नहीं देना चाहिए। प्रभु की कृपा सदैव अडिग रहती है।
श्लोक ३
अहं – मैं; समर्पणात् – समर्पण से; पूर्वं – पहले; किं – क्या; सदा – सदा; उत्तम: – श्रेष्ठ; स्थित: – स्थित था? मम – मेरी; अधमता – अधमता; का – क्या; भाव्या – विचारनी; यत: – जिससे; पश्चात्ताप: – पश्चात्ताप; भवेत् – होता है।
भावार्थ
समर्पण से पहले मेरी स्थिति सदा उत्कृष्ट थी, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। इसलिए यदि फल के मिलने में विलम्ब होता है, तो यह विचार करना कि मैं पहले से बेहतर था और इस कारण पश्चात्ताप करना, उचित नहीं है। फलविलम्ब की दशा में अपना हल्कापन महसूस करने की आवश्यकता नहीं है, और ना ही पश्चात्ताप का कोई स्थान है।
टीका
समर्पण और ब्रह्मसम्बन्ध के अधिकार से पहले, मेरी स्थिति चाण्डाली के समान थी—सभी दोषों से युक्त और अत्यंत हीन। अतः मैं सर्वकाल श्रेष्ठ नहीं था। जैसे चाण्डाली को राजा ने अपनी पत्नी बनाकर उसकी स्थिति को उत्तम बनाया, उसी प्रकार समर्पण के माध्यम से मैंने अपनी श्रेष्ठता प्राप्त की।
कदाचित प्रभु अप्रसन्न भी हों, तो भी उनका अङ्गीकार बना रहता है। भगवान सर्वथा मुझे त्याग नहीं करेंगे, और मैं अधम नहीं बनूँगा। चाण्डाली को राजा ने राजपत्नी बनाया, फिर भी उसे त्यागा नहीं। अब यदि मेरी स्थिति उत्कृष्ट हो गई है, तो पूर्व की मेरी हीन अवस्था को देखते हुए, मुझे कोई पश्चात्ताप नहीं करना चाहिए।
राजकुमारी यदि रानी बने और उसका अपमान हो, तो उसे पश्चात्ताप हो सकता है, क्योंकि उसकी पूर्व और वर्तमान स्थिति समान है। लेकिन चाण्डाली को राजा द्वारा राजपत्नी का दर्जा देने के बाद यदि उसका अपमान होता है, तो उसे पश्चात्ताप नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार, पहले जीव अत्यंत हीन था। प्रभु ने उसे अङ्गीकार कर भगवदीय बना दिया।
यदि इस नई अवस्था में अभिमान उत्पन्न हो और प्रभु अप्रसन्न हो जाएँ, तो भी यह विचार करना चाहिए कि मेरी मानहानि नहीं हुई है। अतः भक्ति और समर्पण में पश्चात्ताप के लिए कोई स्थान नहीं है।
यहाँ जीव के धर्मानुसार विचार करने का उपदेश दिया गया है कि प्रभु की इच्छा अडिग और अटल है। कोई भी उसे मिटा नहीं सकता। इसलिए, भगवदीय धर्म को समझते हुए, समर्पण और भक्ति में दृढ़ बने रहना ही सही मार्ग है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रभु की कृपा और अङ्गीकार से जीव सदैव सुरक्षित रहता है।
श्लोक ४
विष्णु: – श्रीकृष्ण; सत्यसमल्पत: – सत्य को समर्पण करने वाले; अन्यथा – अन्य प्रकार से; तु – तो; न – नहीं; करिष्यति – करेंगे। तस्मात् – इस कारण; सततं – निरंतर; आज्ञा – आज्ञा; एव – ही; कार्या – करनी चाहिए। अन्यथा – अन्यथा; स्वामिद्रोह: – स्वामी का द्रोह; भवेत् – हो जाएगा।
भावार्थ
सर्वत्र व्याप्त भगवान श्रीहरि सत्य और सम्यक विचारधारा वाले हैं। इस कारण, वे फल देने के मामले में किसी प्रकार से अन्यथा कार्य नहीं करेंगे। अतः हमें सदैव प्रभु की आज्ञा के अनुसार ही सेवा करनी चाहिए। यदि ऐसा न किया जाए, तो यह स्वामीद्रोह के समान एक बड़ा अपराध होगा।
टीका
भगवान, जो ‘विष्णु’ रूप में बाह्य और आभ्यंतर रूप से सर्वव्यापक हैं, अपने अन्तर्यामित्व के कारण प्रत्येक जीव के भीतर प्रविष्ट रहते हैं। उनके सत्य और समर्पणयुक्त स्वभाव के अनुसार, वे अपने कर्तव्यों और दायित्वों से कभी विचलित नहीं होते।
श्रीहरि का धर्म सत्यसमल्प होना है। इसका अर्थ है कि वे अपने सत्य और नियम के अनुसार कार्य करते हैं और इसमें किसी प्रकार की चूक या विलम्ब भी नहीं होता। इसीलिए हमें हर समय प्रभु की आज्ञा का पालन करना चाहिए।
यदि किसी सेवक ने स्वामी की आज्ञा का पालन नहीं किया, तो यह स्वामीद्रोह के गंभीर अपराध के रूप में गिना जाएगा। सेवा करने वाले का धर्म यह है कि वह प्रभु की आज्ञा का पालन करे। वहीं, प्रभु अपने स्वामित्व और धर्म के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। इस प्रकार, यह सिद्ध किया गया है कि भगवान की आज्ञा पालन करना न केवल सेवक का कर्तव्य है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि प्रभु अपनी कृपा और आशीर्वाद के साथ सेवक का उद्धार करेंगे।
यह दृष्टिकोण हर भक्त को श्रीहरि की सत्यस्वरूपता और उनकी आज्ञाओं के प्रति पूर्ण निष्ठा की प्रेरणा देता है। सेवा और समर्पण का यह पथ ही भक्त और स्वामी के पवित्र संबंध का प्रतीक है।
श्लोक ५।१
सेवकस्य – सेवक का; तु – तो; अयं – यह; धर्म: – धर्म (अस्ति – है); स्वामी – स्वामी; स्वस्य – अपना; करिष्यति – करेंगे।
भावार्थ
सेवक का धर्म केवल यही है कि वह श्रीहरि की आज्ञानुसार ही कार्य करे। क्योंकि प्रभु स्वामी हैं, और वे अपने भक्तों के सभी कार्य स्वयं पूर्ण करेंगे।
टीका
यदि सेवक अपने धर्म का पालन करता है, तो उसका स्वामी भी अपने धर्म का निर्वाह करता है। प्रभु अपने स्वामीपने के अनुसार अपने सेवक का कल्याण करते हैं। इस सम्बन्ध में, यह भी समझना चाहिए कि प्रभु और सेवक का आपसी संबंध आत्मीयता का है।
प्रभु जो कुछ भी करते हैं, वह केवल भक्त के हित के लिए होता है। इस तथ्य को आत्मसात कर लेना ही सेवक का धर्म है। सेवक को सदैव यह विचार करना चाहिए कि वह प्रभु का सेवक है और प्रभु ही उसके स्वामी हैं।
इस विचार को और स्पष्ट करने के लिए, श्रीमहाप्रभु अपनी अख्यायिका के माध्यम से यह शिक्षा देते हैं कि सेवक को अपने धर्म का पालन करते हुए यह विश्वास बनाए रखना चाहिए कि उसका स्वामी, श्रीहरि, सत्य, समर्पित और भक्त के प्रति पूर्णतः हितकारी हैं। यह विचार भक्ति और समर्पण के मार्ग में सेवक को स्थिरता प्रदान करता है।
इस प्रकार, यह सिद्ध होता है कि प्रभु का आदेश ही सेवक का धर्म है, और प्रभु स्वाभाविक रूप से अपने सेवक के सभी कार्यों का पालन कर, उसे उसका फल प्रदान करेंगे। यही श्रीमहाप्रभु का उपदेश है, जो सेवकों के लिए एक मार्गदर्शन है।
श्लोक ५।२ - ७।१
पूर्वं – पहले; तु – तो; गङ्गासागरसङ्गमे – गङ्गा-सागर के संगम में; या – जो; आज्ञा – आज्ञा; जाता – हुई; पश्चात् – पीछे; मधुवने – मधुवन में; अपि – भी; या – जो; जाता – हुई। तद् द्वयं – वह दो; मया – मेरे द्वारा; न – नहीं; कृतं – किया। देहदेशपरित्याग: – देह-देश का परित्याग; तृतीय: – तीसरा; लोकगोचर: – लोक में प्रसिद्ध (परित्याग – संन्यास)। अहं – मैं; सेवक: – सेवक हूँ; अन्यथा – और कुछ; न – नहीं; तत्र – वहाँ; पश्चात्ताप: – पश्चात्ताप; कथं – क्यों।
भावार्थ
प्रथम गङ्गासागर के संगम पर देह परित्याग की आज्ञा हुई थी, और इसके बाद मधुवन में देश परित्याग की दूसरी आज्ञा मिली। इन दोनों आज्ञाओं का मैंने पालन नहीं किया। परंतु तीसरी आज्ञा—लोक में प्रसिद्ध सन्यास ग्रहण करके गृह का परित्याग करने की—का पालन किया। इसलिए, यह विचार करना कि प्रभु मुझे त्याग देंगे, केवल दो आज्ञाओं के उल्लंघन के कारण, अनुचित है। मेरा विश्वास यह है कि मैं प्रभु का सेवक हूँ, और किसी भी परिस्थिति में अत्याज्य हूँ। अतः, मुझे पश्चात्ताप करने की आवश्यकता नहीं है।
टीका
गङ्गासागर में और मधुवन में मिली दो आज्ञाओं का उल्लंघन हुआ था, क्योंकि प्रभु ने मुझे श्रीभागवत के गूढ़ार्थ और अपने स्वरूप का प्रकाश करने की पूर्व आज्ञा दी थी। इन कार्यों को पूरा करने के लिए मैं पहले की दो आज्ञाओं का पालन नहीं कर सका। अगर मैंने देह और देश का परित्याग किया होता, तो इन महत्वपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति संभव नहीं होती।
अब तीसरी आज्ञा—गृह त्याग और सन्यास ग्रहण—का पालन करते हुए मुझे यह अहसास हुआ कि मैं प्रभु का सेवक हूँ, और उनकी आज्ञा का अनुसरण करना मेरा धर्म है। स्वामी की आज्ञा को उल्लंघन करना सेवक का अपराध है, लेकिन जब तीसरी आज्ञा का पालन किया, तो पूर्व की दो आज्ञाएँ भी अप्रत्यक्ष रूप से पूर्ण हुईं। अतः मुझे पहले के उल्लंघन का पश्चात्ताप नहीं करना चाहिए।
भगवान का अङ्गीकार सेवक के लिए अडिग रहता है, चाहे दो आज्ञाओं का उल्लंघन हुआ हो। यदि फल में विलम्ब होता है, तो इसे भगवान द्वारा दिए गए दण्ड के रूप में स्वीकार करना चाहिए। उनके अङ्गीकार की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि उन्होंने तीसरी आज्ञा दी।
यद्यपि दो आज्ञाओं का उल्लंघन हुआ है, और इससे प्रभु की अप्रसन्नता संभव हो सकती है, फिर भी उनके अङ्गीकार के कारण सेवक को भय नहीं होना चाहिए। श्रीमहाप्रभु इस शंका के समाधान के लिए विचार और उपदेश देते हैं, ताकि सेवक का मन प्रभु की कृपा पर स्थिर और निश्चल रहे। यह विचार भक्तों के लिए आश्वासन और प्रेरणा का स्रोत है।
श्लोक ७।२ - ८।१
कृष्ण: – श्रीकृष्ण को; लौकिकप्रभुवत् – लौकिक स्वामी की तरह; कदाचन – कभी भी; न – नहीं; द्रष्टव्य: – देखना चाहिए। भक्त्या – भक्ति से; सर्वं – सब कुछ; समर्पितं – समर्पित; कृतार्थ: – कृतार्थ; असि – हो; सुखी – सुखी; भव – बनो।
भावार्थ
मेरा विश्वास है कि मैं केवल प्रभु का सेवक हूँ और इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। यदि फल देने में विलम्ब होता है, तो मुझे पश्चात्ताप करने का कोई कारण नहीं है। श्रीहरि को किसी लौकिक स्वामी के समान चलचित्त मानना उचित नहीं। मैंने आत्मा सहित अपनी समस्त वस्तुओं को भक्ति के माध्यम से प्रभु को समर्पित किया है। इस कारण मुझे कृतार्थ होना चाहिए और पहले की तरह सुखी रहना चाहिए।
टीका
यह विचार प्रस्तुत करने के लिए कहा गया है कि प्रभु किसी लौकिक स्वामी की तरह नहीं हैं जो सेवक का अपराध होने पर उसे त्याग दें। श्रीकृष्ण ऐसे स्वामी नहीं हैं जो अङ्गीकृत को छोड़ दें। लौकिक स्वामी की प्रकृति प्राकृत होती है, जहां अङ्गीकार अस्थायी होता है। लेकिन प्रभु अलौकिक स्वामी हैं, जिनका अङ्गीकार काल के तीनों आयामों में स्थायी है।
प्रभु की कृपा में विश्वास करते हुए, भक्त ने समर्पण किया है, जो भक्तिमार्ग का सार है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भक्त को कृतार्थ समझना चाहिए, क्योंकि उसने साधन और फल के लिए समर्पण किया है। यह चिन्ता का विषय नहीं है। मन को सभी द्वन्द्वों से मुक्त कर सुखी हो जाना ही उचित है।
यहाँ प्रभु के अङ्गीकार की नित्यता पर जोर दिया गया है। यदि फल देने में विलम्ब होता है, तो उसे दण्ड या परीक्षा के रूप में मानना चाहिए। यह दृष्टान्त सेवक के विश्वास को मजबूत करने के लिए दिया गया है कि भगवान के अङ्गीकार में कोई संदेह नहीं होना चाहिए। यह विचार न केवल भक्त के धर्म को स्पष्ट करता है, बल्कि उसे सुख और संतोष का मार्ग भी प्रदान करता है। प्रभु की कृपा से भक्त सदैव सुरक्षित है। इसी सन्देश को इस अध्याय में स्थापित किया गया है।
श्लोक ८।२ - ९।१
यद्वत् – जैसे; प्रौढा – बड़ी; अपि – भी; दुहिता – पुत्री; स्नेहात् – स्नेह के कारण; वरे – पति के पास; न – नहीं; प्रेष्यते – भेजी जाती। तथा – वैसे ही; देहे – देह के विषय में; न – नहीं; कर्तव्यं – करना चाहिए। अन्यथा – नहीं तो; वर: – पति; न – नहीं; तुष्यति – संतुष्ट होता है।
भावार्थ
हे अन्तःकरण! जैसे कई अज्ञानी माता-पिता स्नेहवश अपनी पुत्री, जो अपने पति के घर जाने योग्य हो चुकी है, उसे वहाँ भेजने में विलम्ब करते हैं, वैसे ही तू भी देहत्याग के विषय में विलम्ब न कर। यदि देरी करेगा, तो प्रभु प्रसन्न नहीं होंगे।
टीका
जब पुत्री विवाह योग्य और पति के सभी कार्यों में सक्षम हो जाती है, तब भी माता-पिता उसे बालक समझकर, स्नेहवश, पति के घर भेजने से कतराते हैं। वे सोचते हैं कि वह वहाँ कार्यों में थकान या क्लेश का अनुभव करेगी। लेकिन इस व्यवहार से उसका पति अप्रसन्न हो सकता है।
इसी प्रकार, यदि देह के प्रति अत्यधिक स्नेह रखकर, उसे प्रभु के कार्य में नहीं लगाया जाए, तो प्रभु अप्रसन्न होंगे। जैसे एक पुत्री, यदि बड़ी होकर अपने पति के घर न जाए, तो उसका पति असंतुष्ट रहता है, वैसे ही देह को भगवान की सेवा में लगाए बिना, स्नेहवश, उसे बचाए रखना भगवान की अप्रसन्नता का कारण बन सकता है।
देह को प्रभु के कार्य में लगाना अनिवार्य है। अतः देह के प्रति ऐसा स्नेह न करें, जो प्रभु की सेवा में बाधा डाले। प्रभु की आज्ञा का पालन करना सेवक का धर्म है। यद्यपि भगवान की आज्ञा को समझने और पालन करने में हठ उचित नहीं है, फिर भी श्रीभागवत के अर्थ को प्रकट करने के प्रभु के अभिप्राय के कारण यह संभव है कि फल प्रदान करने में विलम्ब हो।
श्रीभागवत के गूढ़ अर्थ का प्रकाशन प्रभु की इच्छा का हिस्सा है, और इससे यह समझा जा सकता है कि फल में विलम्ब उनकी मर्जी से ही है। ऐसे संदेह को दूर करते हुए यह उपदेश दिया गया है कि सभी सेवकों को अपने कर्तव्य में स्थिर रहना चाहिए और प्रभु की प्रसन्नता के लिए कार्य करना चाहिए। प्रभु की आज्ञा ही सर्वोपरि है।
श्लोक ९।२ - १०।१
लोकवत् – लोक की तरह; चेत् – यदि; मे – मेरी; स्थिति: – स्थिति; स्यात् – हो; किं – क्या; स्यात् – हो; इति – यह (त्वं – तुम); विचारय – विचार करो। अशक्ये – असंभव में; हरि: – श्रीकृष्ण; एव – ही; अस्ति – हैं; मोहं – मोह को; मा – मत; गा: – प्राप्त हो।
भावार्थ
हे अंतःकरण, यदि मेरी स्थिति अन्य लोक की भांति होती, और केवल लौकिक उत्कर्ष के लिए होती, तो क्या परिणाम होता? यह विचार करना अनिवार्य है। प्रभु की प्रसन्नता को त्यागकर लौकिक लाभ प्राप्त करने का कोई औचित्य नहीं है। श्रीहरि, जो अशक्य कार्यों में भी पूर्ण पुरुषार्थ सिद्ध करते हैं, हमारी चिंताओं को नष्ट करने वाले हैं। अतः किसी भी प्रकार की मोहात्मक विचारधारा को स्थान मत दो।
टीका
यदि मेरी स्थिति केवल लौकिक समाज के समान होती, तो उस स्थिति का लाभ सीमित और अस्थायी होता। इसके विपरीत, भगवान श्रीहरि का उद्देश्य गहराई से भक्तों के पापों और कष्टों का नाश करना है। इस तथ्य को आत्मसात करने के लिए, अपने विचारों को भटकाने वाले मोह से बचना आवश्यक है।
जैसे जैमिनि और व्यास जैसे महान मनीषियों ने वेद के अविरोधी मीमांसा का ज्ञान दिया और उनकी लोक में प्रशंसा हुई। यदि मैं श्रीमद्भागवत के अर्थ को प्रकट करता हूँ और यह कार्य वेदादि के अनुसार होता है, तो मेरी भी लोक में बड़ाई हो सकती है। लेकिन यह केवल लौकिक प्रशंसा होगी, जो अलौकिक फल के सामने अत्यंत गौण है। क्योंकि स्वमार्गीय यानी भगवदीय फल को देखते हुए मुक्ति जैसे फल भी गौण माने जाते हैं, तो लौकिक फल की गिनती ही कहाँ होती है?
यदि संसार में आसक्त लोग अपने-अपने स्वभाव के अनुसार विभिन्न शास्त्रों का अनुसरण करते हुए मेरी स्थिति को सामान्य मानें, तो क्या स्थिति होती? यह विचार करने पर स्पष्ट होता है कि मेरी स्थिति हमेशा से भगवान की कृपा से भिन्न और उत्कृष्ट रही है।
यद्यपि दो आज्ञाओं का पालन न करने का संदेह हो सकता है, फिर भी यह निश्चित है कि भगवान हरि, जो भक्तों के रक्षक और उनके पापों के हरने वाले हैं, ऐसे प्रभु की कृपा मेरे साथ है। मोह को स्थान देने के बजाय, यह विचार कर कि भगवान का अङ्गीकार और उनका मार्ग हमेशा से मेरे लिए अनुकुल रहा है।
इन विचारों के उपसंहार के माध्यम से, श्रीमहाप्रभु जीवन की गहनता और प्रभु की कृपा के महत्व को दर्शाते हैं। यह संदेश समर्पण और भक्ति की स्थिरता के लिए प्रेरणादायक है। प्रभु की कृपा निष्ठा और विश्वास के साथ हर भक्त को उनके आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ाती है।
श्लोक १०।२ - ११।१
श्रीकृष्णदासस्य – श्रीकृष्ण के दास के; वल्लभस्य – श्रीवल्लभ के; चित्तं – चित्त के; प्रति – प्रति; इति – यह; हितं – हितकारी; वच: – वचन। यत् – जो; आकर्ण्य – सुनकर; भक्त: – भक्त; निश्चिन्ततां – निश्चिन्तता को; व्रजेत् – प्राप्त करे।
भावार्थ
श्रीहरि के दास, श्रीवल्लभाचार्यजी के अन्तःकरण के प्रति यह हितकारी और यथार्थ वचन हैं। इन वचनों को सुनकर भक्तजन चिंतारहित और शांत हो जाते हैं।
टीका
यह स्पष्ट किया गया है कि ये वचन श्रीकृष्ण के दासों को सुख और शांति प्रदान करने के लिए हैं। ये भगवान और भक्तों के प्रिय श्रीमद्वल्लभाचार्यजी के चित्त के प्रति हैं, जो भक्तों को निश्चिन्तता का अनुभव कराते हैं।
इस ग्रंथ में निम्नलिखित सिद्ध हुआ:
- श्रीआचार्यजी-महाप्रभुजी ने भगवान की आज्ञा का उल्लंघन किया, लेकिन यह दृष्टान्त वैष्णवों को सिखाने के लिए है कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन न करें।
- जीव स्वभाव से ही दोषयुक्त होता है, लेकिन समर्पण से वह उत्तम हो जाता है। भगवान की विशेष कृपा होते हुए भी अहंकार नहीं करना चाहिए।
- भगवान सत्य और समर्पण के प्रति अडिग हैं। उनकी इच्छा समझ पाना कठिन है। अतः उनकी आज्ञा का पालन करना ही सही है। उनके आदेश का उल्लंघन स्वामिद्रोह और एक गंभीर अपराध है।
- सेवक को यह विश्वास रखना चाहिए कि प्रभु अपने सेवकों के लिए वही करेंगे जो उनके लिए उचित और आवश्यक है।
श्रीआचार्यजी द्वारा दो आज्ञाओं का उल्लंघन हुआ, जिससे उन्होंने पश्चात्ताप किया। यह शिक्षित करता है कि हमें आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
- लौकिक स्वामी की तरह भगवान अपने सेवकों को अपराध के कारण नहीं त्यागते। उनका अङ्गीकार नित्य होता है। समर्पण के साथ, कृतार्थता प्राप्त होती है और इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए।
- देह पर स्नेह नहीं करना चाहिए। इसे प्रभु की सेवा में लगाना ही उचित है। जैसे प्रौढ़ पुत्री को उसके वर के पास भेजना चाहिए, वैसे ही देह को प्रभु की सेवा में लगाना चाहिए। अगर ऐसा न किया जाए, तो प्रभु प्रसन्न नहीं होंगे।
- देह भगवान की सेवा के लिए दी गई है। इसे सेवा में न लगाना, लौकिक दृष्टिकोण के समान होगा।
- यदि सेवा में बाधा आती है, तो प्रभु ही रक्षक हैं। इस विश्वास को बनाए रखना आवश्यक है।
इस उपदेश से यह स्पष्ट होता है कि भक्त के लिए प्रभु की आज्ञा और उनकी कृपा ही सर्वोपरि है। यही भक्ति का मार्ग है।
अस्वीकरण और श्रेय
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संदर्भ सूची
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