मंगलाचरण का उद्देश्य भक्ति, श्रद्धा और समर्पण की भावना के साथ शुभारंभ करना है।

पुष्टिमार्गीय जीवन की भगवद्भक्ति या भगवत्प्रपत्ति से सम्बंधित एक चिंता में उत्पन्न होने वाली दूसरी चिंता को हरने वाले, जिनके चरणकमलों की रज संपूर्ण संतति के लिए कल्याणकारी है, उन पुष्टिमार्गाचार्य श्रीमहाप्रभु को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ।

जन्म लेकर सांसारिक दुखों के सागर में डूबने वाला जीव, जो उनकी कृपा से सभी दुखों से बच जाता है, ऐसे श्रीमद्वल्लभाचार्य महाप्रभु के आत्मज को मैं सर्वदा वंदन करता हूँ।

जिन्होंने अज्ञानरूपी अंधकार से अंधे हुए मेरे जैसे लोगों की आंखों को ज्ञानांजन की उपदेश-शलाका से खोल दिया है, ऐसे गुरुओं को मेरा नमस्कार!

शेषशय्या पर, अथवा शेषरूप हृदय में, लक्ष्मी की अपरिगणित लीलाओं से सेव्यमान; अथवा सहस्रों लक्ष्मीरूप पुष्टिभक्तों द्वारा की जाने वाली लीलाओं से सेव्यमान, लीलामें एवं क्षीराब्धि में विराजमान; अथवा लीलारूप क्षीराब्धि में स्थित, चौंसठ कलाओं के निधि, ऐसे दशमस्कन्धोक्त-लीलाविहारी प्रभु को नमन करता हूँ। दशम स्कंध के आरंभ के चार अध्याय ‘जन्मप्रकरण’ कहे जाते हैं। पाँचवें अध्याय से पैंतीसवें अध्याय तक द्वितीय प्रकरण है, जिसमें तामसप्रमाण, तामसप्रमेय, तामससाधन और तामसफल के चार उपप्रकरण हैं। छत्तीसवें अध्याय से तिरसठवें अध्याय तक तृतीय प्रकरण है, जिसमें राजसप्रमाण, राजसप्रमेय, राजससाधन और राजसफल के चार उपप्रकरण हैं। चौंसठवें अध्याय से चौरासीवें अध्याय तक चतुर्थ प्रकरण है, जिसमें सात्त्विकप्रमेय, सात्त्विकसाधन और सात्त्विकफल के तीन उपप्रकरण हैं। पचासीवें अध्याय से नब्बे अध्याय तक पंचम गुणप्रकरण है। इन पाँच प्रकरणों में वर्णित लीलाओं को करने वाले प्रभु मेरे हृदय में विराजमान हैं, उनको नमन करता हूँ।

  • श्रीगोवर्धननाथजी
  • श्रीनवनीतप्रियजी
  • श्रीमथुराधीशजी
  • श्रीविट्ठलनाथजी
  • श्रीद्वारकाधीशजी
  • श्रीगोकुलनाथजी
  • श्रीगोकुलचन्द्रमाजी
  • श्रीमदनमोहनजी
  • श्रीनटवरलालजी
  • श्रीबालकृष्णलालजी

इतने स्वरूप प्रभुचरण श्रीगुसांईजी के घर में एक साथ विराजमान होकर, सातों बालक, बेटीजी और बहुजी के साथ मिलकर श्रीप्रभुचरण को अलौकिक सेवा-सुख प्रदान कर रहे थे। मैं इस दिव्यता से आनंदित होकर नित्य इन स्वरूपों का ध्यानात्मक भजन करता हूँ।


श्रीमद्वल्लभाचार्य महाप्रभु, श्रीविट्ठलनाथ प्रभुचरण, श्रीगिरिधरजी, श्रीगोविन्दरायजी, श्रीबालकृष्णजी, श्रीगोकुलनाथजी, श्रीरघुनाथजी, श्रीयदुनाथजी, श्रीघनश्यामजी; तथा उनके वंशज, श्रीयमुनाजी, अष्टाक्षरमंत्र एवं ब्रह्मसम्बन्धमंत्र प्रदान करने वाले गुरु, श्रीगोवर्धनगिरि, अपने दीक्षादाता गुरु के सेव्यस्वरूप और निज सेव्यस्वरूप का स्मरण।

श्रीमस्तक पर मयूरपिच्छ का स्तबक धारण किए हुए, नट और वर के रूप में दिव्य वपु को धारण कर, कानों में कनेर के पुष्पों को सजाए हुए, कनकवर्ण वस्त्र और वैजयन्ती वनमाला से अलंकृत, अपने अधरों पर सुधा समान वेणु को बजाते हुए, संग में गोपबालकों के साथ, जिनकी कीर्ति का गान निरंतर होता है—ऐसे प्रभु अपने भक्तिरूप चरणकमलों से वृन्दावन को रमणीय बनाते हुए वहाँ प्रविष्ट हो गए।

सर्वरसभोता कृष्ण के भीतर स्वरूपानंद का दानार्थ गूढ़ भोग्यभावात्मक सौंदर्य विद्यमान है। इसी प्रकार, अपने स्वरूपानंद के उपभोगार्थ स्वामिनी रूप में भगवत्स्वरूपानंद के उपभोग के भाव का गूढ़ भोक्‍तृभावात्मक सौंदर्य भी है। यह गूढ़ सौंदर्य भगवान में भोग्यभावात्मक और स्वामिनी में भोक्‍तृभावात्मक रूप में उपस्थित रहता है, जो आत्यंतिक रसोद्बोधन की अवस्था में कभी-कभी प्रकट होकर उच्छलित होता है, अन्यथा गूढ़ ही रहता है।

इस गूढ़ सौंदर्य का उच्छलन रसात्मिका लीला के साक्षी स्वरूप को पात्रतया अवलंबित करता है। रसलीला में उच्छलित गूढ़ भावात्मक भगवत्सौंदर्य और स्वामिनी सौंदर्य के मिश्रण से प्रकट रसात्मक कृष्ण के प्रिय पात्र बनने के कारण—

  • गूढ़ स्त्री (भोग्य) भाव
  • गूढ़ पुं (भोक्‍तृ) भाव
  • साक्षी भाव

यह त्रितयात्मक रूप सदैव ही पुष्टिजीवन को निरतिशय प्रिय रहता है और सर्वोत्कृष्ट अभिध्यान हेतु योग्य है।


लौकिक पुष्टिभक्ति के कमल को खिलाने वाले, श्रीमहाप्रभु के समान, श्रीगोपीनाथजी तेजोराशि और भक्तिमार्ग के सूर्यस्वरूप हैं। आप दया के समुद्र हैं और भक्ति-कमल के प्रस्फुटन में आधारस्वरूप हैं। प्राकृत गुणों से अतीत, अस्पर्श और अलौकिक पुष्टिभक्ति-मार्गीय गुणों के निधिरूप हैं। विरुद्ध धर्मों के आश्रय के संदर्भ में कहा गया है कि आप श्रीवल्लभ के प्रतिनिधि हैं, जिन्हें शास्त्र वचन “आत्मा वै जायते पुत्र:” के अनुसार वर्णित किया गया है। ऐसे दिव्य श्रीगोपीनाथजी को मैं सादर अपना आश्रय करता हूँ।

सायंकाल में कुञ्जभवन में आसन पर विराजमान, सकंध्यावन्दन हेतु जिनके सम्मुख स्वर्णपात्र सजे हुए हैं। कटि में सुंदर धोती धारण की हुई है, यज्ञोपवीत श्रीअंग पर शोभायमान है। ऊपरनाहु ओढ़े हुए, मुखारविन्द गौरवर्ण, प्राणायाम के लिए नासापुट पर श्रीहस्त रखा हुआ है। कर्णपुट में विशिष्ट मुक्तिका शोभायमान है, नेत्र ध्यान में अर्धोन्मीलित हैं। ललाट पर मृगमद का तिलक धारण किया हुआ है। श्रीमस्तक पर सुंदर केशावली विराजमान है। ऐसे श्रीविट्ठलनाथ प्रभुचरण को मैं वंदन करता हूँ।